Book Title: Aagam 40 Aavashyak Choorni 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] श्री आवश्यक सूत्रम् (उत्तरभागः) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीमानंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः “आवश्यक” निर्युक्ति एवं चूर्णि: [ भाग:-२] [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् निर्युक्ति; + भाष्यं + जिनदासगणि रचिता चूर्णिः] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुन: संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) 01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 (1) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [-] मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [-] भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 श्रीमद्गणधर गौतमस्वामिसंदृब्धं श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसूत्रितनिर्युक्तियुतंश्रीमजिनदास गणिमहत्तर कृतया चूर्ष्या समेतं - श्रीमदावश्यकसूत्रं (उत्तरभागः ) प्रकाशिका - जामनगरवास्तव्य श्रेष्ठिधारशी भाई देवराजस्य सद्गतसुपुत्रलक्ष्मी चन्द्रस्य स्मरणार्थ तत्सुपुत्र चुनीलालेत्यनेन कृतेनार्थसाहाय्येन श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था रतलाम. मुद्रविता -- इन्दौर नगरे श्रीजैनबन्धुमुद्रणालयाधिपः श्रेष्ठी जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा. वीरसंवत् २४५५ विक्रमसंवत् १९८६ क्राइस्टसन १९२९ आवश्यकसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" (2) ग्राहकाणां पण्यं ३-०-० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक चूर्णे: मूल संपादने लिखित: विषयानुक्रमः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 आवश्यक उत्तराध ॥ अथावश्यकोत्तरार्धक्रमः || २५ गमात्रे कर्त्तव्यता १ सामायिकाध्ययनेन संबन्ध: २८ ज्ञानदर्शनपक्षी ३५ नित्यवासादिषु संगमकवा चतुर्विंशतिस्तवयोर्निक्षेपाः २ द्रव्यस्त शुभानुबन्धो निर्जरा च १३ लोकनिक्षेपाः tato | ४१ वन्दनकसंख्याऽऽवर्त्ता दोषाश्च धर्मनि० तीर्थनि० करनिक्षेपाः ४५ वन्दनकसूत्रव्याख्या ९ ऋषभादिनामान्वर्थः १२ जिनभक्तिफलं १०२ संयत पारिष्ठापनिकी ११२ लेश्यापटक ११६ ब्रह्मचर्यगुप्तयः स्वाम्यरिकापुत्रोदायनदृष्टान्ताः ११८ आबकप्रतिमाः वन्दनकाध्ययनम्. १४ वन्दनका दिपु शीतलुङक कृष्णसेवकशाम्बष्टान्ता: प्रतिक्रमणाध्ययनं ५२ प्रतिक्रमणशब्दार्थादि ५४ प्रतिक्रमणादिषु दृष्टान्ताः ७३ शयनविधिः ७५ अतिक्रमादिस्वरूपं १९ अवन्दनीयाः ८१ भ्यानाधिकारः २९ चम्पकप्रियकथा द्विजपुत्रकथा च ८७ क्रियाभेदा: २३ दोषगुणानां संसर्गजत्वं ९६ पारिष्ठापनिकीस्वरूपं १२२ भिक्षुप्रतिमाः १२७ क्रियास्थाननि १३२ गुणस्थानानि १४० परीपा १४३ भावनाः १४९ मोहनीयस्थानानि १५२ योगसंमहाः २१२ आशावनाः २१७ अस्वाध्यायिकव्याख्या २४६ कायोत्सर्गाध्ययनं. (3) २४६ द्रव्यभावण २४७ कायोत्सर्गयो निक्षेपाः २४९ कायदा २५१ सूत्राणां व्याख्या २५७ अश्रेयस्तवव्याख्या २५८ श्रुतस्तवव्याख्या २६२ सिद्धस्तवव्याख्या २६३ प्रतिक्रमणविधिः २६८ कायोत्सर्गदोषाः २७१ प्रत्याख्यानाध्ययनं. २७४ श्रावकभंगा: २८२ श्रवकत्रतानि सातिचार १० ३०८ प्रत्याख्यानानिवदृष्टांता ।। इत्यावश्यकोतरार्धक्रमः ॥ まさ क्रमः •••चूर्णि के मूल संपादकने ये अनुक्रम बनाया था इसीलिए जिन स्थानो पर मूल संपादकीय ये 'विषय' आते है, उन सभी पृष्ठो की फ़ूटनोटमें हमने इन सभी विषयो की नोंध कर दी है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाङका: ५०+२१ आवश्यक मल-सत्रस्य विषयानक्रम (भाग-१) दीप-अनक्रमा: ९२ मलांक: अध्ययनं | पृष्ठांक | मुलांक: | अध्ययन पृष्ठांक: नियु | पीठिका » ००७ क्ति | --मंगलं म ००९ 4 न ०१२ । मलांक: अध्ययनं ०१-०२ १-सामायिक ५१८ आवश्यक सटीकं (संक्षिप्त) विषयानुक्रम नि./भा. --उपोदघात-निर्यक्ति: पृष्ठांक ०८१ --वीरआदिजिनवक्तव्यता । १३४ ३४३ --भरतचक्री-कथानक १८८ भा.०३९ --बलदेव-वासुदेव कथानक २२२ ५४३ --समवसरण वक्तव्यता ३३१ ५८८ --गणधर वक्तव्यता ३३५ ६६६ --दशधा सामाचारी ३४७ ७५४ --निक्षेप, नय, प्रमाणादि । ३८३ --निहह्नव वक्तव्यता ४१७ ७८९ --सामायिकस्वरुपम् ४३६ ८१२ -गति आदि दवाराणि । ४४६ नि./भा. | अध्ययनं-१- सामायिक | पृष्ठांक: ८९० नमस्कार-व्याख्या ५०९ ९१९ अर्हत, सिद्धादे: नियुक्ति: । ५४३ ९६० सिद्धशिला वर्णन ५८९ | आचार्य-आदीनाम निक्षेपा: । ००१ --ज्ञानस्य पञ्चप्रकारा: ०१३ -उपक्रम-आदिः ०८१ ५९८ | | १०१३ | सामायिक- व्याख्या, | उद्देश-वाचना-अनुज्ञा आदिः ----- | सुत्र स्पर्श भगा: सामायिक-उपसंहारः واط मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणि-रचिता चूर्णि:-2 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: ५०+२१ मुलांक: ११-३६ निर्युक्ति / भाष्य अध्ययनं ४ - प्रतिक्रमणं अध्ययनं अध्ययनं-२ सूत्रपाठः, कीर्तनं, प्रतिज्ञा, - अर्हतः विशेषणं, -- ऋषभादि नामानि, अध्ययनं - ३- वन्दनं - गुरुवन्दन सूत्रपाठः -मितावग्रह प्रवेशयाचना - क्षमापना प्रतिक्रमण पृष्ठांक ०५८ पृष्ठांक: ००७ ००९ ००९ ०१५ ०२० ०५१ ०५३ ०५४ प्र आवश्यक मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम (भाग-२) मूलांक: पुष्ठांक ०३-०९ ००७ ३७-६२ २५१ अध्ययनं २- चतुर्विंशतिस्तवः ५- कायोत्सर्ग आवश्यक सटीकं (संक्षिप्त ) विषयानुक्रम अध्ययनं नि./भा. पृष्ठांक: अध्ययनं-४ - प्रतिक्रमणं नमस्कार व सामायिक सूत्रं चत्वारः लोकोतम मङ्गल एवं ----शरणभूत संक्षिप्त व ईर्यापथ शयन संबंधी प्रतिक्रमणं भिक्षाचर्यायाः प्रतिक्रमणं स्वाध्याय, असंयम आदि ३३ सूत्रोच्चारणे मिथ्यादुष्कृतम् प्रवचनस्तुति, वंदना, ०५८ ०७४ (5) ०७४ ०७८ ०७९ ०८० ०८१ ०८२ २२३ २४८ मूलांक: १०. -- ६३-९२ नि./भा. दीप- अनुक्रमाः ९२ अध्ययनं ३ - वंदनकं ६- प्रत्याख्यानं अध्ययनं अध्ययनं ५- कायोत्सर्गः सूत्रपाठः, कायोत्सर्गस्थापना श्रुतस्तव, सिद्धस्तवादि अध्ययनं -६- प्रत्याख्यानं सम्यक्त्व एवं श्रावकव्रतप्रतिज्ञा विविध प्रत्याख्यानादिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणि-रचिता चूर्णि:- 2 पृष्ठांक: ०२० २७७ पृष्ठांक: २५१ २५६ २६४ २७७ २८१ ३१९ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आवश्यक-चूर्णि] इस प्रकाशन की विकास-गाथा] यह प्रत सबसे पहले “आवश्यकसूत्र (पूर्वभाग)" के नामसे सन १९ २९ (विक्रम संवत १९ ८६) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है, मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है। +- हमारा ये प्रयास क्यों? -* आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके| हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगम चूर्णि के प्रकाशनो में भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था , परंतु चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक-समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कई नियुक्तियां और भाष्य दिखाई नही देते, कोइ-कोइ नियुक्ति या भाष्य के शब्दो के उल्लेख है, उनकी चूर्णि भी है पर उस नियुक्ति या भाष्य स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहि देते । इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है । हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है, नियुक्ति तथा भाष्यो के क्रम भी इसी तरह साथमे दिये है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मनि दीपरत्नसागर. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [...] दीप अनुक्रम [२...] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि :) निर्युक्ति: [१०६७-१११३ / १०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 अध्ययनं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र चतुर्विंशतिस्तव चूण ॥ १ ॥ मूलं [१... ] / [ गाथा १-७ ], ॥ श्रीजिनदासगणिमहत्तरकृताया आवश्यकचूर्णरुत्तरार्धम् ॥ भणितं सामाइयज्झयणं, इदाणिं चउवीसत्थयादीणि भण्णंति, येन सामायिकव्यवस्थितेन पत्तकालं उक्किसणादीणिवि अवस्सकाव्याणि तत्थ सामाइयाणंतरं चउवीसत्थओ भण्णति, अस्य चायमभिसम्बन्धः - येरेव तत्सामायिकमुपदिष्टं (तैरिदमपि तेषां परमा भक्त्या गुणसंकीर्तन वा द्रष्टव्यमिति, अहवा तस्स सामाइये ठितस्स के पूज्या मान्याच १, ये ते सामायिकोपदेष्टारः ते पूज्या मान्याश्रेति तेषां समुत्कीर्तना अनेन वा संबंधेन चतुर्विंशतिस्तवस्यावसरः संप्राप्तः अस्य च समुत्कीर्त्तनाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि, जथा नगरस्य, तंजधा उबक्कमो निक्खेवो अणुगमो गयो, एतं नेतव्यं जथा पेढिताए उवक्कमो छब्विहोविणिक्खेवो तिविहो वण्णेतव्यो, नामनिष्फण्णा चउवसित्थउत्ति, सुत्तालावगनिष्फण्णो निक्खेवो 'लोउज्जोयकरो' त्ति, तत्थ ताव पढमं नामनिष्कण्णो भण्णतिचवीसं धवं च चउवीसंति संखा, तत्थ निक्खेवो नामच उब्बीसाठवणच० दव्वच० खेचच० कालच० भावचउब्बीसा, दो मताओ, दव्यचउच्चीसा तिचिहा सचित्ता आमाणं चतुव्विसा, अचित्ता करिसावणाणं, मीसिया वंभियगुडियाणं हत्थीर्ण, अहवा •••अत्र आवश्यक सूत्रस्य द्वितियम् अध्ययनम् आरभ्यते •••सामायिकस्य चतुर्विंशति सह संबंध: •••• चतुर्विंशतेः नामादि निक्षेपाः (7) प्रस्तावला ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसू अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत तिस्तव सूत्रांक ||१-७|| दीप चतुर्विंश- दुपदाणं चउप्पदाणं अपदाणं च विभासा, खेचचउचीसा चउवीसं खेचाणि, चउवीस वा आगासपदेसा, चउवीसपदेसोगाढं वा स्तदिवं, एवमादि विभासा, कालचउबीसा चउच्चीसवासा एवमादि विभासा, चउबीससमयवित्तियं वा दवं, भाषचउबीसा चउ- निक्षेप: वीसं भावयोगा चउवीसगुणकालगादि विभासा । एत्थ दुपदचउवीसाएवि अधिगारी। | इदाणि धवो, 'ष्टुं स्तुतो', सो थवो चउबिहो, णामट्ठवणाओ गताओ, दयस्थओ पुष्फादीहिं, आदिग्रहणेण पस्थगंधालं-18 M कारादिग्रहण, भावस्थओ संताण गुणाण उक्कित्तणा, जधा-पुरवरकवाडवच्छे फलिहजे दुंदुभीथणितपोसे । सिरियच्छंकितवच्छेल वंदामि जिणे चउब्बीसं ॥१॥ चोर्चासं बुद्धातिसेसा एवमादि, शिष्यमनभिधार्यापि अयमाचार्यः इदमत्रवीत् , आयरिओ * अचोदितस्सपि णिण्णयं भणति, स्यादिति आशंका- इयं ते मतिः स्यात् 'दब्वत्थयो बहुगुणो'त्ति ये एवंचादिणो ते अणि पूणमतिणो, तेर्सि अनिपुणमतीणं वयणं इदं, जथा- दच्चत्थयो बहुगुणोत्ति, कह', जेण छज्जीवहितं जिणा ति, दश्वत्थए तु जीववहोवि दीसतित्ति, पर आह- यदि एवं तो बरं भावत्थयं चव करेमो, होतु दब्बत्थयेणं, आयरिओ भणति-जदि तुम सव्वातो जीववहातो नियचो तो एवं भवतु, पुणो आह- जदिवि अहं सवाओ न नियत्तो तथापि कहं धम्मबुद्धीए जीववह पेक्खंतो दब्बस्थए वट्टिस्सं इति, धम्मबुद्धी जीपबहे विरुजातीत्यभिप्रायः, उच्यते, जो कसिणो छबिहजीवकायसंजमा सा दबत्थए वि. रुज्झति-अजुचो भवति, कसिणो नाम संपुण्णो, जो पुण अकसिणो सो न विरुज्झति पत्तकाले दबत्थये, तेण जे कसिणसंजमविऊ13 लामणी ते पुष्फादीयं न इच्छति, ये पुण अकसिणपबत्तगा-विरताविरता तेसि एस दच्यत्थयो पत्तकालो जुत्तो, अकसिणे पवतेल | अकसिणपवत्तगा, न कहं हिंसात्मकोऽपि युक्तो भविष्यति', भण्णति-संसारपतणुकरणो- संसार पकारसण तय करेति, अनुक्रम [३-९] P ॥२ *** अत्र 'स्तव' शब्दस्य व्याख्या: क्रियते ... द्रव्यस्तवे शुभ-अनुबन्ध: Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ॥१-७|| चूर्णी चतुर्विश-18|कह , एत्थ कूबः दिवतो, जथा नवनगरसंनिवेसादिसु कोई पभूयजलाभावतो तोहाविपरिगता तदपनोदार्थ कूर्व खणंति, तेसिं लोकपद II व्याख्या सच जदिवि तण्हादीया बटुंति मनिककदमादीहि य मइलिजंति तथापि तदुद्भवनवपाणिएण तेसिं तण्हादीया सो य मलो पुब्बगो। सय फिवति, सेसकालं च ते तदने य सत्ता मुहभागिणो भवन्ति, एवं दवत्थये जदिवि असंजमो तहावि ततो चेव सा परिणामसद्धी से भवति जा तं असंजमोवज्जितं अण्णं च णिरवसेस खवतित्ति, तम्हा विरताविरताण एस दवत्थो जुत्तो, सुभाणुबंधी पभूततरनि ज्जराफलो इतिकातूण इति । एवं नामनिष्फण्णो गतो ॥ इदाणिं सुत्तालावगनिष्फण्णो निक्खेको पत्तलक्षणोवि न निक्षेप्पति | लापवत्थ, ततिए अनुयोगदार निक्खिप्पिहिति । इदाणि अणुगमो, निज्जुत्तीअणुगमो जहा हेट्ठा विभासा, मुत्ताणुगमे सुत्तं | अणुगतब्ब अक्वलित एवमादि, तत्थ संहिता य. सिलोगो, तत्थ संहिता . लोयस्सुज्जोयगरे, धम्मतित्थंकरे जिणे | अरहते किडस्सामि, चउवीसंपि केवली ||१|| एतस्स सुत्तस्स आदाणपदेणं लोउज्जोतकरोति नाम भण्णति । इदाणिं पदच्छेदः लोक इति पदं १ उज्जोय इति पयर कर इति पदं३|| धम्म इति पदं तित्थगर इति पदं५ जिण इति पर्द६ अरहंत इति पदं७ कित्तइस्सामिति पदं८ चउवीसति पदं९ अपित्ति पदं १० केवलित्ति | पदं११ एगारसपदं सुतं । इदानि पदार्थः-'लोक दर्शने' लोक्यत इति लोकः, 'धुति दीप्ती' 'धृ धरणे तस्य मत्प्रत्ययांतस्य रूपं धर्म IN इति, दुर्गतिप्रमृतान् जीवान्यस्माद्धारयते ततः । धरे चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ १॥ तु प्लवनतरणयो,'INT३ त्रिभिर्वा अर्थयुक्तं तीर्थ, 'इक करणे' 'जि जये' 'अहे योग्यत्वकीतनसंशब्दने चतुब्बीसंति संखा, अपि पदार्थसंभावने, केवलः17 प्रतिपूर्णत्वे ॥ लोको पंच अस्थिकाया तस्स उज्जोतं करेतीति प्रकटनं करेतीति प्रकाशयतीत्यर्थः तत्तथा, धम्मपहाणो तित्थगरेत्ति CARRite दीप अनुक्रम [३-९] SEASO लोगस्स सूत्रस्य गाथा-१ ... अत्र 'लोक' पदस्य व्याख्या क्रियते Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसू अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ||१-७|| चतुर्विश- धम्मतित्थगरा सान् , तथा रागदोसजयाज्जिनाः तान्, के ते एवंभूता ?- अरहंता- असोगादिपाडिहेरपूजां अरिहंतीति ते का लोकपद व्याख्या अर्हन्तः तान् , कीर्तयिष्यामि- संशब्दयिष्यामि, एतेन तदुत्कीर्तनावश्यकस्य करणाभ्युपगमं दर्शयति, केत्तिए ?- चउव्वीसपि, K IN पुनरपि किंविशिष्टाःकेवली, केवलाणि-संपुष्णागि णाणदरिसणचरणाणि येसि ते केवली तान् । इदाणि पदविग्गहो ॥४॥ यत्थ समासो तत्थ कातग्यो । एत्थ ताच सुत्तफासित भणामो। चालणापसिद्धीओचि भणिहिति । तत्थ पढम पदं लोक इति, द तस्स अट्ठविहो निक्खवो-. नाम ठवणा दविए खेत्ते काले भवे य भावे य । पज्जवलोए य०॥ ११ ॥ ७॥ १०६८॥ नामढवणाओ गयाओ दब्बलोगे जीवमजीवे ॥११॥८॥ तत्थ य काणि य इंदिएहिं लोक्कंति काणि य इंदियवतिरित्तेणं णाणेण अहया पच्चक्खा-1 दीहिं पमाणेहिं । जीवा कह लोक्यन्त ?, लिंग, प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतींद्रियान्तराविकारसुदुक्खेच्छा द्वेषो प्रयत्नश्चेत्यात्मालिंगानि, सामान्य पा लक्षण उपयुक्तवान् उपयुज्यते उपयोक्ष्यते इति च जीवः, तद्विपरीतेन लक्षणेन अजीधा लोक्यते | तत्र जीवा विहा-रुवी अरूबी य, रूबी संसारी अरूबी सिद्धा । देवे ण भंते ! महिडीए (फु) पुष्यामेष रूबी भवित्ता पच्छा अरूवी |% है भवित्तए.' आलावमा भाणितव्वा । अजीवा दुविहा-रुवी पोग्गला अरूवी तिण्णि, जीवा रूबी सपदेसा य कालादेसणं नियमा* 3 सपदेसा लद्धिआदेसेणं सपदेसा वा अप्पदेसा वा, अस्वी कालादेसेणवि लद्धिआदेसणवि सप्पदेसा वा अपदेसा वा अरूवी चा रूवी वा, चउम्बिहो- दब्बओ खत्तओ कालओ भावओ, दव्यओ परमाणू अपदेसो सेसा सपदेसा, खेत्तओ एगपदेसोगाढो अप-3 , देसो सेसा सपदेसा, कालओ एकसमयट्टितिओ अपदेसो सेसा सपदेसा, भावतो एगगुणकालओ अपदेसो सेसा सपदेसा, अहवा -564ESPEAREPERI दीप अनुक्रम [३-९] कार K ***** ... अत्र 'लोक' पदस्य निक्षेपा: दर्शयते (10) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसू अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत लोकपद - व्याख्या सूत्रांक CAR चूणों ||१-७|| CRENCE दीप चतुर्विंशवण्णगंधरसफासेहिं चउहा सपदेस वा अपदेस वा, अरूबीअजीवाण तिष्हं अस्थिकायाणं परनिमित्तं सपदेस वा अपदेस तिस्तव वा, ते चेव जीवा अजीवा य निच्चा अणिच्चा य, लोगोत्ति जीवा चउविहा सादी सपज्जवसिया ४ भंगा, गति सिद्धा भविया ४ीय अमविया य, अहवा दबद्वताए णिच्चा पज्जवट्ठताए अणिच्चा। अजीचे पोग्गला अणागतद्धा य तीतव्य तिणि काया एवं जथा पेदिताय दव्बकाले, अहवा अजीवा दम्बद्वताए णिच्चा, वण्णादिएणं परादेसेण य अणिच्चा एवं विभासा जथाविधि । इदाणि खत्तलोगो, सो केरिसो, तत्थ गाथा आगासस्स पदेसा अहवा उडे तिरियं ॥ ११-१०॥१९९ मा० | खत्तं कह लोकति , छउमत्थो उग्गाहणं दट्टणं जीवाणं पोग्गलाण य , एवं अणुमाणियाए, आलोयणाए जाणाहि खत्तलोग | अणंतजिणपदोसतं सम अवितह, अहवा अणंता मिच्छत्तादीता सांसारिया भावा जिणन्ति अणंतजिणा, अणंता वा जिणा अनन्तजिणा । इदाणि काललोगो, काल एव लोकः,स कही,लोक्यत इति लोका,वर्तमानलक्षणः कालः, परापरत्वन लोक्यत इति लोका, उदाहरणं यथा घटस्य अनुत्पत्तिकालो दृष्टः उत्पत्तिः विगमकालश्च मृत्पिण्डघटकपालत्वे,एवं सर्वद्रव्येषु योज्यं । तत्थ कालनिभागे निज्जुत्तिगाथा-समयावलिय मुहुत्ता दिवस अहोरत्त पक्वमासा य ॥ ११-११ ॥ २०० ॥ भा. समयो अणुमाणेण दीसति, दोधारच्छेदेण उप्पलबेहेण य पट्टसाडियादिङतेण य, सेसो तेण माणेण णालियाए य सूरोदयमज्झण्हत्थमणविभागेहिं, । सेसेसु उवमा विभासितब्बा, वर्तना परिणामः क्रिया परापरत्वे च कालस्य लिंगानि । इदाणि भवलोगो, तत्थ गाथा-णेरड्य देवा तिरिय मणुया०॥ ११-१२ ।। २०१॥ भा. सन्ति चेव परइया, अहो एस णेरइयपडिरूबियं वेदणं वेदेतित्ति लोक्कति, | देवा, अहो एस पुरिसो असुरकुमारोपमो य रूवेणं ललिएण यत्ति । अहवा पच्चक्खितेणं लोकतित्ति पुष्वं भणित । इदाणि भाव * अनुक्रम [३-९] ॥ ५ ॥ RORS (11) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसू अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ||१-७|| तिस्तव | पूर्ण ६ ॥ दीप अनुक्रम [३-९] चतुर्षिश- लोको, सो कहं लोक्कति ?, उदाहरणं, कोहादीणं उदयेण लोक्कति उदइओ, अणुदएणं उपसमिओ, अणुप्पत्तीए खहओ, देसविना लोकपद सिद्धीए खओवसामिओ, परिणवणाए परिणामिओ, संजोगण संनिवाइओ , एस्थति कोवि पच्चक्षण कोवि परोक्रोण । इदाणाला व्याख्या पज्जवलोगो परिस्समंता अयः परि अब इति पर्याय:, सो चउव्यिहो- दन्यस्स गुणा खेत्तस्स य गुणा कालस्स अणुभावो भावस्स परिणामो । दबस्स गुणा एत्थ गाथावण्णरसगंधसंठाण फासठाणगतिवण्णभेदे य । परिणामे य बहुविहे पज्जवलोगं समासेण ॥११-१६||२०५ भा. वण्णस्स भेदा कालगातीता, रस मेदा ५, गंध २ संठाणे परिमंडलादी पंच, फासे कक्खडादी अड, ठाणं ओगाहणा, एगदेसा-15 दिगता फुसणा, चसरेण जचा यण्णभेदा एवं सेसा पदेसभेदा, कालवण्णस्स परिणामो बहुविहाँ एगगुणकालादी,सध्यस्थ विभासा, अहवा परिणामो बहुविहोत्ति सो चेव पसरथो होऊण अपसत्थपरिणामो भवति । इदाणं खेत्तपज्जवा भरहे पज्जवा जाप एर-1 वए, दीवसागरपण्णत्ती वा, उद्दलोगे तिरिए अहोलोगे, अण्णो भणति-पत्तपज्जवा अगुरुलध्वादयः,ते तेन लक्षणेन लोक्यते ।। | इदाणि भवपज्जबलोगो, मेरइयाण अच्छिनिमीलणमे नस्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं । णरए रहयाणं अहोनिसि पच्चमाणात ॥१॥ असुभा उब्धियणिज्जा सहरसरूवगंधफासा य । नेरए नेरइयाणं दुक्कयकम्मोवलित्ताणं ।। २ ।। अहवा सीतादिवेदणाओ पातमि भवे अणुभागो, अहवा जे मुहा पोग्गला पक्खिप्पति तेषि दुक्खताए परिणमंति, जेण वा न मरंति तेण दुक्षेणं, मणुयाण । IIतिरियाणं च वेमाया, देवाणं नारगेहितो विपरीता विभासा । ते एवं लोक्कति । इदाणि भावपरिणामो, सो पसत्थोऽपसत्थो य, पसत्थो णाणादीहि ३, विवरीतो अपसरथो, अहवा जीवो जेण जेण भावेण (12) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ||१-७|| व्याख्या दीप चतुर्विंश- परिणमति, एवं अजीवाणवि पसत्थो अपसत्यो य विमासितब्बो, जथा कालो पोग्गलाण परिणममाणो य २ कालकत्तं जहितूण है तिस्तव नीलो होति एवमादी, सोवि श्वेतलक्षणेन लोक्कति । तस्स लोगस्स एगहिताणि आलोक्कती पलोक्कति १०६९ ॥ गाथा 51 चूणा विभासितव्वा वंजणपरियावण्णा एस लोगो सम्मत्तो। ॥ इदाणं उज्जोतो, उद्योतनं उधोतः,सो दुविहो-दब्चुज्जोतो अग्गिमादि,अहया ये लोगिया विभंगणाणिणो संवाणि करेगा। परमति विमलं करेंति । अप्पणएण य पचियाति, एस दब्बुज्जोतो । नाणं, जथा जिणेहि मणित तहेब जेण उपलब्भति, कई त लाभावुज्जोतो ?. जतो जदा तेसु सम णाणभावेसु उवउचो भवति तदा भावुज्जोतो भवति, उवउत्तो भावोत्तिकातुं, भायो य सोहै। उज्जोतो य भाषुज्जोयो,जेण भणितं नाणं पगासगति,अह जदि णाणं पगासय घडपडादी पगासेति एवं चंदादिचावि घडपडादी पगासेंति तेण ते किन्न भावुज्जोतो ?, उच्यते, चंदादिलचा घडपडादीण स्वर्गधे पगासयंति, गुरुलहुयाणि दवाण, णाणं पुण अट्टविहंपि लोग पगासेति अरूविदच्याणिवि, दृश्यन्ते च निमित्तगणियजोतिसेहि पच्चक्खं भावा,तेण सिद्ध नाणं भावुजातोत्ति । आह-किं ते पहुगा तो भणह भायुज्जोतकरेति ?, उच्यते-नणु भए पुध्वं भणितं चउच्चीसाए अधिगारोति, एरथ जिणवरा भावुज्जोतं करोति, जतो तवदेसेणं तं नाणं भवति जेण लोगो तथा पयासिज्जइ, किं च-दबुज्जोतभावुजोताण इमं अंतरं दब्बुज्जोतो० ॥१.७३|| उज्जोतो सम्मत्तो। ॥ इवाणिं धम्मो, धर्मः स्थितिः समयो व्यवस्था मर्यादेत्यनर्थान्तरं, सो दविहो-दग्वधम्मो भावधम्मों य, दवधम्मो धम्म-16 इथिकायो वा जस्स व्वस्स भावो सो दव्यधम्मो, भावधम्मो सुयधम्मो चरिचधम्मो य, सुयधम्मो सज्झायो, चरित्तधम्मो समण अनुक्रम [३-९] ७ ॥ 645 ... अत्र उद्धयोत एवं धर्म शब्दस्य व्याख्या क्रियते (13) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 धर्मतीर्थ प्रत सूत्रांक ||१-७|| विस्तव &ाकराणां चाँ दीप अनुक्रम [३-९] चतुर्विंश- धम्मो, सो उ पंचविहो-सामाइयचरित्तादि, अहवा खेतिमाती दसविहो, एतेण सावगधम्मोऽवि सूइतो,सज्झातो नाम सामाइयमादी जाव दुवालसंग गणिपिडगं । धम्मो सम्मत्तो। IPL इदाणिं तित्थं प्राविहितनिवर्चनं, तं च दुविह-दब्बतित्थं भावतित्थं च, दब्वतित्थं मागहमादी य परसमया वा मिच्छत्तदोसेणं | व्याख्या मोक्खमग्गममाहगा, असाहगत्तेण य मोक्खं न मग्गति तेहि, एवं कार्याकरणे दव्वतित्थं भवति । तत्थ मागहाइयदध्वतित्थे | निरुत्तगाथा दाहोवसमं०॥ ११-२५ ।। १०७७ ।। भावतित्थंपि तेहिं निउत्त- कोचम्मि उ निग्गहिते०॥ ११-२६ ॥ सिद्धं । अहवा ईसणनाण॥११-२८॥१०६०।। अहवा दब्बतित्थं चउविह-सुओयार सुउत्तार ४ भंगा,भावेवि सुओयार सुउत्तार ४ भंगा, सिरक्खा तव्यन्त्रिता बोडिया साधुत्ति जथासंखं । . इदाणिं करो, सो छव्यिहो, दो गता, दबकरे गाथा-गोमुहिसुरिपसूर्ण० ॥११-३०॥१०८२-३।। कत्थवि विसए 3.गावीओ करं लम्भति, अहव। पडिएण वा अडिएण वा एवं सम्वत्थ विभासा, सीतकरो खेत्तं जं वाविज्जति भोगे वा जो लइज्जति, | &ाअण्णस्थ उरसारियं अण्णत्थ जोत्तियाओ जंघाओ, सेसं गाथासिद्ध , एते सत्तरस, अट्ठारसमो उप्पत्तिओ, अप्पणियाए इच्छाए जो Pउप्पाइज्जति सो उप्पचिओ खेतकरो, जथा सुकमादि, गामादिसु वा जंमि वा खेत्ति करो वणिज्जति । कालकरो | 18|मि काले करो अहवा कालेण एच्चिरेणं तुमे दातब्बति विभासा । भावकरो पसस्थो अपसत्थो य, अपसत्थो-13 ॐ कलहकरो० ॥११-१३ ॥ १०८५ ।। सिद्धं । पसत्थो लोगो लोगुत्तरो य, अत्थकरो य• ॥११-३४ ।। १०८६ ।। सिद्धं । इदाणिं जिणेत्ति-जितकोहमाणमाया जितलोभा तेण ते जिणा होति । अरिहा हंता रयं हंता अरिहंता ... अत्र तीर्थ एवं कर शब्दस्य व्याख्या क्रियते (14) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसू अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ||१-७|| . चूर्णी दीप | लेण बुच्चति ॥११-३५॥१०८७। जहा नमोकारनिज्जुत्तीए। इदाणि कित्तयिस्सामित्ति, कित्तमि कित्तणिज्जे ॥११-३६॥१०८८ कस्स ?- संदेवासुरमणुयस्स लोगस्स, किमिति ?- देसणणाणचरिते तवो विणओ य जेण देसितो, अतस्ते शब्दार्थः चतुर्विंश 18 पूज्या इत्यर्थः । ते कइ ?, उच्यन्ते-चउच्चीसं,अपिशब्दो सव्वेसिं एतद्गुणवत्वं ख्यापयति । इयाणि केवलिात्तिकम्हा ते केवली?, तिस्तव तार्थमा& तत्थ गाथा- कसिणं केवलकप्पं० ॥११-३८॥१०९०॥ मान्वये याणि चालणा,आह-लोग उज्जोतेति अलोग न उज्जोति?,उच्यते-(लोए)उज्जोतो,जीवाः संसारांधकारे मग्गा तेषां मोक्षो॥ ९॥ पदेशन उज्जोतो, अलोगे णस्थि जीवा नो वा अजीवा तत्र किमज्जोएत , अहवा लोक उज्जोतकरा इति पठितव्वं, एवं पाठी-14 |ऽस्तु, लोक उद्योतकरा इति ब्रुवद्भिः असर्वज्ञं ख्यापितं, येन लोकस्य अन्तो दृष्टः परितत्वात्, अलोकाकाशं न दृष्टमित्यापतितः, | आचार्य आह- लोकस्त्वया न ज्ञायते, लोको नाम पंचास्तिकायात्मकः, एतावति च ज्ञेयानि, योऽसावाकाशास्तिकायः स संपूर्णो:|लोके, लोके तु तस्य देशः प्रदेशाच, तेन सूक्तं पंचास्तिकाया लोकः,तेन शोमनः पाठः लोकोद्योतकरा इति, एवं सवविसेसणाणं साफल्लं उपयुज्ज विभासितव्यं, के त जे कित्तणिज्जा केवलनाणी वत्ति ते माणितव्वा, ते इमे उसभादीया बद्धमाणपज्जवसाणा.। ठाइदाणि तेसि संतगुणकित्तणा कातन्वा, सा य संतगुणकित्तणा सामण्णलक्खणसिद्धा य विशेसलक्खणसिद्धा य, सा महतीए | | भत्तीए भण्णति, सामान्य लक्षण- वृष उद्वहने, उन्बूढं तेन भगवता जगत्संसारमग्गं तेन ऋषभ इति, सर्व एव भगवंतो जगदु- M ॥ ९ ॥ द्वहन्ति अतुलं नाणदसणचरितं वा एते सामण्णं वा, विसेसो ऊरुसु दोसुवि भगवतो उसमा ओपरामुहा तेण निष्वत्तबारसाहस्स नाम कतै उसभोति, किंच-पढम उसभी महासुविणे दिडो, सेसाणं मातीहिं पढमं गतो १ अजितोति अजितो परीसहोवस अनुक्रम [३-९] ...अत्र लोक-उद्धयोतकर शब्दस्य व्याख्या क्रियते ... अत्र लोगस्स सूत्रस्य गाथा: २,३,४ मध्ये निर्दिष्ट ऋषभ आदि तीर्थकराणां नाम्नार्थ प्रस्तूयते (15) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसू अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत चतुर्विंश- सूत्रांक ||१-७|| चूणा ॥ १०॥ दीप ग्गेहिं सामण्णं, विसेसो पतं रमति पुण्यं राया जिणियाइओ गम्भ आभूते माता जिणति सदावित्ति तेण अक्खेसु अजितचि || लोक&ा अजितो जातो २ संभवे सामण्णं चोत्तीसबुद्धातिसेसा सव्वेसुवि संभवति अतिसया गुणा य, विसेसो अब्भधिया सासाणं सहज शब्दार्थः तीकुमाजातचि ३ अभिणंदणे अभिमुहा अभिमुख्ये 'टुनदि समृद्धौ'अहवा सब्वेवि देवेहिं आणदिया,विसेसेणं भगवतो माया गम्भगए४ दि मान्वर्थः ४ सर्वेषामेव शोभना मतिरस्य सुमतिः, विसेसो गभगते भट्टारए माताए दोण्हं सवत्तीणं छम्मासितो ववहारो छिण्णो एत्थं असो गवरपादवे एस मम पुत्तो महामती छिदिहिति, ताए जायत्ति भणिताओ, इतरी भणिति एवं होतु, पुत्तमाता णेच्छतिचि णातूर्ण छिष्णो एतस्स गभगतस्स गुणणंति सुमती जातो ५ सच्चे पउमगम्भसुकुमाला, विसेसओ पउमगब्भगोगे, पउमसयणीयदोहलोत्ति ६ सव्वेसिं सोभणा पासा तित्थकरमातूण च, विसेसो माताए गुब्बिणीए सोमणा पासा जातचि, पढम विकुक्षिया आसी७४ सामण्णं सम्बे चंद इव सोमलेसा, विसेसी चदपियणमि दोहलो चंदाभो यत्ति ८ सामण सम्बे सम्यविधीसु जाणाइयासु कुसला,& विसेसो माताए अतीव कोसल्लं जातं गम्भगते ९सामणं सीतला अरिस्स मित्तस्स चा, बिसेसोवि पुणो दाहो जातो ओसहेहिं न पउणति, देवीए परामढे पउणो १० सामण्णं सब्बे सेया लोके, अहवा तेण निवर्तितसरीरा, बिसेसो तस्स रण्णो परंपरागता सेज्जा देवताए परिग्गहिता अच्चिज्जति अच्छति, न कस्सति ढोकं देति, देवीए गभगते दोहलो, तं सेज्ज विलग्गा, देवता रडितूण पलाता, तेण सज्जंसो ११ वसू-देवा बासबो इंदो तेण सब्वेवि अभिगच्छितपुब्बा, विसेसेण इमोत्ति, अहवा वमणि-रयणाणि वासबो-13 | समणो सो वा अभिगच्छति १२ सामन्यां सच्चे विमलमती, विसेसो माताए सरीरं अतीवविमल जात बुद्धी तत्ति १३ सामण्ण सम्बहिला ॥१० कम्म जित, विसेसो माताए सुविणए अणतं महंत रतणचितं दामं दिट्ट अंतो से नस्थि तेण अणंतई, वितिय से नार्म १४ सर्वेऽपि अनुक्रम [३-९] (16) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसू अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत र्थिकृत्स्व रूपं सूत्रांक ||१-७|| दीप अनुक्रम शोमनधर्माः सधर्मा च, विसेसो अमापितरो सावगधम्मे भुज्जो चुक्के खलंति, उपयण दढवताण १५ सामण्णं सब्वेवि संतिकरा चतुर्विंशतिस्तव जिणा, विसेसो जाते असिर्व पसतं १६ सामणं कृत्ति-भूमी ताए वसुहाए सब्वे भूमिद्विता आसी, विसेसो माताए धूभो सम्बरतणामतो सुविणे दिडो भूमित्यो तेण कुंथू १७ अरणामर्थ:-सच्चे धणकणगसमिद्धेसु जाया कुलेसु, विसेसो सुमिणे सव्वरतणामओ अरओ दिडो १८ सामण्णं सब्वेहिषि परीसहमल्ला मलिता, विसेसो मल्लसयणे दोहलो १९ सामण्णं सच्चेर्सि सुब्बता, बिससो| ॥११॥ गभगते माता पिता य सुव्वता जाता २० सामण्णे सबेहिं परीसहा नामिता कोहादयो य, विसेसो णगरं रोहिज्जति, देवी अट्टे संठिता दिडा, पच्छा पणता रायाणो, अण्ण य पच्चतिया रायाणो पणता तेण नमी २१ आरिष्ठं-अप्रशस्तं तदनन नामित नेमि सामान्य, विसेसो रिट्ठरवणमइ नेमि उप्पयमाणी सुविण पेच्छति २२ सामण्णं सवे जाणका पासका य सबभावार्ण, विससा माता अंधारे सप्प पासति, रायाण भणति-हत्थं विलएह सप्पो जाति, किह एस दीसति?, दीवएणं पलोइओ, दिडो २३ सामण्णं सब्वेवि णाणादीहि गुणीह वहंती, विसेसा नातकुलं धणरतणेण संवकृति २४ । एते कित्तिया चउव्वीसीप इति । - एवं मए अभित्थुता बिहुतरयमला (७५)। थुनीणामएगढिताणि अभित्थुणणा०॥११०३ ।। सिद्धा। 'धू कंपने' विविधप्रकारा धुणणा विधुणणा, कि विधूतं ?-रयो मलो य, कम्मपायोगो रयो पद्धो मलो, अहवा रयो पदमाणो मलो पुवो4वचितो, अहवा बद्धो यो निकाइओ मलो अहवा हरियावहितं रयो संपराइयं मलो, पीणं जरा य मरणं च जेसि ते पहीणज- रामरणा, ते पुष्युत्ता चउब्बीसपि जिणवराः, वरा बरिष्ठा इत्यर्थः, अमेचि जिणा अस्थि, न पूण तेसु वरसहो। ते तित्थंकरा पसीदतु । किचिया उसभादीया, बंदिया 'बदि स्तुत्यभिवादनयोः' उद्देसे पुब्बभणिता तेच्चवनि। लोगस्स उत्तमा उत्-उद्यो [३-९] ॥११॥ .लोगस्स सूत्रस्य गाथा-५, ६ आरभ्यते (17) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्राक चूणा ||१-७| 6 - चतुर्विश-18/चंगमनोच्छेदनेषु, तिविधातो तमातो उमुक्का, तेण उत्तमा । को तमो ? बोधिलाभतिस्तव मिच्छत्तवेदणिबं० ॥११०४ ॥ अहवा तमो-संसारो ताओ उम्मुक्का तेण उत्तमा, ओपातितो वा तमो यैस्ते उत्तमाला प्रार्थना सिद्धा इत्यर्थः। आरोग्गबोधिलाभं समाधिवरमुत्तमं दितु । आरोग्गं मोक्खो, चोधिलाभा-प्रेत्यधर्मावाप्तिः, सो बोधि॥१२॥ लाभो समाधिवरसुसमः तं देंतु, दश्वसमाधी यमुद्धियं दवं यं वा सुसंगोषितं, भावसमाधिनाम यो रागहोसेहिं नावहीरति, मर णकाले या मग्गमारूढो न ओरुभति,शाणसेढीओ वा ण पल्हस्थति,सो तस्स समाधीए वरो,तस्सवि अणेगाई तारतम्माई तेण उत्तमग्गहणं आह-कि ते पसीदति', जेण तुमे भण्णह तित्थगरा मे पसीदंतु, तहा आरोग्गवाहिलामै समाधिवरमुत्तमं च मे देतु, | किं गुहु णिदाणमेतं, णु इति वितक्के, किमिदं निदाणं न कीरति?, उच्यते-विभासा एत्थ भवति । तंजहा-भासा असब-४ है मोसा ॥ ११०६॥ सा असञ्चामोसा दुवालसविहा, जा सा जायणी सा एसा, साधू संसारविमोक्षणं मग्गंति, ण हु खीण-18 पेज्जदोसा देन्ति समाधिं च बोधिं च । आह जदि न पसीदति न वा देति तो किं नमुक्कारो कीरति ?, उच्यते-जथा | अग्गी न तूसति न वा देति तहवि जो सीतपरागतो सो अल्लियति, सो य सकजं निष्फाएति, एवं तेवि खीणरागदोसमोहा || न किंचिवि देन्ति, न वा तूसंति, जो पुण पणमति सो इच्छितमत्थं लभति, उक्तं च--"चंद्रं द्रष्ट्वा यथा तोयं०" श्लोकः, अवि यजं तेहिं दातव्वं०॥ ११०७ ॥ तेहिं तिथिवि आरोग्गादीया लामा लम्भति, जम्हा एतेसिं एते गुणा तेण परमा भची कातवा। उक्तं च-भत्तीए जिणवराणं०॥ ११०८ ।। अहवा कह तेसिं अरुसंताणवि आरोग्गादीणि पाविज्जति', भण्णति-4॥१२॥ मत्तीए जिणघराणं खिज्जति पुग्वसंचिता कम्मा। ततो अत्था सिझति, जथा लोके आयरियाणं नमोक्कारेणं मचीए दीप अनुक्रम [३-९] R । ...जिन-भक्ते: फ़लम् प्रदर्शयते (18) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१०६७-१११३/१०५६-११०२], भाष्यं [१९०-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ||१-७|| तिस्तव योगः चूणों पचना११०९॥ दीप चतुर्विंश- लामंतादी सिमंति, एवं अत्थावि । आह- जदि एवं तो बरं तित्थगरत्थुति चेव करेमो, किं एवढाए खडफडाए, किंच-पुणोकि तपासयमो एतप्पभावेण बोधि लमिस्सामो, ततो अण्णं करेस्सामो, इदाणिं पुण न सक्कामो, किल एत्थ भण्णति-लद्धेल्लियं चना११०९ ॥ ४ एत्थ लहिऊणं बोहिं जे कातब्वं तं जदि न काथिसि तदा पुण किर बोधि लभेत्ता किं करिस्ससित्ति, ता ते दच्छिसि जहतं विम्हलो, है। इमं च चुक्किहिसि, दच्छिसित्ति द्रक्ष्यास, विम्हलात हे विम्भला, इमाओपि बाधिओ चुक्किाहसि, अण्णाओवि, तो परितिकाणिहिसि, जथा सो चुओ मंसपेसि जहितण मच्छ पत्तो इमं च अण्णं च चुक्को, अयमभिप्रायः-यदुत ण केवलाओ तित्थगर-11 त्थुतीओ आरोग्गादीणि भवंति, किं तु एसावि णिमित्र आरोग्गादीणं, तुमं पुण बोहिं लहितूण असदालंबणेहिं पमायंतो इमाओ चुक्किहिसि, पमादपच्चइएहि य कंमेहिं पुणो बोध दुल्लभा चोल्लगादीहि दिढतेहिं, अतो अण्णं च चुक्किाहसिति । किं च-दह उत्थिटाणुट्टाणपवित्तीए सुभकम्मोदएणं अण्णा बोधी निब्बत्तिज्जति, जथा अत्थेण अत्थो बज्झति, तुमं पुण इमं पमायंतो अण्णं कतरेण मोल्लेण लम्भिसि, लभिहिसीत्यर्थः, स्याद् बुद्धि :-तित्थगरत्धुतीए, तण्ण , जतो अम्हेहिं पुव्वं भणितं जया न केबलाए तित्थगरत्युतीए एताणि लभंति, किंतु तबसंजमुज्जमेण, एत्थ य उज्जमेंतेण सव्वत्थ कतं भवति चेव , भणितं च भट्टाहैरएहिं-चतिय कुलगणसंघे॥११-६०११११२॥ तवो १२, संजमो १, एत्थ उज्जमितव्वं, तेसि बयणे ठितेण तवसंजममुज्जम-14 तेण तेसि भत्ती कता भवति, न इतरेण इति चंदेहि निम्मलतरा० ॥ ७॥ चंदादिच्चेहितो कहमाधितं पगासंति , चंदातितिचाणं उठं अधेय तिरियं च परिमितं खत्तं पगासणे, केवलियनाणलंभो लोगमलोग पगासेति | सागरवरी सयंभुरमणो, ततोचि M गंभीरतरा, ण तीरंति परीसहोचसग्गादीहिं खोभेतुं । एवंगुणा ते भगवंतो सिद्धिं गता, मे सिद्धा सिद्धिं दिसंतु, एवं तेसिं मह 4k 52 - अनुक्रम [३-९] CR -%9 .लोगस्स सूत्रस्य गाथा-७ आरभ्यते (19) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 बन्दचाध्ययन प्रत सूत्रांक ||१-७|| तीए भत्तीए समुकीत्तणा कता ।। सुत्तफासिया गया, नया तहेव जहा सामाइगे दोण्णि गाथा, इत्यादि चर्चः॥ उव्वीसत्य- द्र यचुण्णी समत्ता, अहवा लोओज्जोयगरचुपणी आदाणपदेणं ।। चूणों दीप अनुक्रम [३-९] अह वंदणगझयणं, चउव्वीसस्थयाणतरं बंदणगज्झयणं, एतस्स कोमिसंबंधः १, जेहिं सामाइकमुपदिष्टं तेसि | समुक्कित्तणा कातवति तदर्णतरं अरिहसमुक्कित्तणा कता, गणधरादीहिवि एतं पणीतं अतो गणधरआयरियादीणवि बंदर्णी लाकातब्बति भण्णति, अहवा सामाइए ठितस्स जथा तित्थगरा पूज्या मान्याष तथा गणधरादीवि, अतस्तदर्थे बंदणग मण्यति, एवमादिसंबंधेणायातस्स बंदणगज्झयणस्स चचारि अणुयोगद्दाराणि उवक्कमादीणि तहेव वष्णेतव्वाणि जाव नामनिष्फल्यो निक्खेवो बंदणगति, एत्थ यस्याधिगारो गुणवंतस्त गणधरादिस्स पडिबत्ती-चंदणगमिति, कोऽर्थः-'बदि अभिवादनस्तुत्यो शुषु वा अर्थषु वागादीनां दानं ।। बंदनं चतुबिह, दो गता, दण्यवंदणगं दब्बभृतस्स दब्बनिमित्तं वा. अण्णउस्थियाण बा. साभावबंदणगं निज्जरहियस्स साधुस्स बंदमाणस्स । तस्स एगडिताणि बंदणगन्ति वा चितिकमति वा कितिकमति वा पूजाकमेति | वा विणयकमंति बा। तत्थ बंदणए उदाहरण-. एगस्स रण्णो पुत्तो सीतलो नाम, सो य निविष्णकामभोगो पखइओ, पढतो आयरिओ जातो, तस्स य भगिनी पुग- II दिण्णा अण्णस्स रायाणगस्स, तीसे चचारि पुत्ता, सा तेसिं कइंतरेसु कहेति, जथा तुम्भंतु मातुलो पव्वदओ, एवं कालो बच्चति।ादा |सअवि अण्णदा तथारूवाण राण अंतिए पपाता, पारि पहुसुता जाता, माउलग वंदना जीत, एगमि नगरे सुतो, तत्व १४॥ आवश्यक सूत्रस्य द्वितियं अध्ययनं समाप्तं अथ तृतीय अध्ययनं आरभ्यते ... वंदनकं विषये शितलाचार्यस्य कथानक (20) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 पत दीप अनुक्रम वन्दनादिषु वन्दना-18 गता, निगालो जातुत्ति वाहिरिवाए ठिता, सावओ य नगरं पविसितुकामो, सो मेहि भणितो-सीतलाणं आयरिमाणं कहेज्जहत्ति जी ध्ययन जे तुभ भाइणेज्जा ते आगता, विगालोत्ति न पविठ्ठा, तेण कहितं, ते तुडा, इमेसिपि रत्ति सुभेणज्झवसाणेणं चउण्डवि केवलनामा चूणौं उप्पण्णं, पभाते आयरिया दिसाओ पलोएता अच्छति एत्ताए मूहुत्तेण एहिन्ति, सुत्नपोरिसिपि मण्णे करेंतित्ति अच्छति, उग्पा डाए अत्थपोरिसिंति, अतिचिराते तं देउलियं गता, ते वीतरागा णाढायंति, डंडओ ठवितो,. पडिक्कतो, आलोइय, संदिसह कतो बंदामि , तेहिं भणितं-जतो रोयति, सो चिंतेति-अहो दुइसेहा जिल्लज्जति, तथावि रोसेणं वंदति, केवली य किर पुव्वप-2 पत्त उवयारं न भेजति जाय न पडिभिज्जति, एस जीवकप्पो, तेसु नस्थि खुव्वपवत्तो उवगारोत्ति भणंति- अज्जो दबवंदण-11 एण वंदितं, एत्ताहे भाववंदणएण बंदाहित्ति, ते य किरतं वदंतं कसायकंडएहिं छठाणपडितं वर्दृतं पेच्छंति तेण पविचोदितो, सोल भणति- एतंपि प्रज्जति ?, तेहि भाणितं-बाद, किं अतिसयो अत्थि ?, आम, किं छउमथिओ केवलिओ', भति- केवलिओ, II ताहे सो किर नहेब उद्धसितरोमकूवो अहो मया मंदभग्गेण केवली आसाइतत्ति संवेग गतो तेहि चेव कंडमाणेहि पडिनियता जाव अपुवकरणज्झाणं अणुप्पविठ्ठो जाव केक्लनाणं समुप्पष्णं चउत्थगं बंदंतस्स समत्तीए, सच्चक काइया चेट्ठा एगमि बंधाय एगमि मोक्खाय । पुचि द - इदाणिं चितिकम, दवचिती भावचिती य, चिंचपने दवचिती पेढे, अहवा रयहरणादी बाहिरं लिंग, एस लोउतरिका, ॥१५॥ लोइया बोडियनिहगतच्चणियाणं लिंगगहणं । भावचिती णाणदसणचरणाण उवचयो । तस्थ उदाहरणं खुडओ। एगो आयरिओ, तेणं कालं करेमाणेणं लक्खणजुत्तो आयरिओ ठवितो, सो खुडओ, ते सव्वे पकाया तस्स भरोण व पाण य अतीव [१०] CAREKAR N-EKC ... चितिकर्म-विषये क्षुल्लक-साधो: कथानकम् (21) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 दीप वन्दना- बटुंति, तेसिं च कडादीणं थेराण प्रतियं पढति, अण्णदा मोहणिज्जेण वाहिज्जतो भिक्खाए गतेसु साधुसु चितिज्जएणं सण्णा- वन्दनादिषु ध्ययन लपाणियं आणावेत्ता मत्तय गहाय उवहतपरिणामो वच्चति, दुरं गतो परिसंतो एगत्थ वणसंडे चीसमति, तत्थ वणसंडस्स पुफिय-|| फलियस्स मज्झे समी असणवसणादिया चेहयाए पेढियाए य सुपरिग्गहिता, तीसे तदिवस जत्ता, लोको महतीइड्डीए अच्चति | ॥१६॥ धुन्चति, किं एतं अच्चेह, इमे असोगवरपादवे ण अच्चेह, ते भणति-पुन्चएहिं एवं कतेल्लयं तं जणो बंदति, तस्स चिंता जातापेच्छह जारिसिया समी तारिसओमि अहे, अण्णेवि तत्थ बहुस्सुता रायइन्भपुत्ता अस्थि ते ण ठविता, अहं ठवितो, तो ममा पूयंति, कतो मज्झ समणचणी, रतहरणचितीगुणणं बंदंति जेण आयरिएहिं जितो ठवितो, एरिसियं रिद्धि मुहता किह गच्छामि | तत्व णिविष्णो वेयालिय पडिनियत्तो, इतरेवि भिक्खातो आगता, मग्गंति, ण लहंति सुति वा पवतिं वा, सो आगतो आलो-18 | एति- जहाऽई समाभूमिं गतो, मूलो उद्धातितो, तत्थ पडितो, पुणो बोसिरावाणियाए दुक्खवितो अच्छितो, इदाणि उपसंतो | आगतो मि, ते तुट्ठा, पच्छा कडादीणं आलोएति, पादच्छित्तं च पडिवज्जति, पच्छा तस्स भावचिती जाता, गाणदसणचीरलत्ताणि भावचिती | चितित्ति गर्ने । इदाणं किहकम, कृत्यं कर्म गुरूणां, दवकितिकम्मं णिण्हगादीण अणुवउत्ताण उवउत्ताणं वा दवाणिमित्वं वा, भावकिपतिकर्म णीतागोतादिकंमक्खवणद्वताए कीरति, तत्थ दवकितिकमे भावकितिकमे य उदाहरणं-बारवती वासुदेवो, वीरओ४ कोलिओ, सो वामदेवभतो. सोय किर वासुदेवो परिसारते बहवे जीवा वहिज्जतित्ति ण णीति, सो वीरओ बारमलहतो पुष्फ-I&II | पुडियाए चारस्स मूले अच्चणितं काऊण वच्चति दिणे दिणे, ण यजेमेति, ओरूढमंसु जातो, वत्ते वरिसारचे राया णीति, सब्वेवि अनुक्रम [१०] ... कृतिकर्म-विषये वीरक एवं कृष्णवासुदेवस्य कथानकम् (22) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 Kादृष्टान्ताः बन्दना ध्ययन चूर्णी ॥१७॥ दीप #रायाणो उबद्रिता. वीरोधि पाएस पडितो. राया पुच्छति-वीरओ दब्बलोत्त, बारवालेहि जहावतं कहितं. रो अणकंपा जाता. वन्दनादिषु | अबारितोवाती सो कतो। वासुदेवो य किर धीताओ जाहे विवाहकाले पादवंदियाओ एन्ति ताहे पुच्छति-किं पुत्तगे दासी होहिसि सामिणित्ति ?, ताओ भणंति-सामिणिओ होमात, राया भणति-तो खाई पन्वयह भट्टारगस्स पादमूले, पच्छा महता णिक्खमण-5 | सक्कारण सक्कारियाओ पव्वयंति, अन्नदा एगाए देवीए धीया, सा चिंतेति-सव्वातो पव्वाचिज्जति, ताए पिता सिक्खाविता-IN भणाहि-दासी होमित्ति, तहेव अलंकितविभूसिता उवणीता, पुच्छिया भणति-दासी होमिात्ति, भणिता-दुक्खिता होहिासत्ति, वासु-13 देवो चिंतेति-मम धीता संसारे हिंडिहित्ति तो ण लट्टगं एतं, को उवाओ होज्जा? जेण अभावि एवं ण करेज्जति, लद्धो उवाओ, वीरगं पुच्छति-अस्थि ते किंचि कतपुवं, भणति-पत्थि, चिंतेहि, ता सुचिरं चितेत्ता भणति-अस्थि, बदरीए उवरि सरडो सो पाहाणेण आहणित्ता मारितो, सगडवहाय पाणितं बहतं वामपादेण धरित उब्वेल्लं गतं, परजणघडियाए मच्छियातो पविट्ठाओ181 हत्थेण आहाडिताओ गुमगुतीओ होडन्ति, वितिए दिवसे अस्थाणीआए सोलसण्हं रायसहस्साणं मजो भणति-सुणेह भो एतस्स वीरगस्स कुलुप्पत्ती भए सुता,कमाणि य, वासुदेवो भणति-जेण रत्तसिरो णागो, वसंतो बदरीवणे । पाडितो पुढविसत्थेण,IDI ४ वे मती णाम खतिओ ॥१॥ जेण चक्खुक्खया गंगा, वहती कलुसोदगं । धारिया वामपादेण, वे मती णाम खत्तियो॥२॥ जेण घोसवती सेणा, वसंती कलसीपुरे। वारिया वामहत्थेण, वे मती णाम खत्तिओ ॥३॥ एतस्स धीतं देमि, दिना, सो ॥१७॥ भणतितो-धीतं ते देमि, णेच्छति, भिउडी कता, दिना, णीया, सयणिज्जेणच्छति, इमो से सव्वं करोति । अन्नदा राया पुच्छतिकिह वयणं करेति ण करेतित्ति , वीरओ भणति-ताए अहं सामिणीए दासत्ति, राया भणति-जति सव्वं ण कारवसि तो ते णत्थि अनुक्रम [१०] (23) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 BR वन्दनादिषु चर्चा वन्दनाफेडओ, तेण रमो आकूतं णाऊणं घरं गतेण भणिता, जहा-पज्जणं करेहित्ति, सा उद्विता, कोलिया! अप्पाणगं ण याणसित्ति, ध्ययन लातेण उढेऊणं रज्जुणा पहता, कूवेंती रंनो मूलं गता, पादपडिता भणति- अहं तेण कोलिएण हता, राया भणति-तेण चेवसि मते भणिया-सामिणी होहित्ति, तो तुमे दासत्तणं मग्गितं, अई एताहे ण वसामि, सा भणति-एत्ताहे सामिणी होमि, राया भणति॥१८॥ जति वीरओ सैमणिहिति, मोइया, पवतिया । अरिडणेमिसामी समोसरितो, राया णिग्गतो, अट्ठारसवि समणसाहस्सीओवासुदेवो | वंदेउकामो मारय पुच्छति-अई साहू कतरेण बंदणएण वंदामि, केण पुच्छसि- दब्बबंदणएणं भाववंदणएण', सो भणति-जेण | तुम्मे चंदिता होह, सामी भणति-भाववंदणएण, ताहे सव्वे साहुणो बारसायनेणं बंदणएणं बंदति, रायाणो परिसंता ठिता, वीरतो वासुदेवाणुवतीइ वंदति, कण्हो बद्धसेतो जातो, भट्टारओ पुच्छिओ जहा अहं तिहिं सढेहिं संगामसएहिं ण एवं परिसंतोम्मि,सामी भणति-तुमे खतियं संमत्तं उप्पाडित,तुमए एयाए सद्धाए तित्थकरणामगोतं कम णिच्यात्तियं, यदा किर विडो सि तया जिंदणगरहणाए सत्तमाए पुढवीए बद्धेल्लयं आउयं उम्बेढतेणं तच्च पुढविमाणितं, जदि आउयं धरतो तो पढमपुढविमाणेतो, अने भणतिइहेब बंदतेणंति, भाषकितिकमं वासुदेवस्स, दव्ये वीरगस्स । दार्णि पूयार्कम,पुरस्तात् पूज्जा पूजा,दब्वपूया णिण्हगादीण, भावपूया परलोगडिताण । तस्थ उदाहरणं दो सेवगा, तेसिं अल्लिणा गामा, तेसि सीमाणिमित्तं भंडणं जातं, ताहे ते णगरं रायसमी संपस्थिता, तेहि साधू दिट्ठो, तत्थ एगो भणति-साधु IRष्ट्वा धुवा सिडिशि पदाहिणं काऊणं बंदिता गतो । चितिओवि तस्स किर ओग्घर्ष करेति, सोऽपि पंदति तं चव मणति, | ववहारे आपद्धे जितो, दयपूया तस्स, इतरस्स भावपूया ॥ WARNERBARI दीप अनुक्रम 25 [१०] * 3 ॥१८॥ ... पूयाकर्म-विषये कथानक (24) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [११११८-१२२९/१९०३-१२३० ], भाष्यं [ २०४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्दना ध्ययन चूर्णी ॥ १९ ॥ इदार्णि विषयकं मं । विनयनं विनयः, दव्यविनयो विभासियो, भावे य । तत्थ साम्बपालगा उदाहरणं- चारवती वासुदेवो नेमी समोसढो, वासुदेवो भणति - जो कल्लं सामि पढमं बंदति सो जं मग्गति तं देमि, संत्रेण य सयणिज्जाओ उद्देता वंदितो, पालतो रज्जलोभा एसिग्घेणं असणं पए गतो वंदति, सो य किर अभवसिद्धिओ बंदति, हियएण अक्कोसति, वासुदेवो गतो, पुच्छति केण तुम्भे पढमं वंदिया ?, सामी भणति दव्वतो पालएणं, भावतो संवेणं, ताहे संचस्स दिनं । एवं भाववंदणरण बंदितव्यं । - एयं कितिकम् कावंति दिङ्कं । तत्थ इमाणि दाराणि कस्स केण काहे कतिखुत्तो कतिओणयं कतिसिरं कतिहि व आवस्सएहिं परिसुद्धं कतिदोसविप्यमुक्कं कीस कीरतित्ति दाराणि कीसति दारं, कास कितिकम्मं, कास ण कायन्वंति, तत्थ ताव इमेसि ण कायव्यं असंजताण ण कायव्वं, जदि ते पृथ्यं पुज्जा आसी, कतो ?, मातरं पितरं गुरुं सेणावर्ति पसत्थारो रामाणं देवताणि य, माया ताव लोगे देवतं सा ण वंदितव्वा असंजयत्ति, एवं पितावि, भातावि, गुरू णायपित्तियओ मातुलओ ससुरओ एवमादि, उवज्झातो वा सिष्णकलादिसु होज्जा, सेणावती जहा गणराया पसत्थारो जे पसत्थेहिं कंमेहिं अत्थं उवणिज्जति जहा सत्थवाहादओ, राया पंचमो लोगपालो, देवताणिवि ण वज्रंति, किमंग पुण मणुया?, चसरेण पुब्वं जेहिं कला गाहितपुष्वा अतिथियावि, जतिवि ते लोइए धम्मे ठिता तहवि ण य बंदियव्या । केसिं पुण कायय्वं कितिकम्मति १, भण्णति 1 समणं वंदेज्ज० ॥ १२.५ ।। १११८ ।। 'श्रमु तपसि खेदे च' श्राम्यतीति श्रमणः तं वंदेज्ज, केरिस ? 'मेधाविं' मेरया भावतीति मेधावी, अहवा मेधावी विज्ञानवान् तं पाठांतरं वा समणं चंदेज्ज मेधावी, तेण मेघाविणा मेघावी वंदितच्चो, चउ ... विनयकर्म विषये शांब एवं पालकस्य कथानक (25) वन्द्याबन्याः ॥ १९ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्यान दीप वन्दना- मंगो, चउत्थे भंगे कितिकंमफलं भवतीति, सेसएमु भयणा । तथा 'संजतं' समं पावोवरतं, तहा 'सुसमाहित' मुठ्ठ समाहितं 31 सुसमाहितं णाणदसणचरणेसु समुज्जतमितियावत् , को य सो एवंभूतः, जो पंचसमितो तिगुतो अढहिं पवयणमाताहिं ठितो चूणों असंजमं दुगुंछतित्ति, एवंगुणसंपउत्ता बंदणिज्जा, ण पुण जे समणा मेधावी संजता जाब दुगुंछगा इव प्रतिभासंते, जहा पिण्हगा, ॥२०॥ राजेण ण ते इह भट्टारगाण सकलं मेरं धावतित्ति । किं च-इमेवि पंच ण वैदियवा समणसवि सति, जहा आजीवगा ताबसा परिव्वायगा तच्चणिया,बोडिया समणा वा इमं सासणं पडिवना,ण य ते अन्नतित्थे ण य सतित्थे,जेविसतित्थे न प्रतिज्ञामणुषालयंति मावि पंच पासस्थादी ण वंदितब्बा । एत्थ दारगाथा पंचण्हं कितिकम्मं ॥१२-३ ॥ १११९ ।। णणु किं जातं ? जे एते ण चंदिजंति ओबाते?, पासस्थादी० ॥१२-८॥ ११२०॥ एते बंदमाणस्स व कित्ती- अहो इमो विणीओत्ति एवमादि, अकित्तिं पुष आवहति ते बंदतो, जहा एरिसो महप्पा एचो एवं एते वंदति, नणं एसवि एरिसोत्ति अकिची भवति, णिज्जरा होज्जा सावि णस्थि, कहं ?, ते जिणाणं अणाणाए विट्ठति, ते बंदमाणस्स जिणाणं आणावतिक्कमेणं कर्म यज्झति, कतो णिज्जरा, एवं च काइया चेट्ठा णिरत्था णाम कुणति ते देतो, तहा कंमबन्धं च, जतो आणादीया दोसा, कहं , ते भगवतो अणाणाए वढमाणे अवंदणिज्जे बंदमाणस्स आणालोवो, सो अणं बंदति पासत्यादि, ते वैदिज्जमाणे दणं सेहस्स वा सहस्स वा पडिगमणादयो दोसा भवेज्जा, ते गया काहिति सो तस्स उवरि कमबंधोत्ति, तदणुमतिमादीहिं संजमादिविराधणा, एवं विभासा, चसदा संसारं च सुचिरं हिंडिहिंति । एसो वंदमाIPणस्स दोसो, जो पुण तेसु ठाणेसु बमाणो बंदावेति तस्स इमे दोसा AAAAAAS अनुक्रम [१०] ॥२०॥ ... वंद्य-अवंद्य साधुनाम् वर्णनं (26) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) भाष्यं [२०४ ] निर्युक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], अध्ययनं [3], मूलं [१] / [गाथा - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ॥ २१ ॥ जे वंभचेरभट्टा॰ ।। १२-९ ।। ११२१ ।। जो ताब अब्बंभं सेवति सो ताब भट्टवतो वेष, नट्ठो य भट्ठो य, बंभचरं नाम संजमचरणं, ततो जे भट्ठा गुणहीना गुणाहिते पादे पाडेति ते संसारं वट्टेति दुब्बोधिलाभयं च कम्मं करेंति, सुचिरीप हिंडिऊणं जरावि माणुसत्तणं वा लमति तदाबि विगलिंदिया कुंटमेंटगा अंधबहिरा रोगिया य भवंति, जथा लणवि धम्मं न सम्केति + कार्तु, अविय० ते नासितुकामा नट्ठा जे संजमे न उज्जमंति, सुठुतरं नासंती ॥ १२-१० ॥ ११२२॥ केणं ते सुसमणा?, उबरिल्लए िकंडगट्टाणेहिं बट्टमाणा सुसमणा भवंति, जे ण य जधुत्तं करेंति, गुरुजणा चरिताधिगा, चसद्दा कारवंति उवदिसंति य | जहुतं, एवं ते गड्डा णासंति पुणरवि, जम्हा एते दोसा तम्हा ण ते ते वंदितष्वा ण वा तेहिं वंदावेदव्वं । आह-जे पुब्वि बेहारुया, पच्छा पासत्थादी जाता तेसि किं ?, एवं चैव यतो- असुहद्वाणे०, अहवा न केवलं पासत्थादीणं एतं, जेवि इतरा तेहिं समं संवसंति तेसिपि एतं, जतो असुइ० गाथा ॥ १२११ ।। ११३३ ।। चन्दना ध्ययन चूर्णी एगो पपिओ कुमारी, सो चंपगमालाए मेहरं स्वेतॄण आसेण जाति, सा से चंपगमाला विगलिता, मीढस्स उबरिं पडिता, तेण हत्थो पसारितो मीढं दट्ठूण मुक्का, सो य चपएहिं विणा घिर्ति न लभति तथावि ठाणदोसेण मुक्का, एवं जथा माला तारिसा सुविधिता साधू, जारिसतं तद्वाणं वारिसया यासत्यादी ठाणा, बेहिं पदेहिं पडिसीवएहिं पासत्थो होति सेज्जातरपिंडादीहिं तेषु जे पडिता ते परिहरितव्या, जहा माला, अहवा पासत्थादीष्ट्ठाणेसु बट्टमाणो नाम जे सुद्धावि पासल्याद्रीहिं समं संवसन्ति संवासेति वा तेवि परिहरणिज्जा इति । अहया इमं उदाहरणं, एवं वा परिहरितथ्या । तत्थ गाथा पक्कणकुले वसंतो० ।। १२१२ । ११२४ ॥ एगरस विज्जातियस्स पंच पुत्ता, ते पंचवि श्रवणीयपारगा चौसविजा ••• पासत्थादि साधूनां संसर्ग-त्याग:, ••• अत्र चंपकप्रियकुमारस्य द्रष्टांत (27) कुशीलसंसगेत्यागः | ॥ २१ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 त्याग डाणाणि समुत्तस्थाणि जाणीत, तरथ एगो एमाए दासीए सम संपलग्गो, सा मज्ज पिज्जति, इमो य ण पिचति, तीए भण्णति-18 ध्ययन दिजदि तुमं पिज्जासि तो णे रती होज्जत्ति, इहरथा विसरिसो संजोगोनि, एवं सो ताव बहुसो २ भणतीए पाइतो, सो या चूर्णी पुवं अण्णेण आणावेति, पच्छा पच्छण सयमेव आणेति, एवं काले वच्चंते आढचे पक्कणकलेसुबि पिवितुं, तेहिं चेव पियति | ॥२२॥ |य वसति य, तेणं तस्स सयणेण सब्वबज्झो कतो अन्मोज्जो य कतो, अण्णदा सो पडिभग्गो, एगो से भाता हेण कुडिं पविसिऊणं पुच्छति देति य से किंचि, सो णिच्छुडो, अण्णो बाहिं पाडिएसओ देति पुच्छति य, सोऽपि निढो, ततिओण जाति, बाहिरपाडए संतओ देति पुच्छति, परंपरएणं दवावेति, सोऽवि निम्बूढो, पंचमो गंधपि न सहति, करणं जाइउं तेण मरुयएणं 12 तस्स पुत्तस्स सर्च दिण्णं, इतरे पत्तारिवि निच्छूटा, लोगे गरहिता य जाता, एस दिईतोऽयमर्थोपनया-जारिसया पक्कणा तारिसया पासत्थादि, जारिसयो धीयारो तारिसा आयरिया, जारिसया पुत्ता तारिसया साहवा, जथा तेण णिच्छूढा एवं निच्छू-1* म्भति, कुसीलसंसरिंग करेंता बज्झा गरहिता य भवन्ति, जो पुण परिहरति सो पुज्जो सादीय सपज्जवसितं च निव्वाणं पाविहिति। णणु को दोसो संसग्गीए जेण ते परिहरिया, णवरं अखंडियचारितण होतव्यं, भण्णति-संसरगीचि विणासिता कुसीलाह, उक्तं चा "जारिसएहिं मित्तिं करेंति अचिरेण तारिसो होति । कुसुमेहिं सह वसंता तिलावि तग्गंधिता होंति ॥१॥" आह-17 न एस नियमो जथा संसग्गीए दोसेहि लिपिज्जति, कह?-सुचिरंपि अच्छमाणो० ॥११२५।। जथा बेरुलिओ कायमणीण मज्ने सुचिरपि अच्छमाणो कायमणी न भवति, एवं साहुवि सुचिरपि अच्छमाणो न चव पासत्थादी भविहितित्ति अत्थ न दोस इति, ला न चैतत् प्रतिज्ञायते, यतोऽभिप्राय स्वं न वेत्सि, तथाहि-न भयोक्तं यथा मनुष्यः तिर्यग्योगाचिरश्रो भवति, यदि मयैतदुक्तमभ SCRECIRC + B har (28) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [११११८-१२२९/१९०३-१२३० ], भाष्यं [ २०४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्दना ध्ययन चूर्णां ॥ २३ ॥ विष्यन्ततो युक्तमेवं वक्तुं यथा वैद्यः काचसम्मिश्रः किं न काचीभवति है, किंतु मयोक्तं तस्स पासत्थादीसंवासेणं णाणदंसणादयो गुणा परिहार्यंति, आदर्शवत्, जथा आदरियो अपरिसीलणाए सामाए बच्छो मलिणीभवति, या सा रूपदर्शनक्रिया सा तत्र परिहायति, तथा नानादशीभवति, एवं मयोक्तं- शीलं नश्यति मलिनीभवति, घनमूलोद्वर्तनेन सर्व एव नश्यति, अतो अनुक्तोपालंभ:, किंच- बैड्र्यस्यापि वमणविरेयणउप्पादीहिं छाया कज्जति, आदर्शवत्, यो तु कायमणीणं मज्झगतो घरिज्जति, उप्पण्णादीणि न कीरंति, तस्स वण्णरसंगंधफरियादीणो हायंति, तम्हा संसग्गीवि विणासिया गुणाणं ॥ किंच-दुविहाणि दव्वाणि भावु गाणि अभानुगाणि य, तत्थ वइरादीणि गंधादीहिं अभाविताणि, तहाविद्दा उ केवलिमाई, जं ते मात्रेतुं न सकिज्जति पासत्थट्टाहिं, भावगं छउमत्थस्स गंधो, सो न सक्कति तद्भाविगं गंधतो, भाविगं. तु पाडलादीहिं कवेलुगादी, स्याद् बुद्धि:- जीवदव्वंपि अभानुगमज्झे भविष्यति, अत उच्यते - (११२७) जीवो अणादिनिहणो पमादभावणभावितो य संसारे सो य मेलणदोसाणुभावेणं खियं भाविज्जतित्ति । एत्थ संसरिंगविणासे दितो - अवस्स य० ।। ११२८ ॥ निवेोदणं कयएणं भूमि भाविता, अंबओ तत्थ जानओ, पुमोवि तेर्सि परोप्परओ मूला संपलग्गा, तेण संसग्गिदोसेणं कयओ जातो, तम्हा संसग्गी विणासका अपात्रेहिं सह आह जदि संसग्गी गुणदोसे पमाणं ततो निरगुणोवि गुणवंतेर्हि सह मिलित तारिसो भवतु, न च भवति, जओ सुचिरंपि अच्छ० ।। ११२९ ।। नलत्थंभो उच्छुमज्झे परिमलेणं उदरण व मूलेहि य कीस मधुरो ण जायति ?, उच्यते विहितोत्तरमेतत् भावुगअभाबुगाणि य० गाथाए, यतः नलत्थंभो अभावुगो, जो पुण भावुको सो भाविज्जति दोसेहिं वा गुणेहिं वा, जदि हि संसग्गिमविनासिका स्थाचतो युक्त •••• दोष- गुणानाम् संसर्गत्वं वर्णयते (29) कुशीलसंसर्ग त्यागः ॥ २३ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 संसगे वन्दना- मेवं वक्तुं, यस्मात्तु संसग्गी निनासिका भवत्यविनासिका च ततः प्रतिषिध्यते, अपस्थसंदेहोवि निवित्तीए अंगमितिकातुं । किंच-18 कुशीलध्ययन हाजे भगवन्तो जिनादयस्तेषां यत्र वा तत्र वापि वसतां नैव दोषा यत् आत्मसमुस्था उत्पद्यन्ते, किंतु तं वेतालेतूण गणितव्वं जा चूणों सहूणं असणं च सव्वेसामेव वारण अणवत्थपसंगाद् , अदोसवारण च, जथा मरुएणं सेसावि परिचचा पुत्ता एगस्स परिरक्षण त्यागः ॥ २४॥ ६ निमित्त अणवत्वादिनिवारणत्थं च, एवमिहावि, उक्तं च-"रपणो गिहवतीणं च, रहस्सारक्खियाणि य ॥" सिलोगो । ता है यद्यपि सम्वेसि ते दोसा न उप्पजंति तथावि सव्वेसामेव वारणं कत, एवमिहापि वारण, अहवा एक्को न विनट्ठ इति न घेत्तव सिद्धोऽप्यनयो न प्रशंसितव्यः, तस्मात्तैः सह संसगी वर्जनीया इति । पुणो आह- आलावादिमेत्तं संसम्गि जदि करेज्ज ता किं, | भण्णति-न कप्पति, यतो ऊणगसयभागेणवि०॥ ११३० ॥ जथारिट्टे कट्ठ वा सिला वा लोहं वा दुपदं वा चतुष्पदं वा पडित समाणं लवणी| भवति, तस्स लवणस्स उवरियो अंतो तस्स दन्चस्स हेडिल्ला भाया जो तमि लोणे पतिहितो सो सहस्सतिमो होज्जा अतिरित्तो वा, एतिल्लियाएवि संसग्गीए उपरिमं असंबद्धमवि लोणीभवति अचिरेण, एवमिहापि, एवं खलु सीलमतो०॥११३२।। सीलमनोवि होन्तओ ताणं थोवाएवि संसग्गीए णासति संवसणाणुमोदणादीहिं संजमाओ, इहलोगेवि ताण तणएहिं दुच्चरिएहिं घेषेज्जा, 8 एसोचि ताण मोत्ति, आदिग्गहणेण न केवलं लवणागरे, अण्णोऽवि भंडखाइया नाम रसो अथिचि सुणिज्जति, वत्थ लोहपि जाव ओगाहिज्जति ताव महति, ओक्खिप्पंतो जत्तियं अवगाढं तं तत्थेव गहुँ, जचियं न ओगाढं ताचिये अच्छति, अतः एवमा ॥२४ | दिसु कारणेसु खणमवि ण खमं काउं० ॥११३३।। किं पुण घिरओ, एवं सीलवान् तैर्मिलितः लहुं चेव भंडखाइयांदिढतेण (30) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 IVE विचार दीप अनुक्रम बन्दनालनासति । तथा-गवासनानां स गिरः शृणोति, अहं च राजन् ! मुनिपुंगवानाम् । प्रत्यक्षमेतद्भवतापि दृष्ट, संसर्गजा दोषगुणा ध्ययन भवन्ति ॥१॥ तथा-हन्दि समुहमुवगतं उदगं लवणत्तणमुवेति हन्दीति उपप्रदर्शनार्थः । सीसो आह-दुविष्णेयो घूर्णी सुविहितदुविहितभावो, आई च छउमत्थो, सव्वष्णूणमेव स विसयो, किंतु लिंग दटुं णमामि तिकरणपरिसुदेण भावणत्ति ।। आयरिओ भणति एवं तुमे लिंग पमाण कतं, अतः यदि ते लिंग पमाणं तो नाम तुम निणहए बंदाहि सब्बे, सीसो भणति-न ॥२५॥ वंदामि, किं कारणं ,जेण ते मिच्छादिट्ठी, जदि निण्हए लिंगी न बंदसि तो तुम अप्पाणं अप्पमाण करोसि, एवं लिंगमंत्तस्स बंदणगपवित्तिए अप्पमाणतायां प्रतिपादितायां सत्यामणभिनिचिट्ठो चेव सामायारिजिण्णासया सीसो आह जदि लिंग ।। ११३५ ।। जदि लिंगप्पमाणेणं पणमंतस्स य दीसते दोसो निण्हएणं, भावो य निच्छएण ण णज्जति, तो 81 अम्हेहि समणलिंग दट्टणं किं कातव्बंति ?, आयरिया भणंति, तत्थ-- अप्पुत्वं ॥११३७ ।। अपुग्वं दट्टणं अब्भुद्वैतव्वं, न नज्जति को सो तेण विधाणेण एति, सो य इहइएहिं पारलोइएहि य अतिसएहिं जुत्तो, सो य आगतो एस तस्स देमिति, तेण नब्भुट्टितो, तेन दुदृरुद्वेण न दिण्णं, जथा सुवष्णभूमि गता अज्जकालगा पसीसस्स मूलं, आसादणा य गुरुण, तम्हा अब्भुहृतव्या, किमालवणं किच्चा, साधुचि, अदिठ्ठपुग्वे एवं दिट्ठपुल्वाण जदि अब्भुट्ठाणरहितो अन्भुद्विज्जति, इतरो नवि, लिंगी पुण अप्पसुतो वा बहुमुतो वा उस्सग्गेण णऽन्भुडिज्जति,अववादिण पुण का कारण पहच्च जतणाए सव्र्वपि कीरेज्ज णि«धसस्सावि, तत्थ गाथा-- वायाए नमोकारो०॥ ११३९ ॥ पढमं वायाए आलविज्जति अमुगत्ति, सागतंति वा, तथाविह पहच्च सहीलं नमो तंति, [१०] ॥२५॥ ॐ5AR ....लिंग्मात्रे कर्तव्यता (31) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 बन्दना- हत्था वा उस्सविज्जति, सीसेण वा वइसेसित्ति, संपुच्छणं किहं स्येवं भौति,एताणि बाहि एताणि चव अंतोवि करेज्जा.उल्लावसं- लिंगध्ययन लावे, सद्धिं वा अच्छेज्जावि, तत्थ छोभवंदणगंवा देज्जा अणाढाए आरभडं, सो वा सविग्गो अ,सो जाणति ताहे परिसुद्धपि 8 ला विचार: चूणों Pादिज्जति, पुण बंदिज्जति एवं भट्टारगाणं गुणे पूर्यतेणं, तत्थ पुण किं आलंवर्ण कातवं॥ २६॥ परियायः ॥ ११४० ॥ परियाओ दीहो बंभचेरस पुवंति, परिसा वा से विणीतादी, एसो जदिवि न लइओ, पुरिसंभ जाणति कुलगणसंघकज्जाणि आयत्ताणि, आघवी जदिन वंदिहामि तो लोगो सण्णति मुतिहितित्ति । अपि च प्रावचनी धम्मकथी 'श्लोकः ।तमि वा खेते तस्स गुणेण अच्छिज्जति, ओमोदरीयादीए वा काले पडितप्पति, आगमो वा से अस्थि जथा मम(संम)सिवायगस्स तं जुगमासज्ज,एवमादि कारणजातं पडच्च जं जस्स अरिहं तं जांग बाबार कुज्जा,अहवा कारणजात नाम पढिउकामो वा, तेण सुतणाणभत्तिए बंदिज्जत्ति । अह पुण पत्तकालाणिनि एताण वायादीणि ण पउंजति तो इमे दोसा पताणि अकुबंतो० ॥ ११४१ ।। जति न कुब्बति तो पवयणभत्ती न कता होति, ततो जे अभत्तिमन्तेहितो दोसा ते सो करेज्जा रुट्ठो, जथा अजवालगवायगेण बंधाविता साधू,जेय सो अभत्तिमतो दोसे काहिति तेण सयं चेव कता भवंति, एसा *णाहव्वविही, जस्स जं जोग तस्स तं कातवं । एत्व सीसो आह-कोत्ति एत्तियं जाणिति , किं ताव तेहिं सब्बेहिदि जो होइ उसो होउ, आतविसुद्धिए णमन्तस्स निज्जरा फलं होइ, विचरीए न होति, जथा वित्थगरस्स जे तित्थयरगुणा पडिमासु० &।। ११४२ ।। लिंग जिणपण्णसं० ।। ११४३ ।। आयरिओ भणति-अप्पणममति ! बंदणगं न जाणासि, यतो संता तिस्थयर ॥२६॥ गुणा॥११४४ ॥ जे तित्थगरे संतागुणा आसी ते तित्थगरपडिमासु अध्यात्मना आलपिऊण पणमिति, न पुण तत्थर FRIENDS दीप अनुक्रम [१०] XAMS (32) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 64 वन्दना- चूर्णी *% % दीप पणमिज्जतिलगं पित्तकम वणगादि वाति, जणु जदि एवं तो संता साधुगुणा जे ते पासत्यादिसु अध्यात्मना आलंपिऊण द्रव्यभावपणमिज्जओ को दोसो ?, उच्यते,पडिमासु साधज्जा किरिया नथि,जतो पडिमाओ न किंचि सावजं चिट्ठति, ततः महारगार्गलिंगे.. गुणा तासु आरोवितूण बंदिज्जंति, एताए य बुद्धीए कम्मबंधो न भवति, निज्जरा चेव भवति, इतरेसु पुण पासत्वादिसु धुवा साबज्जा किरिया तो कहं तत्थ साधुगुणाध्यारोपः, सावज्जकिरियाजुत्तेचि य णं बंदमाणस्स समणुण्णाया ते भविस्संति, पासमात्थेसु जे दोसा तेहिं लम्गिहिसीत्यर्थः । पुणो आह पर:-.. जह सावज्ज०॥११४५ ।। आयरिओ भणति-कामं० ॥११४६ ।। जदिविय पडिमाओ जथा मुणिगुणसंसरण(कप्प)कारण लिंग । उभयमपि अस्थि लिंगे णचि पडिमासूभयं अस्थिा॥११४७।। नियमा जिणेसु उ गुणा पडिमाओ विस्स जे मणे कुणति । अण्णे अ बियाणंतो के मणउ मणे गुणे काउं? ॥११४८ ॥जह वेलंषगलिंग जाणतस्स नमतो भवति दोसो। निबंधसं विणातूण वंदमाणे धुवं दोसो ॥ ११४९ ॥ एवं न लिंगमेचमकारणतो अवगतसावज्जकिरियं नमणीयमिति ठावित, भावलिंगमवि दवलिंगरहितमेवं चैव विभासितव्वमिति, भावलिंगगम्भं तु दन्चालिंग न मणागवि विकप्पं, इतरत्थ उ विभासेति दर्शयन्नाह रुप्पं ॥ ११५० ।। उस्सग्गेणं जहिं दवलिंग भावलिंग च अस्थि सो वंदणिज्जो,जथा रूपकं जत्थ सुद्धं टंक समक्खरं सो * ॥२७॥ छका भवति, रुप्पं जत्थ सुद्धं टकं विसमाहतक्खरं सोवि रूवओ व छेओ न भवति, रुप्पं जत्थ असुद्धं टंक सुद्ध सावि सुतरा छेओ न भवति,रुष जत्थ असुद्धं टंकपि अमुई सोवि सुतरां छेदो न भवति, किं तु जत्थ दोण्णिवि मुद्धाणि सो छओ, एवं सो अनुक्रम 82-% [१०] CE% % (33) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ज्ञानवाद खण्डन दीप अनुक्रम [१०] वन्दना- संववहार्यः जत्थ उभयमवि अत्थि, एत्थ य रुप्पगत्थाणीया पत्तेयबुद्धा, जदा वा दब्बलिंग नस्थिति न कोई तेण पणमति । ध्ययन भणितं च-किह लिंग न पमाणं उप्पण्णे केवलंमि जंणाणे | न ममंति जिणं देवा सुविहितणेवत्थपरिहीणं ॥१॥ चूर्णी म जदा दवलिंग गहितं ताहे नमिज्जति , टंकत्थाणीया निण्हगा, सच्चगं तेचि पहरणगोच्छगधारी तथावि मिच्छद्दिट्ठी, जे ॥२८॥ पासस्थादी तेहिं भगवतो लिंगं गहितं,ण पुण सच्चं अणुपातित्ति विसमाहतक्खरा,अहवा संबिग्गावि जदा निकारणे चाउसगा हिंडंति एवमादि,तेवि विसमाहतकखरा एवमादि विभासा वेरुलियात गतं प्रसंगेण भणितं । .इदाणिं णाणेत्ति,आह-किं एताहिं सब्बाहिवि तिरिविडाहिं?, जो णाणी तं बंदामि,अण्णे गुणा होंतु मा वा, येन ज्ञानपूर्विका सर्वक्रिया, उक्तंच- जे अण्णाणी कम खवेति बहुयाहि वासकोडीहिं । तं णाणी तिहि गुत्तो खवेति उस्सासमेत्तेणं ॥१॥ जेण य सूी जथा ससुत्ता ण णस्सती कयबरंमि पडियावि । जीवी तथा ससुत्तो ण नस्सति गतीवि संसारे PR| जेण य-गाणं गेण्हति णाणं गुणेति णाणेण कुणति किच्चाई। भवसंसारसमुई णाणी जाणडिओ तरति ३॥ एवं भणिए आयरिओ भणति-लोगेवि णाणेण केवलेण कज्जन साहिज्जति एगतेण, किमंग पुण लोउत्तरे, जथा___ आउज्जणकुसला णट्टिया०॥ ११५६ ।। जथा पट्टिया सा वीमाइयाउज्जणडेसु तत्थ जाणियावि रंगपरिवारिया जदि न णच्चति न वा भावस्थादोणि दावेति तो कुसलावि ण त जणं तोसेति, अपि च णिंदं खिंसं च सा लभिति, जथा जाणलिमाणीवि पेच्छ ण णच्चति, छटासु ढुकिया वा, एवमादि, चसहातो लाभमाओ य चुक्कति, एवं लोउत्तरेबि- इय लिंगणाण H सहिओ०॥ ११५७ ।। एवं नट्टियात्थाणिओ समणो, आउज्जादित्थाणीयं बाहिरगं लिंगादि, नसुत्तत्थाणीयं णाणं, जोग - OCHERSONAGACHECक ॥२८॥ ... ज्ञानपक्षस्य खंडनं (34) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 खण्डन दीप बन्दना- जणत्थाणीयं चरणं, जदि चरणं णाणुपालेति तो सपक्खपरपक्खेहिं निदिज्जति, जथा सा नट्टिया, मोक्खसोक्खं च न लभति ॥ ध्ययन जथा वा णतिं तरंतो जाणतोऽविय तरितुं०॥ ११५८ ॥ जदि काइयं किारयं न करेति तो बुज्झति, तम्हा दोण्णिवि संपदं । दालएति, मा णाणं गेष्हाहि एगतेणं । उक्तं च-नाणं पगासयं ।। पुणो सीसो भणति- तुन्भेहिं गुणाधिके बंदणग उवदिट्ठ, गुण॥२९॥ हीणे पुण कंमधया, छउमत्थेण य सतिवि लिंगे अभंतरिया भावविसुद्धी ण णज्जति, अयापंतो य गुणाधियं वा वंदावेज्जा 18/गुणहीणपि वा वंदेज्जा, जदि य गुणाधिकं वा बंदावेति न बंदति बा तो पुब्वभणितेहिं दोसेहिं संबज्झति, एवं गुणहीणवंदणेवि, तेण वाउलिया मो किं अम्हहिं कातव्वं ?, वरं तुहिक्का अच्छामो, अजामाणा किं काहामो इत्यभिप्रायः, आयरिया भणंति-ठी नायमेकान्तः जथा न चैव नज्जति गुणाहिया गुणहीणा वा, किं तु छउमत्थेणवि णजंति, कही आलए ॥ ११६० ॥ आलयो- वसही विहारो- मासकप्पादी ठाणं- हरियादिविरहितं चकमण- जुगतरनिरुद्धदिट्ठी भासा- निरवजं वेणयियं तथा-विणयकम, आह- एतेहिवि न सक्का, जेण उदाइमारगमथुराकोहइल्लगादी केण जाणिता? जथा एते एतसमायारत्ति, तेण न सक्का जाणितुं भावं ?, किंच-यं एतं बाहिभावं करणं एतं अणेगतियं, तो किं हमेणं बंदणगादि-12 | चावारण , वरं अज्झप्पयमुद्धिं चेव पक्वीकरेमो, जतो एतस्सेवायत्ता फलसिद्धिः, तथाहि भरहो पसण्णः ॥ १२-५१ ॥ ११६२ ॥ अन्भंतरं भरहो, जतो तस्त बाहिकरणविहूणस्सपि आभरितविभूसितस्स अज्झ- प्पविसुद्धीए चेव केवलनाणं उप्पण, तस्स तं वज्झकरणं दोसउप्पादणकरं न जातं, पाहिरगं च रयहरणयंदणगादि गुणकरं ण विजातं, बाहिरं उदाहरणं पसण्णचंदो, जतो तस्स पगिट्ठबाहिरकरणवतोवि अम्भितरकरणविगलस्स अहे सत्तमपुढविपायोग्गकम्मबं अनुक्रम C** [१०] AI ॥२९॥ (35) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 दीप वन्दना घोऽभूत् , पच्छावत्तीए अज्झप्पसुद्धीतो मोक्खो जातो, तस्सवि तं बज्मकरणं गुणकरणं न जातं, किं तु अज्ज्ञप्पविसुद्धी, अतो बानवाद ध्ययन बाहिरकरणमणेगतियंति किमणेणंति । एवं ववहारविधिमबियाणगं चोदगमवगच्छिऊण एतमि पक्खे अपायसदसणगम्भं पण्णविति खण्डन चूर्णी गुरुवो, जहा वच्छ! एते पत्तेयबुद्धा, तेसि कदाइ एवं लाभो, सोविय पुन्वभवे उभयसंपदाए पत्तपुब्बो,तेण चेव भण्णति,आहा॥३०॥ भावकहणे करणं णासेंति जिणपरिंदाणं । सम्भावमयाणंता पंचहि ठाणेहिं पासत्था ।११६शााहच्चभावो नाम कादा-1 चित्कः पत्तेयबुद्धलाभादी तस्स कहणे सति आगमे तं आलंबितूण केयी करणं-वाहिरमणट्टाणं णासेति-परिहर्रतीति भावः, य एवंटल करेंति ते जिणवरिंदाणं सम्भावमयाणंता तित्थगराणं जो सम्भावो जथा कत्थति ववहारविहीए पयाट्टितव्वं कत्थय निच्छयक्रि दधीए, कत्थ य उभयविधीए, कत्थ य बाहिरकरण, एवं अमितरकरणे, उभये, एवमादि अनियतपवित्तिनिवत्तीहि कज्जसिद्धिति, न पुण नियतं केणति, एस सम्भाबो, तं अयाणता पंचहिं ठाणेहि-णाणायारादीहिं अहवा पाणातिवातादीहि अहवा पासत्थादीहिंद | जाणि ठाणाणि तेहि विषयभूतेहिं चरणं णाति, पासत्था सिद्धिपहस्स पासे ठिता, ते य आहरूचभावं पत्थिता कीसिहिन्ति, जथा | । सो बोहो, कोइ बोड़ो एगाए इट्टगाए अफ्फिडिओ, तत्थ तेण दीपारो दिट्ठो, सो तेणं न लइओ, भणति- अण्णाओवि इट्टय़ाओ अस्थिति सो गतो, सो य अण्णेण लइओ, घरं गतो माताए कहेति, सा भणति- दुछु ते कतं जे सो न लइओ, सो भणतिकिचिओ आणमित्ति, वाहिरियाए जन्थ जत्थ इट्टगं पेच्छति तत्थ तत्थ पादे अक्खलिओ अप्पर्ग पाडेति, सो छोडिपडिको गसो,। न य किंचिवि लद्ध, एवं तुमंपि संसारे सुचिरं भमिहिास, बोहिदीणारं लद्धं आहच्चभावालंबणेण अकरेंतो अण्णे बोधिदीणारे अलभतो इत्ययमभिप्रायः, जथा- बबहारविधी एसो, तेण पायं आलयादी हि लक्खिज्जति सुनिहितऽसुविहिता, जदिनि य करथाइ अनुक्रम [१०] (36) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 पत दीप प्राणाणेत्ति गतं । न लक्खिज्जति तहवि आगमोवयोगतो पयत्तो सुद्धो चेव, तम्हा आगमोवउत्तेहिं पयत्तेहिं सब्वमट्ठाणमणुसीलणीयंति एस .दर्शनपक्ष वन्दना ध्ययन कप्पो अम्हति, जे पुण जदिच्छालभं गहाय अण्णसिं सत्ताण संसारं नित्थरितुकामाणं उम्मग्गं देसयंति तस्थ गाथा-।। १२-५३ ॥ खण्डनं 4॥११६४ ॥ उम्मग्गदेसणाए करणं- अणुहाणं णासति जिणवारदाणं, संमत्तं अप्पणो असि च तं वावणं ते वावष्णदसणा, जेण ते करणं न सदईति, मोक्खे य विज्जाए करणेण य भणितो, अण्णेसिं च मिच्छत्तुप्पायणणं एवमादिएहि कारणहिं वावष्ण॥३१॥ दसणा, खलुसद्दा जदिवि केई निच्छयविधीए अबावण्णदसणा तहवि चावण्णदंसणा इव दवा, ते य दट्ठपि न लम्भा, किमंग | पुण संवासो सभाजणो संथवो वा, हुसहो अविसदस्था, सो य ववहितसंबंधो दरिसितो चय, न लब्भा नाम न कप्पतीति । | इवाणि ईसणेत्तिदारं, दंसणं गहाय उबद्वितो सीसो,जदि बावण्णदसणा दटुंपि न कप्पति तो जे दंसणिणो ते मम पुज्जतरा, तत्थ चव घणं लग्गितब्य, जेण य सम्मचमूलियाणि सब्वाणि ठाणाणि, उक्तं च-द्वारं मूलं प्रतिष्ठासं० ॥ अतः सम्बग्द-11 शनावगाढेन भवितव्यं । एवं च जारिसा आलंचंति तान् भणति आयरिओ-धम्मनियत्तमईया ॥१२-६१|| ११६९ ॥ चरित धम्माओ नियत्तमतीया, परलोगो-निपाणं तस्स परंमुहा, किनिमित्तं ते एवंविधा, जतो चिसएसु गिद्धा जेण चिसयलोलुयताए है चरणकरणं काउमसत्ता,ते य एवंविधा-सपक्खसंधारणत्यं सेणियराय आलंबणं करेंति,किह?- सेणिओ आसि तथा बहुस्सुओ• ॥३१॥ P॥ ११७० ।। वृत्तं वंशस्थे । अषिय- मोक्खस्स परमं साहणं समचं चव, तेण भट्ठण चरित्ताओ० ॥ ११७१ ।।चरिचविमुद्रीय दमद्वेण मुद्धृतरं दसणे लग्गितच, जेण सिझंति चरणरहिता दंसणरहिता ण सिझंतित्ति । एत्थ आयरिया भणंति अनुक्रम [१०] ... दर्शनपक्षस्य खंडनं (37) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 दीप अनुक्रम [१०] वन्दना- १ नाणचरणरहितेणं देसणेणं मोक्खो न भवति, जथा दर्शनपक्ष ध्ययन जह तिक्खरुईवि० ।। २२ प्र. । इय नाण ॥ २३ प्र. ॥ जं च भणसि न सेणिओ आसि तदा बहुस्सुओ न यावि | खण्डनं चूर्णी पण्णचिधरो न वायगो तेणं चेव ( नरगं गतो, जहा) बोराणि, जथा-एगो माइणेज्जस्स घरं गतो पाहुणओ, तेण तस्स बोरचुण्णो ॥३२॥ दिण्णो, भणति-माम! मए अइसमं करिसणं न कतं, पच्छा सो भणति--भाइणज्जातो चेव बोराणि । एवं सिस्सा जेणेच सेणिओ५॥ | अबहुस्सओ तेण चेव नरगं गतो, तथा च-दसारसीहस्स य सेणियस्स० वृत्तं उपेन्द्रवज्जा (११७२ ) दसारसीहो कण्हवासु-1 देचो, सेणिओ उ पसेणइसुतो, पेढालपुत्तो सच्चती, एतेसि अणुत्तरा खाइयदसणसंपदा तदावि चरित्रण विणा अधरं गति-12 दिनरकगतिं गता । अण्णं च-सव्वाओथि गतीओ०॥ ११७३ ॥ जदि चरणरहिता सिज्झता दसणनाणेहिं चेव तो तब युद्धीए। नेरतिया तिरियाबि देवावि अकंमभूमिगावि सिझेज्जा, जतो णाणदंसणा तत्थवि अस्थि, न य सिझति, तेण दसणं चेव असाहंग, अविय-मिच्छविडीयावि अणंतरागता मणुस्सेसु उपवण्णा चरणगुणेण केह सिज्झति, तो को व तव दंसणे असग्गहो, जे तुम भणसि--दसणं घणं परिघेतब्बति ?, किं च-चरिचे ठितेण दंसणं धणं गहितं चेक भवति । जतो-संमत्तं अचरित्तस्स होज्ज। भयणाए नियमसो नस्थि । जो पुण चरित्तजुत्तो तस्स हि नियमेण संमत्तं ॥ ११७४ ॥ जो पूण चरित्तं कातुमसमत्थो | तस्स ताव दंसणपक्खोवि भवतु, जतो-- दसणपक्खो सावग चरित्तभडे य मंदधम्मे य० ॥११७७ ।। सावओ न सकेति विसयगिद्धो पन्चहतं, सो भणति- ॥३२॥ |दसणंपि ता में होतुत्ति तस्स स पक्खो , चरित्तभहे वा एवं चेत्र, मंदधम्मे वा जो गहितं भजति, जो पुण चरितं कातुं सतो (38) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) भाष्यं [२०४ ] निर्युक्तिः [११११८-१२२९/११०३-१२३०], अध्ययनं [3], मूलं [१] / [गाथा - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 बन्दनाध्ययन चूर्णां ॥ ३३ ॥ नेव्याणकखी समणो तेण दंसणपक्खो चरिपक्खो य लएतब्बो, दंसणे नियमा नाणंति तिण्डं समायोगेण णेव्वाणं लम्भतित्ति । पुणभूतलोयणेण सीसो आह-जदि अणुत्तराएवि दंसणसंपदाए गाणे य होन्तएण अधरिं गतिं गम्मति, चरितं चैव पहाण मोक्खसाहण, तंमि चैव वरं पयथितब्धं किं णाणदंसणेहिं ?, आयरिया भणति तं चरितं णाणदंसणविरहितं न चैव भवति, तम्हा तमिच्छंतेण णाणदंसणेसु पयइतव्यं, अमहा न चैव पयतितं चरणे भवति, जतो तप्पुब्विगा चरणस्स य सिद्धी इति आह च पारंपरप्पसिद्धी० ॥ ११७८ ॥ दंसणणाणेहि पारंपर्येण चरणस्स पगिड्डा सिद्धी भवति, जथा रुईए विष्णाणे दंसणे व तहाविहाणं अण्णापाणाण पारंपर्येण पगिट्टा सिद्धी भवतिति । पणु जदि एवं से तो किं घरणं विसेसिज्जति?, भण्णति, जम्हा दंसणणाणा० । आह- णाणदंसणचरिततवेसु जेचियं सकति उज्जमितुं तत्तिएण चैव गुणो भवति, तुम्हच्चए पुण चरणे जदि सव्वं न पालति तो विराहगं भणह, तो कहं उज्जमितित्था', जेत्तियं पुण सकेमो तेत्तियं उज्जमंताणं सेस अकरेंताण किमिति गुणं न भणइ ?, भष्णति, अणिगृहन्तो विरियं न विराहति करणं तवसुते ( ११८१ ) तपःश्रुतयोः यत्करणं तं अनिगृहंतो विरियं जदि करेति तो न विराहेति । एवं जदि संजमेवि विरियं न निगृद्देज्जा-न हाबेज्जा। संजमजोगेसु सदा० ॥ १९८२ ।। आह-जे पुण आलंवणमासृत्य बाहिरकरणालसा भवति तेसिं का वार्ता इति ?, उच्यते आलंय ॥ ११८२ ॥ आलंबणेण 'काहं अछित्ति अदुवा अधी' इत्यादिना केणइति जे मण्णे संजम पमादेति न हु तं आलंयणमेत्थं प्रमाणं भवति, किंतु भूयत्थगवेसणं कुज्जा किं तु पुट्ठआलंचणं तत्र उयाहु अपु-अण्णा, एवमादिभूतस्थगवेसणं कुज्जा । गणु पुडालंबणेण संजम पमादेतस्स किं कोति विसेसो उपजायते जेण सो आराहगो भवति ?, उच्चते ... आलंबनवादस्य खंडनं (39) आलम्बन बाद खण्डनं ॥ ३३ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 दीप पन्दना सालवणी पडती० ॥११८४॥ इहालंबणं दुविह- दथ्वालंबणं भावालंबणं च, दब्बालंबणं गड्ढादिसु पवतेहिं आलंबिज्जतिआलम्बनध्ययुन लाज दब, तपि दुविहं-पुट्ठमपुढे च, अपुढं दुबलं कुसप्पयगादि, पुटुं बलियं तथाविहं वेल्लिमादि, एवं भावालंबणंपि अपुढे जा वाद चूर्णी शणाणादिउवगारे ण सुट्ठ वरति, पुट्टमितरं, उक्तं च काहं अछित्ति अदुवा अधीहं, तपोवहाणे उ उज्जमिस्सं । गणं खण्डन ॥ ३४॥ वणीती अणुसारविस्सं, सालंयसेवी समुवेति मोक्खं ॥१॥ तदेवं जधा पुढालवणो पडतोवि अप्पगं दुग्गमे धारेति एवं 8 हैपुट्ठालंबणसेवा धारेति जतिं विराहणागडए पडतं असढभावं । व्यतिरेकमाह-आलंवणहीणो०॥ ११८५ ॥ एवं दसणंतिगतं । भाइदाणिं णीयावासे य जे दोसेचि दारंलि जे जत्थ जदा०॥ ११९६ ।। अयमभिप्राय:-जथा चोरगहितो असमस्थो धाउलिओ विप्पलवति एवं एतेवि चरित्तादीणि असमत्था अणुपालतुं तो जत्थ चेव ठिता तत्थ चेव बितिज्जगं, मग्गं वा इम पहाणं घोसति, जथा सिणपल्लिं सस्थो पविट्ठो, | अण्णो जणोषि उचिण्णो, सीतलासु छायासु पाणियाणि पिता सुहं सुहेण विहरति, अण्णे पुण परिस्संता पविरलासु छायासु &ाजेहिं वा तेहि वा पाणिएहि पडिबद्धा एगवासे अच्छति, अण्णे य सहावयंति, इहं इमं चेव पहाणं, इहवि ते चेव गुणा तत्थवि तेव, तत्थ य सत्थे केह तेसिं पडिसुणेति कह न सुर्णेति, जे सुणेति ते तण्हाछुहातवादियाण दुक्खाण आभागी जाता, जे न सुणंति ते खिप्पामेव अद्धाणसीसयं गंतु उदगस्स सीतलस्स छायाणं आभागी जाता, एवं इमे पासत्थादयोऽपि सकलं चरित्तं असमत्था अणुपालेतुं तो भणति इमाणि णाणाविधाणि आलंबणाणि णाणदंसणादीणि, किं च-जाणि थेरेहि कारणाणि आसेवि ॥ ३४॥ याणि असढेहिं ताणि ते आलंबणाणि करेंति, एवं जथा ते पुरिसा सीदति तहा एतालंपणा पासस्थादीवि, जथा ते निरिथण्णा अनुक्रम RECEREBRARENESS [१०] (40) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 आलम्बन वाद" खण्डन R बन्दना- 18 तथा सुसाहुत्ति । काणि पुण थेरेहिं कारणेहिं आसविताणि असढेहिं जाणि ते आलंबंति ?, भण्णतिध्ययन का..नीयावासविहारं ॥११८७॥ केण पुण कारणेण ते एवं आलंतिी . उच्यते-जाहेबिय परितंता०॥ १९८८।। तथाहि-1 चूणा एगो पचइओ परिततो भमिउं ताहे एगत्थ अच्छति, अण्णण साधबो भणति-किं अज्जो दुसमट्ठो अच्छसिी, न वरसि, बिहराहि, ॥३५॥ भणितं च अणियतवासो'लि, सो भणति- को एस्थ दोसो जदि अच्छिज्जति, जाद दोसो होति तो संगमधेरा ण अच्छंता, किह संगमथेरति ?, तेसि उप्पची-कोल्लइरं नगरं संगमथेरा, दुभिक्खणं पम्बइयगा विसज्जिता, ते तं नगरं नवभागे कातूणं | जंघायलपरिहीणा विहरति, नगरदेवता य तेसि किर उपसंता, तेसिं सीसो दत्तो नाम आहिंडओ, चिरेणं कालेणं उदंतवाहओ आगतो, सो तेसि पडिस्सयं न पविट्ठो नियतवासित्ति, भिक्खावेलाए ओगाहितं हिंडंताणं संकिलिस्सइ, कोंटो सङ्ककुलाई न दावेतित्ति, तेहि नातं, एगत्थ सेट्टिकुले रोइणियाए गहितओ दारगओ, छम्मासा रोक्यंतस्स, आयरिएहिं चप्पुडिता कता--मा | रोवत्ति, बाणमंतरीए मुक्को, तेहिं तुढेहिं पडिलाभिता जहिच्छितणं, सो विसज्जितो, एताणि अकुलाणित्ति आयरिया सुचिरं हिंडितूणं अन्तं पन्तं गहाय आगता, समुद्दिा, आवस्सए (भणति) आलोएहि, भणति-तुब्भेहिं समं हिंडितो मि, धातीपिंडो ते भुत्तो, भणति-अतिसुहुमाई पेच्छिहित्ति बडो, देवताय अड्डरने बासं अंधकारो य विगुरुम्बितो एसो हीलोतीति, आयरिएहिं भणितो-अतीहिात्ति, सो भणति-अंधकारोत्ति, आयरितेहिं अंगुलीए दाइत, सा पज्जालिता, आउट्टो आलोएति, आयरियावि से | णवभागे परिकहंति, एवं एस पुढालंचणो ण होति सबोर्सि नितियावासीणं व्यपदेशः । अण्णे चेतियाणि नीस करेंति, अहं चेइयाणि | सारचेमि, णस्थि कोइ सारखेन्तोति,तेण ण उज्जमामि, कुलकजं वा करेमि, एवं गणसंप० एतेसिं चेव वेयावच्चं कातन्वं चेव, दीप अनुक्रम [१०] 4tik SC-SACARE ...नित्यवासे संगमस्थवीरादिनां द्रष्टांतानि (41) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्रअध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 बन्दनाध्ययन ॥ ३६॥ दीप अनुक्रम जथा विण्हुणा मधुरासमणगेण वा कतं, अण्णं वा किंचि आलंयेति, अहवा अज्जवइरसामी किं अजाणओ', तो दम्वत्थओ आलम्बनभट्टारगाणं कओ, तो अहपि करेमि, नत्थि एत्थ दोसो। एवमादीणि अभिगिज्झ अकिच्चाणि सेवंति, ताणि पुण पुष्पाणि बाद अग्गिवरे पुबुक्खताणि धूवेण य अचित्तीकताणि अण्णाणि य कारणाणि न गणंति, ताहे ते भणंति-अज्जो! चेइयकुलगणसंघेश खण्डन आयरियाणं च पचयण सुते य । सब्बेसुवि तेण कतं तवसंजममुज्जमतेण ॥१॥ ___अण्णो पुण अज्जिताहिं भत्तपाणं आणीतं लएति, सो भण्णति- अज्जो न वट्टति, भणति-को दोसो?, जदि ण चट्टज्जा तो अण्णियपुत्ता पुष्कचूलाए आणिएल्लयं न भुजतो, तेणेव य भवेणं सिद्धो, तो के अत्थ दोसोत्ति । कहाणगं जोगसंगहे भ-1 पिणहिति । सो भण्णति-जे थेरा जंघाचलपतिहीणा तवस्सी बहुस्सुता ता कज्जं अकज्ज वा जाणंति तुम किट्टगाही परिपूणगो जथा, एक्केण असंमें आचरितं पमाणं, जे रिसिसहस्सेहिं अणाचरितं तं गेण्हसि असम्भावं, थेरीकरितुं मग्गसि, अप्पाणंपि दुहहतं करोसि, 31 एकता चरसि, बीयं पण्णवेसि असम्भावं । अण्णो रसपडिबद्धो साहूहिं वारिज्जति-ण वदति रसपडिबंधो, रसपरिवज्जणता तवो, सो भणति-को दोसो, जदि अकप्पो होज्जा तो उद्दाइणो रज्जं परिचत्ता ण तं भुजज्जा, तस्स उप्पत्ती-उदाइणो राया पब्बइओ, तस्स भिक्खाहारस्स पाही जातो, सो वेज्जेण भणितो-दधिणा भुंजाहि, सो किर भट्टारओ वतियाए पत्थितो, अण्णदा नगर गतो वितिभयं, तस्स भाइणेज्जो केसी तेणं चेव रज्जे ठवितओ, सो कुमारामच्चेहिं भण्णति-एस परिसहपराजितो आगतो, रज्ज मग्गति, देमि, ते भणति-न एस रायधम्मोत्ति बुग्गाहेंति, सुचिरेण पडिस्सुतं, किं कज्जतु , विसं से दिज्जउ, एगाए पसुवालि-1॥३६॥ याए घरे पउत्तं दहिणा समं देहित्ति, सा पदिण्णा, देवताए अवहितं, भणिओ य-महरिसी ! तुम्भ विसं दिण्णं, परिहराहि दधि, S [१०] (42) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 चूणों 85 दीप सो परिहरति, सो रोगो पद्धति, पुणो य जिमिती, पुणो देवताय अवहितं, ततियाए वेलाए देवताए नुच्चति, पुणरवि दिण्णति, आलम्बनबन्दना पि अवहितं, सा तस्स पहिंडिता, अण्णादा पमत्तार देवताए दिण्णं, कालगतो, तस्स य सेज्जातरो कुंभारो सावओ, तमि कालगए वाद ध्ययन देवताए पंसुवरिसं पाडितं, सो सेज्जातरो अवहितो, णाई अम्भतरोत्ति, सिणवल्लीए कुंभारपक्खेवं नाम पट्टणं तस्स नामेणं जातं, तत्व IM सो अवहितो, तं सव्वं नगर पंसुणा पेखितं, अज्जवि पवतो अच्छति । ते एत्थ उदायणं, सो त पासस्थादी भत्तं वा पाणं वा ॥ ३७॥ ॥११९४|| भत्त-ओदणादि पाण-मुद्दियपाणगादि भुजंताणं लावलवियं-लोलियाए उवयेयं असुद्ध-विगतिमिस्सादि, तथा च अकारणे : | पडिसिद्धो चेव विगतिपरिभोगो, उक्तं च-विगई विगतीभीओ विगतगतं जो य भुंजए साह। विगती विगतिसहावा विगतिं विगती वला नेइ ।१।। तो केणति साहुणा चोदिता वज्जपडिच्छित्ता ओदायणं ववदिसंति, अहवा जे बज्जेण पडिच्छा-1 दिता ते एवं बदिसंति-ते भणंति, तेण वाधितेणं सेवितं तुमं किं वाहितो, ते चैव पुब्वभाणिता दोसा एत्थावि, किं च-तुमं नवि | मासं मासं अच्छसि, जदि से आलंबसि तो सणकुमारं किंन आलंबसि, एवं नीयावासादिसु मंदधम्मा संगमधेरादीणि आलं-181 यणाणि आलंधिऊण सीयंति,अण्णे पुण सुत्तत्थादीणि अधिकृत्य सीदति । तथा च|सुत्तस्थ बालबुड्ढे असह दव्वादिआवतीओ या । निस्साण (ग्रं.१४०००) पदं काउंसंथरमाणा विसीदति ॥ ११९०४ * सुत्तं जथा- अहं पढामि ताव किं मम अण्णेण, एवं अत्थं, एवं बालन, चालो आई,बालो वा मम परिवारो तं ताव पालेमि, एवं का चुढा, असहू वा अहं, असहू वा मम परिवारो, एवं दवावदा दुल्लममिदं दध्वं, खेत्तावदा खिल खेन, कालावती दुम्भिक्खादि, भावावदी गिलाणोऽहं, एवमादी हिस्सापदं कातुं संथरमाणावि जदिवि तथापि संथरंति तोचि केई मंदधम्मा विसीदति अप्प FA%2% अनुक्रम [१० R - 6 (43) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ ११११८-१२२१९/११०३-१२३० ], भाष्यं [ २०४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 बन्दनाध्ययन चूण ॥ २८ ॥ - सच्चा, जदि पुण जं वा तं वा आलंघणं आलंबिज्जति तो--- आलंबणा लोगो भरितो० ।। १२०० ॥ किं च दुविधा जीवा- मंदसद्धा तिव्वसद्धा प तत्थ जे मंदसद्धा ते एवंविहे आलंबेति, जे जत्थ जदा० ।। १२०१ ।। जे केति पासस्यादी जत्थ गामे वा नगरे वा जदा काले आसी बहुसुता चरणकरणपन्भट्ठा ते मंदधम्मा गीसाणं करेंति- अमृतो आयरिओ बहुस्सुतो सो पासत्थो, सो किं अयाणओ १, पूर्ण एवंविधो चैव धम्मो भट्टारएहिं दिट्ठोति निम्मा आलंवेति ते यमाणितव्या जदि तेण नीसाणेण पडिसेबसि तो तेसु खत्तेसु तंमिकाले बहुता उत्थिताय तेसिं पच्चएण सुट्टतरं करेहि, अह ते ण आलंचसि इतरे आलंबसि तो सङ्ग्रादी आलंबणं करेचा सङ्कादी होहि निस्सीलो, जदि आलंयदि कज्जं तो अण्णाणिचि एवप्पगाराणि आलंबणाणि ताणं च सव्वलोगो भरितो, अजतुकामो य जं जं पेच्छति तं तं सख्यं चेव आलंयति, सङ्घियाण पुण जे जत्थ जदा० ।। १२०२ ।। तम्हा- दंसणणाणचरिते || १२०३ ।। दंसणायारे अट्ठविहे नाणायारे अद्भुविहे चरिने अट्ठविहे तवे वारसविहे विणए चउबिहे जो पासे अच्छति सो पासस्थो, पासस्था वा जो वीसत्थो अच्छति, एते जसघाती पवयणस्स कई ?, जदि एत्थ एतं न वहति तो कीस एते सेवंति ?, णूणं एस विधी अस्थिति, पुत्रं समणगुणेहिं अहिज्जेतेहिं जसो आसी, इमेहिं सर्वतर्हि ताणि ठाणाणि जसो घातितो तेणं ते जसघाती पण, तम्हा ते पूर्ण अवंदणिज्जा, णणु ते जदि किंचि काहिंति तेसिं चैव मत्थए पडिहिति अम्हे किमिति तेहिं समं बेरं लक्ष्मो १, भण्णतिकितिकमंच पसंसा० ॥ १२०६ || जो करेति पसंसति वा बहुस्सुतो सुसीलो विणीतो एवमादि सो कंमबंधे बहति, कहं ?, जेण जे जे पमादट्ठाणा पंचसु मद्दव्यतेसु उत्तरगुणेसु य ते ते उचबूहिता ता मोति- समस्थिवा, अणुमता इत्यर्थः पुत्रं ते संकृति, (44) आलम्बनबाद खण्डन ॥ ३८ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 चूर्णी दीप अनुक्रम [१०] वन्दना- बंदिज्जता ते नीकिता हॉति, एतेसिपि अणुमतंति । अहवा अण्णे पव्वतितुकामा तेर्सि मूले न पब्धयति पासत्यत्ति, संविग्गेहि वन्द्यवन्दक 12 बंदिज्जमाणे दर्द्ध तत्थ पब्बयंति,एवमादिणा उवहिता भवंति,तो न केवलं तेसिं मत्थए, तववि अणुमती होज्जा, जे पुण विपरीता संविग्गा तेसु कितिकम पसंसा य निज्जरहाए, जेण ज ज विविठाणा ते ते अणुमता होति । नीतावासत्ति गतं ।। एते पास॥ ३९॥ स्थादी पसंगेण भणिता, एते सव्वे किल न बंदेज्जा, जे पसत्थगुणेहिं वइंति ते वंदितव्वा, इमे य ते संगहतो आयरिय उवमझाए॥१२०७॥ एते विभासितबा। तत्थ आयरिया बंदेयच्चा सेबेहिवि, जदिवि ओमरायणिया पच्चरखाणआलोयणादिसु, तमि वंदिते इमऽवि अतिसेसतिति तेवि वंदितव्या, पच्छा उबज्झाओ ओमराइणिओवि, पवित्तीचि पवत्तयतीति, सीदंत थेरो थिरीकरोतीति सामायारीए,पच्छा ओमोवि गणावच्छेदिओ सो गच्छस वत्थपातादीहि उवग्गह करेति, एते किर ओमावि बंदिज्जति, एसो एतेसि आदेसो । अण्णे पुण भणंति- अण्णोवि जो तथाविहो रायणिओ सो वंदितब्बो, रायणिओ नाम जो दसणणाणचरणसाधणेसु सुटु पयतो, एतेसि कितिकम णो इहलोगढताए बंदेज्जा नो परलोगट्ठताए नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्ठताए, नण्णत्थ निज्जरहुताए, बिसेसओ नीयागोकमक्खवणढताए अट्ठविहंपि माणं निहाणिऊणं । कस्सत्ति गतं। इदाणिं केणति दारं । एतेहिं को कितिकम कारवेतव्यो, ताव तत्थ उस्सग्गतो इमे ण कारवेज्जा, मातरं ॥१२०८ ॥ । किनिमित्त लोएपि गरहितं,ताणं च विप्परिणामो होज्जा, पुट्विं अम्ह एतस्स पुज्जाणि आसि,इदाणिं अवमाणेति,(अव)माणो या ॥३९॥ तेसिं जथा पुत्तो वंदावेति, देवताण असे एतस्सत्ति, एवमादि । एवं पिता जेट्ठभाता, रायणियापि । एताणि य पव्वतिगाणिक गहिताणि, सडेसु का पुच्छा ?, ताणि वंदति चव, जदि पुण ताणिवि भणज्जा-अम्हे तुमे विणयमूलाओ धम्माओ फेडिता होमो - -- | वंद्य- वंदकस्य विचारणा क्रियते (45) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्यावन्यकाल ic. R दीप अनुक्रम वन्दना-13 मा वारहित्ति, तो वंदावेति । जदि पुण पति तो सवाणिवि बंदाविज्जति जतणाए, किमिति , सुतं भट्टारंगं बंदिज्जातत्ति, ध्ययन इहरहा णाणविणओ विराहितो भवति, एते दिट्ठा जे न कारेतब्वा,नवरं कारणे उद्देसादीए कारवेतन्या,अहवा धम्मसद्धिया भणज्जा- चूणों अम्हे बंदामो, ताहे वंदाविज्ज, जे पुण अण्णे साधुणो ते कारयेतब्बा, तेहि य एवंविहहिं होतब्ध॥४०॥ | पंचमहब्बत ॥१२०९।। पंचहि महच्चएहिं जुत्तो अणलसो-ण परितमति अहमयट्ठाणवज्जितमतीओ, संविग्गो दव्ये मिगो है भावे संविग्गो सव्वतो अवज्जस्स बीहेति, उक्तं च-मृगा यथा मृत्युभयस्य भीता, उधिगवासे न लभंति निद्राम् । एवं बुधा ज्ञान विशेषबुद्धाः, संसारभीता न कभति निद्राम् ।। १॥ नीयागोतादिस्स कमस्स निज्जरट्ठी य, एरिसो कितिकमकरो भवति ।। | काहेत्ति दारं । काहे कातव्वं काधे न कातव्यं, इह ताव न कातव्यं वक्खित्त० ॥ १२१० ॥ वक्वित्तं पोल्लादीहिं सुत्तत्थचिंतणादीहि वा परंमुहं पमत्तयं कोधादिणा पमादेण आहारते 131 अंतरादीय सीतलं वा होज्जा, एवमादि वित्थरतो विभासेज्जा । इह कातवं-- पसंते ॥ १२११ ।। पसंतो ण आकुलमणो आसणे णिसेज्जाए सुहनिविडो उवसंतो न उ कुद्धो उवहितो छदेणति भणति,अणुण्णवणाए दुवे आदेसा,जाणि धुवाणि बंदणगाणि तेसुण संदिसावेति,जाणि कज्जेसु उप्पत्तियाणि तेसु संदिसावति,तो सुई पच्छा होहिति, मेहावी पुब्बभणितो ॥ इदाणं कतिक्खुत्तो कातव्वं दारं, तत्थ नियताणि अनियताणि वंदणाणि भवन्ति, टिअतो उभयवाणाणि दारगाथाए दसति पडिकमणे सज्झाए ॥ १२१२ ।। तत्थ नियमा चोहसखुचो, उप्पत्तियाणि बहुधावि होज्जा, पुब्बसंझाए चत्तारि पडि + [१०] ॥४०॥ ... वंदन-संख्या दर्शयते (46) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्दनाध्ययन चूर्णां ॥ ४१ ॥ कमणे वंदित्ता आलोएंति एवं चितियं जे अन्धुत्थितावसाने मज्झे वैदंति, मज्झर्वदणए कति वंदितव्या !, जहणेणं तिष्णि मज्झिमेणं पंच वा सत्त वा उक्कोसेण सव्वेवि, जदि बाउला वक्खेबो वा तो एगेण ऊणगो दोहिं तिहिं जाव तिष्णि अवस्स वंदितव्वा, एवं देवसिएवि पक्खिते पंच अवस्सं, चातुम्मासिए संवत्सरिए य सत्त अवस्सं, ते वंदितॄण जं आयरियस्स अलिविज्जति तं ततियं कितिकमं, पञ्चकखाणे चउत्थं कितिकम्मं । तिष्णि सझाए-चंदित्ता पडुबेति पढमं, पट्टविते पवेयंतस्स वितियं, पच्छा पढति, ततो जाहे चउम्भागावसेसा पोरिसी ताहे पादे पाडेलेहिति, जदि न पढति तो वंदति, अह पढति तो अवदित्ता पातं पडिलेहेतूणं पच्छा पढति, कालवेलाए वंदितुं पडिकमति, अह उग्वाडकालियं न पढति ताहे वंदितुं पाए पडिलेहिति एवं ततियं, एवं पुण्यण्डे सत्त, एताणि अन्भचट्ठितस्स नियमा, मत्तद्वितस्स पच्चक्खाणं अम्भहितं एताणि अवस्सं चोद्दस । इमाणि कारणिजाणि उद्देससमुदेसअणुण्णवण्णासु सच, विगति आयंबिल काउस्सगे परियाट्टिएँ समाणे । उपसंपज्जण अवराधविहारा उत्तिमट्ठालोयणाए य ||१|| एतेसुवि दो दो बंदणगाणि, अवराधसंवरणआपुच्छणाकालप्पवेयणादिसु एकेकं, अवराधो गुरूणं | कतो तंपि वंदिता खामेति, पक्खियवंदणगाणिवि अवराहे पडंति, पाहुणगत्ति एत्थ भण्णति पाहुणगाणमागताणं वंदणगं दातव्वं वा पडिच्छितच्वं वा, तत्थ को विधी?, जदि संभोइया तो आयरिए आउच्छित्ताणं वदति, अह न संभोइया तो अप्यण आयरियं वंदिता संदिसावेता वंदति, एवं उभयपक्खेऽवि । आलोयणंति, जाहे विहारालोयणा अवराहालोयणा वा उपसंपज्जणा लोयणा बा, संवरणं वेतालियं अंतरा वा भचट्ठे गहिते इच्छा जाता अज्ज अभत्तङ्कं करोमिति, अवा न जीरातीत्त भत्तङ्कं लाएमि एवं संवरणं, एवमादिसु, उत्तिम भत्तपच्चक्खाणं कातुकामो संलेहे वोसिरणे एवमादिसु विभासा। कतिखुत्तोत्ति गतं ।। कतिओणयंति दारं, | (47) चन्दनसंख्या ॥ ४१ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 % दीप अनुक्रम [१०] बन्दना- दुओणतं जाए वेलाए पढम वंदति जाहे य निप्फेडितूर्ण पुणो बंदति, जहाजाते सामण्णे जोणिणिक्खमणे य, सामण्णे रयहरण अवनाध्ययनाद मुहपोत्तिया चोलपट्टो य,जोणिणिक्खमणे अंजलिं सीसे कातूण णीति । चारसावत्तं पढम छ आवत्ता निक्खीमतुं पबिहेवि छ, अहो-ला माधाः चूर्णी कायादी तिनि तिनि,एते बारस,एताणि अन्तरदाराणि,दोण्णिवि कति ओणयत्ति एतेण सूइताणि । कतिसिरंति, चतुसिर,पढम दोणि ॥४२॥ निक्खंतस्स, बितियाए परिवाडीए दोष्णि, एताणि चत्तारि सिराणि । तिगुतं मणेग बंदणे मणो वायाए वंजणागि अक्खंडे वा लोकाएणं काइया आवत्तातो न विराहेति । दो पवेसा-पढमो इच्छामि खमासमणो०,आवस्सियाए पडिकतो जं उग्गहं पविसति सीसो बितिओ। एगनिक्खमणं आवस्सियाएचि । कतिआवस्सगसुद्धंति, पणुवीसं आवस्सगाणि अवस्स कातव्याणि, कितिकमे ओणामा दोणि २ अहाजातं ३ आवत्ता वारस १५ चचारि सिरा १९ तिगुत्तं २२ दो पवेसा २४ एग निक्खमणं २५॥ कितिकमपि करें ॥ १२१७ ॥ जदिवि अबा किरिया आओएति तहवि तप्पच्चतियाए निज्जराए अणाभागी भवति जो पणवीसाए आवस्सयाणं अण्णतरं विराहेति, को दिढतो?, जहा विज्जाए एगपि विहाणं फिति नो सिझति, एवं इह चितिकंमं जो न विराधेति तस्स विपुलं निज्जराफलं, एतं आवस्सगसुद्धं कितिकर्म जो करेति सो च्वाण पावति, जथा सीतलो, विमाणवास, जथा सावगा अणेगा विमाणवासं वत्ति, अरहतत्तणं वा गणहरतणं वा चकवाट्टित्तणं वा एवमादिए सुद्धकारी भवति। कतिदोसविष्पमुक्कन्ति वारं, बत्तीसं दोसा, अणाढियं॥१२१९॥ मच्छुब्वत्तं ॥ १२२०|| तेणियं ॥ १२२१ दिहमदिटुं०॥१२२२॥ मूयं ॥१२२३।। अणाढियं नाम अणादरेण वंदति १ थी अडण्ई अण्णतरेण मचोरपविद्धं वंदणमंद देंतओ चेव उद्देत्ता णासति३ परिपिंडितं, भणति-एतं मे सन्नस्स चेव कालप्पगतस्स बंदणम,अहवा न वोच्छिष्णो आवते पंज-1 % FEBRASSESAEKAR |४२ HOME ... वंदन-विषये ३२ दोषाणां वर्णनं क्रियते (48) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 दीप अनुक्रम [१०] वन्दना-पटणाण वा करेति, पिंडलओ वा जाहओ वंदति, संकयओ उप्पीलणसंपीलणाए वा वंदति ४ टोलगति टोलो जथा उद्वेता अण्ण-12 ३२ दोषाः ध्ययनमा मण्णस्स मूलं जाति५ अंकुसो दुविहो, मूले गंडस्स, रयहरणं गहाय भणति-निवेस जा ते वदामि, अहवा दोहिवि हत्थेहि अंकुसी चूर्णी जथा गहाये भणति-वंदामि ६ ककछभरिंगियं एक्कं बंदिता अण्णस्स मूलं रंगतो जाति, ततोवि अण्णस्स-मूलं जाति ७.मच्छु ब्वत्तं एक वंदितूर्ण छडति वितिएण पासेंति परियत्चति रेचकावर्तन ८ मणसा पदुह, सो हीणो केणति, ताहे हियएण चितेति॥४३॥ एतेण एवग्गतेणं बंदाविज्जामि, अण्णं वा किंचि पओसं बहति ९ वेदियाबद्धं नाम तं पंचविहं-उवरिं जाणुगाणं हत्थे निवेसितूणी वंदति हेट्ठा वा जानूकाणं एग वा जाणुं अंतो दोण्इं हत्थार्ण करति उच्छंगे वा हत्थे कातूणं बंदवि १० भयसा भएणं बंदवि, मा निच्छुम्भिहामि संघातो कुलाओ गणाओ गच्छाओ खेत्ताओति ११ भयंतं नाम भयति अम्हाणं अम्हेवि पडिभयामोत्ति १२ 8 मेत्तीए स मम मित्तोत्ति, अहवा मेचि तेण समं काउं मग्गंति १३ गारवा नाम जाणतु ता ममं जहेस सामायारीकृसलोति १४४ कारणं नाम सुत्तं वा अत्थं वा बत्थं वा पोत्थगं वा दाहितित्ति कज्जनिमित्तं बंदति १४ तेणियं नाम जदिदीसति तो चंदाते, अहवा न दीसति अंधकारो वा ताहे न वंदति१५ पडिणीयं नाम सण्णभृमं पधाइयं वंदति भोत्तुकाम,पढितं वा भणति-भट्टारया अबस्स बंदितब्बगा १७ रुटुं रुटुं नाम रोसिओ केणति तो धमधमेतेण हियएण वंदति १८ तज्जितं नाम भणति-अम्हे तुर्म बंदामो, तुमं पुण न वाहिज्जसि न वा पसीदास जथा थूभो, अंगुलिमादीहिं वा तज्जेंतो वंदति १९ सदं नाम हट्ठस-&॥४३॥ मत्थो निद्धम्मलेण रज्जुगोजं करेति, संघसं करोतीत्यर्थः २० हीलितं नर्ममि वायगा वंदितुं गणी महत्तरगा जेट्ठज्ज एवमादि २१ पलिकुंचितं नाम बंदतो देसरायजणपदविकहाओ करेति २२ दिहमदिई नाम एवं सिग्पं बंदति जथा केमाह दिडो केणइ SESS (49) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 चूणों ॥४४॥ दीप अनुक्रम [१०] वन्दना वन्दनन दिडो २३ सिंग नाम सीसे एगेण पासण वंदति, अहवा अण्णेहि साहिं समं संगेण जह वा तह वा वंदति २४ करो नाम ध्ययन फलम् एसोचि राणओ करो जह व तह व समाणेतन्यओ,वेड्डी एसा न निज्जरति मंणति२५ मोयणं नाम न अन्नहा मोक्खो,एतेण पुणला | दिण्णण मुच्चामित्ति बंदति २६ आलिद्धमणालिद्धं रयणहरणे य निडाले य किंचि आलमति किंचि नालभति, एत्थ चउभंगो, सीसे आलिई स्यहरणे आलिद्धं ४, पढमो सुद्धो २७ ऊणं बंजणेहिं आवस्सएहिं वा २८ उत्तरचूलिया नाम एतेहि वंजणेहिं आवस्सएहि वंदित्ता भणति- मत्थएणं बंदामित्ति २९ मूर्य नाम मृयो वंदति न किंचिवि उच्चारेति ३० महता सद्देण ढङ्करं ३१ चुडली नाम चुडलं जथा रयहरणं गहाय बंदति, अहवा दिग्ध हत्थं पसारेति, भणति- वंदामि, अहवा हत्थं भमाडेति, 5 सब्बे मे बंदामित्ति ३२ । एते बत्तीस दोसा, एतद्दोसबिप्पमुक्कं कितिकम कातव्वं । जो एतेसिं बत्तीसाए अण्णतरेणं अविसुद्ध Mबंदति सो ताए वेणयिताए निज्जराए अणाभागी भवति । जो पुण11. बत्तीसदोसपरिसुद्धं०॥ १२२५ ।। कहं पुण सो एताओ एतं पाविति, भण्णति-आवस्सएसु जह जह ॥१२२६।। दोसा गता । इदाणि कीस कीरतित्ति दारं, तत्थ विणयोवयार० ॥ १२२७ ॥ विणयोवयारो कतो भवति, जतो-विणओ सासणे मूलं०॥१२२८।। विणयस्स पुण इमा णिरुत्तगाथा-जम्हा विणयति कम, विणयति नाम चिविहं नयति विनयति, अणे| गधा विणासयतित्ति जं भणित, किमत्थं ?, चातुरंतमोक्खाय चातुरंतो-चतुग्गतिओ संसारो तस्स मोक्खत्थं, तस्माद्बदन्ति ॥४४॥ विद्वांसः विणय इति,विलीणसंसारास्तीर्थकरादयः, अहवा विणीयसंसारा विनष्टसंसारा इत्यः ,सो सासणे मूलं धम्मस्स,माणित सोच-विणयमूलए दुविध धम्मे- अगारे अणगारेति, एकेको पंचविधो. पाणातिपातादि, जो विणीतो स संजतो, अविणीतस्सा RECE (50) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) भाष्यं [२०४ ] अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्दनाध्ययन चूणी ॥ ४५ ॥ कओ धम्मो कओ तवो ?, उक्तंच वृज्झती से अविणीतप्पा कठ्ठे सोयगतं जथा संसारसोतेणं, विणीतो पुण सव्वसंपत्तीओ लभति, उक्तंच 'तथारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासेमाणस्स किंफला पज्जुवासणा १, गोतमा । सवणफला, एवं विभासा जह पण्णत्तीए। एवं विणओवयारो कतो भवति तथा माणस्स भंजणा अडविहस्सवि माणस्स भंजणा कता भवति, गुरुपूया य कता भवतित्ति, तित्थगराणं च आणा, सुतधंमो एस गुणवतो पडिवत्तित्ति आवासए भणितं एतं च सुतं तेण सुतधम्माराधणा कता भवति, अह्वा सुतधम्माराधणा, जतो बंदणपुब्वगं सुतग्गहणं एवमादि, किरिया य कृत्यमेतत् तं च कर्त भवति, अहवा किरिया भविस्सति एस विणीओति, अहवा किरिया कंमखवणं कतं भवतित्ति, एवमत्थं कीरति कितिकंमति । एवं नामनिफण्णो गतो, इदाणिं सुत्तालावगनिष्फष्णो निक्खेवो, सो व पत्तलक्खणोऽवि न भणति इत्यादि जथा सामाहुए, सुत्ताणुगमो सुतं अणुगंतव्वं अक्खलितं अमिलितं जाव कितिकम्मपदं वा णोकितिकम्मपदं वा, तत्थ 'संहिता य पदं चैव ०' सिलोगो, तत्थ सहित ईच्छामि खमासवणो! सव्वं उच्चारतन्वं पदमिदाणि इच्छामित्ति पदं खमासमणोत्ति पदं, एवं वंदितुं जावानिज्जाए निसीधियाए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि अहोकार्य कायसंफासं खमणिज्जो में किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वतिक्कंतो जत्ता मे जवणिज्जं च मे खामेमि खमासमणो ! देवासयं वितिकमं आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्चीसण्ण्यराए जॉकनिमिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सब्वमिच्छोवयाराए एवं सव्वधम्माइस्कमणाए आसातणाए जो मे अतियारो कतो तस्स खमासमणो पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामित्ति पदानि । इयाणि पयत्थो, तत्थ 'इषु इच्छायां' 'क्षमूषू सहने' 'श्रमु तपसि •••अत्र 'वंदन' सूत्र लिखितम् (51) वन्दनसूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्दनाः ध्ययन चूर्णी मुत्राथे ॥४६॥ खेदे च श्राम्यतीति श्रमणः क्षमाप्रधानः श्रवणः क्षमाश्रवणः, चंदनम्-उक्तनिर्वचनं, एवं पगतिपच्चयविभागेण पदस्थो भाणिबन्यो, वन्दन|एस्थ पुण भावत्थो भण्णति तत्थ किर अप्पच्छंदेण [अप्पच्छंदे] अविसए असत्तस्स अविहीए करणं न वट्टतित्ति बंदगो गुरुं बंदितु उज्जुत्तो उवम्गाओ बाहिं ठितो ओणयकायो दोहिवि हत्थेहि मज्झे गहितरयहरणो एवमाह-इच्छामि स्वमासवणो इच्चादि, वंदितुं इच्छामि तुम भो. खमासवणो, खमागहणे य मद्दवादयो सूदता, ततो खमादीयो जदिधमो, तप्पहाणो समणो खुमासमणो तं आमंतेति, जावणि-है। णिज्जाए निसीहियाए यावणीया नाम जा केणति पयोगेण कज्जसमत्था, जा पुण पयोगेणविन समत्था सा अजावनीया, ताए जावनिज्जाए, काए -निसीहियाए, निसीहिनाम सरीरगं वसही थोडलं च भण्णति, जतो निसीहिता नाम आलयो वसही थंडिलं च, सरीरं जीवस्स आलयोति, तथा पडिसिद्धनिसवणनियत्तस्स किरिया निसीहिया ताए, तत्कोऽर्थः ?- हे समण-| गुणजुत्त ! वंदितुं इच्छामि, कह , विसक्तया तन्वा, कहं ?- विपडिसिनिसहकिरियाए य, अप्परोगं मम सरीरं, पडिसिद्धपावकमो य होतओ तुम वंदितुं इच्छामिनियावत् , एत्थ बंदितुमित्यावेदनेन अप्पच्छंदता परिहरिता, खमासमणाति अणेण अविसयो परिहरियो, जापनिज्जाए निसीहियापानि अणेण शक्तत्वं विधीय दरिसिता, सेसपदाणि पुण विधीए विभासितव्वाणित्ति । एस. विसयविभागो । कहिं २ पुण एत्थ उबरमो ?, भण्यति- इच्छामि खमासवणो! वंदितुं जावानिज्जाए निसीहियाए, एस एकको ||॥४६॥ फुडचियडसुद्धवंजणो उच्चारेक्य्वो सबविधीए, तत्थ जदि बाधा अस्थि काइ तो भणति-अच्छ ताव, जदि तं अक्खाइसच्वं तो अक्खाति, अह रहस्सं तो रहकरस-चेव कज्जति, जदि पहिच्छितुकामो ताहे भगति- छदेणं, छंदेणं नाम अभिप्पारण, ममामि SAMASSA ... अथ वंदन-सूत्रस्य व्याख्या वर्णयते (52) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ॥१७॥ दीप वन्दना- प्रेतमित्यर्थः । ताहे सीसो भण्णति- अणुजाणह मे मिसोग्गह, एत्थ उग्गहो आयरियस्स आतप्पमाणं खेचं, ते आयरिओग्गहो, XI बन्दन ध्ययन IPा अणण्णवेता न वकृति पविसेतु, तो वंदितुकामोतं अणुण्णावेति, जथा- मम परिमित उग्गह अणुजाणह, ताहे आयरिओ। चूर्णी मणति- अणुजाणामि, ताहे सीसो आयरियउग्गहं पत्रिसति । पविसित्ता संम रयहरणं भूमीए ठावेत्तातं निडालं च फुसंतो भणति-14 अहोकायं कायसंफासं खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलताणं बहुसुभेण दिवसो बतिक्कतो, रायणियस्त सफासोवि अणणुण्णवेत्ता ण बट्टति कातुं तो एबमाह- अहोकायं आसृत्य मम कायसंफासं, अणुजाणहत्ति एत्थकि संबज्झति, अहो-12 कायो पादा, ते हि रयहरणे णिवसित्ता अप्पष्णो कायेण हत्थेहि फुसिस्सामि, तं च मे अणुजाणहत्ति, भणति य खमणिज्जो मे किलामो, 'क्षमप सहने' सहितच्यो तुम्भेहि किलामो, 'कलमु ग्लानौ' संफास सति वेदणारूवे, किंच. अप्पकिलंताण पहुसुमेण दिवसो वितिक्कतो, अल्प इति अभावे स्तोके च, अप्पवेदणाणं बहएण सुभेणं भवतां दिवसो वितिक्कतो, दिवसो पसत्थो अहो&ारत्तादी य तेण दिवसो गहिता, राती पक्खो इच्चादिवि भाणितब्ब, एत्थ आयरिओ भणति-तहत्ति, एसा पडिसुणणा। अब्बा-8 वाहपुच्छा गता, एवं ता सरीरं पुच्छिते, इदाणि तबसंजमनियमजोगेसु पुच्छति-जत्ता में संजमतवनियमसज्झायआवस्सएहि J ॥४७॥ अपरिहाणि, चरणजोगा उस्सप्पतिति भणितं भवति, ताहे आयरिओ भणति- तुमीप बढ़ती?, जत्तापुच्छा गता। इदाणि । नियमितव्येस पुच्छति-जवाणिज्जचभे जवणिज २-१दियणोइदिय०, इंदियजवणिज्ज निरुपहताणि बसे यमे वहति इंदि-1&। याणि १, णो खलु कम्जस्स बाधाए बढतीत्यर्थः, एवं ता इंदियजवणिज्ज, कोधादीएविणो मे पाहेति २ । एवं पुच्छति पराए। भनीए, विणओ य कतो भवति, एवं पडिसुणणा। जवाणिज्जपुच्छा गता। इवाणिं अपराधखामणा, ताहे सीसो पुच्छति अनुक्रम [१०] 5AE%ERES (53) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्दना FACANCIt दीप अनुक्रम वन्दना- पादेसु पडितो-जं किंचि अवरद्धं खामेतुकामो भणति- खामेमि खमासमणो ! देवसिय यतिक्कम, बतिक्कमो नाम अति-11 ध्ययन हक्कमस्स बीओ अवराधो, सो य यतिक्कमो जे अवस्स कराणिज्जा जोगा विराधिता तत्थ भवतित्ति आवस्सियाए गहणं, दिवसे | चूर्णी भवो देवसिओ, देवसियग्गहणेण राइयोबि गहितो, ताहे आयरिओ भणति- अहमवि खामेमि तुमे, पच्छा एगनिक्खमणं निक्खम४. मति । सीसो ताहे भणति- पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसातणाए तेत्तीसण्णतराए जं किंचि इचादि, पडिस्कमामि नाम अपुणक्करणताए अन्मुडेमि, अहारिहं पायच्छित्वं पडिवज्जामि खमासमण, देवसियगहणं तहेव । आसातणा तेत्तीस, जथा दसासु, तेत्तीसाए अण्णतराए, सब्बाओ न राईदिए संभवंति तेण अण्णतरग्गहणं, एक्का वा दो वा कता | | होज्जा, जंकिंचि अवरद्धं तत्, किमुक्तं ?- समासमणा ! देवसिओ जो वतिक्कमावराधो आवस्सिगाविसयो तं खामेमि, अपुणक्करणताए य अन्भुट्टेमि, अथारिहं पायच्छित्तं पडिवज्जामि, तथा खमासमणाणं देवसियाए आसातणाए तेत्तीसअण्णतराए जं किंचि अवरद्धं तपि खामीम, अपुणक्करणताए अब्भुढेमि, अहारिह पायच्छित्तं पडिवज्जामि इतियावत् , एगो किरुचाणं अकरणे अवराधो तं खामेमि पडिक्कमामि य, वीओ पडिसिद्धकरणे तंपि खामेति पडिक्कमति य इत्यर्थः, एवं देवसिय खामित, एतेण पुण सव्वं सव्वकालियं खामेति किीचीमच्छाए इच्चादिणा, जं किंचिसद्दो एस्थवि संबज्झति, मिच्छाभावेण कता मिच्छा, मणेण दुछु कता मणदुक्कडा, एवं वइदुक्कडा कायदुक्कडावि, कोषभावेण कतो कोधो, एवं माणो माया लोभो, सय्यकाले भवा: सन्चकालिगी, पक्खिका चातुम्मासिया संवत्सरिया, इह भवे अण्णेसु वा अतीतेसु भवग्गहणेसु सबमतीतद्धाकाले, सव्वमि- ॥४८॥ च्छोवयारं नाम सवेण जेणे केणवि पगारेण दुसितभावेण कता, सव्वधम्माइक्कमणाए धम्मा करणिज्जा जोगा सव्वे जे [१०] (54) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) भाष्यं [२०४ ] अध्ययनं [3], मूलं [१] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [११११८-१२२९/११०३-१२३०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 वन्दना ध्ययन चूर्णी ॥। ४९ ।। केड करणिज्जा जोगा तेसिं विराधणा अतिक्कमणा तीए सव्वधम्मातिक्कमणाए आसातणाए पडिसिद्धकरणं तीए आसातणाए जो मए अतियारो कलो अतियारो नाम अतिक्कमयतिक्कमाणं ततिओ अवराधो तस्स स्वमासमणी ! पक्कि मामि निंदामि गरिहामि अप्पार्ण वोसिरामि निंदणगरिहणवोसिरणाणि जथा सामाइते, तदयमर्थः- मिच्छाभावादिएहिं अण्णेणचि जेण केण पगारेण दूसितभावेण कता सच्चकालिया सम्यकरणिज्जजोगविराधणा तीए जीकचि अवरद्धं तं खामेोमि तस्स चैव अपुणक्करणताए अमित्ति, पडिक्कमामि निंदामि, पच्छाताचकरणेण हा दुडु कर्त० गरिहामि परसक्खिगं अथारिहपायच्छिसपडिवज्जणेण, अप्पाणं बोसिरामित्ति तथा मिच्छाभावादी एहिं अण्णेण य जेणवि केणचि पगारेण दूसितभावेण कता सथ्यकालियाए पडिसिद्धकरणरूवाए आसातणाए तीए सब्वाए जो मए अतियारो ततिओ अवराधो कतो तंपि खामेमि, तस्स पडिक्कमामि य निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामित्ति । एवं पुणोऽवि इच्छामि खमासमणो तहेब जाव बोसिरामित्ति । एवं सीसेण पदे पदे संवेगमावज्जेतेणं नीयागोतखवणडुताए अगोत्तस्स य ठाणस्स फलं हितदए कातूण बंदणगं कातं । एवं पयस्थो भणितो । पदविग्गहोचि समासपदेसु जाणितव्वो । इदाणि सुत्तफासियनिज्जुत्ती इच्छा य० ।। १२-१२२ ।। ।। १२३० ।। छंदेणऽणुजा० ।। १२-१३३ ।। १२३१ ।। तरथ इच्छा य छब्बिहा दो गताओ, दबिच्छा जो जं दव्वं सचित्तं वा ३ इच्छति खेतिच्छाखेत्तं जो जं इच्छति भरहादिं, कालिच्छा जो जं कालं इच्छति, जथा 'रपणिमहिसारियाओ चोरा परदारिया व इच्छति। तालायरा सुभिक्खं बहुधन्ना के दुकूखं ॥ १॥ माविच्छा२ पसत्था अपसत्था य, पसत्था णाणादीणि इच्छति, अप्पसत्था अण्णाणादीणि इच्छति, एत्थ पसत्थिच्छाए अधिगारो, सेसपदाणि ••• अत्र सूत्र - स्पर्शिक निर्युक्तिः प्रस्तूयते (55) इच्छादयः ॥ ४९ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 इच्छादयः वन्दनाध्ययन चूर्णी ॥५०॥ * 35 दीप अनुक्रम [१०] | पुण णए संति एताए दिसाए विभासितब्वाणि । तत्थ दब्बखमा जो असमत्थयाए सहति, भावखमा संसारभया परस्स पीडा ग | कत्तव्यत्ति सहति, दनसमणा णिण्हगादी, भावसमणा जे सम्भाविएसु अहिंसादिसु जतंति, भावखमाए भावसमणेण य अधिकारो। बंदणगं कातुं वंदितुं, बंदणगं पुच्चं भणित, जापनिज्जाए निसीहियाए, दव्वजावणिया जं दर्व केणति पयोगेण जाविज्जति बाहिज्जति, जथा उग्गमणमादीहिं मंडिमादीणि वाहिज्जंति, भावजावाणिज्जा भावो जाविज्जति, दुधिहाए अधिगारो । दग्बनिसीहिया | सरीरं, भावनिसीहिया निसहकिरिया, दुविहाएवि अधिकारो। अणुण्णा छबिहा विभासितम्या, सेवाणुण्णाए अधिगारो । एवं अव्वाचाधादीणिवि सवित्थर विभासेज्जा । इदाणि चालणापसिद्धीओ भण्णंति, तत्थ आह--णणु किमिति पढम पवेसे वंदित खामेतुं पुणोवि य पयेसण वंदति', उच्यते-लोगे जथारायादीणं दूतादयो बहुमाणाणुरागेण पुर्व पणमितूण कुसलबट्टमाणि आपुच्छिय खामेचा पुणो पूणो पणमति पुच्छति खाति, ततो पणमित्ता बच्चंति, एवं लोगुत्तरेवि बहुमाणो, भत्तीए पुचि बंदणपुर| स्सरं विण्यं पयुंजिचा पच्छा खाति आवस्सिगमादि, पुणरवि पणमति। तहेव पुणो आह-जदि तुम्भ वाइग काइगं च जोग | एकत्थ करदता दाकिरियपसंगो होति, निवारियाा सुते दो किरियाओ एकदा बहुसो, तो एवं करतु सच्च पकाडतूण तुहिका आवत्तादी करेतु, एवं सेय, आयरिओ भणति-तुम सिद्भुतं न याणसि, जदा भिण्णविसया भोगा हॉति तदा एकदा णिसिद्धा, जथा अणुप्पेहाति य वकमतीया, णो पुण एगलक्खधा भोगे, दिविवादे एगमि काले बायाए उच्चारेति काएण य भंगे करेति | | मणण य तदुबउत्ते, एवं अम्ह एगमि वेणइए पयोगे दोकिरियादोसा न होंतित्ति | अण्णे पुण एवं परिहरात, जथा किर एगीमा * समए दोसु किरियासु उपयोगो निसिज्मति, न पुण किरियामेनं, जतो तिण्हवि जोगाणं जुगवसंपातो दिट्ठो भंगियसुतादिसुचि। ACE%ACHES MPLOAD ॥५०॥ रुक (56) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ध्ययन चन्दना- एवं दिवसओ वंदणगविधाणं भणिस । रत्तिमादिसुवि जेमु ठाणेसु दिवसग्गहणं तत्थ राइगादीवि भाणितव्वा । पादोसिए जावट इच्छादयः 111पोरिसी न उग्पाडेति ताव देवसिय भण्णति, पुवण्हे जाव पोरिसी न उम्पाडेति ताव राइयति । तेणवि आयरिएण उहएणं । चूर्णी अंजलिमउलियहत्थेण वंजणे पादे य उपउत्तेणं अब्बग्गमणणं पुण्णाए सरस्सतीए अणुभासितव्यं, जथा तस्स सीसस्स संवेगो भवति, ॥५१॥ || संवेगो नाम मोक्खोत्कंठः । संवैगाओ विपुलं निज्जरा फलंति । अणुगमो गतो। .. इयाणिं नया इच्छितव्वा, तत्थ सत्त मूलनया-नेगमसंगमववहारउज्जुसुतसद्दसमभिरूढएवंभूता, ते सव्वेवि दोसु समो तरंति-उचएसे चरणे य, नेगमसंगहववहारा उपदेसनयो, उज्जुसुतसद्दसमभिरूढएवंभूता चरणनयो । तत्र जाणणाणयो ज्ञानोपलब्धि&Iमात्रा, अविशेषितं द्रव्यास्तिक इत्यर्थः, तस्य वंदनाध्ययनस्य सुत्तस्थजाणओ मोक्खगमणाय भवति-- _णातमि गिण्हितब्वे०॥१०६५-१७१८ ।। जतितव्वं नाम करणीयमिति तस्य पिंडार्थः, अयं अस्थिभावं अस्थीति ५ वदति, नस्थिभावं नत्थीति भणति । परमविसुद्धचरणनयो ब्रूते-- __सब्बेसिपि णयाणं ॥१०६६-१७१९ ।। चरणनयः पर्याय इत्यर्थः, तस्य सर्वनयानुमतस्य चरणनयस्य पिंडार्थोऽयं-चरणसंपन्नः साधुर्मोक्षाय भवतीत्येतन्मतं, को हेतुः, जम्हा जस्स चरितं तस्स नियमा संमं नाणं संमं दसणं च भवति, यस्य पुनर्दनिशाने भवतस्तस्य चारित्रं (भजनया) स्यात् , तस्माद् चरणसंपन्नः साधुर्मोक्षाय सर्वनयानुमतो भवतीति नयाः समाप्ताः ॥ संमत्तं च वंदणज्झयण ॥ इह बंदणगझयणषुण्णी संमत्ता ॥ RDERASHISHIRRRRECENTER --- अत्र अध्ययनं -३- 'वन्दनं' परिसमाप्तं (57) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणस्वरूप RECAKC 5 प्रतिक्रमणा इयाणि पडिक्कमणज्झयणं, अथ कोऽस्याभिसंबंध: ?, सामाइकब्बवस्थितेन यथा पत्तकालं उकित्तणादीणि अवश्यकाध्ययने तवाणि, एवं क्वचित् स्खलितेन निंदणअपुणकरणादाीण अवस्सकातब्वाणीति पडिक्कमणरसज्झायण भण्णति, तस्स चत्तारि अणु ओगद्दाराणि उवक्कमणादीणि पुष्वगमेण भाणितवाणि, अत्याधिगारो पुण से खलितस्स निदणा | कमागते नामनिष्फण्णे | ॥५२॥ निक्खेवे पडिक्कमणति नाम,प्रतिक्रमणमिति कोऽर्थः, प्रतीत्युपसर्गः,'क्रम पादविक्षपे प्रतीपं फ्रमण प्रतिक्रमण,प्रतिनिवृत्तिरित्यर्थः। उक्तं च-"स्वस्थानाद्यत्परं स्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते॥१॥क्षायोपशमिकाद्वापि,भावादीदयिकं गतः। तत्रापि हि स एवार्थः, प्रतिकूलगमात् स्मृतः॥२॥"प्रति प्रति क्रमणं शुभयोगसु प्रवर्तनमित्यर्थः, उक्तं च-"पति पति पवत्तणं वा सुभेसु जोगेसु मोक्खफलदेमु । निस्सल्लस्स जतिस्सा जं तेणं तं पडिक्कमण।॥१॥" | करणेण य तिविधा सूया भवति-कर्ता करणं कार्य, एवमिहापि प्रतिक्रमकः प्रतिक्रांतव्यं च प्रतिक्रमणेन सूचितं भवति,तत्थ गाथा | पडिकमओ पडिकमणं पडिकमितव्वं च आणुपुब्बीए । तीते पच्चुप्पपणे अणागते येव कालांमि ॥१३-१।।१२४३।। तत्थ पडिकमओ जीवो पडिक्कमणं भणितनिर्वचनं पडिक्कमितव्वं खलितं, एत्थ गाथा-- जीवो उ पडिक्कमओ०॥ १३-२॥ १२४४ ॥ उसद्दो विसेसणे, तेण निंदणादिपरिणओ तदुवउत्तो जीवो पडिक्कमओ।। 8 केसि ?-- असुभाण पावकमजोगाणं स्खलितानामित्यर्थः, जे पुण झाणपसत्था जोगा तेसिंन पडिकमो॥ध्यै चिंतायां' ध्यान चित्तं ज्ञानमित्यर्थः, ये ज्ञाने उपयुक्तेन प्रशस्ता योगा निरवधीभृतास्तेषां न प्रतिक्रमति, तं च पडिक्कमणं तीतकालविसय पच्चुप्पण्णकालविसर्य अणागतकालविसयं होज्जा । तत्य अतीते निंदणादिपडिक्कमणं, सेसे अपुणकरणताए अन्भुट्ठाणति । ॥५२ 45645 अत्र अध्ययनं-४- 'प्रतिक्रमणं' आरभ्यते ... अत्र चतुर्थ-अध्ययने 'प्रतिक्रमण'स्य स्वरुपम् वर्णयते (58) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाला एवं विबिहेवि पडिक्कमणं होज्जा, तस्स इमाणि एगडियाणि जथा-वंदण चितिकितिकम पूषा विणयो एवमादी, एवं इदवि, प्रतिक्रमण ध्ययने पिडिकमणं पडियरणा ॥ १३-३ ।। १२४५ ॥ पडिक्कमणति वा पडियरणंति वा पडिहरणंति वा वारणति वा णिय शिचीति वा निदत्ति वा गरहत्ति वा विसोहित्ति वा,तत्थ पडिक्कमणं पुनरावृत्तिः, प्रति प्रति तेष्वर्थेषु अत्यादरात् चरणा पडिचरणा॥५३॥ | अकार्यपरिहारः कार्यप्रवृत्तिश्च, परिहरणा चरणप्रमाददोसेहितो, आत्मनिवारणा वारणा, असुभभावनियत्तणं नियत्ती, निंदा आत्म-II | संतापः, गर्दा प्राकाश्ये, सोही विसोहणं, एतेर्सि एगहिताणं इमाणि तु अट्ठ उदाहरणानि-- अदाणे पासादे०॥ १३-४ ॥ १२५४ ।। तत्थ पडिकमणं छविह-नाम ठवणा० दव० खेत्त० काल० भाव०, दो गता, 14 दिल्बस्स दब्बाण एवमादिकारकवचनयोजना कार्या, दबनिमित्तं दध्वभृतो का, पत्तयपोत्थपलिहितं वा, अहवा पासत्थादीणं जा पडिक्कमणं तं दव्यपडिकमणं, खेत्तपडिकमणं खेत्तस्स चर्चा, जमि खित्ते ठितो पडिकमति वष्णेति वा तं खेत्तपडिकमणं, चर्चा 3 CIदुविहा- धुर्व अधुर्व, धुर्व जहा भरहेरवएसु खेत्तेसु पुरिमपच्छिमाणं तित्थगराणं तित्थेसु संजताण अवराधो होतु मा वा उभयोकालं | अवस्स पडिकमियचं, अधुर्व सेसाणं तित्थगराणं, कारणजाते पडिकमणं तं अधुर्व, होति वा ण होति वा, एवं बुद्धथा अभिसमीक्ष्य | वक्तव्यं । भावपडिकमणं जसंमदसणाइगुणजुत्तस्स पडिकमणंति । तत्थ अद्धाणे उदाहरणं जथा-एगो राया नगरबाहिरियाए KI पासादं काउकामो सोहणे तिहिकरणमि सुत्ताणि पाडिताणि रक्खावेति, जदि कोइ पविसेज्जा सो मारेतब्बो, जो नाम न मारेतकायओ सो जदि तेहिं चेव पदेहिं अण्णत्तो अणकमेंतो पडिनियत्तति तो णं मुएज्जाह, एवं रक्खावेति, तस्स य वत्थुस्स एकासीति | विभागा, कहं पुण ते ?, चतुरंसं तं वत्थु, तं तिधा छिन्नं, पुणो तिधा छिन्नं, एवं नवधा होति, एकेक्कं तिधा तेधा छिमं, एक्का-181 दीप अनुक्रम [११-३६] It||५ प्रतिक्रमण' शब्दस्य अष्ट पर्यायाः, तेषाम् व्याख्या एवं कथा: (59) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक प्रतिचरणाया ॥५४॥ + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा ४ सीति जाता, तत्थ नवसु मूलवत्थूसु चउदिसि पत्तारि देवताणि-सोमवरुणजमवेसमणाणित्ति, मझे एक्क, एवं पणन्यालीस ध्ययने देवता इति, कालहता य दोभि गामेल्लगा आगता तेसिं रक्खगाणं बक्वित्ताणं, नवरि अफत दिडा, भणिता असिवरगहस्थेहि हाल दासा ! कहिंस्थ पविट्ठा, तत्थ एगो भणति काकपडो-को दोसोत्ति इतो ततो पधावितो, सो तेहिं तत्थेव मारितो, वितिजा द्र भणति-अयाणतोऽहं पचिट्ठो मा में मारेह, जे आणवेह तं करेमित्ति, तेहिं उद्वेतूण भण्णाति-जदि अण्णतो न अवकमसि तो नपरि ॐ फिट्टिसि, सो भीतो बराओ तेहि चेव पदेहि पडिनियत्तो, मुको इहलोइयाण भाबी जातो, इतरो जुको, एस दिहतो, अयमत्याः वणओ--जारिसो राया तारिसो तित्थगरो, जथा पासायभूमी तथा अस्संजमो, जथा रक्खगा तथा संसारगाणि भयाणि, जथा ते | गागेल्लगा तथा पण्याइतगा, जो नियत्तो सो आणाए ठितो, इतरे अणाणाए, विणासो संसारो, एवं मावो जत्तो निग्गतो होज्जा | इंदियादिणा पमादेण ततो पढितच झडत्ति मिच्छादुकडन्ति । पडियरणावि छविधा जथा पडिकमणे एवं विमासेज्जा । तत्थ पासादउदाहरण-एगरथ नगरे पाणियओ समिद्धो, तस्स दआहुट्टितयओ लक्खणजुत्तो पासादो रत्तरतणभरितो, सा भज्जं अप्पाहेतूण गतो देसयचाए, सा अप्पपलग्गा पासादस्स एगमि देसे खडिते विणासिते वा भणति-कि एतिल्लग करेति', अण्णदा पिप्पलपोतओ जातो, भणति--कि एनिाओ करेति !, बडितेण ४ सम्बो पासादो भग्गो, वाणितओ आगतो पेच्छति विणहूँ, निन्छूढा, अण्णो पासादो कारितो, अण्णा भज्जा आणीता, भणिता यजिदि विणस्सति ता ते सच्चेव गतिति, गतो, तीए दिई मणाग खर्ड, पीसोवएणं सकाराषितो, एवं चित्तकम्मे कढकम्मे सर्व तिसम्झं पलोएति,तारिसगं चेव पर अच्छति,आगतो तहो य,सव्वसामिणी जाना, एस दिहतो, जथा वाणियथो तथा आयरिओ RECORE दीप अनुक्रम [११-३६] (60) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| ध्ययने ॥५५॥ प्रतिक्रमणाजथा पासादो तथा संजमो, जथा वाणिगिणी तथा साधू, जो तं सीदावेति उवेक्खति वा सो तथा अणाभागी भवति, एवं सारेति वारणायांसावरापे पायण्डितं कहति संठवति य, तेण चारितं निम्मल भवतित्ति । विषविकल द परिहरणावि छठिवहा तहेव, तत्थ दुद्धकायउदाहरण-एगो कुलपुत्तओ,तस्स दो भगिणीओ अण्णेसु मामेसु, इमस्स धीता 15 जाता, भगिणीण पुत्ता जाता, संवड्डिताणि, दोवि भगिणीओ समं चेव परियाओ आगताओ, सो भणति-दोण्ह अच्छाण कवरं पितं , वचह, पूने पेसेह, जो खेयष्णो तस्स देमित्ति, गताओ, पेसविता, दोद्दवि समा घडगा दिण्णा, जाह गोउलाओ दुई आणे,त्ति, गता, दुद्धस्स घडगा भरिता, काउडीहि सम, उच्चलिता, तत्थ दोणिण पंथा, एगो परिहारो, सो समो, बितिथी | उज्जुओ खाणुविसमबहुली, एगो उजुतेण पस्थितो, सो अक्खडितो, भिण्णा दोषि घडगा, एगो अबेण भमित्ता आगतो, सो ४ भणति,मए भणित-दुद्धं आणेहिति,न मए भणिय-लई वा चिरेण वा एहति, सो धाडितो, इतरस्स दिण्णा । एष दृष्टांतः। एवं चेव उवर्सहारो भाये होति, जथा सो कुलपुचओ तथा तित्थकरो, जथा सा दारिया तथा सिद्धी, जथा ते दारगा तथा साधू, जवा दूद्धघडगा तथा चरितं, जथा पंथा तथा दव्वखेत्तकालभाषा विसमा य समा य, एवं परिहरितवाणि कुत्सिवाणि ठाणाणि, दवं खेत् कालो भावो य। वारणावि छबिहा तहेव, तत्थ विसभोयणविकल उदाहरण-एगो य राया अण्णस्स रायाणगस्स णगररोहओ जाति, तेण ॥५५॥ 18| रायाणएण पाणियाणि विसेण भाषिताणि, सत्थो य आवासावितो, विसकर्य अण्णपाण अदूरागतं जाणिचा णासहति तरेण पोसावित-जो एत्थं पाणितं पियति फलाणि वा खाति सो मरतित्ति, अण्णाउकंठिता उ विरसपाणियाओ अरसाचिरसाणि य दीप अनुक्रम [११-३६] (61) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ॥५६॥ सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमण फलादीणि तेहिं किच्चं करेधत्ति, गतो राया, अणेहि परिहरितं ते जीविता, जे ण करेंति ते विणट्ठा, तहेव उवणयो-रायस्थाणीया निवृत्ती दातित्थगरा, विसपाणीयत्थाणीयाणि असजमट्ठाणाणि, मणूसत्थाणीया साधुणो, एवं भावेवि जो परिहरति आधाकम्मादीणि सो| कन्योनित्थरति संसाराउत्ति ।। दाहरणं नियत्तीवि छब्बिहा तहेच, तत्थ एगा कणा उदाहरण-एगंमि नगरे कोलिओ, तस्स सालाए धुत्ता विणति,तस्स धूया य, दी तत्थ एगो कोलियो मधुरेण सरेणं गायति, सा तेणं अक्खित्ता, घडितो संजोगो, भणति-नासामो, सा भणति-मम वयंसिता ताए। शविणा न बच्चामि, सो भणति-सावि याणिज्जउ, तीए साऽऽक्खाता, पडिस्सुतं, पधाविताणं महल्लो पच्चूसो, तत्थ अतिप्पउत्ति सूरा अच्छंति, तत्थ केणइ उग्गीत-जदि फुल्ला कणियारहा॥१२५५।। ताए अत्थो अणुगुणितो, एस चूतो वसंतेण उबालद्धो-जदि कणियारा फुल्लिता तब न जुतं पुष्फितुं, किन्नु तुमे अधिमासघोसणा ण मुता, रुक्खाणं अंतस्थाः कणियारा, एवं यदि एसा | | कोलिगिणी एवं करेति तो कि मएवि कातव्बंति, एसा छिण्णा दवभिण्णा, ण से अवसदो,न वा किंचि,तत्थवि एसा कोलिगिणी, | | ममासत्तमस्स छायाघातो नगरे य उड्डाहो एवमादि वियालिऊणं रतनकरंडओ वीसरिउत्ति एतेण छलेण नियत्ता, भावणं उवणयोकण्णत्थाणीया साधू धुत्वत्थाणीया विसया गायणत्याणियो उ आयरिओ गीतिगत्थाणीया पडिचोदणा, एवं भावि नियत्तितव्यं ।। | बितियं उदाहरणं दव्वभावनियत्तणे-एगंमि गच्छे एगो तरुणो गहणधारणासमत्थोति तं आयरिया बट्टाति, अण्णदा सो असुभकमोदयेण पडिगच्छामिचि पधावितो, निग्गच्छंतो य गीतशब्दं सुणेति, तेण मंगलानिमित्तं उपयोगो दिण्णो, तत्थ य तरुणा पराला जणा इममभिणयं गातंति CARE दीप अनुक्रम [११-३६] ANSAREERS (62) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा तरितव्या य पतिण्णया मरितव्यं वा समरे समथएणं । असरिसवयणुप्फेसया नहु सहितव्वा कुले पसूय- निन्दायां ध्ययने एणं ॥ १२५६ ।। गीतीए भावत्थो, जथा केज लबूजसा सामिसंमाणिया मुभा रण पहारितुवरता भज्जमाणा एगण सपक्ख- चित्रकर ॥५७॥ का जसावलंबिणा अप्फालिता-नो सोभिस्सह पद्विपहरा गच्छमाणति, तं सोतुं पडिनियत्ता, ते य ठिता, पडिता पराणीए, भग्गं च दारिका । तेहिं पराणीय,समाणिया य पभुणा,पच्छा सुभडवाद सोभति वहमाणा,एत गीतत्थं सोतुं तस्स चिंता जाता एमेव संगामत्थाणीका पवज्जा, जदि ततो पराभज्जामि तो असरिसजणेण हीलिज्जामि,एस समणपच्चोगलितोत्ति पडिनियत्तो,आलोइयपडिक्कतेण आयरियाण इच्छा पडिपूरिता, एवं भावे पडिचोयणत्ति ॥ निंदावि छविधा तहेव, तत्थ उदाहरणं दोण्डं कण्णगाणं वितिया कण्णगा चित्तकरदारिया,जथा-एगो राया दुयं पुच्छति४ किं मम नत्थि जे अण्णरातीण अस्थि, चित्तसभा नस्थित्ति, आणत्ता णिम्माणिया, चित्तकारकसेणीए विरिक्का, एगस्स चित्त कारगस्स धीता पितुं भचं गहाय गच्छति, राया मग्गेण आसेण वेगविप्पमुक्केण एति, सा पलायंती किहवि फिडिता गता, पिता से तं ठवितूण सरीरचिताए गतो, तीए वण्णेहि तत्थ कोट्टिमे मोरपिच्छे लिहित, रायावि तत्थ चक्कमणयं करेति, सावि अणचित्रेणी अच्छति, रायाए पिच्छे दिट्ठी गता, गेहामित्ति हत्थो पसारितो, नहाणि दुक्खाषिताणि, ताए हसित, भणति य-तिहि पादेहि मम मुक्खासण न ठाति जाव चउत्थं मग्गामि, नवरं तुगं चउत्थो, राया पुच्छति- किहति ?, सा भणति- अहं च पिताए कूरा ॥ ५७॥ आणामि जाव एगो पुरिसो नगरमझे आस वाहेति, नत्थि से घिणा मा किहवि किंचि मारिज्जामित्ति, तत्थ अहं सएदि पुण्णेहि । जीविता, वितियओ राया, तेण चित्तकराणं बिरिक्का सहा, तत्थ एक्केके कुडुबे बहुगा मणूसा चित्तकरा, मम पिता एककल्लओ कसकस. दीप अनुक्रम [११-३६] (63) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ध्ययने + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणासो चित्तेति,तातियो मम पिता,तेण चित्तसभ चित्तेंतेणं पुवाविढचपि बहुं निढवित, संपति जो वा सो वा आहारो, सोय सीतलो निन्दायां रिसो होहिति ? तो आणिते सरीरचिताए जाति, चउत्थो तुम, कई ?, सब्बोवि ताव चितति-कतो एत्थ मोरपिच्छं , जदिविचित्रकर आणितेल्लग होज्जा तोचि ताव दिडीए मुठ्ठ निझाइज्जति, सो मणति- सच्चगं मुक्खा, राया गतो, पिता से जिीमतो, सावि दारिका ॥५८॥ सघरं गता,रायाए बरगा पेसिता, तीए मातापितं भणितं-दोहीति, भष्णइ य- अम्हे दरिदाणि, किह रण्णा सपरिजणस्स पूर्व काहामो ?, ताहे दव्यं से रण्णा दिया, तेहिवि दिष्णा । दासी अणाए सिक्खाविता-मम रायाणगं च संबाधंती अक्खाणगं पुच्छे-1 ज्जासित्ति, जाहे राया सोतुकामो ताहे दासी भणति-सामिीण ! राया पबद्दति, किंचि अक्खाणग कहहि । भणति- कहेमि, एगस्स धूता अलंयणिज्जाणं तिण्हं वरगाणं मातिभातिपितीहि दिण्णा जाव निब्बहणाणि आगताणि,सा रति अहिणा खहता मता, एगो | तीए समं चितं विलग्गो, एगो अणसणं पयट्ठो, एगैण देवो आराधितो, तेण से संजीवणो मंतो दिनो, उज्जीविता चिता, |तिण्णिवि उवहिता, कस्स दातव्या , किं सक्का- एक्का दोण्हं तिण्हं वा दातुं, तो अक्खाहत्ति, भणति-निदाइयामित्ति सुवामि, कल्लं कहेहामि, तस्स अक्खाणगस्स कोतुहल्लेणं वितियपि दिवसं तसिवि वारओ आणचो, ताहे सा पुणो पुच्छिता भणति-जेण ला उज्जिताविता सो से पिता, जेण समं उज्जीविया सो से पितो भाया, जो अणसणगं पविट्ठो तस्स दातव्वति ।। अणं कहेहि, सा भाभणति एगस्स राहणो सुवण्णगारा भूमिघरे मणिरयणकउज्जोता अणिगच्छन्ता, अंतउरस्स आभरणगाण घडाविज्जति, एगो भिणति- का पुण बेला बट्टति', एगो भणति-रची वट्टति, सो कह जाणति जो ण चंदंण एरं पेच्छति', सा भणति-निदाइया। ॥५८ वितियदिणे कहेति- सो रति अधओ तेण जाणति, अणं अक्वाहित्ति । भणति- एगो राया, तस्स दुवे चोरा उपढविता, तेण से | दीप अनुक्रम [११-३६] ऊऊऊऊRE ANAL (64) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| है मंजूसाए पक्खिविऊण समुद्दे छुढा, ते किच्चिरस्सवि उच्छलिया, एगेण दिट्ठा मंजूसा, गहिता, मणूसे पेच्छइ, ताहे पुच्छइ- कति- निन्दायां प्रतिक्रमण ध्ययने चो दिवसो ढाणं , एगो भणति-चउत्थो दिवसो, सो कह जाणति?, तहेव वितियादणे कहेति-तस्स चाउत्थजरो तेण जाणति।। चित्रकर ला अण्णं कहेद, दो सवचिणीओ, एक्काए रयणाणि अस्थि, सा इयरीए ण विस्संभइ, मा हरेज, ततो णाए जत्थ निक्खमंती पवि-दादारिका ॥ ५९॥ संती य पेच्छति तत्थ घडए छोदण ठवियाणि, ओलित्तो घडओ, इयरीए विरह गाउं रयणाणि हरियाणि, तहेव घडओ ओलितो, लाइयरीए णायं हरियाणत्ति, तो कहं जाणइ ओलित्तए हरियाणित्ति, वियदिणे भणइ-सो कायमओ घडओ, तत्थ ताणि परिभासंति, लहरिएमु णस्थि । अणं कहेहि,भणइ-एगस्स रण्णा चत्वारि पुरिसरयणा,तं. नेमित्ती रथकारी सहस्सजीधी तहेव विज्जी य । दिपणा चउण्ह कण्णा परिणीया णवरमेकेण ॥शाकह?, तस्स रच्यो अइसुंदरा धूया, सा केणवि विज्जाहरेण हडा, ण णज्जइ कतोचि अक्खिचा, रण्णा भाषीयं- जो कण्णगं आणेति तस्सेव सा, तओ नेमित्तिएण कहितं- असुगं दिसं नीता, रहकारेण आगासगमणी रहो कतो, ततो चत्तारिवि तं विलग्गिऊण पधाविया, अंमतो बिज्जाहरो, सहस्सजोधिणा सो मारितो, तेणं मारिजतणं दारियाए सीसं छिण्णं, विज्जेण संजीवणासहीहिं उज्जिवाविता, आणिता घरं, राइणा चउण्हवि दिपणा, दारिया भणति- किह अहं चउण्हवि होमि, तो अहं अग्गि पविसामि, जो मए समं पविसति तस्साह, एवं होतुत्ति, ताए समं को अग्गि पविसति (कस्स सा दातव्या ? । बितिवदिणे भणति- निमिचिणा निमित्तेण णातं जहा एस न मरातित्ति तेण अन्भुवगतं, इतरेहिं नेच्छितं, ५९॥ दारियाएवि तहाणस्स हेडा सुरंगा खाणिता, तत्थ ताणि चितगाए णुवणाणि, कट्ठाणि रयिताणि, अग्गी दिण्णो जाहे ताहे ताणि IX सुरंगाए निस्सरिताणि, तस्स दिण्णा । अण्णं कहेहि, सा भणति- एगार अविरतियार पगतं जंतियाए कड़गा मग्गिता, ताए। दीप अनुक्रम [११-३६] (65) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 FI पति प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| ६०॥ प्रतिक्रमणा | रूवरहिं बंधएण दिण्णा, इयरीए धूताए आविद्धा, वत्ते पगते ण चव अल्लियेति, एवं कतिवताणि वरिसाणि गयाणि, कडइत्तएहिं गहायां ध्ययने मग्गिता, सा भणति- देमित्ति, जाव दारिया महंती भूता, ताए न सक्कोंति अवणेतुं, ताहे ताए कडगाइत्तिया भणिता- अण्णेविला रूपए देमि मुयह, ते गेल्छतित्ति कि सक्का हत्था छिदितुं', ताहे भणित-एरिसच्चेव कडए घडावितुं देमो, ताहेवि णेच्छति, तोव मारिका दातव्या, कहं संणवेतब्बा , जथा दारियाए हत्था ण छिज्जति कह तेसिमुत्तरं दातव्वं , आह-ते भणितब्वा 'अम्हवि तेच्चेवा रूपए देह तो अम्हेवि ते चेव कडए देमो'। एरिसाणि अक्खाणगाणि कहतीए दिवसे दिवसे राया छम्मासे आणीतो, सवत्तिणीओ |से छिद्दाणि मग्गति, सा य चित्तकरदारिया उव्वरयं पविसिऊण एक्काणिया चिराणए मणियए चीराणि य अग्गतो कातूण अप्पाणं निंदति-तुम चित्तरदारिया, एताणि ते पितिसंतियाणि वत्थादीणि, इमा सिरी रायसतिया, अण्णाओ उदितकुलपसूताओ रायधीताओ मोत्तूर्ण राया तुम अणुक्त्ता तो मा गर्व बहिहिसि, मा य अवरज्झिहिसित्ति, एवं दिवसे दिवसे दारं घड्ढेऊण करेति ताहि किहवि णात, रण्णो पादपडिताओ भणंति-मा मारिज्जिहिसि एताए, एसा कमणं करेति, ताहे रण्णा जाणित, सुतं, तुडो, 131 महादेविपट्टी बद्धो । एवं भावनिंदाए साधुणावि अप्पा निंदितव्यो, जथा-जीव! तुमे संसारं हिंडतेण नरयतिरियगतीसु कहलि माणुसते सम्मत्तणाणचरिचाणि आसादिताणि जेाँस पसाएण सब्बलोए माणणिज्जो पूणिज्जो य जातो, तो मा गब्बे काहिसि181 बहुस्मुतो एवमादि विमासा, मा य अवरज्झिहिसि, कहमचि अबरद्धेवि परितपिज्जिहिसिति ।। गरहावि छविहा तहेव,तत्थ पतिमारिया उदाहरण-एगो मरुयओं थेरो अज्झावओ, तस्स भज्जा तरुणी, सा बलिवइसदेवं करेंती भणति- अहं कागाणे बोहेमित्ति, ततो उवज्झायानउत्ता चट्टा दिवसे दिवसे धणुगहत्था रक्खंति, तत्थेगो चट्टो चिति दीप अनुक्रम [११-३६] (66) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] भाष्यं [२०५-२२७] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ ६१ ॥ ण एसा मुद्धा, अतिक्रिया एसा, तो तं पडिचरति सा यमदं तरन्ती अण्णदा घडगेणं पिंडारसगासं वच्चति, तसिमेगो सुंसुमारेण गहितो, सो रहति, ताए भण्णति-अच्छि ढोकेदति, ढोकिते मुक्को, तीए भणिता - किं थ कुतिस्थेण उत्तिष्णा, सो खंडिओ सुर्णेतो चैव नियत्तो, सा म चितियदिवसे बलिं करेति, तस्स य रक्खणवारओ, ताहे तेण भंगति-दिया कागरण बभोरी, रतिं तरस नंमदं । कुतित्थाणि य जाणासि, अच्छीणं ढोंकणाणि य ॥१॥ तीए गातं एतेण दिट्ठामिति तं उचचरति, सो भगति किं उवज्झायस्स पुरतो ?, ताए मारितो पती, पिडियाए छोट्टण अडवीए उज्झिउमारद्धा, वाणमंतरीए भिता, अडवीओ भमितुमारद्धा, छुधं न सक्केति अहियासेतुं तं च से कृणवं उवीरं गलति, लोगेण हीलिज्जति पतिमारिता पतिहिंडति, ती पुणरावची जाता, ताहे सा मणइ ते देह अमो ! पतिमारिताए भिक्खन्ति मए मंदणुसत्ताए, पती मारितो थेरओ । तरुणगं कंवमाणीए, कुलं शीलं च फुंसितं ॥१॥ ॥ सुचिरेण पाडतं, असि एवं अम्ह पुण अज्जाणं पाएस पडतीए पडिता पेडिता, पव्वहता, एवं गरहितब्वं जं दुच्चिरणं ॥ दाणिं सोधी, दोसविणासणमित्यर्थः । सावि छब्बिहा, तहेब विभासेज्जा, तत्थ दो दिता-बत्थदितो अगदितो य। तत्थ वत्थदितो रायगिहे सेणिओ राया, तेण खोमेअचलं निल्लेवस्य समप्पितं, कोमुदिवारो य वट्टति, तेण दोण्ड भज्जाणं अणुचरतेण दिण्णं, सेणिओ अभओ य कोमुदीए पच्छष्णं हिँडंति, दिडं, तंबोलेण सिनं, आगताओं अंबाडिताओ, तेण खारेण सोधिताणि, गोसे आधाविताणि, सन्भावं पुच्छितो, कहितं तुट्ठो अहो सिप्पिउनि । एवं साधुणावि सव्वं आलोयणादीहिं सोहेतव्यंति । अगदो जथा हेट्ठा नमोकारे । एवं साधुणावि तहेव निंदादीपणं अगदेणं भावदोसविसं ओतारेतय्वंति । सव्वत्थ उवणओ जथा (67) शुद्धी वखा गद्रष्टान्तौ ॥ ६१ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत नाया -3 सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| 0 प्रतिक्रमणासंभव समोतारेतव्यो । एतागि एगविताणि भणिताणि । इदाणिं कह पडिकमितवति भण्णतिध्ययन आलोयण ॥ १२५७ ।। एस्थ मालागारेण दिढतो, जथा-एगो मालागारो अप्पणच्चयं आराम निचकालं तिसम्म आलोकेति-पुष्पाणि संतिीन संति, सुक्ख मधुरं वा इमं एवमादि, पच्छा आलुंचति,मज्जायाय हुँचति-गेण्हतित्ति, एवं गंहिताणिमालाकार। ॥६२॥ पच्छा वियडीकरेति, कहं ?, विभत्ताणि करोति, मउलाणि विभत्ताणि, फुल्लाणि विभत्ताणि, चिरेण जाणि फुल्लिहिंति ताणि विभत्ताणि करति, खाराणि न उक्खणति, पच्छा नगरे बीहीए जत्तियाओ पुष्फजातीओ ताओ विभत्ताओ करेति, गाहताणुवढवेति, इतराणि च जेत्तिगाणि से अस्थि ताणं दाम दामं उप्पि करेति, कड़गा दट्टणं किणंति, सो फलं लभति, अण्णो विवरीतं,णालाएति। & एमेव नालुंचति न गेण्हति न वा वियडीकरेति,उदाहरिएणं करंडेणं अच्छति,सो फलं न लभति । एवं साधुणावि उच्चारपासवणभूमीओ पडिलेहेचा णियाघाते काउस्सग्गे ठाइतब्ब, तत्थ सज्झायं अणुपेहेति, जाहे आयरिया ठिता ताहे ठितो चेव आवस्सग अणुप्पेहेति, सो साधू मुद्दपोत्तियमादि कातूणं सवं आलोकेति जाव इमो काउस्सग्गोत्ति, पच्छा आलंचति गेण्हति इमो एरिसो २लाति अवराहो, पच्छा आलोयणाणुलोम पडिसेवणाणुलोम च करोति,पच्छा वंदितूण सरसरस्स साहति,ताहे ओदइयस्स भावस्स सोहील भवति, पुणो खोबसमिए ठितो भवति, एस विधी, एवं आलोयिए आराहगो, अणालोइए भयणा, कह?, 'आलोतणापरिणओ। संम संपद्रितो गरुमकामा जति अंतरा उकालं.करेज्ज आराहतहवि॥१॥ जथा पपणत्तीए आलावगो.जेपण-डया लागारवर्ण पहुस्सुतमदेण वावि दुच्चरितं । जे न कहति गुरूणं नहु ते आराहगा भणिताशिएवं भयणा भणिता । एवं- ॥६२ आलोयणमालुंचण वियडीकरणं च भावसोभी या उभयो कालं मुणिणा सातियारण कातब्ध।।शानिरतियारेणवि एवं दीप अनुक्रम [११-३६] % % (68) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा है पुरिमपच्छिमाण तित्थगराण, मज्झिमगाणं पुण तित्थगराणं कारणजाते पडिकमणं । तत्थ गाथा-संपडिकमणी धम्मो०॥१२५८॥ आलोचध्ययने पुरिमपच्छिमएहि उमयो कालं पडिकमितव्वं इरिषादहियभागतेहिं उच्चारपासवणआहारादीण वा विवेगंकातूण,पदोसपच्चूसेसु बा नायां आतयारा होतु वा मावा तहावस्स पडिकमितव्वं एतहि व ठाणेहि, मज्झिमगाणं तित्थे जदि अतियारो अस्थि तो दिवसोलामालाकार। ॥ ६३॥ होतु रत्ती वा पुवण्हो अवरण्दो मज्झण्हो पुन्बरत्तोवरतं वा अट्ठरत्तो वा ताहे चैव पडिक्कमति, नत्थि तो न पडिक्कमति, जेण ते | असढ़ा पंणावंता परिणामगा, न य पमादो बहुलो, तेण तेसिं एवं भवति, पुरिमा उज्जुजडा, पच्छिमा वक्कजडा नीसाणाणि मग्मात पमादबहुला य, तेण तेहि अवस्स पडिक्कमितनं ।। जो जाहे आधज्जति०॥ १२४९ ।। जो साधू जाहे दधे वा खते वा काले बा भावे वा अण्णतर अकिच्चट्ठाणं पडिसेवति सो ताहे तस्लेव एगस्स पार्डसेविएन्तगस्स पडिक्कमति गुरुसगासे, 12 एगलओ वा, जेण ते असढा,इमे हि सति नियमा गरुमले। तित्थगरा य किर सम्वत्लगेण णातूण जेण विधाणेण जीवाण विसद्धी भवति तथा तथा उवादिसति, कि एसेव विसेसो उदाहु अंगोवि अत्थिी, बहुगा, बावीसं तित्थगरा०॥ १२६०॥ जाहे सामा इयं कर्त ताहे चव आरद्धी उबट्ठवितो साधुपरियाओ य गणिज्जति, पुरिमपच्छिमगाणं न एवं, यादवि सामाइयं कर्त तथावि न 2 उवट्ठाविज्जति, एवं निरतियारो, सातियारो पुण जो पडिसेवणाए मूल पत्तो सो तेण अतियारेण उववाविज्जति, एवमादि पिभासा, सचेलो अचेलो य चातुज्जामो पंचज्जामो य ठितो आडिओ य एवमादिविसेसा, इमं पुण पडिक्कमणं देसिपं भवति [&I |रातियं च, एवमादि, तत्थ गाथा-- पडिकमण दोसयं राइयं च ॥१२६१ ॥ दिवसओ देवसीयस्स रातो राइयस्स पक्खिते पक्खितस्स चातुम्मासिते CA+SHIKAR दीप अनुक्रम [११-३६] RA ... प्रतिक्रमण'स्य दैवसिक आदि षड्भेदाः, प्रतिक्रमण-करणस्य कारणानि (69) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक प्रविक्रमणाचातुम्मासितस्स संवच्छरिए संवच्छरियस्स, एत इत्तिरियं, इमं पूण आवकहित (१२६२) पंच महव्वयाणि रातीभोयणविरमण- पंचधायावध्ययन ताछट्ठाणि चाउज्जामा वा, एस आवकहाए, दोहंपि य भत्तपच्चक्खाणं आवकहितति । णणु देवासयं रातिय पडिकतो किमितिलात्काथकाम ॥६४॥ पक्खियचातुम्मासियसंवत्सरिएम विसेसणं पडिक्कमति । उक्तं च-- "जह गेहं०" जथा लोगे गेहं दिवसे दिवसे पमज्जिज्जधातपि पक्षादिसु अम्भधित अवलेषणपमज्जणादीहिं सज्जिज्जति, एवमिहावि ववसोहणावसेसे कीरतित्ति, तथा इमपि इत्तरं अतिक्रमण पडिक्कमण उच्चारे पासवणे०॥ १२६३ ॥ उच्चारं परिद्ववेत्ता मत्नग वा पासवणं वा पासवणमत्तो वा भत्तं वा पाणं वा पडिस्सय-12 द्र कयगरो वा जदिवि पडिलहियपमज्जिते परिढवित आउत्तो य आगतो तहवि पडिक्कमितव्वं मत्तए जो परिडवति सो पडिक्क-18 HIमति, खेले सिंघाणए जल्ले व जदि पडिलहिय पमज्जिय परिद्ववेति न पडिक्कमति, इयरहा पडिक्कमणं भवति, तं पुण किह ', मिच्छादुक्कडं, तत्थ पुणरावती जाता ताहे पडिक्कमणं भवति, एस विधी, जाणतेण कर्त, पुणरावची जाता पडिक्कमति, अणा-2 ट्रा भोगो अजाणतेण जं कर्त, सहसक्कारो आउनेण वीरियंतरायदोसेण सहसा जं विराधित, जथा-आउलियमि य पादे इरिया०|| | गमणे आगमणे वीसमणे णदिसंतरणे एवमादिसु पडिक्कमणं, एतं पडिक्कमणं भणितं । इदाथि पडिक्कमितव्वंति दार। | जस्स ठाणस्स पडिक्कमिज्जति तं विसेसतो भण्णति, तं पुण ओघतो पंचण्हं ठाणाणं पडिकमितव्वंति-मिच्छत्तपडिक्कमण. 31॥१२६४ ।। एतं पंचविहं । तपथ मिकछत्तपडिक्कमर्ण जं मिच्छत्तं आभोगेण अणाभोगेण सहस्सकारेण वा गतो पण्णवितं याला॥१४॥ | तस्स पडिक्कमति, असंजमो सत्तरसविधो पडिक्कमितव्यो, कसाया चत्तारि, जोगा तिनि, काइयवाइयमाणसा, ते पसस्था अप्प-1 BAERBA + गाथा: ||१२|| दीप अनुक्रम [११-३६] (70) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणासत्था य, अप्पसस्था पडिक्कमितव्या, संसारपडिक्कमणं चतुध्विहं, निरइयादिभषस्स जं जं कारणं तस्स तस्स पडिक्कमितव्य प्रतिकान्त ध्ययने अण्णे पुण भणति-संसारपडिक्कमणं चतुम्विहं परइयाउयस्स जे हेतू महारंभादी तेसु जं अणाभोगेण आभोगेण वा सहसक्कारेण व्यानि दवा पट्टितं वितह वा परूवितं तं तस्स पडिक्कमति-ते वज्जेति, तिरिएसु माइल्लता, माणुस्सगा देविगावि हेतू ण इच्छंति,माणुस्सदु गतिहेतू या जं एतेसु पडिक्कमति, एतं भावपडिक्कमण ।। एतं पुण तिविहं तिविहेण पडिक्कमितत्वं । कहं , मिच्छ न गच्छति न गच्छावेति गच्छन्तं न समणुजाणति वा मणसा वयसा कायसा, किमुक्तं भवति?- मिच्छत मणेण न गच्छति न गच्छावेति गच्छंतं न समणुजाणति, स्वयं न गच्छति न गच्छावेति न चिंतीत अंगो मिच्छत्तगं गच्छेज्ज, केई तच्चण्णमादी होज्जा तं हुई मण्णेज्जा मणेणं एवं अणुजाणितं भवति, एवं वायाए काएण य विभासा, एवं पदे पदे जाव संसारोत्ति विभासा । एवं भावा पडिक्कमितव्या । एतं पुण सन्यमवि इमाहिं चउहिं मूलमातुगाहिं परिग्गहित कोहेणं०, एतेहि उदयभावतो खयोवसमादिभावं उवणीतेहिं पडिक्कमित भवतिति । एत्थ आयरिया उदाहरणं भणंति । जथा- किल केति दोण्णि संजता संगारं कातूण देवलोग गता, इतो य एगंमि नगरे सेड्डी उवाइयसतेहिं णागदेवताए भणति- होहिति ते पुचो देवकोगनुतोत्ति, तेसिं च एगो देवो चुतो, दारओ जातो, नागदत्तोत्ति से नाम कतं, बावचरिकलाविसारदो, गंधब्वं च से अतिप्पित, तेण गंधचनागदत्तो से नाम का है एवं बहुमित्तपरिवरितो अभिस्मति, देवो य गं बहुसो बहुसो संबाहेति, सोण संबुज्झति । अष्णदा सो देवो अब्बतेण लिंगण, नवि ॥६५॥ पव्वइतओ जेण से उवगरणं नस्थि, चत्तारि सप्पे करंडगे महाय तस्स उज्जाणियं गतस्स अदूरसामतेणं वीतिवयति, तस्स मित्ता साहति, तस्स मूलं गतो पुच्छति-कि एल्थ ?, भणति- समा, गंधवनागदत्तो भणति- रमामो, सो न देति, अभिवेति- तुम || RRC-CRACK दीप अनुक्रम [११-३६] (71) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक कथा + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा | महच्चहिं अहं तुहच्चएहिं, देवो तस्सच्चहि रमति, खइतोचि न मरति, सो तेणं अमरिसेणं भणति- अहपि तवकेरएहिं रमामि,81 गन्ध ध्ययने दिसो न सैमण्णति, मा खज्जिधिसिचि, न ठाति, भणितो-मरसि, तथविण ठाति, जाहे निबंधण लग्गो ताहे मंडलगं आलिहिते नागदत्त ॥६६॥ लगं, तेण चतदिसिपि करंडगा ठविता.पच्छा सो सच्चे मित्तसयणपरियणं मलतूण तरसमक्खं इमं भणिताइओ गंधब्बनागदत्ती ॥ १२६६ ॥ तेसिं च सप्पाणं पुण माहप्पं परिकहेति | तरुणदिवायर०॥ १२६७॥ इक्को जेण. ॥१२६८ ॥ एस कोड्सप्पो, पुरिसे योजना स्वबुध्या कार्या । जथा कोहवसगतो तरुणदिवायरणयणो भवति, एवमादि, एवं मेकगिरि०।। १२६९ ।। डको०॥ १२७०॥ एस माणसप्पो। एवं-सललित०॥ १२७१ ॥तंचसि ॥१३७२॥ हासति। ते०॥ १२७३ ॥ एसा मायाणागी । एवं-ओत्थरमाणो० ॥ १२७४ ।। डक्को०॥ १२७५ ।। एस लोभसप्पो सम्वविससमुदाVIयोति, जे हेलिम तिम् कसाएस दोसा ते लोभे सच्चे सविसेसा अस्थिति । एते ते पावा० ॥१२७६॥ एतेहि जो उ खजति. ।। १२७७॥ एवं माहप्पं साहितूण जाहे न ठाति ताहे मुक्का, पक्खलितो, तेहि खतिआ पडिता, मतो य,पच्छा सा दवा भणति| किह जातं, न ठाति वारिज्जतो, पुखभणिता य तेण मित्ता, ते अगदे छन्भंति, ओसहाणि य, किंचिवि गुणं ण करेंति, पच्छा तस्स सयणपरियणो तस्स पादेहि पडिओ-जीवविहत्ति, देवो भणति-अहंपि अणाडिओ आसी, ताहे अणेणं खावितो मतो य, ताहे भणति-जदि मम चरितं अणुचरति एते य सप्पे करंडगत्थे वहति तो ण जीवति, अण्णहा उज्जीवितोवि मरति, ताहे मम सयणेण पडिस्सुतं, जीवितो तं अणुचरामि एते य वहामिात्ति तं चरि कहति, पतेहिं ॥ १३-३६ ॥ १२७७॥ सवामि॥१३३७॥१२७९॥ अच्चाहारो० ॥ १३-३८॥१२८० ।। उस्सपणं ॥ १३-३९ ॥ १२८१ ।। थोवाहारो ॥१३-४०॥१२८२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] SARKARBA ... कषायप्रतिक्रमण' तस्य व्याख्या, कारणानि, तद् विषये नागदत्तकथा (72) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाला एवं एसोवि जदि एतं अणुपालेति तो उट्ठवेमि, अण्णाहा कि किलेसेणति, भकति वरं एवंपि जीवतो, पच्छा सो पुख्यमहो ठितो. तृतीयोध्ययने किरियं पउंजिउकामो भणति-सिद्धे णमंसितूणं ॥ १२८३ ।।। पधदृष्टान्त: सव्वं पाणारंभ पच्चक्रवाती य अलियवयणं च । सवं अविण्णादाणं अयंभपरिग्गहे स्वाहा।। १२८४ ॥ . ॥ ६७ संसारत्था महावेज्जा केवलिचोदसपुश्वधरादयो, एवं भाणते उद्वितो, अंमापिऊहिं से परिकहितं, न सद्दहति, पहाइओ, पडितो, पुणोवि तहेच देयेण उपद्वितो, पुणो पधावितो, पडितो, ततियाए बेलाए देवो गच्छति, पसादितो, उढवितो, पडिसुत, अमापितरं Mआपुरिछत्ता तेण समं पधाधितो, एगमि वणसंडे पुब्वभवं परिकहेति, संवुद्धो,पत्तेयबुद्धा जातो, देवीवि पडिगतो। एवं सो ते कसाए सरीरकरंडए छोण कतोइ संचरितुं न देति, एवं सो उदयियस्स भावस्स निंदणगरहणाए अपुणक्करणाए अभुडितो पडिक्कतो दीहेण सामण्णपरियाएण सिद्धो । एवं भावपडिक्कमणं । आह- किं निमित्तं पुणो पुणो पडिक्कमिज्जतिः, जथा मज्झिमगाणं तथा 6. कीस णवि कज्जे कज्जे पडिक्कमिज्जति', आयरियओ आह- एत्थ विज्जेण दिटुंतो, जथा किल एगो राया, तेण विज्जा सदा विता,मम पुत्तस्स तिगिच्छं करेह, भणति- करेमो, राया भणति- केरिसा तुम्ह जोगा?, तत्थेगो भणति-जदि रोगो अत्थि तो| उवसाति, अह नस्थि तो तं चेव जरिता मारेंति, बितिओ भणति-ममतणगा जदि रोगो अस्थि तो पउणावेंति, अह नस्थि तो INनवि गुण नदि दोसं करोति, ततिओ भणति-जदि रोगो अस्थि तो पूर्णति रोग, अहवा नास्थि तोपि वण्णरूवजोग्यणलायण्णचाएIN|६७॥ परिणामंति, ततिएणं रण्णा तिगिच्छा कारिस्था। एवं इमंपि पडिक्कमणं, जदि दोसा अस्थि तो ते विसोहेति, जदि नस्थि तो दिशाणविसुद्धी सुभतरा भवतित्ति भणितं पडिकमणं । अज्झयणं पुन्छ भणित, एवं एसो नामनिप्फण्णो निक्खेयो गतो । इदाणिं दीप अनुक्रम [११-३६] (73) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 मंगल प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१,२|| सूत्राणि प्रतिक्रमणा ४ सुत्ताणुगमो सुत्तालावगनिष्फण्णो सुत्तफासितनिज्जुत्ती य तिन्निवि एगट्ठा वच्चंति, एत्वमादि चर्चा जाव इमं च तं सुन-कमि ध्ययवे भंते! सामाइयं सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि जाय वोसिरामि । एत्थ सुत्ते पदं पदस्थो चालणा पसिद्धी य जथा लोकोत्तमसामाइए तथा विभासितच्या, चोदगो भणति-एत्थ किं सामाइयत्तं भण्णति, उच्यते, सामाइयगाणुस्सरणपुव्वगं पडिक्कम शरण॥ ६८॥ पति तेण भण्णइ । प्रस्तुतमभिधीयते-- चत्तारि मंगलं० देसणसुद्धिनिमित्तं च तिनि सुत्ताणि,चत्तारि मंगलं अरहंता मंगलं०, साधुग्रहणेण आयरिया उवज्शाया य भाणता, धम्मग्रहणेण सुतधम्मो य गहितो, मां पापेभ्य अरहंतादयो गालयंतीति पिंडार्थोऽयं सूत्रस्य । जतो य ते संसारनिस्थरणकज्जे मंगल भवंति तत एव लोगुत्तमत्ति । अरहंता लोगुत्तमा० ॥ सूत्रं । तत्थ अरिहंता ताव भावलोगस्स उत्तमा, कई?, | उत्तमा पसत्थाणं वेदणिज्जाउयनामगोत्ताण अणुभावं पड्डच्च उदइयभावस्स उत्तमा, एतमेव विसेसिज्जति-उत्तरपगडीहिं सात मणुस्साउयं तासिं दोण्हं, इमासि च नामस्स एक्कतीसाए पसत्धुत्तरपगडीण, तंजथा-मणुस्सगति पंचिदियजाति ओरालिय. तेयगं कंमगं समचतुरंससंठाणं ओसलियंगोवंग० बइरोसभणारायसंघयणं० वष्णरसगंधफासा अगुरुलघु उवधात पराघातं ऊसास |पसत्यविहगगती तसं बादरं पज्जचय पत्तेयं थिराधिराणि सुभासुभाणि सुभगं मसरं आदेज्ज जसकिची निम्मानमं तित्थगर8 मिति श्मनीस पसत्वाणं, बेदणिज्जं मणुस्साऊ उच्चागोयं वा, पतेसि पोलीसाए उदइयभावेहिं उत्तमा, पधापत्ति भणितं होति, । उपसमियभावो अरहता गस्थि, खाइयभावस्स पुण गाणावरणदसणावरणमोहंतराइयाण णिरवसेसखवणं पहुरुच खाइयभावलो-SI॥ ६८॥ गस्स उत्तमा सरण्या वा, से पुण अरिहंताणं पुग्धवण्यिातस्स ओदइयभावस्स य समायोगे सण्णिवादभावो निष्फज्जवि, तेण उत्तमा RICS5555 दीप अनुक्रम [११-३६] नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवड़ मंगलं ...मूलसूत्र - (१) "नमस्कार सूत्र" हमने पूज्यपाद आचार्य सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित “आगममंजुषा" पृष्ठ-१२०५ के आधार से यहां लिखा है । मू. (११) करेमि भंते सामाइयं ...........जाव.........वोसिरामि | [ यह पूरा सूत्र अध्ययन-१ 'सामायिक' पृष्ठ- ९११ अनुसार समझ लेना] ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सूत्र' ऐसा लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। (74) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) (४०) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ཊྛོསྦྲུལླལླཱ ཡྻ [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] प्रतिक्रमणा यमने ॥ ६९ ॥ सूत्र लोगुत्तमा । सिद्धा खचलोगस्स निरवसेसाणं च कंमपगडीणं जो खाइयभाव लोगो तस्स उत्तमा, खीणं सव्वं कंमन्ति भणितं होति । कायिका दि साधू णाणदंसणचरिताणि पच्च भावलोगुत्तमा । धम्मो दुविधो-तो मोम, एते दोष्णिवि खाइयं खाजोवसनिषं २ प्रतिक्रमणं. च भावलोगं पडुच्च उत्तमा । जतो य उत्तमा तत एव सरणं पवज्जितव्वति - चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरहंते सरणं पवज्जामि० ॥ सूत्रं । संसारभयभीतो मोकखसुहत्थं अरहंतादीण भत्तिमंतो होमिति भणितं होति, एवं तिहि सुतेहिं मंगल दंसणसुद्धिं चकातुं पडिक्कमणसुतं भणति- इच्छामि पडिक्कमितुं जो मे देवसिओ अतियारो कतो काइओ वाइओ माणसिओ उस्तुतो जाव समणाणं जोगाणं जाय तस्स मिच्छामिदुक्कडंति । दाणि पाणि पदस्थो य भणितब्बो, इच्छा खमासमणत्थो य पुव्वभणितो, दिवसतो जातो देवसिओ, अतियारो 'अतिरक्ि क्रमणादिषु' अतिचरणमतिचारः, स्खलितमित्यर्थः, सो पुण अतियारो उपाधिभेदेन अणेगधा भवति, अत आह- 'काइओ वाइओ' इच्चादि, तत्थ कायातो जातो काइओ, एवं बाइओ माणसिओषि, ऊर्ध्व सूत्रादुत्सूत्र:- सुत्तलंघणेण, मग्गो नाम खओवसमभावो तातो तिव्बउदश्यभावसंकमणं एवोम्मग्गो, न कप्पो अकप्पो, न करणीओ अकरणीयः, दुज्झातोत्ति अंतोमुहु जो छउमत्थाणं अणोच्छिष्णो अगष्णभावेण एगग्गजोगाभिनिवेसो सो झाणं भवति, तत्थ जं दुज्झातं, जो पुण जोगपरिणामो अण्णोष्णेहिं अझवसाणेहिं अंतरितो सो चितं, तत्थ जं दुव्विचिन्तितं, अणायारो नाम अणाइण्णो, अनिच्छितच्वो जो इच्छितोषि न भवति, किमंग पुण कातव्यो ?, असमणपायोग्य तवस्तीर्ण अणुचितो, को सो एवंविहो ?, जो सो पुन्नपत्युतो देवसितो (75) ।। ६९ ।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ध्ययने ॥ ७० ॥ प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| अतियारो, एताणि पुण विसेसनयाभिष्पायेण भिण्णस्थाणि विभासिज्जति, अण्णे पुण एगहिताणि भणति, परिक्कमणाधिकारे | कायिकादि संवेगत्थं, अण्णे पुण हेतुहेतुमद्भावेन वणेति, जथा जतो चेव उस्मुलो अतो चेब उम्मग्गो, जतो चेव उम्मग्गो अतो चेव अकप्पो ट्र प्रतिक्रमणं इच्चादि । एसो य कमि विसए भवतीत्याह-नाणे दंसणे चरित्ते सुए सामाइए सुतसामाइयाणं भेदेण गहणं विसिट्ठविसयदरिसणथं, एतेसु विसयभूतेसु जो मए देवसिओ अतियारो कतो उस्सुत्तादिविसेसणविसिट्ठो तस्स पडिक्कमितुमिच्छामीत्यर्थः, अनेन वितिगिछाऽभाव दंसेति, तत्थ निहं गुत्तीणं चतुहं कसायाण पंचण्डं महम्वताणं छहं जीवनिकायाण सत्तहिं पिंडेसणाणं अट्ठण्डं पवयणमादीणं नवह बंभचेरगुत्तीणं दसविधे समणधमे समणाणं जोगाणं जैन खंटितं जं विराधितं तस्स मिच्छामिधुक्कडंति, तत्थ गुत्तिमादीण सरूवं उरि भणिहिति, पिंडेसणा पुण भवंति सत्त, है ता इमा, तंजथा-संसह १ असंसट्ठा२ उद्धडा३ अप्पलेवा उग्गहिता५ पग्गहिया६ उज्झियधीमयाओ७ । तत्थ पढ़मा दोहिबि असं-18 सट्ठा, असंसट्टे हत्थे असंसट्टे मते, अखरडिएत्ति वुत्तं भवति, एताएवि गिण्हति गच्छवासी जस्थ पच्छेकंमपुरेकंमादी दोसा न | भवंति, गिलाणादिकारणे वा इतरपि गेहति १. बितिया दोहिवि संसद्धा, सुठुतरंति पच्छेकमादिदोसा बज्जिता२ ततिया उद्धृडा, संसट्ठाउ कडित अच्छति थालसरापपडहत्थिगपिडिगाछप्पगपडलगअलिंदिगाकुंडगादिसु विरूवरूवेमु भायणेसु अणेगप्पगारं भोय ४ ॥ ७० ॥ | णजातं३, संसद्वे हरथे संसट्टे मत्ते चत्तारि भंगा, गच्छवासी चउहिंपि गेण्हति जिणाणं संसद्धेहि दोहिवि गहणं भंगेहि सुत्तादेसेण वा पउत्था अपलेका, अभाव अप्पसहो, निलेप मन्धुमादी४ पंचमी उवम्महिता, उबग्गदितं भंजणनिमित्तं असढाए उवणीत थालसरावकोसगादिसु, जस्स तं उवणीतं तस्स पाणीसु जो दगलेपो सोवि परिणतो सो वा देज्जा ५ छट्ठा पग्महिता, पग्गहितं नाम | दीप अनुक्रम [११-३६] (76) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक अतिक्रमण ध्ययने ॥७१॥ [सू.] + गाथा: ||१२|| C%5C2-%25ACCESS हत्थगतं दिज्जमाणं जस्सवि अट्ठाए पग्गहितं सोवि तं नेच्छति, पादपरियावष्णं कसभायणस्स नत्थि दगलेपो पाणीसु नस्थि दग- कायका प्रतिक्रमण लेबो देंतस्स नियत्तो भावो छट्ठी६ सत्तमी देतस्स दिज्जस्सवि जस्सपि दिज्जति दोण्हवि नियनो भावो अह उजियधीमया, पुचदेसे किर पुण्यण्हे रई जंतं अवरण्हे परिढविज्जति, साधुआगमणे या तंपि भायणगतं वा देज्जा, हत्थगं वा देज्जा, कप्पति ४ जिणकप्पितस्स पंचविहग्गहणं, थेराणं सत्तविहं ७ एतासि सत्तण्हं पिंडेसणाणं । केई पढंति सत्तण्हं पाणेसणाणं, एवं पाणीव, चउत्थी अप्पलेवा-तिलोदगादी। अट्ठण्ह पबयणमादीणं पंच समितीओ तिण्णि गुनीओ, एताओ अट्ठ पवयणमाताओ, सेस उपरि भणिहिती । तस्थ समणाणं एते सामणा, के ते?- तिणि गुत्तीओ जाव समणधम्मो, अण्ण पुण भणति- सामणाण जोगाणति, ये चान्येऽप्यनुक्ताः समणयोगाः, एतेसिं जोगाणं जं खंडितं नाम एगदेसो भग्गो, विराधितं नाम बहुतरं विणासितं, तस्स मिच्छामिबुकर्ड, जथा दसविधसामायारीए, अनेन च प्रतिक्रान्त इति । एत्थ मुत्तफासितनिज्जुत्तिगाथा-पडिसिद्धाणं करणे किच्चाणं अकरण पडिक्कमणं । अस्सद्दहणे य तथा बिवरीतपरूवणाए य ।।१२८५|एताओ गाथाओ सवाणि पडिक्कमणमुत्ताणि अणुगंतब्वाणि, जथा करेमि भैते! सामाइयकंति, एत्थ पडिसिद्धा रागदासा ते जो करेति, किच्च रागदोसविणिग्गहो सामायिकमित्यर्थः, तस्याकरणे, तंतहा न य सद्दहितं वावि विपरीतं वा परूवितं तस्स पडिक्कमितं । एवं है मंगलसुत्ते भावेतवं । एवं जे विसोहिडाणा तेहिं ज न कतं न सद्दहितं विवरीतं वा परूवितं, जे अविसोहिडाणा तेहिं जं कतं न ॥७ ॥ सदहित विपरीतं वा परूवियं तेसि पडिक्कमति । एवं सबसुत्ताणि भाणितय्याणि । एवं ओहातियारस्स पडिक्कमण भणिते ।। इदाणि विभागण भष्णति संवेगत्थं, तत्थ पढम गमणातियार, उक्तं च-ठितीक्खया गच्छति, जत्थ गच्छती गतिक्खया दीप अनुक्रम [११-३६] CCCCCC (77) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत % सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा चिट्ठति,जस्थ चिट्ठति सुहक्खया सोयति,जत्थ सोती र खक्खया मोयति,जत्थ मोदति(पमायति)जं च हेट्ठा भणिता अप्पमादनि-ईर्यापथिकी ध्ययने मित्त, इदमपि अप्रमादार्थमेव, एस संबंधो इरिया सूत्र इच्छामि पडिक्कमितुं इरियावहियाए विराहणाए 'ईर गति-लव्याख्या प्रेरणयोः' ईरणं या गमनमित्यर्थः एतो जाता पाया, इरणे पथिका इरियावधिया, काऽसौ ?, विराधणा, तीए गच्छन्तस्स ॥७२॥ पथि जा काइ विराधणा सा इरियावहिया । इच्छामि पडिक्कमितुति पुव्वभाणितं, एस संखेवत्यो इरियावहियाए, विस्तरतस्तु गमणेत्यादि, तत्थ इरियावहियाविराधणं एवं गमणं अण्णस्थ, गंतु अच्छति, पाढादि करेति न वा, गत्वा पडुच्च तं तत्थ पडिकमति, आगमणे जं ततो नियत्तति, तत्थवि पडिकमति, तं हि गमणागमणे जं पापाकमणं कतं, बीजकमणं वा कतं, पाणग्गहणेणी दियादी सयिता, बीयग्गहणेणं बीजा जीवा, न निज्जीचा, एवं ठावितं भवति, हरितकमणेण वणप्फतिकायो सइतो, तथा| ओसाउत्तिंगपणगदगमट्टीमकडासंताणासंकमणे, तत्थ ओसा पसिद्धा, उत्निंगा नाम गद्दभगाकिती जीवा भूमीए खड्डयं करेंति, कीडियानगरं वा, पणगो पंचवष्णो, पणओ उल्लिीत चुच्चति, दगमट्टिया चिक्खल्लादि, अहवा दगं- आउक्काओ मट्टि या-पुढविकाओ मकडगसंताणओ-कोलियगजालं तेसि संकमणे एते भेदा दंसिता, केतियं वा भणिहामित्ति समासेण भण्णत्ति, किं बहुणा ?-जे मे जीवा विराहिया एगिदिया जाव पंचिंदिया, अभिहता नाम आवडिता अवडिता वा चलणादिणा खित्ता अहवा अक्कता, वत्तिया नाम पुंजीकता, अहवा धूलीए चिक्खल्लेण वा ओहाडिता, लिसिता पिट्टा, अहवा भृमीए कुहादिसु वा ॥७२॥ लाइया, संघातिता गत्ताणि परोप्परं लाइताणि, संघहिता इसित्तिच्छित्ता, परिवाविता-दुक्खाविता, किलामिता-किंचिज्जीवितसेसा कया अहवा समग्यान नीता, उदविता उपद्रविता उत्त्रासिता वा, ठाणाओ ठाणं संकामिया अण्णाओ ठाणाओ अण्णत्व दीप अनुक्रम [११-३६] (78) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| 長 अनुक्रम [११-३६] भाष्यं [२०५-२२७] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ॥ ७३ ॥ प्रतिक्रमनीता, जीविताओ बनविता-मारिता, तस्स मिच्छामि दुकडंति पुव्वभणितमिति । इदाणिं गति द्वियाणं भवतिति तस्य मण्णति-ध्ययने सूत्र इच्छामि पडिकामउं पगामसेज्जाए० सूत्रं पगामसेज्जा सव्वरतिं सुवति, पगामत्थरणं जं संथारुत्तरपट्टगातिरितं अत्थरति, पगामं पाउणति, गद्दभदितमकातूणं परेण तिन्हं पाउणतित्ति । एताणि चैत्र पदाणि दिणे दिणे जदि करेति तो निगामसेज्जा, दिवेदिवे सव्धरति सुवति, दिवे दिवे तथा पत्थरेति पाउणति । एत्थ सोतव्ययविधाणं जथा ओसामायारिए अभिगमनिगमड्डाणगमणचकमणाणि जथा तह विभासितव्याणि, उष्यत्तणं पढमं वामपासेण निवओो संतो जं पलत्थति एतं उच्चत्तणं । जं पुणो वामपासेणं एवं परियत्तणं, आकुंचणं गातसंखेवो, पसारणं गाताणं एत्थ उ कुकडिवियामियं दितो, जथा कुक्कुडि पादं पसारेतुं हुं चैत्र आउंदैति एवं साधू जाहे परितन्तो ताहे भूमिं अच्छितो पसारेति लहुं चैव आउंटेतुं संधारपट्टए ठवेति, कुपितं नाम कराइयेति अहो विसमा सीतला धमिला दुग्गंधादि ककराहतं. अहवा कुत्सितं रसितं कूजितं, ककसं रसितं ककरातितं छीए भाइए य अजयणाए पाणवहो भवेज्जा । आमोसो आमूसणं अणुवउलेण जं कतं. ससरक्खामोसा पुढवादिरयेण सह जं तं ससरक्खं तस्स आसणं ससरक्खामोसो. एते ताव जागरस्स अतियारा । इदाणिं सुत्तस्स भण्णति आउलमाउलताए सोवणंतिए निप्पमादाभिभृदस्स मूलगुणाणं उत्तरगुणाणं वा उवरोधकिरिया जा णाणाविधा सोवणंतिया सो आउलमाउला, अहवा आउलंनाणाविहं रूवं विवाहसंगमादिसु दिट्ठ आयरितं था, पुणोवि आउलं तारिसr बहवो वारा दिवा एसा आउलंआउला । एते य आमोसादी तिष्णि आलावमा केह न पहुंति, किंतु इत्थीविष्परियासियाए इत्थिए विप्परियासो इत्थीविप्परियासो, स्वप्ने स्त्रिया ब्रह्मचर्यविनाश इत्यर्थः, विपर्यासो नाम अर्थभचेरं, दिट्ठिविप्यरियासो रुवं द्रष्टुं भ्रमति, एवं पाणभोगणं सुविणे कर्त सो ••• एते सूत्रे शयानस्य विधि दर्शयते (79) प्रकाम शय्या ॥ ७३ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ ७४ ॥ विपर्यासः, मणोविदपरिपासिया यदप्रशस्तं मनसा चिंतितं केई पुण आउलमाउलाई सोयणवानियार एवं आलावगं एत्थ पति, तत्थ जातो, सेसाओ आउलम सोमणतिया इथी दिडीओ निद्दापमादाभिभूतेण, तस्स मिच्छा मिदुक्कडीत पुन्वभणित ददाणिं भिक्खायरियाविराहणं सूत्र इच्छामि पडिकमितुं गोयरचरियाए इत्यादि, गोचरचर्या इति कोऽर्थः गोबरणं गोचरः, चरर्ण चर्या, उक्तंच जया कवीता य कपिंजला य, गावो चरंती दूध पागडाओ । एवं मुणी गोयरियं चरेज्जा, नो हीलर नोदिय संथवेज्जा १ || लाभालाभ सुहृदुक्खे सोभणा सोमणे भत्ते । पाणे वा सुसमणो तुण्डिको चरति, जहा वा सो वच्छओ दिवसं तिसाए हाए य परितावितओ तीए अविरतियाए पंचविहविसय संपडत्ताए तणपाणिए दिज्जमाणे संमि इत्थियमिन मुच्छे : गच्छति, नवा न वा तेसु चित्तं देति किं तु चारिं पाणियं च एगग्गमाणसो आलोएति, एवं साधूवि पंचविहेसु विसएस अपज्जैतो भिक्खायरियाए उवडतो चरति तेण गोचरवरिया, ती गोवरचरियाए या भिक्लायरिया भिक्सणा तत्थ भिक्खाथ| रियाए जं उग्धाङकवाडं उरघाडित उम्पार्ड नाम किंचि थगित, साणो बच्छओ दारओ वा संघट्टितो, मंडीपाहुडिया नाम जाहे । साधू Fi मायणे अग्गपिंड उकाड ताण सेसाओ देति, बलिपाहुडिया नाम अग्गिामि छुमति, चउद्दिसिं वा अच्चणितं करेति, ताहे साहुस्स देति तं न वद्धति, ठवणापाहुडिया नाम भिक्खायरा आगमिस्संति अहवा साधून चेव अट्ठाए ठविता, संकिते सहसाकारे असणाए, इदमुक्तं भवति - अणेसणाए अण्णतरेण दोसेण संकिता, अणेसणा पचुद्धा, सहसकारण गहिता, पाणभोयणा दुप्पडिलेहितो, एवं बीयहरिय भोयणेवि, अधिडे उक्खेवनिक्लेवे जे अभिहर्द, अभिहडं नाम आणीतं, एवं श्रपसंसअभिहति, दगसंस अभिहडपि, पारिसाडणियाए जं पारिसाडिज्जतं लक्ष्यं, पारिहाय (80) भिक्षाचर्या ॥ ७४ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक प्रतिक्रमण सूत्र [सू.] + गाथा: ||१२|| |णियाए, तत्थ भायणे असणं किंचि आसी ताहे तं परिदुरेतूण अण्णं देति सा पारिद्वावाणिया, कित्तियं वा भणीहामि-जं उग्ग-14। स्वाध्यायामेणं उपायणेसणाए अपरिसुद्धं पडिग्गहितं वा परिभुत्तं वा उग्गमउपायणेसणाओ जथा पिंडनिज्जुसीए, तस्सका मिच्छामिदुक्कडं पुवमणितं ॥ पडिकमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए दिया पढमचरिमासु रतिपि पढमचरि-16 मासु चेव पोरिसासु सज्झायो अवस्स कातव्यो, उभयो कालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए दुप्पडिलेहणाए च अप्पडिलेहणा चक्खुसा ण णिरिक्खिक दुप्पडिलेहणा- दुण्णिरिक्षितं अप्पमज्जणा-रयहरणादिणा ण पमज्जति दुप्पमज्जणा-रयहरणादिणा दुष्पमज्जित, एत्थ सबस्थ अतिकम वातकर्म अतिपारे अणायार जो में मिच्छामिदुक्कड, अतिक्कमादणि पुण इमं निदरिसणं, जथा- एगो साधु आहाकमेण निमंतिओ पडिस्सुणेति अतिक्कमो,। उग्गाहितेवि जाय उपयोगे ठितेण संदिसावितं सोवि अतिकमो, जाहे पदभेदो कतो ताहे बतिकमो, जाव उक्खिचा भिक्खा | तहवि बतिक्कमो, जाहे भायणे छूढं ताहे अतियारो, जाव लंबणे उक्खिवह तहवि अइयारो, जाहे मेण मुहे पक्खिचो ताहे अणायारो, एवंविहा भावेयया । एस्थ सम्बत्थ जे करणिज्जन कतं अकरणिज्जं कतं न सद्दहियं वा वितह वा परूवितं तत्थ जो देवसिओ अतियारो कतो तस्स मिच्छामि दुक्कडं । एवं रातिमातिपडिक्कमणे रातियातिअतियार भणिज्जा । एत्थ य केही अतियारा दिवसतो संभवंति कई रातीयो संभवंति केई उभएवि केई अहोरायमि, तत्थ दिवसा असंभविणोषि देवसिए उच्चरि- ॥७९॥ ज्जति, संवेगस्थ अप्पमादत्थं निंदणगरहणत्थं एवमादि पहुरुच, एवं रातिअसंभविणोवि विभावेज्जा, अण्णे पुण भगंति-सम्बे | I सबस्थऽसमविणो अपमादादिकारण पहुच्च सुविणयमादि च पडुच्च एवं विभासेज्जा । एवं देवसियस पडिफ्फंता । दार्णिम दीप अनुक्रम [११-३६] छककर ...एते सूत्रे अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि दर्शयते (81) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 CS धादि प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा | सव्वकालियस्स पडिक्कमति, जहा अनिर्दिष्टकालाः प्रत्ययाविष्वपि कालेषु भवंति एवं अनिर्दिष्टकाल प्रतिक्रमण विष्वपि कालेषु ध्ययने ला भवतीति, सो य अतियारो संखेवतो एगविभो संखेचवित्थरतो भवति सो च्चत्र दुविधो वा जाव दसविधो वा जाव सत्तरसविधो । प्रतिक्रमण वा संखेज्जअसंखेज्जअणंततिविधी वा । एते संखेववित्थरतो अतियारभेदा कह , उच्यते- एगविध पडच्च दुविधं भेदवित्थरतो ॥७६॥ सो भवति, सो च्चव दुविधो तिविधं षड्डुच्च संखेवो भवति, तम्हा दुविधो संखेववित्थरो अविरुद्धोत्ति, एवं सब्वट्ठाणाणिवि जाव । अचरिम, अणंतइम चरिमं पुण इमं जाब वित्थरतो भवति, एतेसि जथापरिवाडीए वक्खाणं भवति । एत्थ संखेववित्थरतो || का किंचि भणति पडिकमामि एगविधे असंजमे इत्यादि, तस्थ एगविधे इमं सुत्न- पडिकमामि एकविधो अस्संजमे, एतन्मात्रमेव सूत्रपदार्थः । प्रतीपं क्रमामि प्रतिक्रमामि, जथा नगराओ गाम गतो देवदत्तो तनो पुणरवि तमेव नगरं पच्चागतो संतो पडियागतोति भण्णति, एवं साधूवि खओवसमियभावातो उदइयभावं संकतो पुणरवि तमेव खओवसमियभावं पडिसंकेतो पडिकतोति भण्णति। सो अतियारो कहं भवति , एकविघे अस्संजमो, न संयमः असंयमः, संजमो संमै उबरमो, तमि असंजमे जो पडिसिद्धकरणादिणा अतियारो कतो तिकालविसओऽवि तस्स मिच्छामिदुक्कडं, एवं तं उवरि सज्झाए ण सज्झातियं तस्स मिच्छामि दुकडंति | एत्थ भणिति एवं सम्वत्थ विभासा, एवं एकविधो अतियारो भणितो । इदाणिं दाविधं भणति- पडिकमामि दोहिंधणेहि ॥७६॥ रागवंधणेण दोसबंधणेण य पडिकमणोत्थ पुचवण्णितो, दोहिंति रागद्वेषापेक्षणीया संख्या, बंधनमिति बध्यतेऽनेनेति बंधनं, दुविध-रागवंधणं दोसबंधणं च, रंजनं रज्यते वाञ्जेन जीव इति रागः राग एव बंधनं, द्वेषणं द्विषत्यनेनेति वा द्वेषः द्वेष एव सूत्र दीप अनुक्रम [११-३६] (82) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ ७७ ॥ बन्धनं दोसबन्धर्ण, एतेहिं दोहिं बंधणहेतुहिं अतिचारः कर्मबन्धश्व भवति तम्हा एतेहिं दोहिं जो पाडसिद्धकरणादिणा अतियारों कतो तस्स मिच्छा मिटुकडं । एस च दुविधो अतियारो पज्जायनयवसेण जोगवसेण करणवसेण य तिविधो भवति- पडिकमामि तर्हि दंडेहि मणोदंडेण वहदंडणं कायदंडेणं । जो मे पाडसिद्धकरणादि अतियारो कतो तस्स मिच्छामि दुक्कडं । एसा सव्वा विराधणा संगादिगा संठिता, अण्णे पुण एवं भणति जथा पढिकमामि एगविधे असंजमे पडिसिद्ध करणादिणा जो मे अतियारो कतो तस्स मिच्छामिदुकडं । तंमि चैव अस्संजमे पडिकमामि दोहिं बंधणेहिं- रागबंधणेणं दोसबंधणेणं २, तंमि देव अस्संजमे रामदोसेहिं पडिसिद्धकरणादिणा जो मे अतियारो कतो तस्स मिच्छामिदुकडे, एवं तंमि चैव असंजमे तिहिं दंडेहि | मणसादीहिं पडिसिद्ध करणादिणा जो मे अतियारो कतो तस्स मिच्छाभिदुकडं । एवं सव्वत्थ विभासा | दंडयत्यात्मानं तेनेति दंड, जथा लोके दंडिज्जति दव्यं च हरिति बज्झति य एवमिहावि चरितं च हारवेति दोराई च लभेति, मन एव दुष्प्रयुक्तो दंडो भवति, तत्थ मणदंडे उदाहरण- कोकणगतो, सो उडजाणू अहोसिरो चिंततो अच्छति, साधुणो अहो तो सुभज्याणोवगतोत्ति वंदति, चिरेण संलावे देतुमारद्धो, साहूहिं पुच्छिते भणति खरो बातो वायति, जदि ते हि मम पुत्ता संपतं वल्लराणि पलीवेज्जा ता तेसि वरिसारते सरसाए भूमीए सुबह सालिसंपदा भवेज्जत्ति एवं चिंतियं मे, आयरिएण वारितो ठितो ।। एवमादी जं असुभं मणे चिंतेति सो मणदंडो । वइदंडो सावज्जा भासा, तत्थोदाहरणं – साधू सण्णाभूमीओ आगतो, अविधीए आलोएति, जथा सूयरवंदं दिति, पुरिसेहि सुतं गंतुं मारितं । अहबा कोडिओ सादि भणति-जदि दिवसो हाँतो सच्चे समणगा हल वाहावेतो कायदंडो कायेण असुभपरिणतो पमत्तो वा जं करेति सो कायदंडो, दितो- चंडरुद्दो आयरिओ उज्जेणिए बाहि (83) दंड प्रतिक्रमणं ॥ ७७ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 गुप्ति प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| SAREERS प्रतिक्रमणा हा रगामाती अणुयाणपक्खो आगतो, सो य अतीव रोसणा,तत्थ य समोसरणे गणियाघरबिहेडितो जातिकुलादिसंपण्णो इन्भदारओ ध्ययने सेहो उवद्वितो, तत्थण्णेहिं असद्दहतेहिं चंडरुहस्स पास पेसिओ, कलिणा कली घस्सओत्ति, सो तस्स उपट्टितो, तेण से ताहे चेव य लोयं काउं पव्वातितो, पच्चूसे गाम यचंताणं चंडरुद्दो पत्थरे आवडितो रुट्ठो सह डेडएण स मत्थए अभिहणात, कई ते पत्थरा। न दिवोत्ति ?, सेहो संमं सहति, कालेणं केवलणाणं, चंडरुद्दस्सवि तं पासितुं वेरग्गेण केवलणाणं, अतो एतेहिं तिहिं डंडेहि जो मे जाव दुक्कई । . सूत्र पडिकमामि तिहि गुत्तीहिं-मणोगुत्तीए वय कायगुत्तीए, एसा संहिता सम्वविसोहिढाणाण संगाहिगा, असुमजोगो परमोऽगुत्ती, तत्थ मणगुत्तीए उदाहरग- सेट्ठिसुतो सुण्णघरे पडिम पडिवण्णो, पुराणभज्जा से संनिरोधं असहमाणी उम्भामइल्लण समं तं चेव घरमतिगता. पल्लंककंटएण सावगस्स पादो विद्धो, तत्थ अणायारं आयरति,न तस्स भगवतो मणो निग्गत्तो सट्ठाणातो । वइगुत्तीए सण्णायगसगासं साधू पत्थितो, चोरेहिं गहितो मुको य,अमापितरो विवाहनिमित्तं एंताणि दिडाणि,तेहिं नियत्तिओ,तेण | तेसि वतिगुनेण ण कहितं, ताणि तेहिं चोरेहिं गहिताणि, साहू य पुणो णेहिं दिट्ठो, स एवायं साधुत्ति भणितो, मुको, माताये पुच्छिता-तुब्भेहिं कि एसो गहितूण मुक्को ?, आम, ता आणहि छुरियं जा थणेऽहं छिंदामि, तेहिं भण्णति-किमिति !, सा भणति-IA हा दुज्जातो एसो, तुम्भे दिहा तहावि ण कहेति, किं तुज्झ पुत्तो ?, आम, तो किं न सिट्ठ . ताहे तेण धम्मो कहितो, आउट्टाणि, विमुक्काणि तस्संतियाणित्ति काउं ।। काइयगुत्ताहरणं अद्धाणपवण्णगो जथा साधू । आवासिताम सस्थ मलमति तहि थडिलं किाचे 12॥१॥ लद्धं चणेण कहवी एगो पादो जहिं पतिद्वाति । तहिये ठितेगपादो सवराति तहिं थद्धो ॥२।। न य ठवितं किंचि अत्थंडिलंमि दीप अनुक्रम [११-३६] EEN ॥ ७८॥ (84) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| सूत्र प्रतिक्रमणा बाहोतब्वमेव गुत्तेण । सुमहन्मएवि अहवा साहु न भिंदेइ गतिमेगो ॥३॥ सक्कपसंसा असदहण देवागमो विउन्नति या। मंडुक्कं- शल्यध्ययने । लिया साधु जयणाय संकमे साणयं ॥ ४ ॥ हत्थी विकुवितो जो आगच्छति मग्गतो गुलगुलेंतो। ण य गतिभेद कुणती, गएणप्रतिक्रमण ॥७९॥ हत्थेण उच्छ्दो ॥ ५ ॥ वेति पडतो मिच्छामिदुकडं जित विराधिता मेत्ति । णवि अप्पाणे चिंता देवो तुट्ठो नमसति य ॥६॥ एताहिं तिहि गुत्तीहि जो मे अतियारो कतो, कहं १, पडिसिद्धाणं करणं किच्चाणं अकरणं असदहणं विवरीयपरूवर्ण, एतासु गुत्तीसु अतियारा तस्स मिच्छामिदुकडं। पडिकमामि तिहिं सल्लेहि मायासलेण निदाणसींण मिच्छादंसणसल्लेण, तत्थ दब्बसल्लो कंटगादी, भावसल्लो जं अवराहट्ठाणं समायरित्ता नालोएति, मायासल्लोत्ति अप्पणा अवराध कातूण भणति-न करेमि, अण्णस्स चा पाडेति, असंपुण्णं वा आलोएति, पडिकुंचति, जथा परोवधातियाए मायाए, अंगरिमी उदाहरणं, इतराए पंडरज्जा १॥ निदानशल्यं निश्चितमादानं निदानं, अप्रतिक्रांतस्य अवस्यमुदयापेक्षा तीव्रः कर्मबंध इत्यर्थः, निदानमेव सल्लो निदानसल्लो, दिवं वा माणुस |वा विभवं पासितूण सोऊण वा निदाणस्स उववती भवेज्जा, तेण किं भवति', उच्यते, सणिआणम्स चरित्तं न यद्दति, कस्मात् अधिकरणानुमोदनात् , तत्थोदाहरणं बंमदत्तो। मिच्छादसणसल्ल इति मिथ्यादर्शनं मोहकर्मोदय इत्यर्थः,सो तिविधी- अभिनिषेसण मतिमोहेण (भएण) संपवेण चा, तत्थ उदाहरणानि जथासंख्य गोहामाहिलो जमाली सावगोत्ति । पडिकमामि तिहिं गारबेहिं इड्डीगारवेणं रसगारवेण सातागारवेणं । गुरुभावो गारवो, प्रतिबंधो अतिलोभ इत्यर्थः, इड्डीगारवो लोगसंगतीए नरिंददेविंदपूयाए वा भवति, रसगारखे जिम्भादंडो, सातागारयो सुहसातगत्तणं सयणासणवसहिवत्थादीहिं RSARAPARICॐॐॐ दीप अनुक्रम [११-३६] ७९॥ (85) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ध्ययने | सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा | सुहकारणेहि पडिबंधो, तिसुवि उदाहरणं महुराए अज्जमंगू आयरिओ तिब्बगारवाभि तो अपडिकतो कालं कातुं महुराए गौरव निद्धवणजक्खो उबवण्णो, ताहे जक्खायतणस्स अरेण साहुणो वोलेंताणं जक्खपडिम अणुपविसितुं जीहं निल्लालेति, एवं अण्ण विगधना॥८ ॥ II दावि कते साधूहिं पुच्छितो भणति-अहं सो पावकम्मो अज्जमंगू जीहादोसेण एरथ उपवण्यो, तं मा तुम्भे गारवाडिबद्धा निर्दूधसा | पाप संवा: होहिह, एतेहिं गारवेहिं जो मे जाव दुक्कडंति ॥ पडिकमामि तिहिं विराहणाहिं विगता आराहणा विराहणा, विराहणाए अकालसझायकारओ उदाहरणं, दसणविराहणाए सावगधीता जल्लगंधेण, चरित्तविराहणाए खुडओ सुतओ जातो, महिसो वाला सूत्र एताहि तिहिं विराहणाहिं जो मे जाव दुकडति । तिबिहातियारातो चतुकातियारो भवति, पडिकमामि चउहिं कसाएहिं-12 दा कोहकसाएणं माणकसाएणं माताकसाएणं लोभकसाएणं, कसाया नमोकारे पुव्ववणिका, एतेहिं जो मे जाव दुकडंति । पडिकमामि चउहिं संणाहिं आहारसंणाए। सैंणा दुविहा खओक्समिया कम्मोदइया य,तत्थ खओवसमिया णाणावरणखओ-है। बसमेण आभिणिबोहियनाणसंणा भवति, ताए एस्थ नाधिगारो, कंमोदइया चतुब्धिहा आहारसंना ४, आहारसंणा नाम आहारभिलाससंज्ञानं, आहाररागसंवेदनमित्यर्थः, तीए चत्तारि उदयहेतुणो 'चउहि ठाणेहिं आहारसंणा समुप्पज्जति -ओमकोढताए १५ छुहावेदणिज्जस्स कंमस्स उदएणं २ मतीए ३ तदट्ठोवयोगेण ४, नत्थ मती सोतुं दलु आघातुं रसेणे फासेण वा भवति, तदट्ठोबयोगेणं आहारं चिंतेति, सुत्तत्थतदुभएहिं वा अप्पाणं वावडं न करेतित्ति, भयसंणा नाम भयाभिनिवेसो भयमोहोदयसंवेदनमि-17 त्यर्थः, तीए पत्तारि हेतुणो- चउहिं ठाणेहिं भयसंणा उप्पज्जति हीणसत्तयाए भयपोहणिज्जउदएणं मतीए तदट्ठाययोगताए'तहेव13/11८०॥ मेहुणसंणाणाम स्त्र्याधमिलापसंज्ञान, वेदमोहोदयसंवेदनमित्यर्थः, तीए चत्तारि हेतू 'चउहि ठाणेहि मेहुणसंणा समुप्पज्जति-त. दीप अनुक्रम [११-३६] (86) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक सूत्र + गाथा: ||१२|| & चितमंससोणितयाए वेदमोहणिज्जोदएणं मतीए तदहोवयोगणं' तहेब, परिग्गहसंणा णाम परिग्गहाभिलाससंणाणं, परिग्गहरा विकथाः प्रतिक्रमणा गसैवेदणमित्यर्थः, तीसे हेतूणो-अविवित्तताए लोभोदएणं मतीए तदट्ठोषयोगेणं' तहेब, एएहिं चउहिं संणाहिं जो मे जाव दुकडंति । पडिकमामि चउहि विकहाहि-इस्थिकड़ाए भत्तकहाए देसकहाए रायकहाए । तत्थ इथिकथा चतुविधा जाति कथा कुलकथा रूपकथा नेवत्थकथा, जातीए ताव बभणखत्तियवस्सासु एत्थ एगतरं पसंसति निदति वा कुलकथा उग्गादिरूवं कादमिलिणं मरहट्टियाणं एवमादि पसंसति निदति बा, नेवत्थे जो जमि देसे इत्थीणं । भत्तकधा चतुर्विधा-अतिवाये निवावे आरंभ पनिट्ठाण, अतिवावे एत्तिया दग्बा सागवतादीए उपउचा,नियाए एत्निया बंजणभेदादी एत्थ,आरंभे एचिलगा तित्तिरहिंगुकडमेंढVI ट्रेथितदुद्धदहियतंदुला एवमादी, गिट्ठाण एतिएहिं रूबेहिं वेलाए संभ निहितं । रायकथा चतुम्बिधा--निज्जाणकथा अतिजाणकथा बलकथा कोसकथा, निज्जाणकथा एरिसीरिदीए नीति, अतिजाणकथा-एरिसियाए अतीति, बलकथा-एत्तियं बलं, कोसकथा-। एत्तिओ कोसो । देसकथा चतुविधा-दो विधी विकप्पो नेवत्यो, देसच्छंदो माउलधीता गंमा लाडाणं गोल्लविसर भगिणी, मातिसवित्तिओ विच्चाण गंमा अण्णसिं अगम्मा एमादि, विधी नाम भोयणविधी विवाहविधी एवमादि, विकप्पो परिसा घरा देवकुलाणि नगरनिवेसा गामादीण एवमादि, नेवत्थो इणिं पुरिसाणं साभाविओ बिउब्बिओवा। पडिकमामि चउहिं झाणेहिं ॥८१॥ लाइ सूत्रं । जीवस्स एगग्गे जोगाभिनिवेसो झाणं, अंतोमुहुत्तं तीव्रजोगपरिणामस्थावस्थानमित्यर्थः, तस्स सत्त भंगा- मानसं १ अहवाही वाइयं२ अहवा कायियग३ अहवा माणसं वाइयं च४ अहवा बाइगं काइगं चर अहव। माणसं काइगं अहवा मणवयणकार्यिगंति७, एन्थ पढमो भंगो छउमत्थाणं सम्मद्दिडिमिच्छादिट्ठीणं सरागवीतरागाणं भवति, वितितो तेसिं चेव छदुमत्थाणं सजोगिकेवाणं दीप अनुक्रम [११-३६] सूत्र ॐॐॐ (87) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा च धम्म कथेन्ताण, काइगं तेसिं चेव छदुमत्थाणं सजोगिकेवलीणं च चरमसमयसजोगिन्ति ताव भवति, चउत्थो पंचमोष जथा आर्चध्यानं ध्ययन पढमो, छट्ठो जथा सजोगिकेवलीणं, सत्तमो जथा पढ़ो। ॥८२॥ तं झाणं चतुर्विध- अहं रुई धम्म सुकं च । आर्तभावं गतो आर्गः आर्तस्य ध्यान आर्तध्या रौद्रभावं गतो रौद्रः, धर्मभाचे 12 गतो धर्मः, शुक्लभावं गतः शुक्लः । उक्तं च-हिंसाणुरंजित रौद्र, अहं कामाणुरंजितं । धम्माणुरंजियं धर्म, शुक्र्क साणं निरंगी J॥१॥ एगेगस्स असंखज्जाई ठाणाई, एतेसु ठाणेसु जीवो अरहट्टापटीविय आएति य जाति य, तस्य संखेवतो अटुं चउम्पिह अमणुण्णाण संजोगाणं वियोग चितेति-काए बेलाए विमुच्चेज्जामि', अणागतेऽवि असंप्रयोगाणुसरणं, अतीतेऽपि वियोग बहु | मष्णति, एवं वीर्य मणुण्णाणं वियोग नेच्छति, एवं ततियं आयकस्स केण उवाएण सचिचादिणा दव्यजातेण तिगिच्छा करेमित्ति चितेति, चउत्थं परिहीणो वित्तण तं पत्तो विसं झायति, दुब्बलो थेरो असमत्थो वा भोत्तुं आहारं हरिंथ वा कदा | अजेज्जामिति य चिंतेति । गाहाओ-- ___अमणुष्णसंपयोगे मणुण्णवग्गस्स विप्पओगे वा । वियणाए अभिभूतो परइड्डीओ य दतूर्ण ॥ १ ॥ सदा रूवा गंधा रसा य फासा य जे तु अमणुण्णा । बंधववियोगकाले अदृमाण झियायति ॥ २ ॥ एवं मणुण्णविसए इड्डीओ चक्कवट्टिमादीण | गहिते - विम्हितमनसे पत्थेमाणे झियाएज्जा ॥३॥ मित्तयनातिवियोग वित्तविण्णासे तह य गोमहिसे । अट्ट झाणं झायति परिसपते &ासिदेत या ॥१॥ किण्डा नीला काऊ अदृज्झाणस्स तिण्णि लेसाओ। उबवज्जति तिरिएK भावेण य सारिसण तु॥५॥ अई ॥८ ॥ झाणं शियायतो, किण्हलेसाए बद्धती । उक्किदुगंमि ठाणमी, अचरित्ती असंजतो ॥ ६ ॥ अर्द्ध साणं झियायतो, नीललेसाए कश्ती। SHRESTHA दीप अनुक्रम [११-३६] ...अत्र ध्यानस्य चतुर्विधत्वं दर्शयते (88) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ध्ययने सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| मझिल्लगमि ठाणमि, अचरित्ती असंजतो ॥ ७ ॥ अट्ट झाणं रियायतो, काऊलेसाए षट्टती । काणगंमि ठाणमी, अचरिती असं- आध्यानं मतिक्रमणा मजतो ॥ ८॥ तिव्यकोचोदयायिट्ठो, किण्हलेसाणुरंजितो । अट्ट झाणं झियायतो तिरिकषत्तं निगच्छती ॥ ९॥ एवं चत्वारि कसाया माणितचा । ममिमकोधोदयाविट्ठी, नीललेसाणुजितो । अट्ट झाणं झियायंतो, तिरिक्खने निगच्छति ॥ १०॥ एवं चत्वारिविला ॥ ८३॥ कसाया। मंदकोषोदयाविट्ठो, काऊलेसाणुरंजितो । अज्झाणं झियायतो, तिरिक्वसं निगच्छति ।। ११ ।। एवं चत्तारिवि कसाया। अस्स लक्खणाणि-कंदणता सोयणता तिप्पणता परिदेवणता, तत्थ कंदणता हा मात! हा पितेत्यादि, सोयति करतलपल्हत्थमुझे दीणदिट्ठी शायति, तिप्पणता तिहिं जोगेहि तप्पति, परिदेवणता एरिसा मम माता वा २ लोगस्स साहति, अहवा माएल वायं जोएति वा, अहवा परि २ तप्पति, सरित्ता मातुगुणे सयणवत्थाणि वा घरं घा दलै २ तप्पति- इंदियगारवसंण्णा उस्तेय रती भयं च सोगं च । एते तु समाहारा भवंति अदृस्स झाणस्स ॥ १॥ रोई चतुबिधं- हिंसाणुचंधी मोसाघुबंधी तेणाणुबंधी सारक्खणाणुबंधी, तत्थ हिंसाणुबंधी हिंसं अणुबंधति, पुणो पुणो तिब्वेण परिणामणं तसपाणे हिंसति, अहवा पुणो पुणो भणति चिंतेति वा सु? कतं, अहवा छिद्दाणि चयराणि वा मग्गति, हिंसं अणुबंधति, ण विरमति । एवं मोसेवि, विष्णेवि, संखखणापरागादीणि कारति, जो वा जोइल्लओ खाति तं मारोति, मा अण्णावि खाहिति, दुढे सासति, सव्वतो य बीमेति, पलिचमिव मण्णति, उक्षणति निस्खणति, सव्यं तेलोकं चोरमइयं मणति, परनिंदासु व हिस्सति, रुस्सति, वसणमभिनंदति परस्स, रोहता-1 ॥८३॥ णमतिगतो भवति येव दुकडमयीयो, एवं सारक्खणाणुबंधे, सेसं तहेब, तस्स चत्तारि लक्खणाणि- उस्सण्णदासो बहुदोसो अंणालाणदोसे आमरणतदोसे, ओस हिंसादीणं एगतरं अभिक्खणं २ करोति उस्सष्णदोसो, हिंसादिसु सन्चेसु परचमानो बहुदोसो, दीप अनुक्रम [११-३६] (89) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत राद्रध्यान सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा ठा अण्णाणदोसो संसारमोदगादणिं, आमरणतदोसो जथा पब्यतराई, परिगिलायमाणस्सवि आगतपच्चादेसस्स थोवोऽवि पच्छाणु- ध्ययन तावो न भवति, अवि मरणकालेवि जस्स कालसोयरियस्सेव ण ताओ उवरती भवति, एस आमरणतदोसो । तत्थ गाहाओ अहाए अणट्ठाए निरवेक्खो निद्दयो हणति जीये । चितेतो वावि विहरे रोइज्झाणे मुणेतब्बो ॥ १॥ अलियपिसुणे पसत्तो । णाहियवादी तहेवमादी य । अभिसंधाणभिसंदण रोद्दज्झाणं झियायेति ॥ २॥ परदव्यहरणलुद्धो निच्चपिय चोरियं तु पत्थेतो।। लुद्धो य रक्खणपरो रुद्दझाणे हवति जीवो ॥ ३॥ किण्हा नीला काऊ रोइज्माणस्स तिण्णि लेसाओ । नरगमि य उववत्ती रोहजझाणा उ जीवस्स ॥ ४ ॥ रोद्दज्झाणं झियायतो, किण्हलेसाए वगृती । उक्कस्सगंमि ठाणमि,अचरित्ती असंजतो ॥ १॥ सेस जथा अडे, नवरं गतिं गच्छति दुद्धरं । पाणबद्दमुसाबाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । एते तु समाहारा हवंति रोबस्स झाणस्स ॥६॥ धम्मे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, संजथा-झाणे अणुप्पेहाउ लक्खणे आलंबणे, एतं चतुविध, चउप्पडोयारं नाम एक्कक्कं । तत्थ चतुविधं प्राण, चतुविधं तंजथा--आणाविजये अवायविजए विवागविजए संठाणविजये, तत्थ आणाविजए आणं विवेएति, जथा पंचस्थिकाए छज्जीवनिकाए अट्ठ पवयणमाता, अण्णे य सुत्तनिवद्धे भावे अबद्धे य पेच्छ कह आणाए परियाणिज्जंति, एवं |चिंतेति भासति य, तथा पुरिसादिकारणं पहुच्च किच्छासज्झेसु हेतुबिसयातीतसुवि वत्धुसु सव्वण्णुणा दिढेसु एवमेव सेतीत चि तंतो भासंतो य आणा विवेयेति १ एवं अवायविजयेति, पाणातिवातेणं निरयं गच्छति अप्पाउओ काणकुंटादी भवति एवमादि त्विाचा, अहवा मिच्छत्तअविरतिपमायकसायजोगाणं अवायमणुचिंतेति, णाणदेखणचरित्ताणं वा विराधणावायमणुचितेति २ विवा- | गविजयो विविधो पागो विवागो, विविधो कमाणुभावोत्ति भणितं होति, सुभासुभा य जे कमोदयभावा ते चिंतेति ३ संठाणवि दीप अनुक्रम [११-३६] ॐॐॐॐॐ ॥४॥ (90) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| & प्रतिक्रमणाजयो, संठाणाणि विवेचयति, सथ्वदब्बाणं संठाणं चितेति, जथा लोए सुपतिट्ठासंठिते अलोए सुसिरगोलकसंठिते नरगा हुँडस- धर्मध्यानं ध्ययने ठिता एवं सम्बदव्याणं । एत्थ इमाओ चउहंपि कारगगाथाओ-पंचत्थिकाए आणाए, जीवा आणाए छबिहे । विजए जिणपण्णते, धम्मज्झाणं रियायइ ॥१॥ इहलोइए अवाए, तधा य पारलोइए । चितयंतो जिणक्खाए, धम्मज्झाणं झियायती ॥ २ ॥ इहलोइयंटू अवार्य, वितियं पारलोइयं । अप्पमत्तो पमत्तो बा, धम्मज्झाणं झियायती ।। ३ ।। सुभमसुभं अणुभावं कंमविवागं विवागविजयंमि । | संठाण सम्बदव्ये जरगविमाणाणि जीवाणं ॥४॥ देहादीयं परीणाम,नारगादीसुणेकधा । लेस्सातिगं च चिंतति, विवागं तु शियायती ॥५॥ मुभाण असुभाणं च, कमाणं जो विजाणती । समतिण्णाणप्पामणं, विवागं तु लियायती ॥ ६॥ पंचासवपडिवि-1 रओ चरिचजोगमि परमाणो उ । सुत्तत्थमणुसरतो धम्मज्झायी मुणेयब्यो ।। ७॥ तेजोपम्हासुकालेसाओ तिणि अण्णतरि गाओ। उववातो कप्पतीते कप्पमि व अण्णतरगमि ॥८॥ धम्मज्झाणं झियायतो, सुक्कलेसाए वरती । विक्किडगंमि ठाणमि, दि सचरिची सुसंजतो ॥ ९॥ एवं पम्हालेसाए मज्झियगंमि ठाणंमि,तेऊलेसाए कणिढगंभि ठाणमि । कोवनिग्गहसंजुत्तो, मुक्कलेसाठी 12पुरंजितो । धम्मशाणं शियायतो, देवयनं निगच्छती ॥१०॥ ति, एवं माणमायालोभनिग्गहेऽवि, एवं पम्हाएवि,तेऊएवि लेसाए 1121 इमाओ पुण से चत्तारि अणुप्पेहाओ,तं०-अणिचताणुप्पेहा एवं असरणता०एगत्तासंसाराणुप्पेहा, संसारसंगविजयनिमित्तमाणिच्चता-५ 1 णुप्पेहमारभते, एवं धमे थिरतानिमित्तं असरणगतं, संबंधिसंगविजयाय एगले,संसारुद्वेगकारणा संसाराणुप्पेहं । लक्खणााण इमा-IM॥८५ माणि चचारि-आणाई निसग्गरुई मुत्तरुई ओगाहरुई,आणाई तित्थगराणं आणं पसंसति निसग्गरुई सभावतो जिणप्पणीए भावे रोयति सुत्तरूई- सुत्तं पढ़तो संवेगमावज्जति, ओगाहणारुई गयवादभंगगुबिलं सुत्तमत्थतो सोतूण संवेगमावन्नसद्धो झायति । आलेवणाणि | दीप अनुक्रम [११-३६] (91) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 शुक्लध्यान प्रत सूत्रांक -SERE5 + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणीच से चत्तारि जथा विसमसमुत्तरणे वल्लिमादीणि, तंजथा-वायणा पुच्छणा परियणा अणुप्पेहा, धम्मकहा परियटणे पडति । एवं | ध्ययने & विभासेजा ॥ इदाणिं सुक्क सुक्के चतुम्विधे चउप्पडोयारे पण्णचे-पुहत्तवितक्के सविचारे १एगचवितक्के अविचारेरसुहुमाकरिए ॥८६॥ | अणियट्टी३ समुच्छिष्णकिरिए अप्पडिवाई ४ सुतणाणे उवउवत्तो अत्यमि य वंजणंमि सवियारं । झायति चोद्दसपुब्बी पढमै सुक्कं सरागो तु ॥ १ ॥ सुतणाणे उपउचो अत्यमि य बंजणमि अबियारं । झायति चोइसपुष्वी बीयं मुक्कं विगतरागो ॥ २॥ अत्थसंकमणं चेय, तहा बंजणसंकर्म । जोग| संकमणं चेव, पढमे साणे निगच्छती ॥ ३ ॥ अत्थसंकमणं चेव, तथा वंजणसकर्म । जोगसंकमणं चेय, वितिए ज्झाणे वितक्कती द्रा॥४॥ जोगे जोगेसु वा पढम, बीयं योगमि कण्हुयी । ततियं च काइके जोगे, चउत्थं च अजोगिणो ॥५।। पढम पीयं च सुक्क, झायंती पुचजाणगा । उवसंतेहिं कसाएहिं, खीणेहि व महामुणी ॥६।। वीयस्स य ततियस्स य अंतरियाए केवलनाणं उप्पज्जति । भादोण्णी सुतणाणीगा झाणा, दुवे केवलणाणिगा । खीणमोहा जिझयायंती, केवली दोणि उत्तमे ॥ ७॥ सिज्झितुकामो जाहे कायलाजोगे निरुमती ताहे, तस्स मुटुमा उस्सासनिस्सासा, तत्थ य दुसमयट्ठितियं परम तिं इरियावाधियं कम्म बज्झति, तत्थ ततिय सुहमकिरियं अणियहीझाणं भवति जोगनिराधे कते पुन्यपयोगेणं, चउत्थं समुच्छि नकिरियमप्पाडवादि झाणं णाणाठाणोदणं (य) जथा तथा मायति, अहवा कुनालचक्कण दिद्रुतो, जथा दंडपुरिसपयत्तविरामवियोगेण कुलालचक्क भमति तथा सयोगिकेबलिणा पुब्बारदे सुक्कमाणे अजोगिकेवलीभावेण सुकज्झायी भवति । पढमबितियाओ सुक्काए, ततियं परमसुक्कियं । लेश्यातीतं उचरिल्ल, होति ज्माणं वियाहितं ।। ८ । अणुत्तरेहिं देवेहि, पढमबीएहिं गच्छती। उवरिल्लेहि झाणेहि, सिज्झती निरयो धुर्व % दीप अनुक्रम [११-३६] ॥८६॥ 45% % (92) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] अध्ययनं (V). मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१- १४१८ आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ ८७ ॥ सूत्र %%%%%% "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) •••अत्र क्रियायाः भेदा: दर्शयन्ते ॥ ९ ॥ हमाओ पुण से चत्तारि अणुप्पेहाओ अवायाणुप्पेहा असुभाणुप्पेहा अनंतवत्तियाणुप्पेदा विष्परिणामाणुप्पेहा, जत्थे आसवादिवार्य पेक्खति संसारस्य असुभतं अनंततं सव्वभावविपरिणामित्तं । लक्खणाणिवि चचारि विवेगे वियोसग्गे अन्व असंमोहे, विवेगे सब्वसंजोगविवेगं पेक्खति, वियोसग्गे सब्बोवहिमादिविउस्सग्गं करेति, अव्यधे विष्णाणसंपण्णो ण विहेति ण चलति, असंमोहे सुसदेवि अत्थे न संमुज्झतित्ति । आलंबणाणि चत्तारि खेती मुत्ती अज्जवं मद्दति । एतेहि चउहिं झाहि जो मे अतियारो पडिसिद्धकरणे कतो तस्स मिच्छामिदुकडंति ॥ किमाम पंचहि किरियाहिं काइयाए ५ सूत्रं । काइका तिविधा अविरतकाइया दुप्पणिधिकाइया उवरतकाइया, तत्थ अविरतकाइया असंजतस्स वा सावगस्स वा दुप्पणिधितकाइया पमत्संजनस्त्र, सा दुविहा- इंदिय दुप्पणिहाणजाइया गोइंदियदुष्प०, ईदिएहिं पंचहिं णोईदिएहि मणेणं वायाए कारणं, उवश्यकाइया अध्यमचस्स सकसायाकसायस्स १ । अधिगरणिया दुविधा अधिगरणपवत्तणी जथा चकमहादिपसुबंधादी पवत्तिज्जति । निव्वत्तिणी दुविधा मूलगुणनिव्यत्तणी उत्तरगुण०, मूलगुणे ओरालिगादि, उत्तरगुणे णेगविश्वसगडर धजाणजुग्गमादि । एत्थ पाहुडिया गाथा निव्वत्तण संजोजण थिरकरणे चैव तहय निक्खये सातिज्जण समणुष्णे परिग्गहे संपदाणे य ॥ १ ॥ निष्वत्तर्ण जथा रथंगाणं संजोजणं संघातणं, थिरिकरणं लोहादिणा बंधणं, निक्वणं जन्थ उपेति रथमादि, सातिज्जणा समणुष्णा परिग्गहो तत्थ पुच्छर्ण पदाणं पयच्छणं एतं रथंगाणं दरिसितं एवं अण्णत्थवि भाषेत २ । पादोसिये तिविधं मण० वषण० काय०, मणपादोसिया दुविधा-अनिदाए निदाए य, एवं बायाए कारणवि, णिदाए अट्ठाए, अणिदाए अणट्ठाए ३ । पारितावणिगा दुविधा - (93) क्रियाविचार: 11 29 11 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [ सूत्र / ११-३६] / [गाथा - १,२], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 निर्युक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], प्रविक्रमणा ध्ययने 116611 | सहत्यपरितावणिगा पोस हत्थपरितावणिगा य, सहत्यपरितावणिगा २ अडाए अगट्ठाए य । एवं गोसहत्थपरितावणिगावि ४ । एवं पाणातिपातकिरिया जथा परितावणिगा ५ । एताहिं पंचहि पंचवीस किरियाओ सूचिताओ, तंजथा मिथ्याक्रिया १ प्रयोगक्रिया २ समुदाणक्रिया ३ ईर्यापथिका ४ कायिकी ५ अधिकरणक्रिया ६ पाउसिया ७ परितावणिया ८ प्राणातिपातक्रिया ९ दर्शनक्रिया १० | स्पर्शन क्रिया ११ सामन्तक्रिया १२ अनुपातक्रिया १३ अनाभोगक्रिया १४ स्वहस्तक्रिया १५ निसर्गक्रिया १६ विदारणक्रिया १७ | आज्ञापनक्रिया १८ अनवकांक्षक्रिया १९ आरंभक्रिया २० परिग्रह क्रिया २१ मायाक्रिया २२ रामक्रिया २३ द्वेषक्रिया २४ अप्र| त्याख्यानक्रिया २५ इति । तत्र मिध्याक्रिया त्रिविधा हीनामिथ्याक्रिया अधिकमिथ्याक्रिया तद्व्यतिरिक्ता मिथ्याक्रिया, तत्र हीनमिथ्या क्रिया तंजथा - अंगुष्ठपर्वमात्रो ह्यात्मा यवमात्रस्यामाकतंदुलमात्रो वालाग्रमात्रः परमाणुमात्रः हृदये जाज्वल्यमानस्ति| ष्ठति भ्रूललाटमध्ये वा इत्यादि, अतिरिक्तमिथ्याक्रिया-पंचधनुः शतानि सर्वगतः, अकर्ता अचेतन एवमादि, तद्द्व्यतिरिक्त क्रिया नास्त्यात्मा आत्मीयो वा भावः नास्त्ययं लोको न परः भावा निःस्वभावाः इत्येवमादि १| प्रयोगक्रिया त्रिविधा - कायप्रयोगक्रिया वाक्प्रयोगक्रिया भणप्रयोगक्रिया, तत्र कायप्रयोगक्रिया प्रमत्तस्य गमनागमनाकुंचनप्रसारणक्रियाचेष्टा कायस्थ, वाक्प्रयोगक्रिया | भगवद्भिर्या गर्हिता भाषा तां भाषां स्वेच्छया भाषतो, मनःप्रयोगक्रिया आर्तरौद्राभिमुखो इंद्रियप्रसृतो अनियमित मन इति २ । समुदानक्रिया द्विविधा देशोपघातसमु० सर्वोपघातसमु०, तंत्र देशोपघातसमु० इंद्रियदेशोपघातं कुरुते, सर्वोपघातसमु० सर्वप्रकारेण | इंद्रियं विनाशयति ३ । ईर्ष्यापथक्रिया द्विविधा बध्यमाना वेद्यमाना ४ | काइया द्विविधा - अनुपरतकायक्रिया दुष्प्रयोगिका, मिथ्यादृष्ट्यादीनां अनुपरतका क्रिया, दुष्प्रयोगिकाक्रिया प्रमत्तसंयतानां ५ अधिकरणक्रिया द्विविधा -निर्वर्तनेनाधिकरण क्रिया संयोज (94) क्रियाविचारः ॥ ८८ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा नेनाधिकरणक्रिया, तत्र निर्वतनेनाधिकरणक्रिया द्विविधा-मूलगुणनिवर्तनाधिकरणक्रिया उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणक्रिया, तत्र क्रियाने मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणक्रिया पंचानां शरीरकानां निर्वर्तन, उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणक्रिया हस्तपादांगोपांगानां निर्वर्तनं, अहवा विचार मूलगुणनिर्वचनाधिकरणीक्रया असिशक्तिभिडमालादीनां निर्वतनं, संयोजनाधिकरणक्रिया तेषां वियुक्तानां संयोजनामिति, अहवा ॥ ८९॥ | संयोगः विषगरहलकूडधनुयंत्रादीना, निवर्तनाधिकर० द्रव्येण कालकूटमुद्रादीनां ६ प्रादोषिका द्विविधा- जीवप्रादोषिका अजीव प्रादोषिका च, जीवनादोषिका पुत्रशिष्यादौ कलत्रे वा प्रदोपं गच्छति, अजीवप्रादोषिका अस्मना कंटकेन वाऽभ्याहतः अस्मान | कंटके वा प्रदोपं गच्छति ७ । परितापनक्रिया द्विविधा- स्वदेहपरितापनक्रिया परदेहपरितापनक्रिया, परस्य देहं दृष्ट्वा स्वदेह ताडयति, परदेहपरितापनक्रिया पुत्रं शिष्यं कलत्रं ताडयति ८ प्राणातिपातक्रिया द्विविधा- स्वदेहव्यपरोपणप्राणातिपातक्रिया | परदेह०, तत्र स्वदेहव्यपरोपणक्रिया यत् स्वर्गहेतोः देहं परित्यजति गिरिशिखरे,प्रज्वलित वा हुनबहं प्रविशति,अंभसि वाऽऽत्मानं परित्यजति, आयुधेन वा स्वदेह विनाशयति, परदेहव्यपरोपणक्रिया अनेकविधा, तद्यथा-क्रोधाविष्टः एवं मानमायालोभमोहा०, को धेन रुष्टो मारयति, एवं मानेन मत्तो मायया विस्वासेन लोभेन लुब्धः शौकरिकवत् मोहेन मूढः संसारमोचकवत् , ये चान्ये धर्म-12 18 निमित्तं प्राणिनो व्यापादयंति ९ । दर्शनक्रिया द्विविधा-जीवदर्शनक्रिया अजीवदर्शनक्रिया, नरेन्द्राणां निर्गमप्रवेशनस्कन्धावारपद-18 शेने तथा तालाचराणां विभूपितानां च प्रमदानां संदर्शन, अजीवदर्शनक्रिया चित्रकर्मपुस्तककर्मग्रंथिमवेढिमदेवकुलारामोधानसभा- 11८९॥ प्रवासु दर्शनोधम इति १० । सर्शनक्रिया द्विविधा- जीवस्पर्शनक्रिया अजीवस्पर्शनक्रिया, तत्र जीवस्पर्शनक्रिया खीपुंनपुंसक वा स्पृशति, संपट्टयतीत्यर्थः,अजीवस्पर्शनक्रिया सुखस्पर्शार्थ मृगलोमादिवखजातं मुक्ककादि वा रत्नजानं स्पृशतीति११सामंतक्रिया दीप अनुक्रम [११-३६] --- (95) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ ९० ॥ - द्विधा देशसामंतक्रिया सर्वसामंतक्रिया, प्रेक्षकान् प्रति यत्रैकदेशेनागमो भवत्यसंयतानां सा देशसामंतक्रिया, सर्वसामन्तक्रिया यत्र सर्वतः समंतात्प्रेक्षकाणामागमो भवति सा सर्वसामन्तक्रिया १२। अनुपात क्रिया प्रमत्तसंयतानामप्यन्नपानं प्रत्यनवगुण्डने संपातिमसवानां विनाश इति १३ अनाभोगक्रिया द्विविधा- आदाननिक्षेपणानाभोगक्रिया उत्क्रमणानाभोगक्रिया, तत्रादान० रजोहरणपात्र - श्रीवरादिकानामप्रत्युपेक्षितानामप्रमार्जितानामना भोगेनादाननिक्षेपौ, उत्क्रमणानाभोगक्रिया लंघनप्लवनधावनसमीक्षागमनागमनादि १४ । स्वहस्तक्रिया दुविधा- जीवस्व० अजीवस्व०, जीवं स्वहस्तेन ताडयति, वस्त्रं पात्रं वा०१५ | निसर्गक्रिया द्विविधा-जीवनिसर्गक्रिया अजीवनिसर्गक्रिया, तत्र जीनिसर्गक्रिया जीवं निसृजति, अजीवनि० पात्रं वा चीवरं० वा १६ । वियारणक्रिया द्विविधाजीववियारणकिया अजीववियारणक्रिया, जीवमजीवं वा अभासिएस विक्केमाणो दोभासिओ वियारेति, अह्वा जीवमजीवं वा विदारयतीति १७| आज्ञापनक्रिया नाम स्वपुत्रं शिष्यं वा आज्ञापयति १८ । अनवकांक्रिया द्विविधा स्वात्मानवकांक्रिया परात्मानवकांचक्रिया, तत्र स्वात्मना न्यक्करोति येनात्मानं नावकांक्षति अथवा तदाचरति येन परं नावकांक्षति १९ । आरंभक्रिया द्विविधाजीवारंभक्रिया अजीवारंभक्रिया, तत्र जीवारंभक्रिया जीवानारभते, अजीवारंभक्रिया अजीवानारभते २० । परिग्रहक्रिया द्विविधा-जीवनरिग्रहक्रिया अजीवपरिग्रह क्रिया २१ । मायाक्रिया द्विविधा आत्मवक्रीकरणमायाक्रिया परवक्रीकरणमायाक्रिया २२ । रागक्रिया द्विविधा मायाश्रिता लोभाश्रिता या अहवा तद्वचनमुदाहरति येन परस्य राग उत्पद्यते २३ द्वेषक्रिया द्विविधा - क्रोधाश्रिता मानाश्रिता च क्रोधक्रिया आत्मना क्रुध्यति, परस्य वा क्रोधमुत्पादयति, मानक्रिया स्वयं माद्यति परस्य वा मानमुत्पादयति२४ । अप्रत्याख्यानक्रिया अविरतानामेव, न क्वचिद्विरातरस्तीति २५ । एताः पंचविंशतिः क्रिया आश्रवभूता भवतीत्येवं वाच्यं । (96) क्रियाविचारः ॥ ९० ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक क्रिया विचार: + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा अहवा इमाओ अण्णाजो पणवीसं किरियाओ, तंजथा- आरंभिया १ परिग्गहिता २ मायावत्तिया ३ मिच्छादसणक्रिया ध्ययन अपच्चक्खाणकिरिया ५ दिदिवाइया ६ पुडिवाइया ७ पाडच्चिया ८ सामंतोवणिवातिया ९ णेसत्थिया १. साहस्थिया ११ ॥२१॥ हा आणमणिया १२ वेयाराणिया १३ अणाभागवत्तिया १४ अणवखवत्तिया १५ पायोगकिरिया १६ समुदाणकिरिया १७ पेज्जपत्तिया १८ दोसवत्तिया १९ इरियावहिया चेति २० । एताओ वीसं पुव्वणिताओ, पंच काइगा अधिकरणक्रिया एवमादिगा, एता पणवीसं ॥ तत्थ आरंभिया द्विविधा- जीवारंभिया अजीवारंमिया, जीवे आरंभति अजीवे आरंभति१एवं परिग्गहियावि २ मायावत्तिया द्विविधा- आयर्वचणक्रिया परवंचणकिरिया य ३ मिच्छादसणवत्तिया द्विविधा- आभिग्गहिया य अणाभिग्गहिया य ४ अपच्चक्खाणकिरिया द्विविधा- जीवअपच्चक्खाणकिरिया अजीवअपच्चक्खाणकिरिया ५ दिहिवाइया दुविधाजीवदिट्ठिया अजीवदिडिया य, जीवदिडिया आसादीण चक्खुदंसणपडियाए. अजीबदिडिया नित्तकमादीण ६ पुट्टिया दुविधाजीव० अजीव०, जीवपुडिया जीवाधिगारं पुच्छति रागदासेणं, अजीवाधिगारं वा०, अहवा पूट्ठियति फरिसणकिया, सापि जीव० अजीब तहेय७पाइरिचया दुविधा- जीवपा० अजीव०, जीववत्धुं पहच्च जो बधो सा जीवपाइच्चिया, एवं अजीवपाहुचिया ८ सामंतोवणिवाइया समन्तादणुपततीति सामन्तोवणिवाइया, सा दुविधा- जीव० अजीब०, जीवसामंतोवणिवाइया जथा एगस्स संडोतं जणो पलोएति जथा जथा पलोएति तथा तथा सो हरिसं गच्छति । एवं अजीवपि रहकंमादिसु ९ नेसत्थिया दुविधा-जीव० अजीव०, जीवणेसस्थिया रायादिसंदेसो जथा दगजंताई, अजीवणेसत्थिया जथा पाहाणकंडादीणि गोफणधणुगमादीहिं निसरति१० साहस्थिया दुविधा- जीव अजीव, जीवसाहस्थिया जं जीवेण चेव जीवं आहणति, अजीवसाहस्थिया जथा GEOGR%A5% 9EHENSHOP दीप अनुक्रम [११-३६] (97) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 - क्रियाविचार प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१२॥ - असिमादि ११ आणमणिया दुविधा- जीप० अजीव, जीवआणमणिपा जी आज्ञापयति परेण, एवं अजीवपि १२ घेयारणी जीव० अजीव०, जीववेयारणिया जीवं विदारयति अजीवं विदारेंति, फेडेतीत्यर्थः १३ अणाभोगवत्तिया अणाभोगआतियणया य अणाभोगनिक्खेवणया य, अणाभोगो अण्णाण, आदियण वा गहणं निक्खेवणं ठवणं १४ अणवखवत्तिया दुविधा-इहलोगे परलोगे य, इहलोगे अणवकंखवचिया लोगविरुद्धाणि चोरिकादीणि करेति, जेण यहबंधादीणि इहेव पावति, परलोगअणवकखवचिया हिंसादिकमाणि करेमाणो परलोग नावकसति १५ पयोगकिरिया- मण, वय काय,तस्थ मणे पयोगकिरिया अट्टरोइज्झाणादी इंदियप्रसृतो अणियमितमण इति, वइपयोग सावज्जभासणं, कायपयोग० पमत्तस्स गमणागमणादि १६ समुदाणकिरिया देसोवघात सम्वोवघात,०, तत्थ देसोवघातसमुदाणकिरिया कोइ कस्सइ इंदियदेसोवपातं करेति, सव्योवघातसमुदाणकिरिया सव्यपगारेण इंदियं विणासति १७ पेज्जवत्तिया दुविधा- मायनिस्सिता लोभनिस्सिता, पेज्जं नाम राग इत्यर्थः, अहवा तं वयणं उदाहरति करेति वा जेण परस्स रागो भवति १८ दोसवत्तिया दुविधा- कोहणिस्सिया माणणिस्सिया य, ते वा वयणं भणति करेति वा जेण परस्स दोसो उप्पज्जति १९ इरियावहिया सा अप्पमत्तसंजतस्स चीतरागछउमत्यकेवालस्स चा, आउत्तं गच्छमाणस्स वा आउत्तं चिट्ठमाणस्स वा आउत्तं निसीदमाणस्स बा आउ तुयट्टमाणस्स वा आउत्तं भुंजमाणस्स या आभासमाणस्स वा आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुंछष गेहमाणस्स निक्खेवमाणस्स वा जाव नक्खुपम्हानवातमवि अस्थि माता | मुहुमा किरिया इरियावहिया कज्मति, सा पढमसमये बद्धपट्टया बितियसमये वेदिता ततियसमये निज्जिण्णा, सा बड़ा पुड्डा | उदिता वेदिता निजिण्णा, सेअकाले अकंमं वावि भवति २० । एताओ पणवीस किरियाओ। दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१२॥ (98) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 % प्रत कामगुणा महाबेतानि च सूत्रांक AE + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाMW पडिकमामि पहिं कामगुणेहिं सद्देणं । मृ । सूत्रं ॥ एत्थ रचो दुट्ठो वा मूढी वा जाप दुकडेति । ध्ययने पडिकमामि पंचहिं महब्बतेहिं पाणातिपाताओ वेरमण ।। मृ । मूत्रं ॥ तत्थ पाणातिपातो नाम पाणाणं साधुमेरापातिकमेण पातो । मुसाबातो नाम असच्चवयणं, साधूणमधितं तमसच्च, सत्ताहियं असच्चंति चयणाओ, किंच अहिती, जे साधुमे रातिक्कमणंति । अदिमादाणं नाम जं साधूण अणणुणात। मेथुणं नाम अबभचरं, में तच्च जेसि अस्थि ते बंभा, तेहि इत्थिमादिविसय अणायरितं अबंभचरितं । परिग्गहो नाम साधुमेरातिक्कमेण गहो। एसि विरमण विवेगो, साधुमेरातिक्कमणे प दापडिसेवणाए विराधणा, सो य देसे सम्बे य, तत्थ पुण पन्छिसविधाणं, साधुमेराए पडिसेवेतो आराहगो मतो एवं विभासा।। एत्थ पंचसुवि उदयभारेसु बढमाणेण पडिसिद्धकरणादिणा जाब मिच्छामिदुक्कडेति। एत्थ केइ अण्णपि पढंति- पडिकमामि पंचहि आसयदारहिं-मिच्छत्तअचिरतिपमादकसायजोगहि, पंचहि-अणासवदारहिं संमत्तविरति अपमाअकसायित्तअजोगित्तेहि,पंचहिं निज्जरहाणेहिं नाणदंसणचरित्ततवसंजमहिंति। पडिकमामि पंचहिं समीतीहिं ईरियास मितीए । न । सूत्रं । पयत्तवओ पवित्ती समिती, ईरियासमिती गच्छंतस्स । तत्थोदाहरणसूत्र एगो साहू ईरियासमिईए जुत्तो,सकस्स आसणं चलित,वंदति, मिच्छद्दिड्डी देवो आगतो, मच्छियप्पमाणाओ मंडवियाओ IM विउच्वति पिट्टओ हस्थिभयंगति न मिदति,हधिणा उक्विचितुं पाडितो,न सरीरं पेहति, सत्ता मारिज्जिहित्ति जीवदयापरिवतो, RAN अहवा अरहणो समितो,असमिओ देवताए पादो छिण्णो,अण्णाए संधितो मासासमितीए-एगो साहू गगररोहगे भिक्खस्स ट्रिनिग्गतो, कढगे हिंडंतो पुच्छितो- केवइया आसा हत्थी एवमादि, मणति-न मुह आणामो समायजोगवक्वित्ता, किह हिंडता दीप अनुक्रम [११-३६] ॥ ९३॥ % (99) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ध्ययन टा + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा का तो णवि पेच्छह नवि सुणेह, साधू भणति-पहुं सुणेति कपणेहि सिलोगो, एवमादि । एसणासमितीए-नंदिसणो अण-1 सामतयः गारो, मगहाजणवए सालिग्गामो, तत्वेगो गाहावती, तस्स पुत्तो नदिसेणो, तस्स गम्भत्थस्स् पिता मतो, माता छम्मासियस्स, ॥९ ॥ मातुसिताए संबङ्कितो, अणदा णीदवद्धणो अणगारो साधुसंपरिखुडो विहरमाणो तं गाममागओ, उज्जाणे ठितो, साधू भिक्खस्स गता, नंदिसेणी भणति- के तुम्भे ? करिसो वा तुम धम्मो ?, साधूहि भणितो-आयरिया जाणति, उज्जाणे, तत्थ गंतुं पुच्छाहि, गतो, पुच्छितो, पबहतो, छडक्खमओ जातो, अभिग्गहं गण्हति-वेयावच्च मए कायव्यति, सको गुणग्गहण करेति- अदीणमणसो चयावच्च अब्भुद्विती, जो जे दब इच्छति साहू तं तस्स सो देति, एगो देवो मिच्छदिडी असरहतो आगता, साघुरूवं विउविचा उमडओ पडिस्सयं आगतो, नंदिसेणस्स उट्ठस्स पारणगे पढमे कवले उक्खित्ते देवसमणो भुतं पत्तो भणति- चितिओ तिसाए पडितो अतरंतो ठितो बाहि, जद कोइ सद्दहति यावच्चं तुरितं घेत्तूण पाणगं जातु, नंदिसेणो अपारितो चेव पाणगस्स गार्म अतिगतो, भिकावन्तो हिंडतो देवाणुभावणं न लभति, चिरस्स ल , गहाय गतो, साहुं न पच्छति। बाहरात, चिरेण वाया दिण्णा, देवेण अतिसारजुत्तो साहू विउचितो, भणति य ण-धि मुंड एच्चिरस्स आगतो, वेयावच्चेवि कवडबुद्धी, भणति- मिच्छादुकडंति, पाणगं चिरेण ल«ति, भणति-किह ते गाम नेमि?, कि अंसेण पिडीएत्ति', भणति-असेणं, असे कातुं पविट्ठो, असुभकलमलं मुयति, गुरुगं च अप्पमं करेति, भणति य-मा तूर खलखलाविज्जामि, पुणो तुराहित्ति, एवं बहुसो विक्षोभेडं जाणेह तरांत खभितु ताहे सो तुट्ठो, संम पडिवण्णो, पंदित्ता पडिगतो । एस एसणासमिती । अहवा इमं दिविवातिय, पंच सजता महल्लाओ अद्धाणाओ तण्हाछुहाकिलंता निगाता, वेयालि गाम अतिगता पाणगं मग्गंति, अणेसणं लोगो करेति, न लद्ध, काल SHRESIRESHERPRASARA दीप अनुक्रम [११-३६] N Re (100) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཙྪིནྡྲིཝཱ ཎྜཔྤཡྻལླཱཡྻ + गाथा: [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ने ॥ ९५ ॥ - गता पंचवि, एते एसणाए । आदाण मंडमत्त निक्लेवण (समितीए- आदाणं- गहणं निकखेवो- ठवणा. न पडिलेहेति न पमज्जति चतुभंगो, तत्थ चउत्थे चन्नारि गमगा, दुप्पडिलेहितं दुप्पमज्जितं च चतुभंगो, आदिल्ला अप्पसस्था, अंतिल्लो अ पसत्थो, तत्थोदाहरण-आयरिए साधू भणिता- गामं पवच्चामो, उम्गाहितं, केणति कारणेण ठिता, एगो एताहे पांडलीतापति वेतुमारद्धो, साहिं चोदितो भणति किं त्थ सप्पो होज्जा जो एति, देवताए तहेव कर्त, आउट्टां मिच्छादुकडेति, एस जहण्णओ समितो | अण्णा तेणेव विधिणा पडिलेहित्ता ठति, सो उक्कोससमितो | अहवा दिडिवाईगं, सेट्ठितो पवतो, सेहो पंच संजतसताणं जो जो एति तस्स तस्स दंडगं गहाय ठेवेति, एवं तस्स ठितगस्स अच्छंतस्स अण्णो एति अण्णो जाति, सो भगवं अतुरियमचवलं उपरि हेट्ठा य पमज्जिता वेति एवं बहुवि कालेन न परितंमति । उच्चारपासवण खेल सिंघाणगपारिहावणियासमितीए एत्थवि सत्त भंगा, तत्थ उदाहरणं-- घम्मरुई पारिहाणियासमितो समाहिपरिडावणे अभिग्गहणं, सकासणचलणं, मिच्छदिडिआगमणं, किंचिल्लियाविन्नणं, काइया संजता, चाहाडियो य, मत्तओ निग्गतो पेच्छति, ताहे सरंतो साहू य किलामिज्जतिन पपीतो, देवेण वारितो, वंदित्ता गतो । वितियं दिट्टिवाएगं एगो चेल्लओ, तेण थंडिलं न पाडलेहितं, बेयाले सो रतिं काइयाडो जातो, न पेहितंति न बोसिरति, देवताए उज्जौती कतो, अणुकंपाए, दिट्ठा भूमिति वोसिरिये। एस समितो, त्रिति असमिती, चउच्चीसं उच्चारपासवणभूमीस विष्णि कालभूमीओ न पाडलेहेति, भणति- किमेत्थ उड्डो उवविसेज्ज, देवता उद्धरुषेण तत्थ ठिता, काइय पढमाए गतो, दिडो उडो बितियाए गतो, तत्थवि एवं ततियार, ताहे तेण उडवितो, तत्थ देवताए पडिचोदितो कीस सत्तावीस न पडिलेहिसि ?, संमं पडिवष्णो, एस पारिहाणियासमितिति । किं एत्तियं चैव (101) समितयः 118411 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 पृथ्वीपरिष्ठापना प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा संजताणं परिवावणियाविहाणं उदाहु अण्णपि अस्थि ?, उच्यते- अस्ति, किं तं परिड्डविज्जति' कह या परिविज्जति । एतेणा- ध्ययने | मिसंबंधण पारिद्वावणियनिज्जुत्ती आगता, तत्थ मूलगाथाउवग्घातो पारिट्ठावणियविधिं वोच्छामि धीरपुरिसपण्णत्तं । णाऊण सुविहिता पथयणसारं अणुचरंति ॥१५||११२८६॥ एताए विभासाए कातव्वा, सा पारिट्ठावणिया समासओ दुविधा- एगिदियपरिट्ठावणिया णोएगिदियपरिड्डावणिया य, दोण्हति है| विधी भण्णति- तस्थ एगिदियपारिट्ठावणिया पंचविवा- पुढवी०आऊ ते '०वाऊ०वणस्सइ०, तत्थ पुढविकायस्स दुविधं गहणं आवसमुत्थं च परसमुत्थं च, आयसमुत्थं जं सयं गेहति, परसमुत्थं जं परो देति, सयं आभोगेण वा गेण्हेज्जा अणाभोगेण वा, । परोवि आभोएण वा देज्जा अणाभोएण वा, तत्थ आयसमुन्थं आभोएण कह होज्ज', साहू अधिणा खतितो विसं व खाइतं | बिसफोडिगा या उद्विता, तत्थ जो अचिनो पुढविकायो केणइ आणितो सो मग्गिज्जति, नस्थि ताहे अडवीओ आणिज्जति, तत्थ नवि होज्ज अचित्तो ताहे मीसो अन्नो हलक्षणणकुहमादिसु आणिज्जति, न होज्ज ताहे अडवीए पंथो बंमिए दुदहए चा, न होज्जा पच्छा सचित्तो घेप्पति, आसुकारितं वा कज्ज होज्जा जो लद्धा सो आणिज्जति, एवं लोणपि जाणतो०,अणाभागेण तेण लोणं मम्गितं अचितिकातुं, मीसगं सचित्तं वा घेतु पच्छा णातं, तस्थेव छद्देतध्वं, खंडे वा मग्गिते एतं खंडित्ति लोणं दिण्णं, ४/ तंपि तहि चेष विगिचितब्ब, ण देज्जा ताहे अप्पणा विगिचितव्यं, एतं आयसमुत्थं दुविहंपि,परसमुत्थं आभोगेण वाताव सचित्तर मट्टिया लोणं वा दिण्यां, अणाभोगेण वा खंडं मग्गितं, लोणं देज्जा,तस्स घेव दायच,णेच्छेज्जा ताहे पुच्छिज्जति-कतो आणीव, जस्थ साहति तत्थ णेतुं विगिचिज्जति, ण साहेज्ज ण वा जाणामोति भणेज्जा ताहेत उवलक्खेतव्वं वष्णरसगंधकासेहि, तस्थ दीप अनुक्रम [११-३६] ...अत्र पारिष्ठापनिकी स्वरुपम् दर्शयते (102) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ध्ययने प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| आगरे परिदृविज्जति, णस्थि आगरो पंथे वा वट्टति विगालो व जातो ताहे सुक्खगं महुरग कप्पर मग्गिज्जति,ताहे महुररुक्खहेटा अप्कायठपिज्जति, जथा उण्हेण य ओसाए ण य छिप्पति, न होज्ज कप्पर ताहे वडपत्तए पिप्पलपत्नए वा कातूण परिविज्जति, एवं| परमजाति एवं परिष्ठापना | जथाविध विभासज्जा इति । * आउक्काएवि दुविहं गहणं,आयाए णातं अणातं च एवं परेणविणातं अणातं च,आताए जाणतस्स विसकुंभ हणितब्बओ विस-2 | फोडिगा वा सिंचियवा विसं या खाइतं,मुच्छाए पडितो,गिलायो वा,एवमादिसु पुन्चमचित्तं पच्छा मीसं अहुणुब्बत्तं तंदुलोदगादि, अवस्कज्जे सचिलपि, सयमेव, पच्छा अण्णेणवि, सव्वत्थ विधीए कते कज्जे सेसे तत्व परिङविज्जति न देज्ज ताहे पुच्छिज्जति कतो आणीतं, जदि साहति तत्थ परिढुवेतब्बं आगरे, ण साहेज्ज ण वा जाणेज्जा पच्छा वण्णादीहिं उबलक्खेतुं तस्थ परिद-1 ४ वेति, अणाभोगा कोंकणेसु पाणिय अंबिलं च एगत्थ वेड्याए अच्छति, अविरतिया मग्गिता भणति- एतो गेण्हाहि, तेण अबि-18 जालंति पाणितं गार्हतं, णाते तत्थेव छुभेज्जा, अह न देति ताहे आगरे, एवं अणाभोगा, परसमुत्थे जाणती अणुकंपाए चेष देज्जापण एते भगवंतो पाणियस्स रस जाणति हरतोदगं देज्जा, पडिणियत्ताए वा देज्जा-वताणि से भज्जतुति, णाते तत्थेव साहरितव्वं Xन देज्ज जतो आणीतं तं ठाणं पुझिछज्जति,तत्थ नेतुं परिदृविज्जति, न जाणेज्जवण्णादीहि लक्खिज्जति,ताहे नदीपाणीतं तं नदी-15 नए विगिचेज्जा,एवं तलागपाणीतं तलाए,अगडवाविसरमादिसु ठाणेसु विगिचिज्जति,जदि सुकं पाणितं वडपत्तं पिप्पलपत्तं वा अड्डेतृण है सणितं विगिचिज्जति, जथा ऊसरो न जायति पचाणं, असतीए भाणस्स तु साणयं उदयं अल्लियाविज्जति ताहे विगिंचिज्जति, अह कुवोदगं ताहे जे कूवतडा उल्ला तत्थ साणयं णिसरति अणुल्हसंते सुक्का तडा होज्जा उल्लगं च ठाणं नस्थि ताहे भाणं सिक-14 दीप अनुक्रम [११-३६] HIP९७॥ (103) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा एणं जीतज्जति, मूले से दोरो पति, ओसकावेतुं पाणितं ईसिं असंपत्तं मूलदोरो उक्खिप्पति, ताहे पलोट्टति, नस्थि कूयो दूरे वा | ध्ययने वापसावा हातेणसावयभयं वा होज्जा ताधे सीतलपमुहरुक्खस्स हेट्ठा सपडिग्गह वोसिरति, न होज्ज पातं वाहे तुल्लगे पुढविकार्य मागउं तेणी परिष्ठापना ॥९॥ परिवेति, असति सुक्कंपि उहादगेण उल्लेता पच्छा परिदृविज्जति, निपापाते चिखल्ले वा खई खणितूण पत्तनालण विगि 1xचिज्जति छादितच. करेति, एसा विधी, जं पडिणियताए आउक्काए मीसेतण दिण्णं तं विगिंधिज्जति, जो संजतस्स पुष्वगाहित दिपाणीए आउक्काओ अणाभोगेण दिपणो, जदि परिणतो परिभुज्जति, नवि परिणमति जेण कालेण डिल्ल पावति विगिचितवं, जत्थ हरतणुग पडेज्जतं कालं पडिपिछत्ता विगिचिज्जति । तेउकाओ आयसमुत्थो आभागेण संजतस्स अगणिक्काएण कज्ज जातं अहिडको वा डभिज्जति फोडगा वा वातगंथी वा अंतऋद्धी बा बसहीए वा दीहजातिओ पविट्ठो पोट्टसल वा तावेयर, एबमादीहि आणीते कते कज्जे तस्थेव पडिच्छुम्भति, न देति तो तेहिं कवहिं जो अगणी तज्जातीओ तत्थ विगिचिज्जति, न होज्ज सोचि न देण्ज या वाहे तज्जाइएण छारेण उच्छादिज्जति, पच्छा अण्णाजातीएणवि, दीवएसु ताई गालिज्जति बड्डी य निप्पीलिज्जति, मालगसंपूर्ट कीरति पच्छा अहातुं पालेति, भत्तपच्चक्खातगादिसु मल्लयसंपुढए कातूण अच्छति, सारक्खिज्जति, *कते कज्जे तहेव विधगो. अणाभोगणं खल्लगलोयछारादिसु, तहेब परो आभोगणं मग्गिती देज्जा, छारेण पाकमिती, वसहीए चा अगणि जोति वा करेज्जा तहेव विवेगो, अणाभोगेणवि एते च्चेव पूवालियं वा सईगाल देज्जा तहेच विवेगो।। ९८॥ ला बाउकाए आयसमुत्थं आभोगणं, फह, वस्थिणा दतिएण या कर्ज, सो कदाइ सचिनी अचिती मीसो वा, दुविधो कालो खीतो उण्ही वा, सीतो तिविधी, खण्होवि तिविहो, उकोसए जहिं धंतो भवति ताए पढमाए पोरिसाए अचित्तो चितिपाए मीसो दीप अनुक्रम [११-३६] SARKAR (104) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणादि ततियाए सचित्तो, मज्झिमे वितियाए आरद्धो चउत्थीए सचिनो, मंदसीए ततियाए आरंभो, पंचमाए पोरुसीते सचिसो, उण्ड- वनस्पतिध्ययने काले मैदे उण्हे मज्झे उकासे दिवसा, नवीर तिनि चत्तारि पंच य, एवं वत्थिस्स, दतियस्स पुबघतस्स एसेव कालविभागो, जो पारष्ठापना पुण ताहे चेव धमित्ता पाणियं उत्तारिज्जति तस्स पढमे हत्थसते अचिनो, बितीए मीसो ततिए सचित्तो, कालविभागो मस्थि, ।। ९९॥ जेण पाणित पर्यईए सीयलं, पुर्व अचित्तो मग्गिज्जति, पच्छा मीसो, पच्छा सचित्तोधि, अणाभोगेण एस अचिचो मीसगसचिचा | गहिता, परोबि एवं चव जाणतो या अजाणता वा देज्जा, नाते तस्सेव०, अणिच्छंते उबरगं संकबाडं पविसित्ता सणिय मुंचति ।। पच्छा सालाएवि, पच्छा निगुंजे महुरे, पच्छा संघाडियाओषि जतणाए, एवं दतितस्सवि, सचिचो वा अचित्तो वा मीसे वा होतुर सच्चस्सवि एस विधी मा अण्णं विराहहितित्ति । 1. वणस्सइकाइयस्सवि आतसमुत्थं आभोगण गिलाणादिकज्जेसु मूलादीणं गहणं होज्जा, अणाभोगेण वा गहितं, भक्ते वा लोट्टो पडितो तलपिडिगं वा, कुक्कुसस्स य सो व पोरिसिविभागो, दुक्खोहितओ चिरपि होज्जा, इधणं वा पप्प परो अल्लएण मीसितगं चबलगमीसितगाणि वा पीणि करउंडियाए वा अंतो छोटूर्ण करमंदिएहिं वा संमें कजियो अंणतरो बा बीजकायो पडितो होज्जा, तिलाण वा एवं गहणं होज्जा, निबतिलमातीएसु होज्जा, जदि आभोगगहितं आभोगेण वा दिण्ण विधेगो, अणामोगगहिते ही दिण्यो वा जदि तरति विगिचिउं पढमं परपादे, सपादे संधारए लट्ठीए चा पणओ हवेज्जा ताहे उण्डं सीतं च णाऊणं विगिचणा । । मएस बणस्सविकायो । पच्छा अंतो काते । एसि बिगिचणाविधी, अल्लग अल्लगखते, सेसाण आगरे, असती आगरस्स निवाघाते ट्रमहराए भूमीए अबो वा कप्परे वा पत्ते वा, एस विधी । एगिदिया गता ॥ दीप अनुक्रम [११-३६] (105) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) (४०) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ནྡྲིནྡྲིཝཱ ཎྜཏྠེཊལླཱ ཡྻ [सू.] ॥१,२॥ [११-३६] प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१००॥ गोए गिंदिया दुबिहा- तसा गोतसा य, गोतसा ठप्पा, तसा विगलिंदिया पंचदिया, विगलिंदिया विविहा - वि० ति० चतु०, बेइंदियाणं आयसमुत्थं जलोगा गंडादीसु कज्जेसु गहिता तत्थेव विकिंचति, सत्तुगा वा आलेविनिमित्तं ऊरणिगासंसत्ता गृहिता, विसोहिता आगरे विगिंचिति, सति आगरे सत्तएहिं समं, निव्वाघाते संसतदेसे कत्थइ होज्जा । अणाभोग ग्रहणं तं देस चैव न गंतव्यं, असिवादीहिं गंभेज्जा जत्थ सत्तुगा तत्थ क्रूरं मग्गति, न लम्भति तद्देवसिए सत्थुए मग्गंतु, असतीए वितियततिय०, असति पडिलेहिय गेण्डंतु, बेला अतिकमति अद्धाणं वा, संकिता विभत्तुं घेष्पति, चाहिँ उज्जाणे देवकुले पडिसयस्स चाहिँ रयचाणं पत्थरेतूण उवरि एकं पडलं मसिणं तत्थ पल्लत्थिज्जंति, तिष्णि ऊरणिगपडिलेहणाओ, नत्थि जदि ताहे पुणो पडिलेहणाओ, तिष्णि मुट्ठी पगहाथ जदि सुद्धा परिभुज्जति, एगंमि दिट्ठे पुणोवि मूलाओ पडिलेहिज्जति, जे तत्थ पाणा ते मल्लए सत्तएहिं सम ठविज्र्ज्जति, आगराइसु विंगिचिज्जंति, एवं भत्ते, जदि पाणगं संसज्जेज्जा आयामं घेप्पति, पाणग्गहणं बीयपत्ते पडिलेहेत्ता उग्गाहितए छुमति, संसतं जातं रसएहि ताहे सपडिग्गह वोसिरति, नत्थि पाद अबिलीए उहित्ता सुष्ण घराईसु, णत्थि उल्लिया सुक्खियाए, मिम्मओ नत्थि तो अण्णं कप्परं मग्गिज्जति, तत्थ छुभित्ता अविलिबीयाणि छोट्टण वाडिको अंणमि वा गुम्मादिमि छुमति जथा न कोइ पयति, नत्थि अपारिहारिगं पडिहारिंगे कुमति, अविलीए अलिए वा तिकालं पडिलेहेति दिणे दिणे, सुद्धं छद्दिज्जति, न सुज्झति सुक्खति तु अण्णंपि थोवं छुम्भति, ताहे सुद्ध पडितविज्जति, भाषणं च पडितप्पिज्जति, नत्थि भावणं ताहे अडवीए अणागमणपथे छाधीए जो चिक्खल्लो तत्थ खणित्ता मिच्छिदं लिंपित्ता पत्तणालेणं जयणाए छुन्भति, एकसि पाणएणं भमाडेति, तंपि तत्थेव छुन्भति, एवं तिष्णि वारे, पच्छा कप्पेति, कट्ठएहि मालकं करेति, चिक्खल्लेणं लिंपति, कंटगसाहाए (106) विकलेन्द्रियपरिष्ठापना ॥१००॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| Jटय उच्छाएति, तेण भायणेणं सीतळपाणयं न लएति अवस्साणेण य करेण उवाहिज्जति एर्ग दोनि वा दिणे, संसलग चा विकलेध्ययने पाणं असंसत्तगं च एमो ण धरेति, गंघेणवि संसज्जति, संसत्तगं च गहाय न हिंडिज्जति, विराहणा होज्ज, संसत्तगं च गहाय न समुद्दिसिज्जति, जदि परिस्सता जे ण हिंडंति ते गति, जे य पाणा दिवा ते मया होज्ज, एगणं पडिलहितं वितिएणं सुद्धं परिष्ठापना ॥१०॥ परिज्जति, एवं चेव महितस्स विग्गलियस्स दहियस्स, णवणीयस्स का विधी ?, महिए एगा ओंडी छुब्भति तत्थ दीसंति, असति महितस्स गोरसधोवणे, पच्छा उण्होदगं सीतलाविज्जति, पच्छा मधुरे चाउलोदगे, तेसु सुद्धं परिभुज्जति, असुद्धे तहेच विवेगो । दधिस्स पच्छतो उयत्तेत्ता णियत्ते पडिलहिज्जति । तीराए मुत्तेबि एस विधी, परोवि आभोगअणाभोगाए ताणि घेवटी | देज्जा ।। तेइंदियाणं गहणं, सत्यचुण्णाणं पुष्वभणितो विधी, तिलकीडगावि तहेव, दाहिए परल्लो तहेव, छगणकिमिओवि तहेव, TV संथारओ गहिओ, णाते तहेव तारिसए कडे संकामिज्जति, उद्देहिगाहिं गहिए पोत्ते णस्थि तस्स विगिचणा,ताहे तेसिपि लाढाइजाति , तत्थ अतिति, लोए छप्पदियाओ वीसमिति सत्तदिवसे,कारणगमणं ताहे सीतलए नियाघाते, एवमादीण तहेव आगरे। नियाधाते य विवेगो, कीडियाहिं संसचे पाणए जदि जीवंति खिप्पं गलिज्जति, अहया पडितो लेवाडेणपि हत्थेणं उद्धरितवा, 13 अलेबाई चेव पाणगं होति । असियुमोयरिए तुरितं कज्ज, सहमाणेमु य कमेण कातब्ब, न य नाम न कायध्वं कातव्यं पा181 है। उवादेयं । एवं मक्खिगावि, संघाडएणं एगो भर्च गहति, सो चेव फुसति, वितिओ पाणयहत्थो अलेवाडो चेव, जदि कीडि-॥१०॥ याओ, मतियाओ तहवि गालिजंति, मेहं उवहणति, मच्छिगाहिं वमेति, जदि तंदुलोदगमादिसु पूयरओ ताहे पगासमुहे भायणे छुभिना,पत्तेणं दद्दरओ कीरति, ताहे कोसएण खोरएणं वा उक्कढिज्जति, थोषएणं पाणएणं सम बिगिचिज्जति आउक्कार्य दीप अनुक्रम [११-३६] (107) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ॐडर + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा गमित्ता कढण गहाय उदगस्स ढोइज्जति, ताहे अप्पणा चेव तत्थ बच्चति, एवमादी तेइंदियाण, पूवलिया वा कीडएहिं संसज्ज-31 संयतध्ययचे तिया होज्जा, सुक्खओ वा कूरो ताहे शुसिरि विखरिज्जति, तत्थ पाणा पबिसंति । मुहुतं च रक्खिज्जवि जाच विप्पसरिया। & परिष्ठापना ॥१०२॥ __ चउरिदियाणं आसमक्खिया अक्खिमि अक्खरा ओकड्डिहिंतित्ति पेप्पेज्जा,परहत्थे भत्ते पाणए वा जयि मच्छिगा तं अणेसणिज्जं संजतहत्थे उद्धरिज्जति, हे पडिता छारेणं तु गुंडिज्जति, कोस्थलकारिया बा बत्थे पादे वा घरं करेज्जा सव्वविवेगो, असति छिदति, अहवा अण्णाहि घरए संकामिज्जति, संथारए मंकुणाणं पुब्बगहिते ताहे वा घेप्पमाणे पादपुंछणेण, जदि तिनि वेलाओ पडिलेहिज्जंतेवि दिवे दिवे संसज्जइ ताहे तारिसए चेव कड्ढे सेकामिजंति,डंडए से वा, भमरस्सवि तहेव विवेगो, सअंडए सगट्ठो विवेगो, पूतरगस्स पुज्यभणितो विवेगो । एवमादि जथासंभव विभासा कातव्या ॥ . पंचंदिया दुविहा-मणूसा णोमणूसा य मणूसा दुविहा-संजता असंजता य,संजता दुविहा-सचिना अचित्ता य,सचित्तसंजताणं शकह गहणंति विवेगो,सचित्तसंजनाणं जथा निसीहे जात्र इह जडा अधिकृता । इदाणिं अचित्तसंजताणं पारिट्ठावणिया । तस्स यमर णकालो,सो दुविधो-सणिमित्तो अणिमिचो य,सनिमिचो भचपरिणा गिलाणो वा, अणिमित्तो आसुकारेणं,तम्हा ओधाणेतव्वं,जदिन ओधाणेति जाय ताहिं विणा विराहणा,कि,णाणीणं तु । तम्हा पुब्बं पडिलहेतब्बा। वहणी धंडिलं च उप्पएतव्वं । तत्थ इमाणि दाराणि. पडिलेहणा दिसा गंतए य काले दिया य राओ य । जग्गण बंधण छेदण एतं तु विधि तहिं कुज्जा ।। कुसपडिमा पाणग य नियत्तणगत्तगसीसतणाई उबगरणे । काउस्सग्गपदाहिण उहाणे चेव बाहरणे।। उस्सग्गे सज्झाए ॥१०२॥ खमणे स्वमणस्स मग्गणा होती। वोसिरणे ओलोयण सुभासुभगती निमित्तवा।। (हा० १३१८-९) पढमदारं पडि दीप अनुक्रम [११-३६] KHEREST+ (108) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ध्ययने प्रतिक्रमणालेहणेति, वहणीणं, अहवा दिसाणं, जाद दिसाओ न पाडलेहेति जा डिल्लेण विणा विराहणा ते पावंति, पढम अवरदक्षिणाएं अतिष्णि धंडिला पडिलेहेतब्वा आसण्णे मज्झे दूरे, पढमस्स वाघातेण वितिए ततिए वा, पढमडल्ले भत्तपाणसमाही, तंमि विज्ज॥१०॥ माणे जदि दक्खिणं पडिलेहेति तत्थ भचपाणं न लभंति, आहारपाणे अलभंते जं विराहणं पावन्ति जाव चरिम, अहवा एसणं पेल्लेंति जंवा भिन्नं मासकप्पं कातुं पच्चंति जा य पंथे विराहणा दुविधा, जदा पूण पढमाए असति वाघाओ वा इमेहि | उदग तेण चाला बा तदा चितिया पडिलेहिज्जति, वितियाए विज्जमाणीए जई ततियं पडिलेहिज्जति ततो उबगरणं न लब्भति, तेण विणा जंपायति ते चेव य दोसा, एवं चउत्थी दक्षिणपुब्बा तत्थ पुण सज्झायं न करेंति, पंचमी अवरुचरा, तत्थ कलहो। भवति संजतगिहस्थअंणउस्थिएहिं सद्धिं जं पुणो उड्डाहो विराहणा य, छट्ठी पुष्वा ताए गणभेदो चरित्तमेदो वा, सत्तमी उत्तरा, 18 तत्थ गेलण्णं जं च परितावणादि, जाव चरिमा पुज्बुत्तरा अणं मारेति, एते दोसा परिहरंता संपसंति । पढमाए असति वितिया,13 तितिया वा न लभेज्जा, ताहे जतणाए सेसाओ कप्पति,णतु संते। पंतपति दारं, वित्थारायामणं जं पमाणं भणितं ततो वित्थारेणवि आतामणवि जे अतिरेग लम्भाति चोक्खं सुइग,सतं चैव चोक्खं, जत्थ मलो नास्थ चिचलं व न भवति,सुइर्ग सुगंधि,न य विवणे, है सेतं पंडुरं, ताणि गच्छे जीवितोक्कमण निमित्तं धारेतब्बाणि, जहण्णणं तिण्णि, एग पत्थरिज्जति एग पाउाणचा बज्झति ततियं उरि पाउणिज्जति, एताणि तिणि जहण्णेणं, उक्कोसेणं गच्छं णाऊण बहुगाणवि पिप्पंति, जदि ण गेण्हति पायच्छितं पावति, आणादि,विराहणा दुबिहा, मइलकुचोले निजते दटुं लोओ भणति-इहलोगे चव एसा अवत्था, परलोगे पावतरिया, चोक्खसुइहि लोगो पसंसति, 'अहो लडो धम्मोति,पवज्जाभिमुहा य हॉति,अह णस्थि णन्तर्गति रतणीए निएहामो तो अच्छाउँति तत्थ उड्डाणादी दोसा, M ॥१०॥ ARC4. CAPER (109) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ध्ययने + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा जत्थ णामग्गहणादी, णामग्गाहणं या, पज्जनियाणि तम्हा घेतब्वाणि, ताणि वसभा सारवंति, पक्खियचाउम्मासिएहि पडिले- कालविलंबे | हिज्जति, इहरथा मइलिज्जति दिवसे दिवसे पडिलेहिज्जंताणि । लजागरण ___ कालेत्ति दारं, सोय दिवसतो काल करेज्जा रातो या, एवं कालगमणं हि पुल्वभाणितं भत्तपरिण्णा गिलाणे वा, तमि काल विधि ॥१०४॥ 1 गते जतिणा सुत्तत्थगहितसारेण (आयरितो अधिकृतो तेण) विसाओ न कातब्बो, (जैवलं कालगतो) निक्कारणे,कारणे अच्छा विज्जति, किं कारणं , रत्तिं ता आरक्षिततेणगसावगभयादिणा दारं न ताव उग्घाडिज्जति, तेण कालिया संविक्खाविज्जति, महजणणातो वा सो तंमि नगरे इंडिगादीहि आयरिओ वा सो तंमि नगरे सलेस या विक्खातो भचपच्चक्खातओ या, सनायगा वा | से भणति, जथा- अम्हं अणापुच्छाए ण णीहित्ति, तेण रनिंण नीणि जति, दिवसतो अंतगाणं असति चोक्खाणं, डंडिगो वा | अतीनि नीति बा, तेणं दिवसतो संविक्खाविज्जति, एवं कारणे निरुद्धस्स इमो विधी- जे सेहा अपरिणता य ते ओसारेचा जे गी| तत्था अभीरू जितनिदा उवायकुसला आमुकारिणो महावलपरक्कमा महासत्ता दुद्धरिसा कतकरणा अप्पमादिणो एरिसा जे ते जागरंति, नतु बट्टति (अपरिणते धारेउं ) जदि पुण जागरंता अच्छिदिय अबंधिय ते सरीरगं जागरंति सुर्वति वा आणादी,तत्थ पता देवता छलेज्जा कलेवरं गयणे उद्वेज्ज चा पणच्चज्ज वा आधावेज्ज वा रसेज्ज वा वित्तासेज्ज वा भीसणेण या लोमहरिसजणकाणेणं सदेणं भेरवेणं अट्टहासं मुंचज्जा । जम्हा एते दोसा तम्हा छिदित बिंधितुं व जागरितन्वं । जाहे चेव कालगतो ताहे चेव हत्थलापादा उक्कयारिजंति, पच्छा थद्धा ण सक्कंति, अच्छीणि संमिलिजति, तोर्ड च से संबद्धं कीरति, मुहपोत्तियाए बज्झति, जाणि संघाणाणि अंगुलिअंतराणि तत्थ इसि निच्छिज्जति, पादअंगुहेसु हत्थंगुट्ठसु य बाति । आहरणमादीणि य कहिनि । जथा। +ऊस दीप अनुक्रम [११-३६] (110) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाटतह जागरंति । एसा विधी कातव्वा । | कुशपतिध्ययन दाणिं कुसपडिमत्तिदारं,कालगते समाणे किं नक्खनति पलोइज्जति,न पलोएंति असमायारी बट्टति,जतो तत्थ पणयालीमा निवर्तसमुहुत्ता जे दिवडक्खेता ते अण्णणे दो कट्टुति, तत्थ अध्यणे दो पुत्तलगा कीरति, तीसतिमुहुत्ता जे समक्खेचा तेसु एको पुत्तलओनमाक्कIN कीरति, एस ते वितिज्जतोनि, न करेति एक कवति , पारसमुहुत्तिएमु पुण सतभिसयादिसु अवखेत्तसु छमुशाषणान अभीइंमि य, एत्थ एकावि न कीरति । नियंतणेत्ति दारं, एवं तमि निज्जमाणे थंडिल्लस्स वाघाते खेत्तं उद्गं हरितं अग्याभोगेण वा अतिच्छिता डिल्लं ताहे जदि तेणेव मग्गेण णियति तो असमायारी, पच्छा सो कडितो कदाइ गामहत्तो उद्वेज्जा, बतो चेव सो उद्वेति ततो चेव पधावति,तम्हा ठवेऊण जतोमुहाणि तूहाणि तं थंडिल्लं ताहे भमितूर्ण पदाहिणं करेंतेहिं उवागमति। मत्तएति | दारं । मुत्तत्थतदुभयविद् मत्तएण सम संसदपाणगं कुसा य ते समच्छेदा अपरोप्परसंबद्धा हत्थचतुरंगुलप्पमाणा, ते घेत्तूणं पुरतो अणवयक्वंतो बच्चति थंडिलाभिमूहो जेणं पुवं दिट्ठ, अहवा केसराणि चुण्णागि बा, जदि सागारियं मिच्छदिट्ठी गता तो परिहवेत्ता हत्थं पादं सोयति आयमंति य तेहिं पुढो । इदाणिं सीसशि दार, जचो दिसाए गामो ततो सीसं कातव्वं, पडिस्सत्ताओ ॥णीणतेहिं पुव्वं पादा णीतव्वा, पच्छा सीसं, किं निमित्त , उट्ठेतरक्खणडा, जतो उद्वेति ततो चेव गच्छति, सपडिहुत्ते अमंगलं व । तणाणित्ति दारं, जाहे थंडिलं पमज्जितं भवति ताहे कुसमुट्ठीए एकाए अवोच्छिण्णाए धाराए सरत्तिकातुं संथारो कातन्वो, ति ॥१०॥ 2 सधस्थ समो, जदि पूण विसमा हवंति तणा उवार मज्झे हेड्डा वा तत्थ मरणं मेलण्णं वा, उरि आयरियाण मज्झ वसभाणं हेड्डा भिक्खूणं, तम्हा समो कातव्यो, जदि य नस्थि तणाई केसरहिं वा चुण्णेहि वा अन्योच्छिण्णाए धाराए कार 'कातूण हेठ्ठा तकारोX SCENERAKESTRA दीप अनुक्रम [११-३६] (111) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१०६॥ बज्झति असति गुण्णाणं केसराणं वा ताहे पलेवगादीहिं । उवगरणेति दारं, परिद्वविज्र्ज्जते उबगरणं अहाजात उवेतव्यं रयहरणचोलपटमुहपोति, जदि न उवैति असमायारीय वट्टति, विराणा य, आणादी, तत्थ दिडो जणेण, दंडितोय सो वा कोविओ दवियगोति मा गामझामण करेज्जा, अहवा मिच्छतादयो दोसा, जथा उज्जेणगस्स सावगस्स तब्वंनियलिंगेणं कालगतस्स तच्चनियपरिएसणा, पच्छा आयरिए हिंतो बोहिलाभो । काउस्सग्गेति दारं, तत्थ परिद्ववेज्ज, जो जतो ठितो सो ततो चैव निय तति, काउस्सग्गं न करेंति जदि तत्थेव करेंति आणादिविराधणा, उड्डाणादी दोसा तम्हा काउस्सग्गो न कातव्वो । पयाहित्ति दारं, परिवेत्ता जो जतो सो तओ चैव नियतति पदाहिणं न काथ्यो, जदि करेंति उड़ितो विराणा बालबुद्दादीनं, तम्हा न कातो उड्डाणेति दारं, कलेवरं नीणिज्जमार्ण वसहीए चैव जदि उट्ठेति गाममयं मोत्तन्वं, निवेसणे उट्ठेति निवेसणं मोत उज्जाणे कंड मोत्तन्वं, मंडलाओ महल्लतरगति, उज्जाणस्स य णिस्सीहिताए य अंतरे उट्ठेति देसो मोत्तन्वो, निसीहियाए उज्जापारस य अंतरे आगतुं पडितो निबेसणं मोब्वं, उज्जाणे साही, उज्जाण० गामस्स य अंतरा गाम, गामहारे गामो, गाममज्जो मंडल, साहीए कंड, निवेसणे देसो, वे सहायरज्जं मोचच्वं जदि निच्छूढो वितियं पविसति तो दो रज्जा मोचच्चा, ततियं पविसति तिष्णि रज्जा मोतव्या, तेण परं तिष्णि चैव बहुसोवि पविसंतस्स, पुणोऽवि परिट्ठवितब्बो, एवं चैव आगतस्स हद्देव उडि १ बसी मोवा, निवेसणे उडेइ णिवेसणं मोसव्वं, साहीए उइ साही मोत्तरुवा, गाममध्ये उद्वेति गाममय मोत्सव्वं, गामदारे उद्वेति गामा मोत्ता, गामरस य उज्जाणस्स व अंतरा उट्ठेति मंडळं मोत्सब्वे, उज्जाणे कंडं मोच हवं, निसीहियाए उद्वेति रज्जं मोच, इत्येवं प्रत्यंतरे । एवं वा निजूमि परिहति गाँवस्था, पगयस्स मुडुतं संखिति, आदि निसीहियाए उट्ठितो सत्येव परितो बस्त (112) उपकरणोरसर्गप्रदक्षिणो त्थानानि ॥१०६ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाला यस्स अण्णाइट्ठसरीरस्स पन्ताए देवताए तत्थ अमूढहस्थेणं काइयं पामहत्थेणं गहाय अच्छोडेतुं भणेज्जा-मा उढे उज्न गुज्झगा!,t. ध्ययनजहिं व उद्वितो तं जदिन मुयति बिराहणा जा होति निष्फणं, सम्हा मोत्तव्यं । जदि पुण बहिया असिवादिकारणं तो नाश निग्गच्छति, तहेव वसंता जोगपरिवट्टि करेति, नमोकारइत्ता पोरिसिं करेति, पोरिसिचा परिम९, सति सामत्थे आयंबिलं पाति, ॥१०७॥ असति निश्चियं सबितियपि, एवं पुरिमइत्ता चउत्थं चउरथइना छ? । एवं विभासा । वाहरणेत्ति दारं, सो उडितो समाणो । कोणाम एगस्स दोण्ई तिहं सब्वेसि वा गेहेज्जा, तत्थ जावतियाण गेहति तेसि खिप्प लोचा कीरति, परिणा-पचरखाणं दुवा लसमें से दिज्जति, जा नाम न सरेज्जा तस्स दसम अहम छ8 चउरथं आयंबिलेण बा, पारसम गणभदा य कारात, ते गणाआTAll गिति, जदि एवं न करेंति असमायारीए बहॅति, जे ते पाविहिन्ति, तम्हा एसा विधी कातबा । काउस्सग्गेति दारं, ततो आगता चेतियपरं गच्छति,चेइताई बंदिना संतिनिमित्तं अजितसंतित्थो परिपढिन्जनि, पच्छाऽऽयरियसगासमागतुं अविधिपरि-13 डावणियकाउस्सग्गो कीरति, जो पडिस्सए अच्छति तेण उच्चारपासवणखेलमत्तगा विगिचितव्या, वसही य पमज्जितव्या सजशाहपात दारं, तद्दिवर्स सज्झाओ कीरति न कीरतित्ति, जदि य आयरिओ महाजणणाओं वा संणायगा व से अस्थि II तेसि अद्धिती तेणं ण कीरति, इहरहा कीरति । एवं खमणीव । एवं ताव सिवे, असिवे खमणं गस्थि, जोगबड्डी कीरह, काउसग्गो 81 Hdय वढिज्जइ, परिस्सये य मुहत्तागं सरिक्साविज्जति जावं च उवउचो तत्थ, तत्थ जेणे संथारएणं णीतो सो विकरणो कीरति, ॥१७॥ IPान करति असमायारीए बट्टति, अधिकरणं, आणज्जा वा देवता पंता, तम्हा विकरणं कातव्वं ।। इदाणि लायणत्ति दार- । अवरज्जतरस०॥ १५ ॥१३४८ ।। अवरज्जतस्सत्ति बियदिणमि, तं पूण कस्स पेप्पति, आयरियस्स महड्डियस्स भन-13 PERebootCTER दीप अनुक्रम [११-३६] * (113) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 545 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाला पच्चक्खायस्स अनो वा जो महातबस्सी, जं दिसं तं सरीरगं कड्डियं तं दिसि सुमिक्खं सुविहारं च वयंति, अह तत्थेव संचिक्खइ | काष्ठाविधिः ध्ययन अक्खयं ताहे तंमि देसे सिर्व सुभिक्खं सुहविहारं च भवइ, जइ दिवसे अच्छइ तत्तियाणिवि बरिसाणि सुभिक्ख, सुभासुभं । इयाणि ॥१८॥ विवहारओ इमं भणामि-थलकरणे वेमाणितो जोतिसिवाणमंतरो, समंमि गड्डाए भवणवासी एस गती से समासेणं । एत्य एक्कमे क्के थाणे आणादीविराधणा, एक्कमेक्कातो पदातो तनिष्फणं । एत्थ पुण कढस्स गहणमोक्खणे एस विधी-पुथ्वट्ठातंतगा चेव | तणडगलछारादिदग्बमालोएंति अणुनवेन्ति य, किमिति , कोई अणिमित्तं कालं करेज्ज रातो ताहे जदि सागारियं वहणकट्ठादी-1 गट्ठा उडवत तो आणादी, आउज्जोवणवणिए, अगणि कुडंबी कुकंम कुम्मरिए । तेणे मालागारे उम्भामग पंधिय । पयते ॥१॥ तम्हा न उड्वेतव्यो, तं दव्वं यत्तुं ण परिहवेंति, जदि एगो समत्थो णेतुं ताहे न चव घेप्पति, जदिन तरति ताहे Mदो जणा वहणीए गति, तं च कट्ठ जदि तत्थेव परिहवेति तो अण्णण गहिते अधिगरणं, सागारिओ वा तं अपेच्छतो दिया था। रातो वा आसियाडेज्ज, विणासं गरहं च पावति, तम्हा आणेतब्बं । जदि पुण आणता तहेव पवेसिति तो सागारिओ मिच्छचं गच्छेज्जा, एते भणति- आदण्णं न कप्पइ, इमं च णेहि गहितंति, अहवा भणेज्ज- समला, पुणोऽवि तं चेव आणेति, अवण्णं वा करेज्जा, इतरज्जाति य दुगुंछति य-मतगं वहितं मम घरं आणेन्ति, उद्दाह वा करेज्जा, जम्हा एते दोसा तम्हा आणेत्ता एको सं। घेत्तूण गच्छति,पट्टि वा सेसा अतिन्ति,जदि ताव सागारिओ न उद्वेति ताहे अतिणेचा तहेब ठवेति जथा आसी,अह उछितो ताहेका दि साहति- तुम्भे पासुतेल्लया अम्हेहि न उढविता, साधू कालगतो, तुमच्चिताए वहणीए णीतो सा किं परिवचिज्जतु आणिज्जत ॥१०॥ जं सो भणति तं कीरति, अह तेहिं आणीतं ठवितं, तेण य आगमियं- महं वहणीए परिहवेत्ता पुणोचि अतिणेतुं वत्व ठविसति दीप अनुक्रम [११-३६] (114) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाटीरुट्ठो,ताहे अणुलोमिज्जति, आयरिया भणंति-केणतं कर्त, अमुगणति, कीस मम अणापुच्छाए करेसिी, अलाहि एरोण मम, नीतु, सचित्त एवं समक्खं तु भणति, भाणिते जदि सागारिओ भणिति-मा छुम्भह, अच्छतु, मा गवरं वितियं करेज्जा, अह भणति-मा अच्छतु, मनुष्यपरि पच्छा अण्णाए बसहीए ठाति, वितिज्जो से दिज्जति, मातिढाणेण कोई साधू भणति- मम स णीयल्लगी यदि निच्छुम्मति ॥१०॥ अहंपि जामि, अहबा सागारिएष समं कोइ कलहेति, ताहे सोवि निच्छुम्भति, सो से वितिज्जगो होति, जदि बहिया से पच्चवाओ'वसही वा नत्थि ताहे सब्वेवि णिति,वितियपदं तत्थेव परिडवेज्जा उडितो सो संनिवेसो असिवगहितओ वा। संजतपरिहावणिया गता । इदाणिं असंजतमणुयाणं, सा दुविधा भवति- सचित्तेहिं अचिनेहि य, सचित्तेहिं ताव कह पुण तीएदा संभवोत्ति कप्पटुग ॥१५-१३५।१३४।४।। काइ य अविरइया संजताणं वसहीते कप्पट्ठगरूवं साहरेज्जा अणुकंपाए भएणे पडणी-10 यत्ताए वा, अणुकंपाए चिंतेति-एते भट्टारगा सहितायोस्थिता, एत्थ साहरामित्ति साहरेज्जा, दुक्काले वा पत्ते भत्तं वा पाणं वा से दाहितित्ति छड्डेज्जा, दासी वा चितेति- एतस्सतएण न कोति दुक्किहितित्ति एतेसिं अणुकंपिताणं वसहीए साहरेज्जा भएणं रंडा पतुत्थवतिया ना साहरेज्जा, एतेसि अणुकंपिहितित्ति परिवेज्जा २ पडिणीया तच्चण्णिागिणी चरिगा वा एतेसि । उडाहो होउत्ति साहरेज्जा३, एत्थं का विधी १, दिवे दिवे य बसही वसभेहिं परिसंचितवा, पच्चूसे पदोसे मज्झण्हे अद्धरते य |१०९।। एषमादी दोसा होहिंतित्ति, जदि विगिचंवी दिट्ठा बोलो कीरति, एसा इत्थिया दारगरूवं छहेतूर्ण पलायति, ताहे लोगो एति, पेच्छति तं, ताहे जं जाणति तं कीरति, न दिट्ठा होज्जा ताहे विगिचिज्जति उदगपहे, जणो वा जत्थ पादे निग्गतो अच्छति। दीप अनुक्रम [११-३६] %A5%25A - S (115) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ध्ययने -- प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| -- प्रतिक्रमणा तत्थ ठवेत्ता अच्छितिज्ज वा अण्णं पडिच्छतओ अण्णदोमुहो, जथा तं न सुणकाएणं गज्जारेण वा मारिज्जति, जाहे केणति अचित्तदिई ताहे ओसरति । अचि कहं, पडिणीओ वणीमगसरीरं छभेज्जा जथा से उदाहो होतात, वणीमको वा कोणे कहंचित मनुष्यपरि ॥११०॥ मता, अण्णण पा केणति मारेऊण एत्थं निद्दोसांत छडितो, अविरतिगाए मणूसेण वा उक्कलवितं वा होज्जा, तत्थ तहेब बोलो xकीरति, लोगो कहिज्जति एगो नहोति, उक्कलंबिते णिपिण्णएणं वाताणं रडताणं मारिओ अप्पओ, न होज्ज एवं कातब, दिद्वेणं कालक्खेयो कातब्बो, पडिच्छितूर्ण जदि कोइ नस्थि ताहे जत्थ कस्सति निवेसणं न होति तत्थ विगिचिज्जति, अपेक्खेज वा, पदोसे पति संचरति लोगो ताहे निस्संचारि बिवेगो, अतिप्पभाते संविक्खावत्ता अप्पसागारिए रतिं विगिचिज्जति, जदि । नस्थि कोइ पडियरति, अह कोइ पडियरह तस्सव मुखे छुम्भति, एवं विष्पजहणाए, विगिचणं नाम जं तस्स तस्थ भेडोवगरणं तस्स विवेगो,जदि रुधिरं ताहे न छट्टति एक्कधा वा विधावि मग्गो नज्जति,ताहे बोलकरणं,एवमादि विभासा । णोमाणुस्सा दुविहासचित्ता अचित्ता य,.सचित्ता चाउलोदगादिसु, तस्स गहणं जथा ओहनिजुत्तीए, तत्थ निसनओ आसि मच्छओ मंडुक्कलिया वा, तं घेणं थोवएणं पाणिएणं सह णिज्जति, पाणियं ढोइज्जति, मंटुक्को उद्देति, मच्छी बला छुम्मति, आदिग्गहणण ससह पाणए गोरसकुंडए तेल्लभायणे वा, एवं सचित्ते, अच्चित्ते मच्छओ मयओ आणीतो केणइ पक्खिणा पडिणीएण वा, थलचरो | उंदुरो घरकोइलगो एवमादि, खयहरो इंसवायसमयूरार्दा, जरथ सदोसं तत्थ विवेगो, अप्पसारिते पोग्गलबोलकरणं वा, निदोसे | बाजाद रुच्चति ताहे चिगिचिज्जति ।। नोतसहि दुविहा- आहारे णोआहारे य, आहारे जाता य अजाता य, दावि जथा आयनि-ला॥११०॥ जुत्तीए । णोआहारो विहो- उपकरणे णोउपकरणे य २, जाता य २, जा सा जाता सा बस्थे य पाए य, अजातावि वत्थे या TECARDAECE दीप अनुक्रम [११-३६] (116) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणापादे य । जाया नाम जं वत्थं नाम पायं वा मूलगुणअसुद्धं वा उत्तरगुणअसुद्धं बा आसि, योगेण वा विसेण था, जं विसेणगोत्रसपरि ध्ययने आभियोगितं वा वत्थपात खंडाखंडं कातूणं विगिचितवं, सावणा य तहेब, जाणि अतिरिनाणि वत्थपादाणि कालगते वा पडि ट्र भग्गे वा साहारणे वा गहिते जाएज्जा । एत्व का विगिंचणविधी, चोयओ भणति- अभिओगविसाणं तहेव खंडाण कातूण || ॥११॥ विगिचणा, मूलगुणअसुद्धस्स बत्थस्स एक बैंक कीरति, उत्तरगुण असुद्धरस दोणि वैकाणि, सुदं उज्जुग ठविज्जति, पाते मूलगुणअसुद्धे एगा चीरिगा दिज्जति, उत्तरगुणअसुद्धे दोष्णि दोणि चीरखंडा पाते छुम्भंति, सुद्धं तुच्छं कीरति, रित्तगीत भणितं होति, आयरिया भणति- एवं तुझ सुद्धपि असुद्ध होहिति, कह', उज्जुग ठवितं एगेणं बंकणं मूलगुणअसुद्धं जातं, दोहिं उत्तरगुणअसुद्धं जातं, दुर्वक पा एगवक या होज्जा, एकबकं या दुर्वकं वा होज्जा, एवं मूलगुणेसु उत्तरगुणा होज्जा, उत्तरगुणेसु मूलगुणा होज्जा, पाएपि एग चीरं निग्गत मूलगुणअमुद्धं जातं, दोहिबि निग्गतेहिं सुद्धं जात, जे य तेहिं बथपातेहिं परिभुजतेहिं दोसा टानसिं भावति होति, तम्हा जे भणसि ते अजुनं, एवं परिदुवेतव्वं वत्थे मूल असुद्धे एगो गंठी कीरति, उत्तरे दोगिण, सुद्धे तिष्णि, एवं ता वत्थे, पाते मूलगुणासुद्धए अंतो एगा सहिया रहा,उत्तरगुण असुद्धे दोष्णि, सुद्धे तिणि रेहा, एवं णातं होति,जाणएण कात व्याणि । कहि परिहवेयन्याणि?, एगते अणावाए सह पत्तंबधएहि रयत्नाणेहि य, असति पडिलहणियाए. दोरेण बहे पपसति, उद्ध*महाणि उबिज्जंति, असति ठाणस्स तस्स पासलियं ठवेंति, जीवा आगमी जातो तो पुष्पर्क करेंति । जदि एताए विधीएR॥१११॥ का विगिचिते कोई गिण्हेज्जा आगारी तथावि बोसट्ठअधिकरणा सुद्धा साधुणो, जेहिं अण्णेहिं साहिं गहिताणि जदि कारणे गहि| ताणि सुद्धाणि जायज्जीवाए परिभुज्जति, असुद्धाणि उप्पण्णे उप्पण्णे विनिचिज्जति ।। नोउपकरणे चतुविधा- उच्चारे पासवणे :hte% दीप अनुक्रम [११-३६] % * - - (117) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाया: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥११२ ॥ खेलि सिंघाणे, तत्थ उच्चारे कहूं विवेगो १, जथा ओघनिज्जुतीए, अहवा इमा इह निज्जुत्तीए गाथा- उच्चारं कुव्वतो० ॥। १५-१४९ । १३६८ ।। छायाए वोसिरितन्त्रं जस्स गहणी संसज्जति, केरिसियाए छायाए ?, जो लोगस्स उवतोगरुक्खो तत्थ न वोसिरिज्जति, णिरुव भोगे वोसिरिज्जति, तस्सवि जा सयाओ पमाणाओ निम्गता तत्थ वोसिरिज्ज, असति रुक्खाण कारण छाया कीरति, तेसु परिणतेसु वच्चति । काया दोणि-तसकायो थावरकायो य जदि पडिलेहेतिवि पमज्जतिवि तो एगिंदियावि रक्खिता तसावि, पडिलेडेति न पमज्जति तो थावरा रक्खिता तसा परिचत्ता, अह न पडिलेहेति पमज्जति थावरा परिचत्ता तसा सारक्खिता, इतरत्थ दोवि परिचत्ता, अपि पदार्थसंभावने, सुपडिलेहिएस सुपमज्जिएसुवि ४, पढमं पदं पसत्थं, बितिए ततिए पक्खेण, चउत्थे दोहिवि अपसत्थं, पढमं आयरितब्धं, सेसा परिहरितन्त्रा । दिसाभिग्गहे - उमे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । रात्रौ दक्षिणतश्चैव तस्य त्वायुर्न हीयते ॥ १ ॥ दो चैव एताओ अभिगिव्हंति । डगलगहणे तहेव चतुर्भगो । सूरिय गामे एवमादि विभासा कातव्या जथासंभव || इमा सीसथिरीकरणगाथा सूत्र गुरुवि ।। १५-१६३ ।। एसा परिद्वावणिया समिती सम्मत्ता । एत्थं पंचसुत्रि समिती पडिसिद्धकरणादिणा | जो मे जाव मिच्छामिदुक्कडंति || पडिक्कमानि छहिं जीवनिकाएहिं पुढविकारणं, छ इति संखा, जीवाणं निकाया नाम समूहो, अतो तेहिं छहिं जीवनिकाहिं जोऽतिचार इति, तंजथा- पुढविकाएणं योऽतिचारः, एवं आतेउवा उचणतसाणं विभासा । एतेहिं छहिं जीवनिकाएहिं जाव मिच्छामिदुक्कडं । पडिकभामि छहिं लेसाहिं किण्हलेसाए० ॥ सूत्रं ॥ 'लिश संश्लेषणे' संलि ष्यते आत्मा तैस्तैः परिणामान्तरैः यथा श्लेषेण वर्णसंवन्धो भवति एवं लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यंते, योग परिणामी लेस्या, •••• अत्र लेश्याया: भेदा: वर्णयते (118) परिष्ठापनिका | ॥ ११२ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ॥ ११३ । जम्हा अयोगिकेवली अलेस्सो । तत्थ कण्हलेस्सा इति द्विपदमिदं वचनं कृष्णो द्रव्यपर्यायो वर्णः लेया योग परिणामः, कृष्णद्रव्यसाचिव्याथः योगपरिणामः स कृष्णलेश्या, एवं नीललेश्यादीयाओवि विभासितव्याओ, अण्णे भणति कृष्णवर्ण इव लेश्या कृष्णलेश्या एवं जाव सुक्कलेस्सा, नवरं पसत्थतरो परिणाम। एत्थ लेस्सापरिणामे उदाहरणं एत्थ छहिं मणूसेहिं जंबू दिट्ठा फलभरिता, तत्थेगो पुरिसो भगति मूला छिज्जतु तो पंडिताए खाइस्सामी, सो कण्हाए, चितिओ भगति मा विणा सिज्जतु, साला ५) छिज्जेतु, सो नीलाए बद्धति, ततिओ मा साला छिज्जंतु, साहाओ विच्छिज्जंतु एवं काउलेसा, चउत्थो भणति- गोछा छिर्ज्जतु, एसो तेऊ, पंचमो मणति- आरोभितुं खामो घुणमो वा जेण पकाणि पति ताणि खामो, एसो पीताए, छट्टो भणति सयं पडिताणि प्रभूताणि ताणि खामो, सो सुकाए । एवं लेस्साहिवि जीवस्स विसुद्धपरिणामो अविमुद्धपरिणामो य, सजेोगिकेवलीणं सुकलेस्साए बद्धमाणा नवरं जोगपच्चइयं इरियावहियं दुसमयद्वितियं एवंति। अड़वा गामघातहि दितो, पदम भणति-सजणवयं गोमाहिस मारेमो, त्रितिओ माणुसाणि, तनिओ पुरिसे, चउत्थो आउघहत्थे, पंचमी जे जुज्यंति, छट्टो किं एतोह मारिएहि, सूत्र धणं हीरंतु, एवं छल्लेसाओ समोतारेतथ्याओं । एताहिं छहिं लेस्साहिं जो मे जाव दुक्कर्डति । परिक्कयामि सत्तर्हि भयहाणेहिं ॥ सूत्रं ॥ भयद्वाणापि जथा सामाइए || पढिक्कमामि अट्टहिं मदाणेहिं । मदस्थानानीति द्विपदं वचनं मदो नाम मानोदयादात्मोत्कर्षपरिणामः, स्थानानि तस्यैव पर्याया भेदाः, मदस्य स्थानानि मदस्थानानि तानि चाष्टी जानिमद कुलमद बलमद रूपमद तपोमद इस्सरियमद श्रुतमद लाभमद । कोइ नरिंदादि पञ्चजितओ जातिमदं करेज्जा, एवं कुलमदादीणि विमासिज्जा ॥ नवहिं वंभचेरगुती हिं । वसहि कह० ।। १६-१५ | २ | गाथा । नव बंभचेरसमाधिद्वाणाई पण्णत्ताई प्रतिक्रमणा ४ ध्ययने •••अत्र नव ब्रह्मचर्य - गुप्तयः वर्णयते (119) जीव नीकायाः लेश्षाच ॥१९२॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा हजाई भिक्खू सोच्चा निसंम संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ने गुलिदिए गुत्तभयारी सदा अप्पमते विहरेज्जा, तंजथा- णो भवस्थाध्ययने इत्थिपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवेत्ता भवति से निग्गंथे, कहमिति , इत्थिपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणस्स बंभ-लानानि मद ॥११४॥ यारिस्स बंभचेर संका या कंखा वा वितिागच्छा वा समुप्पज्जेज्जा, भयं वालभेज्जा,उम्मायं वा पाउणज्जा दोहकालियं वा रोगा-1 यक पाउणज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भैसज्जा, तम्हा नो इवीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवेत्ता भवति से निग्गथे। हणो इत्थीणं कह कहिना भवति से निग्गंथे , कहमिति ?, इत्थीणं कहं कहेमाणस्स बंभयारिस्स भनेरे संका वा जाव धम्माओ | भैसज्जा, तम्हा णो इवीणं कई कदेत्ता भवति से निग्गंथे । णो इत्थीण सद्धिं सण्णिसेज्जागते बिहरिता भवति से निग्गंथे, दतं कहमिति ?, इत्थीहि सद्धिं सण्णिसेज्जागतस्स जाव धम्माओ भंसज्जा, तम्हा णो इत्थीहि सद्धिं सण्णिसेज्जागते विहरिता भवति से निग्गंधे ३, नो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाई आलोएना निझाएना भवति से निग्गंथे, तं कहमिति, ४ा इत्थीण इंदियाई जाच से निम्मथ ४ नो इत्थीणं कुईतरंसि वा कुइतसई वा रुइतसईचा गीतसई वा हसितसई वा थणितसर दवा कंदितसई वा बिलवियसदं वा सुणित्ता भवति से निग्गथे, तं कहामिति ?, इत्थीणं कतरसि वा जाब विलवितसई सुणेमाणस्स | जाव धमाओ भंसज्जा, तम्हा इत्थीण कुइंतरंसि वा जाव से निग्गंथे ५। नो इत्थीणं पुवरतपुव्वकीलियाई अणुसरित्ता भवति से निम्गंथे, तं कहामिति', इत्थीणं पुब्बरतपुबकीलिताई अणुसरमाणस जाव भंसज्जा,तम्हा नो इत्धीणं पुषरतपुबकीलित जाब से ॥११४॥ निग्गये ६ नो पणीतं पाणभोयणं आहारता भवति से निग्गथे, तं कहामिति, पणीत पाणं वा भायण वा आहरिमाणस्स जावला धमाओ भैसेज्जा, तम्हा नो पणीतं पाणभोयणं जाब निग्गंधे ७ नो अतिमाताए पाणभोयणं आहारेत्ता भवति से निग्गंथे, तं दीप अनुक्रम [११-३६] MARRAO (120) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१, २] निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१- १४१८], आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥। ११५ ।। कहामिति १, अतिमाताए पाणभौयण आहारेमाणस्स जाव धम्माओ मंसेज्जा तम्हा णो अतिमायाए जाव से निम्गंधे ८ | णो निगंथे विसावादी सिता, तं कहामिति १, निम्गंथे य णं विभूसावत्तिए विभूतिसरीरे इत्थीजणस्स अभिलसणिज्जे सिया, तते णं तस्स इत्थीजणेण अभिलसिज्जमाणस्स बंभचारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिछा वा समुप्पज्जेज्जा भयं वा लभेज्जा उम्मादं वा पाउणेज्जा जाव केवलिपष्णचाओ धम्माओ वा मेसेज्जा, तम्हा णो निग्गंथे विभृसाणुवादी सिया ९ इति नवमे वंभचेरसमाहिठाणे भवति । भवंति य एत्थ सिलोगा-जं दिवित्तमणानं रहितं भीजणेण य बंभचेरस्स रक्खडा, आलयं तं निसेव ॥ १ ॥ मणपल्ायजणाण, कामराग विवद्धणिं । बंभचेररतो भिक्खू, धीकहं परिवजए ॥ २ ॥ समं च संथवं धीहिं, संकहं च अभिक्खणं । भचेररतो भिक्खू, निच्चसो परियज्जए ॥ ३ ॥ अंगपच्चंगसंठाणं, इंदियाई ण भूसणं । वंभचेररतो त्थीणं चक्गेज्जं च वज्जए ॥ ४ ॥ कृतं रुइतं गीतं हसितं धणितकंदितं । बंभवेररतो० सोयगेज्जनं विवज्जए ॥ ५ ॥ हासं कि रतिं दप्पं, सहभुत्तासिताणि या बंभचेररतो धीणं, णाणुचिंते कदाचिइ ॥ ६ ॥ पणीतं भतपाणं तु विष्पं मदविणं वंभचेररतो भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए || ७ || धम्मल मितं काले, जत्तस्थं पणिहाणवं । णातिमत्तं तु भुजेज्जा, बंभचेररतो सदा ॥ ८ ॥ विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमंडणं बंभचेररतो भिक्खु, सिंगारस्थं न धारए ॥ ९ ॥ आलओ थीजणाइण्णो, धीकहा य मणोरमा संथवो चेव नारीहिं, तासि इंदिपद रिसणा ॥ १० ॥ कूहतं कहते गीतं, सहभुत्तासिताणि य पणीतं भत्तपाणं च अतिमातं पाणभोगणं ॥ ११ ॥ गन्तभूषणमिनि कामभोगा (121) ब्रह्मचर्यगुप्तयः ॥११५॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 श्रमणधर्मः प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| सूत्र प्रतिक्रमणाय दुज्जया। नरस्सत्तगवेसस्स, विसं तालउड जथा ॥ १२॥ दुज्जए कामभोगे तु, निच्चसो परिवज्जए। ध्ययनेसंकट्ठाणाणि सव्वाणि, वज्जए पणिधाण ॥ १३ ॥ धम्माराम चरे भिक्खू, धंमधी धम्मसारथी । धम्मारामरते दंते, बंभचेरसमाहितो ॥ १४ ॥ देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभयारी नमसंति, दुक्करं जे ९ करंति तु ॥ १५॥ एस धम्मे धुए नीए, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिझंति चाणेणं, सिज्झिस्सति तथाऽवरे ॥ १६ ॥ त्ति, एताहिं नवहिं बंभचेरगुत्तीहि पडिसिद्धकरणादिणा जाब मिच्छामिदुकडंति । . दसविहे समणधम्मे। दसविर्धा साधुधम्मो, तंजथा-उत्तमा खमा मद्दवं अज्जव मुत्ती सोय साचो संजमो तवो [चाओ] अकिचणतणं बंभचेरमिति, तत्थ खमा अक्कोसतालणादी अहियासेंतस्स कम्मक्खओ भवति तम्हा कोहोदयनिरोहो कातव्यो, उदयप्पत्तस्स वा विफलीकरणं, एसा खमत्ति वा तितिक्षति वा कोहनिरोहिति वा १ मद्दवता न जातिकुलादाहिं अत्तुकरिसो परपरिभवो वा, एत्थवि माणोदयनिरोहो उदयप्पत्तस्स विफलीकरणं २ अज्जवं रिजुभावो तस्स अ करणे णिज्जरा, मायाएवि उदयनिरोहो उदिष्णविफलीकरणं वा ३ मुत्ती निल्लोभता प्राप्तहर्षाप्राप्तशोकाकरणेन ४ सोयं अलुद्धा धम्मोवगरणेसुवि, तस्स करणे अकरणे य कम्मस्स निज्जरा उवचयो य, अतो लोभोदयनिरोहो उदयप्पत्तस्स विफलीकरणं कातव्यं ५, सच्चमणुवघा1B वगं परस्स तत्वं वयणं, तथा भर्णतस्स निज्जरा, अण्णथा कम्मबंधो ६ संजमो सत्तरसविधी, तेजथा-पुढविकायसंजमो आउ० तेउ० वाउ० वणस्सति तेंदिय० दिय० चतुरिंदिय० पंचिंदिय० पेहासंजमो उबेहासंजमो । अवह दुसजमो) पमज्जितसंजमो मणसंजमो वइसंजमो काय उपकरणसंजमाति, पुढविकायसंजमो पुढविकायं त्रियोगेण न हिंसति न हिंसावेति हिंततं PRE दीप अनुक्रम [११-३६] १६ (122) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ध्ययने | सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा नाणुजाणाति, एवं आउक्कायसंजमो जाव पंचिंदियसंजमो, पेहासजमो जत्था ठाणणिसीदणतुपट्टणं कातुकामो तं पडिलहिय पम- उपासक ज्जिय करेमाणस्स संजमो भवति, अण्णहा असंजमो, उपेहासंजमो संजमे तवे य संभाइयं पमादंत चोतेंतस्स राजमो,असंभोइयं चोएं- प्रातमा ॥११७ 1 तस्स असंजमो, पावयणीए कज्जे चियत्ना वा से पडिचोयणात अंगसंभोइयपि चोयंति, गिहत्थे कम्मादाणेसु सीतमाणे उबेहतस्सा संजमो,बाबारेंतस्स असंजमो,अहद संजमो,अनिरेगोवगरणं विगिचितस्स संजमो,पाणजातीए व आहारादिसु असुद्धाबाहमादाण य है। परिट्ठवेंतस्स,पमज्जणासजमो सागारिए पादे अप्पमज्जंतस्स संजमो,अप्पसागारिए पमज्जंतस्स संजमो,मणसंजमो अकुशलमणनिरोधो वा का कुसलमणउदीरणं वा,वइसंजमो असलवइनिरोधो कुसलवइउदीरणं बाकायसंजमो अवस्सकराणिज्जबज्जं सुसमाहितपाणिपादस्स कुम्मा इव गुत्तिदियस्स चिट्ठमाणस्स संजमो, पोरथएम घेतेसु य असंजमो,महाधणमल्लेसु वा इमेसु,पज्जण तु संजमो,कालादि पडच्च चरण-IN करणहूँ अब्बोपिछतिनिपित्तं गेहंतस्स संजमो भवति । तयो दुविधो-बज्झो अब्भतरो य,जथा दसवेतालियुष्णीए चाउलोदणतं का अलुद्धण णिज्जरर्दू साधुसु प्पाडवायणीय ८ । आकिंचणीयं नथि जस्स किंचणं सो अकिंचणो तस्स भावो आकिंचणियं, कम्मनिज्जरहूँ सदेहादिसुवि णिस्सगेण भवितव्यं ९ । बंभमटारसप्पगारं ओरालिया कामभोगा मणसा ण सेवेति न सेवावेति सेवंत ण समणुजाणति एवं वायाए कायणवि, नवार्विधं गतं, दिनेसुचि एते विगप्पा, एतं अट्ठारसपिह भर आयरंतस्स कम्मनि-13 ज्जरा, अणापरंतस्स पंधो, तम्हा सेवितव्यं १०, एस दसविधो समणधम्मो मुलुत्तरगुणेसु समोयरति, संजमो पाणातिपातविरती ॥१७॥ सच्चं मुसावायरमणं आकिंचणय- निम्ममत्तं अदत्तपरिग्गहवज्जणं, बंभचेरं महुणविरती, खंती महवं अज्जवं सोतं तवो [चागो] उत्तरगुणेसु जथासंभवं, एत्थ दसविहे समणधमे पडिसिद्धकरणादिणा जाब दुकडंति ॥ एकारसहिं उवासगपडिमाहिं । तत्थ दीप अनुक्रम [११-३६] - ...अत्र श्रावकस्य एकादश-प्रतिमा: वर्णयते (123) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत *प्रतिमाः सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा या गाथा-दसणवतसामाइय०॥४॥ तत्थ किरियावादी यानि भवति, तंजथा आहियवादी आहितपण्णे आहितदिट्ठी समा-1 उपासक ध्ययने । वादी अणि यतवादी, संति परलोगवादी जाव अस्थि संसाराओ सिद्धी, से एवंवादी एवंपण्णे एवंदिट्ठी छंदरागमतिनिविद्र ॥११॥ यावि भवति, से भवति महिच्छे जाव सुकपक्खिए, आगमेस्सीण सुलभयोहिए यावि भवति, सब्बधम्मरथी यावि भवति, तस्स गं वहई सीलब्वयगुणवेरमणपच्चक्वाणपोसथोववासाई नो सम्म पट्ठषियाई भवति. पहमा उखासगपडिमा १॥ अहावरा दोच्चा, उवासगपडिमा सबधम्मरुई यावि भवति, तस्सणे बहई सीलब्बयगुणवेरमणपोसहोश्वासाईनो सम्म पढवियाई भवंति, से गंद सामाइयदेसावगासियं नो सम अणुपालेचा भवति, दोच्चा उवासगपहिमा २॥ अहावरा तच्चा उवासगपडिमा सधधम्मरुद।। यापि भवति, तस्स णं पहई सीलब्धतगुणवेरमणपोसहोववासाई नो संम पट्ठविताई भवंति, से ण सामाइयं देसाचगासयं संमं । अणुपालेत्ता भवति से ण चाउद्दसिअट्टमिपूणिमासिणीसुपडिपुण्ण पोसह नो समं अणुपालेचा भवति,तकचा उवासगपाहिमा || अदावरा चउत्था उवासगपडिमा सव्यधम्म०,तस्स णं पहुई सीलब्वतजाव संम पट्टविताई भवंति, से गं सामाइयं देसावगासिय संगम अणुपालेत्ता भवति, सेणं चाउद्दसि जाव संमं अणुपालेत्ता भवति, सेणं एगरातियं उबासगपडिमं णो संम अणुपालेता भवति, चउत्था उवासगपडिमा ४॥ अहावरा पंचमा उवासगपडिमा सबधम्म, तस्स णं बहूई सील जाब संपट्टिताई भवंति, से ण ॥११८ का सामाइयं तहेव, सेणं चाउसि तद्देव, सेणं एगराइयं उबासगपडिम अणपालना भवति, से णं असिणाणए वियडभोई मउलियडे। दिया भचारी रति परिमाणकडे, सेणं एयारूपेण विहारेण विहरमाणे जहणणेणं एगाहं वा वुयाह वा तियाह वा उकासण पाक मास विहरेज्जा, पंचमा उवासगपडिमा ५॥ अहावरा छट्ठा उवासगपडिमा सव्वधम्म जाव से गं एगराइयं उवा० संमें अणु SAGAR दीप अनुक्रम [११-३६] (124) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक उपासकप्रतिमाः [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणापालेत्ता भवति, से ण असिणाणए वियडभोई मउलियडे रातोवरायं बंभचारी, सचित्ताहारे से अपरिणाते भवति, सेण एतारूवेणं ध्ययने बिहारेण विहरमाण जहण्णण एगाई या दुयाहं वा तियाई वा उकासेणं छम्मास विहरेज्जा ६ ॥ अहावरा सत्तमा उवासगपडिमा, 8 सवधर्म० जाच रातोवराय बमचारी, सचित्ताहारे से परिणाए भवति, आरंभा से अपरिष्णाय। भवंति, सेणं एतारूपेणं बिहा॥११९॥ Ikरणं विहरमाणे जहणणं एगाई वा दयाई वा तियाई वा उकासेणं सत्त मासे विहरेज्जा, सत्तमा उवासगपडिमा ७॥ अहा वरा अट्ठमा उवासगपडिमा सब्बधम्म० जाव रातोवरायं बंभचारी सचिनाहार से परिष्णाए भवति आरंभा से परिष्णाता, पेसा लासे अपरिग्याता भवति, से गं एतारूवेणं विहारणं विहरमाणे जहणणं एगाह वा दुपाई वा तियाई वा उकासणं अह मास विह रज्जा, अट्ठमा उवासगपाहमा ८॥ अथावरा नवमा उदासगपडिमा, सन्धधम्म० जाव आरंभा से पारण्णासा पस्सा स परिणाया. उदिट्ठभत्ते से अपरिणाए भवति, से गं एतारूवणं विहारणं विहरमाणे जहण्णणं एगाहं वा दुयाई वा तियाह वा उपसिणं नव मासे विहरेज्जा, नवमा उपासगपडिमा ९ ।। अहावरा दसमा उपासगपडिमा सधधम्म० जाव पसा स पारपणाता उद्दिडभने से परिणाए भवति, से गं खुरमंडाए वा छिहलिधारए वा,तस्स णं आलत्तसमाभास्स कप्पंति दुवे भासाओ भासित्तए, ४ा तंजथा- जाणं वा जाणं अजाणं या णो जाणं,से णं एतारूवणं बिहारणं जहणणं एगा० दुया० तिया० उकोसेणं दस मासे विहरेज्जा, हादसमा उवासगपडिमा १०॥ अहावरा एकारसमा उवासगपडिमा सवधम्म. जाव उदिट्ठभचे से परिणाते भवति, से सुस्मुंडए वा कासरए वा गहियायारभंडणेवत्थे जे इमे समणाणं निम्गंथाणं धम्म तं सैम काए संफासेमाणे पालेमाणे पुरतो | जुगमातं पेहमाणे दळूण तसे पाणे ओघद्ध पादं रीएज्जा साहबटु पायं रीएज्जा वितिरिन्छ वा पादं कटु रीएज्जा, सति पर दीप अनुक्रम [११-३६] ॥११९॥ (125) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणामक संजतामेव परिकमेज्जा, णो उज्जत गच्छेज्जा, केवलं से णातए पेज्जबंधणे अन्नोच्छिन्ने भवति, एवं से कप्पति णातविधि उपासक ध्ययने 18 एनए, तत्थ से पुल्वागमणेणं पुयाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउचे मिलिंगसूबे, कप्पति से चाउलोदणे पडिग्गाहेत्तए, णो से कप्पति ॥१२०॥ मिलिंगसूत्र पडिग्गाहेत्तए, तत्थ से पुवागमणणं पुवाउने भिलिंगवे पच्छाउत्ते चाउलोदण कप्पड़ से भिलिगपूर्व परिम्माहितए, it मानो से कप्पइ चाउलोदणे पडिक, तत्थ से पुण्यागमणेणं दोवि पुवाउ० कप्पति से दोषि पडिग्गाहे नए, तत्थ से पुवागमणेणं दोवि पच्छाउचाई णो से कप्पति दोवि पडिग्गाहेत्तए, जे से पुवागमणेणं णो पुब्बाउत्ते णो से कप्पति पडिग्गाहित्तए, तस्स पर गाहावतिकुल पिंडबायपडियाए अणुप्पविहस्स कप्पति एवं बदित्तए-समणोवासगस्स पडिम पडिवण्णस्स भिक्षं दलयह, तं चता-10 रूवेणं बिहारेण विहरमाणं केई पासेना वदेज्जा-के आउसो! तुम बत्तब्बे सिया, समणोवासए पडिमापडियण्णए अहमंसीति वत्तवं, से णं एतारूवेण विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाई वा दुयाई वा तियाह वा उकोसणं एकारस मासे विहरेज्जा एक्कारसमा उवासगपडिमा ।। ११ ॥ इति । एथ कहवि अण्णोवि पाढो दीसनि, तंजथा- इमाओ खलु एक्कारसाओ उवासगपडिमाओं पण्णताओ, तंजथा- देसणसावगो १ कतवयकमे२ कतसामाइए ३ पोसहोवयासणिरए ४ राइभत्तविरते ५ सचित्ताहारपरिणातो ६ दिया चंभचारी रातो है परिमाणकडे ७ दियावि रातोवि बंभयारी असिणाणए यावि भवति बोस?केसकक्खमंसुरोमणहो ८ आरंभपरिणातो ९ पेस्सआरंभपरिणाते १० उपचविवज्जए समणभूते यावि भवति ११॥ तत्थ खलु इमा पढमा उवासगपडिमा-दसणसावए यावि भवति, तस्स णं एवं भवति- अस्थि लोए अस्थि अलोए अस्थि जीवा एवं अजीवा बंधे मोक्खे पुण्णे पावे आसबे संवरे वेदणा दीप अनुक्रम [११-३६] AeXGAR (126) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा &| निज्जरा अत्थि अरहता एवं चक्कवडी बलदेवा वासुदेवा चारणा विज्जाहरा णरगा णेरड्या तिरिक्खजोणी तिरिक्खजोणिया " उपासकध्ययने माता पिता रिसयो अरिसयो देवा जाव अस्थि देवलोगा अस्थि सिद्धी अस्थि असिद्धी अस्थि परिनिवाणे अस्थि परिनिरुवुत्ता प्रतिमाः अस्थि पाणातिबाते जाव अस्थि मिच्छादसणसच्चे अस्थि पाणानिपातरमणे जाव अस्थि राइमायणवरेमणे अस्थि काहविवेगे जाव ॥१२॥ अस्थि लोभविवेगे अस्थि पेज्जविवेगे जाव अस्थि मिच्छादसणसन्नविवेगेनि, जिणपत्रत्ता भावा अवितहं सदहति तस्स णं एग वा अणेगाई वा अणुब्बताई णो कताई भवतीति पढमा उवासगपडिमा १॥ अथावरा दोच्चा उ० दंसणसावए याषि भवति, लातस्स ण एवं भवति-अस्थि लोगे जाच जिणपणना भावा अवितई सद्दहति, तस्स एग वा अणेगाई च अणुब्बताई भवंतीति ट्र! | दोच्चा उ०२ अहावरा तच्चा उदसणसावए यावि भवति, तस्स पंजाब सदहति, तम्स ण एग अगाई वा अणुन्यताई कताई भवति । सामाइयं संम अणुपालेति जाव तिमि मासा एतगुणा धारेवित्ति तच्चा उ०३ ।। अहावरा चउत्था उ०दसणसा. जथा तच्चा जाव|31 सामाइयं सम अणुपालंति, चाउसिअट्टमुदिद्वपुणिमासणीसु पडिपुणं पोसह सम्मं अणुपालेनि जाव चत्तारि मासा एते गुणा धारतित्ति चउत्था उ०४॥ अथावरा पंचमा उ० दसणसावए जथा चउत्था जाव पोसह सैम अणु० रातिभने से परिणाते ५ भवति सचिचाहारे से जो परिण्माते भवति जाव पंच मासा एते गुणा धारतित्ति पंचमा उ०५ ।। अहावरा हट्ठा उ० दसण8 जथा पंचमाए तहेव जाव रातिभत्ते से परिणाते भवति सचित्ताहाबि से परिणाए भवति जाव छम्मासा एते गुणा धारोतीति ॥१२॥ ट्ठा उ०६॥ अहावरा सचमा उ०दसण जथा छट्ठाए तहेव रातीमत्तपरिणाते सचित्ताहोर परिणाए दिया चंभचारी रातो परिमाणकडे जाव सत्त मासा एते गुणा भारतित्ति सत्तमा उ०१॥ अथावरा अट्ठमा उ० दंसणसावए यावि भवति जाव पडिपुण्णं CReleCRENCY दीप अनुक्रम [११-३६] - RE (127) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने 5 प्रतिमा: प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| CROPSIRSS ॥१२२॥ पोसह सम अणुपालेति रातिभनपरिष्णाते सचित्ताहारपरिण्याते दिवावि राओवि भयारी असिणाणए यावि भवति बोसङ्ककेसक-12 खमंसुरामणहे जाव अट्ठ मासा एते गुणा धारेतित्ति अट्ठमा उ०८॥ अथावरा नवमा उ• दसण. जथा अट्ठमाए तहेव जाव। दियांवि राओवि बंभयारी असिणाणए यावि भवति बोसट्टकेसकरखमंसुरोमणहे आरंभे परिणाते भवति,पेस्सारंभे से जो परिणाते भवति जाव नव मासा एते गुणा धारतिनि नवमा उ०९॥ अहवरा०दसण तहेव जाच आरंभ परिणाते भवति पेसारमेषि से परिण्याते भवति जाब दस मासा एते गुणा धारेवित्ति दसमा उ १०॥ अहावस एकारसमा उवासगपडिमा दंसणसापए जाब दसमाए नहेव रोमनहे सारंभपरिणाते उहिट्ठभत्तविवज्जगे समणभृते यावि भवति, समणाउसो तस्स णं एवं भवति सब्बतो पाणातिपातातो वेरमणं जाव सबातो राइभोयणातो वेरमणे खुरमुंडए वा लुत्सकेसए वा अचेलए वा एगसाडिए वा संतरुत्तरे वा स्यहरणपडिग्गहकक्षमायाए जे इमे समणाणं णिग्गंधाण आयारगोयरिए भम्मे पण्णते सं संमं फासेमाण अण्णतरं दिसि वारीएखा अवससं तं चैव जाव समणोवासए पडिमावण्णए अहमंसीति वत्तब्वेति जाच एकारसमाए गुणा धारेतित्ति एक्कारसमा उवासगपडिमा । एताओ एकारस उवासगपडिमाओ जाव पण्णचाओसि । एवं जथा दसास। एस्थ पडिसिद्धकरणादिणा जाव दुकडति । पारसहिं भिक्खुपडिमाहिं, तत्थ मासादी गाथा, ताओ पुण इमाओ, तंजथा- मासिया भिक्खुपडिमा दोमासिया तिमासिया चउमासिया पंचमासिया छम्मासिया भिक्खु. सत्तमासिया भिक्खु पढमसत्चराइदिया. दोच्चा ससराईदिया तच्चा & खचराइदिया अहोराइया एगराइया भिक्सुपडिमा। मासियण भिक्खुपडिम पडिवणस्स अणगारस्स मास निश्चंवोसट्टकाए दीप अनुक्रम [११-३६] RSS RSS सूत्र ॥१२२॥ ...अत्र साधूनां एकादश-प्रतिमा: वर्णयते (128) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] (४०) अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ཡྻ सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ अनुक्रम [११-३६] प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ १२३॥ - चियतदेहे जे केह उबसरमा सङ्घप्पज्जेज्जा, तंजधा दिव्या वा माणुसा या तिरिक्खजोगिया वा अनुलोमा वा पडिलोमा वा, तत्थ पडिलोमताए अणतरेणं दंडेण अट्ठी मुट्ठी लेट्ड कपाले जातवेने आव कसेण वा कार्य आउडेज्जा, अणुलोमा वंदिज्ज वा सम्मं कल्लानं मंगलं देवतं चेइति पज्जुवा सेज्जा, ते सव्वे समं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा । मासि णं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्त अणगारस्स मासं कप्पति एगा दची भोयणस्स पडिग्गाहेत्तर एगा पाणस्स, अण्णातं उंड सुद्धोवहडं निज्जूहित्ता बहवे दुपदचतुष्पदसम्णमाहण अतिििविणवणीमए, कप्पति से एगस्स वेजमाणस्स पडिग्गाहेत्तए, यो दोण्डं णो तिह जो उन्हं णो गुब्विणीए, जो बालवच्छाए जो दारंग पेज्जमाणीए णो अन्तो एलुगस्स दोवि पाए साइड दलमाणीए को बाहि एलुयस्स दोवि पार साहद्दु दलमाणीए, एगं पादं अंतो किच्चा एवं पादं बाहिं किच्चा एयं विक्खभत्ता एवं से दलपति एवं से कप्पति पडिग्गाहितर एवं से णो दलयति एवं णो कप्पति पडिग्गाहितए, पाठंतरं णो से कप्पति अंतो एलुयस्स दोवि पाए साइड पडिग्गाहित्तए, एवं बार्डिपि एवं पादं अंतो किच्चा एगं पादं बाहिं किच्चा एलुयं विक्खमइत्ता चट्टेज्जा, एताए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहारेज्जा, एताए णो० णो आहारज्जा, तस्स णं तओ गोयरकाला पण्णत्ता, तंजथा- आदी मच्झे चरिमे, आदि चरेज्जा णौ मज्झे चरिज्जा णो चरमे चरिज्जा मज्झे चरेज्जा णो आदि चरेज्जा णो चरिमे चरेज्जा, चरिमं चरेज्जा णो आदि चरिज्जा णो मज्झे चरेखा । तस्स णं कप्पति अदृण्यं गोवरभूमीणं अगतरं अभिगेज्झ भचपाणं गवेसितए, ०उज्जुर्ग वा गंतुं पच्चागतं वा गोमुचिगं या पतंगविहितं वा वेलं वा अद्भवेल वा अन्तरसंबुक्का वा बाहिरका | जत्थ णं केइ जाणति गामंसि वा जाब मंडपंसि वा कप्पति तत्थेगराय वत्थए, जत्थ णं केइ ण जाणति कप्पति से तत्वेग वा वा (129) भिक्षु प्रतिमाः ॥१२३॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा दुरायं वा वथए, णो से कप्पति एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वत्थए, जइ तत्थ एगरायातो वा परं वसति से संतरा छेदे वा भिक्षुध्ययने परिहारे वा, तस्स णं कप्पति चत्वारि भासाओ भासित्तए, तंजथा- जातणी पुच्छणी पण्णवणी सुद्धस्स वागरणी, तस्स णं कप्पति प्रतिमा ॥१२॥ तओ उवरसगा अणुण्णवेत्तए, तंजथा- अधे आगमणगिर्हसि वा अहे पियडगिहंसि वा रुक्खमूलगिहसि वा, तस्स णं कप्पति | तओ उवस्सगाओवाणियचए, तं चैव, तस्स णं कप्पति तओ संथारगा पाडिलेहित्तए, त०- पुढविसिल वा कट्ठसिलं चा अथासंहाथडमेव, तस्सणं कप्पति से पुचि पडिलेहित्तए, तओ संथारगा अणुण्णवेत्तए तं चेब, तस्स णं कप्पति तओ संथारगा उवायाण चए, तं चेव, मासियं० इत्थी उबस्सय उवागच्छिज्जा सइत्थीए वा पुरिसे णो से कप्पति तं पडुच्च निक्खमित्तए वा पविसिचए वा से उच्चारपासवणणं ओबाहिज्जमाणे कप्पति उग्गेण्हितए वा पगिण्हतए वा, कप्पति से पुब्बपडिलेहिते घडिल्ले उच्चारपासवर्ण परिट्ठवेत्तए, तमेव उवस्सयं आगम आहाविहमेव ठाणं. ठाइत्तए, मासिय० केइ उबस्सय अगणिकाएणं झामेज्जा नो से कप्पति तं कापडुच्च निक्खमित्तए वा पविसित्तए था, तत्थ णं केइ बाहाए गहाय आगसेज्जा णो से कप्पति अवलंबित्तए वा पच्चवलंबित्तए वा, लकप्पह से आहारिय रिहत्तए, मासिय० पायंसि खाणु वा कंटए वा हीरे वा सकरा वा अणुपविसज्जा णो से कप्पति निहरित्तए। वा विसोहित्तए वा, कप्पति से आधारिय रीइत्तए, मासियं० अञ्छिसि पाणाणि वा बीयाणि वा रए वा परियावज्जेज नो से कप्पति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा कप्पति से आहारीयं रियित्तए, मासिय जत्थ मूरिए अस्थमज्जा तं०-जलांस वा थलांसा वा दुग्गसि वा निबंसि वा पब्वयंसि वा विसमंसि वा तत्थेव सा रयणी उवादिणावेता सिया, नो से कप्पति पदमाव गमित्तए, | कप्पति से कल्लं पादुप्पभाते जाव जलंते पाइणाभिमुहस्स वा पदीणाभिमुहस्स वा दाहिणाभिमुहस्स वा उत्तराभिमुहस्स वा दीप अनुक्रम [११-३६] + ॥१२४॥ HEATE (130) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणालाआहारियं रिहत्तए, मासियं भिष्णो से कप्पति अर्णतराहिताए पुढवीए निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, केवली व्या आयाणमेतं, से तत्थ निदायमाणो वा पयलायमाणो वा हत्थेहिं भूमि परामुसिज्जा आहा०विवित्तमद्धाणं जदि पचहत्तए, मासयं णं भिक्ख नो प्रतिमा ॥१२५॥ कप्पति ससरक्खेण काएणं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसेत्तए था,अह पुणो एवं जाणेज्जा से सरक्खे पात ससरक्षण कारण है. सेअत्ताए या मलवाए वा पंकत्ताए वा विद्वत्थे एवं से कप्पति गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमिचए वा०, मासिय० नो| | कप्पति सीतोदविगडेण वा० हत्थाणि या पादाणि वा दंतााण वा अच्छीणि वा मुहं वा उच्छोलेत्तए वा पधोएत्तए वा, गण्णत्व लेवालेवण वा भत्तमासेण वा, मासिब नो कप्पति आसस्स वा हथिस्स बा गोणस वा महिसस्स वा सहस्स वा बग्घस्स बा बगस्स वा दीवियस्स वा अच्छस्स वा तरच्छस्स वा सुणगस्स वा कोलसुणगस्स वा दुगुस्स आवयमाणस्स पदमवि मच्छित्तए, का अदुदुस्स आवायमाणस्स कप्पति जुगमेत्तं पच्चासकित्तए, मासियंणो कप्पति छातातो सीतंति उण्हं एत्तए, उपहातो वा उण्हति & छायं एत्तए, जे जत्थ जदा सिता तं तत्थ तदाधियासए, एवं खलु एसा मासिया भिक्खुपडिमा अहामुत्तं अहाकप्प अहामग्गं अथा तच्च समं कारणं फासिया पालिया सोभिया तीरिया आराहिता आणाए अणुपालिया यावि भवति १॥ दोमासियं णं भिक्खुपडिमं निच्चं वोसट्टकाए तं चेव जाव दो दत्तीओ २॥ तेमासियं० तिष्णि दत्तिओ ३॥ चातुम्मासियं० चत्तारि दत्तीओ ४॥ पंचमासियं० पंच दत्तीओ ५॥ छम्मासियं० छ दत्तीओ ६॥ सत्तमासिय सत्त दचीओ ७॥ जति मासा तति दचीओ ॥ १२५॥ पढमसत्तरातिदियं ण मिक्सुपडिम पडिवण्णस्स अणगारस्स निच्चं बोसढे काए जाव अहियासेज्ज, कप्पति से चउत्थं चउत्थणं 121 अणिक्खिनेणं तवोकमेणं पारणए आयंबिलपरिग्गहिते चरिमे दिवसे चउत्धेणं भनणं अपाणएणं बहिया गामस्स पा जाप राय दीप अनुक्रम [११-३६] - (131) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| . .. . मिक्षप्रतिक्रमणा । हाणीए या अण्णतराई चेइयाई पुरतो काउं अण्णतरे अचिंत्ते पोग्गले निझायमाणस्स उताणगस वा पासियल्लिस्स वा मिसज्जि-3 ध्ययने IG|तस्स या ठाणं ठातित्तए, तत्थ दिवा मणूसा तेरिक्खा वा उपसग्गा पयालेज्ज या पाडेज्ज वा णो से कप्पति पयलित्तए काला प्रतिमा ॥१२६पडित्तए वा,तत्थ उच्चारपासवर्ण उब्बाहिज्ज णो से कप्पति उच्चारं पासवणं च गिहित्तए वा पगिणिहत्तए वाकप्यत्ति से पुम्भप-1 डिलहितसि डिल्लास उच्चारपासवर्ण परिवेत्तए, आहाविहमेव ठाणं ठाइत्तए, एवं खलु एसा पढमा सत्तराईदिया । एवं चीया । ततियावि, णवरं गोदोहियाए वा वीरासणियस्स अवखुज्जगस्स चा ठाणं ठाइत्तए, सेस ते चेष जाव अणुपालिया यावि भवति ।। एवं अहोरातिंदिया, गवरं छद्रुणं भत्तेण अपाणएणं चहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा ईसि दोवि पादे साहटु बग्धारि तपाणिस्स ठाणं ठाइत्तए, सेस तं चेव जाय अणुपालिता यावि भवात, एगरातिय भिक्खुपडिम पडिवण्णस्स अणगारस्स निच्चा *वोसकट्ठाएणं जाय आहियासेति,कप्पति से अट्ठमण भत्तेणं अपाणएणं पहिया गामस्स या जाव रायहाणीए वाईसी पम्भारगण | | एवं खल मूलगताए दिडीए अणिमिसनयणे अहापणिहितेहिं गतेहिं सविदिएहि गुत्तेहिं दोषि पाए साहददु बग्धारितपाणिस्स ठाणं ठाइत्तए, नपरं उड्डयस्स वा लगडसाइयस्स वा डंडातियस्स वा ठाणं ठाइनए, तत्थ से दिधमाणुसतिरिक्खजोणिया जाव आधाविधिमेव ठाणं ठाइत्तए, एगराइयण भिक्खुपडिमं संमं अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा अदिताए ॥१६॥ असुभाय अखमाए अणिस्सेसाए अणाणुगाामयचाए भवति, तंजहा उम्मायं वा लभेज्जा दीहकालियं वा रोगायक पाउणेज्जा | | केवलिपण्णताओ धम्माओ वा भैसिज्जा, एगराइयं गंभिक्खुपडिमं सम्म अणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणाओ हितार जाव आणुगामित्चाए भवति, तंजथा-प्रोधिण्णाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवणाणे पा से समुप्पग्जेज्जा, केवलवाणे पा से दीप अनुक्रम [११-३६] (132) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा असमुप्पण्णपुचे समुपज्जिज्जा । एवं खलु एसा एगराईदिया भिक्खुपडिमा अहामुर्च अथाकप्पं अहामग्गं अहातव्य संमें क्रियाध्ययन सकाएणं फासिया पालिता सोहिता तीरिता किहिता जाराहिता आणाए अणुपालिया यावि भवति । एताओ खलु ताओ परेहि मानान भगवदि बारस मिक्खुपडिमाओ पण्यात्ताआत्ति । एवं जहा दसासु । एतासु पडिसिद्धकरणादिणा जाव जो मे दुक्कडंति । ॥१२ सूत्र . तेरसहिं किरियाठाणेहिं । तत्थ गाथा । इमाई तेरसकिरियाठाणाई भवतीतिमक्खातं, जहा-अट्ठाडंडे १ अणट्ठाडंडे २ हिंसाडंडे ३ अकम्हाडंडे ४ दिट्ठीविप्परियासियाडंडे ५ मोसबत्तिए ६अदिण्णादाणवचिए ७ अज्झस्थिए ८ माणवचिए ९ मिचलादोसवचिए १० मायापत्तिए ११ लोभवत्तिए १२ इरियावाहिए १३ । पढमे डंडसमायाणे अट्ठाउंडवत्तिएति आहिज्जति, से तथा नामए केइ पुरिसे आयहेतुं वा भूतहेतुं वा जाव जक्खहेतुं वा तं ठंडं तसथावरेहिं पाणेहि सयमेव णिसिरति अण्णणं वा णिसिरोव-2 ति णिसिरतं वा अन्नं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पचियं सावज्जेति आहिज्जति । पढमे डंडसमायाणे अट्ठाडंडवत्तिएति आहिते १। अहायरे दोचे डंडसमायाणे अणडाडंडवत्तिएत्ति आहिजति, से जथानामए केई पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए णो हिययाए णो पित्ताए णो वसाए णो पिच्छाए णो पुच्छाए णो वालए णो सिंगाए णो विसाणाए णो दन्ताए णो दाढाए णो णहाए णो ण्हारुणियाए णो अडीए णो अट्टिर्मिजाते नो हिंसीसुस मेत्ति णो हिंसति मेति नो हिंसिंसुत्ति मेति ते णो पुत्तपोसणयाए णो पसुपोसणताए णो अगारपरिव्हणताए णो समणमाहण-M॥१२७॥ वत्तियहेतुं नो तस्स सरीरस्स किंचि परितातित्ता भवति, से हंता छेत्ता भेना लुंपतित्ता विलुपतित्ता उद्दवइत्ता उजिम कलेवरस्साभागीभवति, अणडाडंडे से जथा नामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवंति, तंजथा-इक्कडाइ या कढिणाति वा जंनुयाति वा % दीप अनुक्रम [११-३६] ... अत्र क्रियास्थानानि वर्णयते (133) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१२८॥ परगाति वा मोरगाति वा तणाति वा कुसाति वा कुज्जगाति वा दब्भगाति वा पलालमादि वा ते णो पुत्तपोसणताए णो पसुपोसणयाए णो अगारपोसणताए णो समणमाहणपोसणताए णो तस्स सरीरस्स पोसणताए, से हंता छेत्ता भेत्ता पत्ता विलपतित्ता उदवतित्ता उज्झितुं कलेवरस्साभागी भवति, अणडाउंडे० से जथा नामए केह पुरिसे कच्छंसि या दहंसि वा दगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा गहणंसि वा णूमंसि वा वर्णांस वा वणविदुग्गांस वा पव्वयंसि वा पव्वतयदुगंसि वा तपाई ऊसविया २ अगिणिकायं णिसिरति अण्णेण वावि अगणिकार्य णिसिरावेति अगणिकार्य णिसिरंतंपि अण्णं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जेति आहिज्जति, दोच्चे दंडसमादाणे अण्णत्थादंडवत्तिएत्ति आहिए २ । अहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिंसाउंडवत्तिए आहिज्जति, से जथा नामए केइ पुरिसे मर्म वा मर्मि वा अण्ण वा अणि वा हिंसिसु वा हिंसेति वा हिंसिस्संति वा तं डंडे तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसरति अण्णेण वा णिसिरावेति मिसिरंतं तु अण्णं समणुजाणति, एवं खलु तस्स वप्पत्तियं सावज्जेति आहिज्जति, तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिते ३ || अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकमहादंडवत्तिएति आहिज्जति, से जथा नामए केइ पुरिसे कच्छंसि या दहसि वा दर्गसि वा दवियंसि वा जाव वण० पथ्वतदुग्गंसि वा मियवित्तिए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मियति कार्ड अण्णतरस्स मियस्स बहाए उसे आयामैऊणं णिसिरेज्जा मियं विधिस्सामितिकट्टु तिचिरं वा वट्टगं वा लावगं वा कबोतं वा कविजलं वा विधित्ता भवति इति खलु से अण्णस्स अड्डाए अण्णं फुसति अकम्हाडंडे से जथानामए केइ पुरिसे सालीणि वा वीर्हाणि वा कोहवाणि वा कंगुणि वा वरङ्गाणि वा रालगाणि वा निलिज्जमाणे 'अण्णतरस्स तणस्स वधाए सत्थं निसिरेज्जा से सामगं वा मतणी वा सुमुद्गं वा वीहिफुसियं वा कलेसुर्य वा तणं छिंदिस्सामित्तिकट्टु (134) क्रियास्थानानि ।। १२८ ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१२९॥ सालिंग वा वीहिं वा कोहगं वा कंगु वा वरदृगं वा रालगं वा छिंदित्ता भवति इति खलु से अण्णस्स अड्डाए अण्णं फुसति, एवं क्रियास्थाखलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जेत्ति आहिज्जति । चउत्थे दंड्समादाणे अकमहादंडवत्तिएत्ति आहिते ४ || अहावरे पंचमे दंडसमा- नानि दाणे दिट्ठीविपरियासियाडयत्तिएत्ति आहिज्जति, से जथा नामए केई पुरिसे मातीहिं वा०भगिणीहिं वा भज्जाहिं वा पुत्तेहिं वा घुतार्ह वा सुहाहिं वा सद्धि संवसमाणे मित्तं अमित्तमिति संकष्पमाणे मित्ते हतपुचे भवति दिट्ठीविप्परियासियाउंडे, जथा नामए केई पुरिसे गामघातंसि वा नगरघातंसि वा खेडयातंसि वा कन्पयासि वा मंडप (मडंब) घातंसि वा दोणमुधामि वा पट्टणघातास वा आगर आसम० वाह० संनिवेस० नियम० रायहाणिघातांस वा अतेण तेणामति मण्णमाणे अतेणे हतपुच्चे भवति दिडीविप्परियासियाउंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जेति आहिज्जति, पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठीविप्परियासिग्राइंडबनिएत्ति आहितेति ५॥ अहावरे छट्टे किरियड्डाणे मोसवत्तिपत्ति आहिज्जति से जथांनामए के पुरिसे आतहेतुं वा जातहेतुं वा आगारहेतुं वा परिवारहेतुं वा सयमेव मुसं वयति अण्णवि सं चयावेइ मुसं वदीप अण्णं समभुजाणति, एवं खलु तस्स तप्यधियं सावज्जेति आहिज्जति, छड्डे किरियट्ठाणे मोसवत्तियएत्ति आहिते ६ ।। अहावरे सत्तमे किरियाठाणे अदिण्णादाणवत्तिपत्ति आहिज्जति, से जथानामए केइ पुरिसे आतहेतुं वा णातहेतुं वा अगारहेतुं वा परिवारहेतुं वा सयमेवादिण्णं आदियति अण्णेणावि अदिष्णं आदियावेति अदिष्णं आदियंतंपि अण्णं समजापति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जेति आहिज्जइ । सचमे किरियाठाणे अदिण्णादाणवत्तिपत्ति आहिते ७|| अहावरे अडमे किरियाठाणे अज्झत्थिपत्ति आहिज्जति से जथानामए केइ पुरिसे नाथ णं तस्स कोइ किंचि विसंवादेति सयमेव दुडे दुम्मणे ओहतमणसंकरपे चिंतासोगसागरसंपविट्ठे करतलपन्हत्थियमुद्दे अट्टज्झाणे (135) ॥१२९॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१३०॥ - चिमते भूमिगत दिडीए झियाति, तस्स णं अज्झत्थिया संसइया चचारि ठाणा एवमाहिज्जेति, तंजथा-कौधे माणे माया लोभे, अज्झत्थमेए | कोधमाणमायालोभा, एवं खलु तस्स तष्पत्तियं सावज्जत्ति आहिज्जति । अट्ठमे किरियङ्काणे अज्झत्थिपत्ति आहिते८ || अहावरे नवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिपत्ति आहिज्जति, से जथानामए केइ पुरिसे जातीमरण वा कुलमदेण वा बलमदेण वा रूवमदेण वा तवमदेण वा सुतमदेण वा लाभमदेण वा ईसरियमदेण वा पन्नामदेण वा अनतरेण वा मदड्डाणेण मत्ते समाणे परं हीलति जिंदति खिंसति गरइति परिभवति, इत्तरिए अभयमन्नि अत्ताणं समुकसे, देहते कंमपिपिति (वितिए) अवसे पयादी, तंजथा - गन्भाओ गन्म जम्माओ जम्मं माराओ मारं नरगाओ नरगं चंडे थद्धे चबले माणि यावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जेीत आहिज्जति । नवमे किरियड्डाणे माणवत्तिए आहिते ९|| अहावरे दसमे किरियट्टाणे मित्तिदोसवत्तिपत्ति आहिज्जति से जथानामए के पुरिसे मातीहिं वा पितीहिं वा मातीहिं वा भगिणीहिं वा भज्जाहिं वा पुत्तेहिं वा सुताहिं वा सुण्हाहिं वा ( समं संवसमाणे) तेसिं अंणतरंसि अहालहुसगंसि अवराहंसि सयमेव गुरुयं दंडं निवतेति, तंजथा- सीतोद्गवियसि कार्य ओबोलेता भवति, उसिणोदयfarडेणं कार्य ओसिंचित्ता भवति, अगणिकारणं कार्यं ओडहित्ता भवति, जोचेण वा णेतेण वा कसेण वा छियाए वा लताए वा पासाई अवदात्ता भवति, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवाले वा कार्य आउडेता भवति, तहष्पगारे पुरिसज्जाते संवसमाणे दुमणा भवति, पवसमाणे सुमणा भवति, तहप्पगारे पुरिसज्जाते दंडपासी डंडगुरुए डंडपुरेक्खडे अहिते अस्सि लोगसि अहिते परंसि लोगंसि संजलण कोधणे कोवणे पडीमंसि यावि भवति, एवं खलु तस्स वप्पत्तियं सावज्जेचि आहिज्जति, दसमे किरियट्ठाणे मित्तिदोसवत्तिपत्ति आहिते१०|| अहावरे एक्कारसमे किरियाणे मायवत्तिपत्ति आहिज्जति, जे इमे भवंति गूडा (136) क्रियास्थानानि ॥१३०॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक KARA + गाथा: ||१२|| मतिक्रमण दयारा तमोकाइया उलुयपत्तलहुया पब्वयगुरुया ते आयरियाबि संता अणायरियाओ भासाओ विजुज्जति, अण्याहा संत अप्पाण! ध्ययने अण्णथा भणंति, अण्णं पुट्ठा अण्णं वागरेति, अण्ण आइक्खितव्यं अण्णं आइक्वंति, से जथानामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले त सल्लंका IRL नानि णो सयं णीहरति णो अण्णेहि णीहरावेति णो पडिविद्धंसति, एवामेव निण्हती, अविउद्देमाणे अंतो अंतो झियाति, एवामेव माती ॥१३१॥ मायं कटु नो आलोएति णो पडिक्कमति णो निंदति नो गरिहति नो विउकुति नो विसोहेति नो अकरणताए अन्भुट्ठति नो आहारिहं पायच्छित्तं तवोकम पडिवज्जति, मायी अस्सि लोए पच्चायाती मायी परस्सि लोए य पच्चायाती निंदं गहाय अपसंसति णायरति ण नियती निसिरियडंडं छाएति, मायी असमाहडलेस्स याबि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तिय सावज्जेत्ति आहिज्जति,एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिपत्ति आहितेशाबारसमे किरियट्ठाणे लोभवतिएत्ति आहिज्जति,जे इमे भवंति आरपिया आवसहिया गामणियंतिया कण्टुयोराहास्सिया नो बहुसंजता णो बहुपडिबिरता सबपाणभूतजीवसचेहिं ते अप्पणा सच्चामोसाओ भासाओ एवं विजुति-अहं न हतचे अण्णे इतव्या, अहं न अज्जावतव्यो अण्णे अज्जावतव्वा, अहं न परिवेत्तव्यो अण्णे परिघेतब्बा, अहं न परितावेतव्वो अण्णे परितावेतव्या, अहं न उबद्दवेतव्वो अण्णे उपहवेतब्धा, एवामेव ते इस्थिकामेहिं मुच्छिता गिद्धा गढिता अज्झोववण्णा अजिचा भोगाई कालमासे कालं किरुचा अंणतरेसु आसुरिएसु किमिसिएसु ठाणेसु उववचारो| भवति, ततो विष्पमुच्चमाणा अज्जो एलमूयत्ताए पच्चायांति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जेत्ति आहिज्जति, बारसमे किरिय- ॥१३१॥ हाणे लोभवत्तिएत्ति आहिते१२। इच्चताई वारस किरियट्ठाणाई दविएणं समणेण वा माहणेण वा संमं सुपरिजाणितम्याई भवति।। अथावरे तेरसमे किरियट्ठाणे ईरियावहिपत्ति आहिज्जाति, इह खलु अत्तत्ता संवुडस्स अणगारस्स हारयसिामयस्स भासासमि दीप अनुक्रम [११-३६] traM- SANSAR (137) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 भूतग्रामा प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा । यस्स एसणासमियस्स आयाणगंडमत्तणिखेवणासमितस्स उच्चारपासवणखलसिंघाणजल्लपारिट्ठावाणियासमियस्स मणसमियस्स | ध्ययने | वइसमियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वइगुत्तस्स कायगुत्तस्स गुत्तस्स गुतिदियस्स गुत्तभचारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स वा ॥१३२॥ | चिट्ठमाणस्स वा निसीयमाणस्स वा तुयढमाणस्स वा आउचं भुंजमाणस्स वा आउत्तं वत्थ पडिग्गहं कंबलं पादपूंछणं गेण्हमाणस्स | वा निक्खिवमाणस्स वा जाब चक्खुपम्हनिवायमवि अस्थि माता सुहुमा किरिया ईरियावहिया कज्जति, सा पढमसमये बद्धद पुट्ठा बितियसमये वेदिता ततियसमये निज्जिण्णा, सा पद्धपुट्ठा उदिता वेदिता निज्जिण्णा, सेअकाले अकमि वावि भवति । *एवं खलु तस्स तप्पत्तियं असावज्जेत्ति आहिज्जति,तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहियवत्तिएत्ति आहिते १३||से बेमि जे अतीता जे |3|पडप्पण्णा जे आगमेस्सा अरिहंता भगवंतो सब्वे ते एताई तेरस किरियाठाणाई भासिंसु वा भासंति वा भासिस्संति वा, एवं | II पण्णविसु ३, एवं चेव तेरसम किरियाठाणं सेविसु ३, एत्थ पडिसिद्धकरणादिना जो मे जाव दुक्कडति ।। चोदसहिं भूतगामेहिं।।सूत्र। जम्हा भुवि भविस्सति भवंति य तम्हा भूतत्ति वत्तव्बा,भूता-जीवा गामोत्ति समूहो,भूताणं गामा साभूतग्गामा तत्व,तहिं गाथा-एगिदिय सुहुमितराणाएगिदिया सुहमा इतरा-बादरा,सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता य,एवं बादरावि | | दुविहा, बेदियावि दुविहा-पज्जता अपज्जत्ता य,तेंदियावि दुविहा,चउरिदिया दुविहा,पंचिदिया दुविधा-सण्णिणो असण्णिणो य, | तत्थ असण्णिपंचिंदियावि दुविधा- पज्जत्ता अपज्जत्ता, सण्णिपंचिदियावि दुविधा- पज्जत्ता अपज्जचा य, एते चोद्दस भूतग्गामा, एत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जो मे जाब दुकडेति । सूत्र दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१३२॥ RSA (138) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमण गला अण्णे पुण एत्थ चउद्दस गुणवाणाणिवि पण्णवेति, जतो एतेमुचि भूतग्गामा बर्सेतित्ति तत्थ इमाओ दो गाहाओ- गुणस्थाध्ययने मिच्छट्ठिी ॥ ८॥ तत्तो य० ॥१॥ तत्थ इमाति चोइस गुणहाणाणि, तंजहा-मिच्छदिड्डी सासायणं संमामिच्छादिट्ठी नान अविरतसम्मदिट्ठी विरताविरता पमससंजता अपमत्तसं० नियट्टि अणियट्टि मुहुमसंपराग उबसंतमोह खीणमोह सजोगिकेवली ॥१३३॥ & अजोगिकेवलित्ति । तत्थ मिच्छादिड्डी दुविहो, तं०-अभिग्गहीतमिच्छट्ठिी अणभिग्गहीतमिच्छद्दिडी, तत्थ अभिग्गहीतमिच्छट्ठिी संखआजीवयचुड्डवसणवावसपाणामनिण्डगबोडियादी, अणभिग्गहीत० एगिदियबेइंदियतेइंदियचउरिदिप, जेसिं च पंचिदियाणं जीवाणं न कत्थइ दंसणे अभिप्पायो, एस मिच्छद्दिट्टी१॥ सासायणो जस्स इसि जिणवयणरुई, अहब जो जीवो उवस-1 मसंमत्ताओ मिच्छत्तं संकामितुकामो, जथा वा कोइ पुरिसो पुप्फफलसमिद्धाओ महदुमाओ पमाददोसेण पवडमाणो जाव घरणितलं हैन पावति ताव अंतराले बट्टति एवं जीबोवि संमत्तमूलाओ जिणववणकप्परुक्खाओ परिषयमाणो मिच्छतं संकामितुकामो एत्थ छावलियमेते काले बढ़माणो सासायणो भवति, अहवा संमत्ते सस्सादो सायणो, तत्थिमा निज्जुत्तिगाथा -उवसमसम्मा पडमाणओ तु मिच्छत्तसंकमणकाले । सासाणो छावलिओ भूमिमपत्तोब्व परमाणो ॥१२॥ ___ तथा सम्मामिच्छादिट्ठी नियमा भवत्थपंचिंदियसन्निपज्जत्चगसर्रारी भवति, पढम चेव मिच्छदिट्ठी होतो पसत्थेसु है अज्झवसाणेसु बट्टमाणो मिच्छत्तपोग्गले तिहा करेति, तंजथा-मिच्छत्तं समामिच्छत्तं संमत्तंति, एत्थ दिट्ठतो मदणकोद्दवोहि, जथा कामदणकोद्दवाणामणिबलिताण मदणभावो भवति, तेसिं चेव धोयणादीहिं मंदनिम्बालियाणं मदणमाहिज्जं भवति, तेसिं चेव [2 |तिमणीधोब्बणादीहिं सुपरिक्कमिताणं पागभावावगताणं मधुरसुविसदो ओदणो भवतित्ति, एवं जीवोवि मिच्छत्तादिभावो दीप अनुक्रम [११-३६] 56456RS ... अत्र गुणस्थानानि वर्णयते (139) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत गुण सूत्रांक RERIEWS + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणावचिते मिच्छत्तपोग्गले सुभज्झबसाणपयोगेण विहा करेति, तंजहा--मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सम्मत्तंति, एत्थ जाहे जीवो मिच्छ- ध्ययने चोदयातो विसुज्झिऊणं सम्मामिच्छत्तोदयं परिणमति ताहे से जिणवयणे सद्धासद्धदसणी सम्मामिच्छद्दिडी अंतोमुत्तकालो भवतित्ति, ततो परं सम्मचं वा मिच्छत्तं परिणमति ३॥ अविरतसम्मदिट्टी निरयतिरियमणुयदेवगतीमु महब्बताणुब्बतअविरती न भवति खोबसमखाइयरोइतदसणी भवति, तं च सम्म दुविह-अभिगमसंमत्तं निसग्गसम्मत्तं च, तत्थ जीवाजीव-13 पुण्णपावासवसंवरनिज्जरबंधमोक्खेसु परिच्छितनवपदस्थाभिगमपच्चइयं अभिगमसंमत्त, निसग्गो नाम समावो,जथा सावगपुत्तनत्तुयाणं कुलपरंपरागतं निसग्गसम्म भवति, जहा या सयंभुरमणमच्छाण पडिमासंठिताणि साहुसंठिताणि य पउमाणि मच्छए | वा दट्टणं कमाणं ओवसमेणं निसग्गसंमत्तं भवति, तमूलं च देवलोगगमणं तेसि भवतित्ति ४॥ विरताविरतो मणुयपंचें* दियतियरिएसु देसमूलुत्तरगुणपञ्चक्खाणी नियमा संनिपंचेंदियपज्जत्तसरीरो भवति ५ ॥ इदाणिं पमत्तो, सो दुबिहो । भवति-फसायपमचो जोगपमत्तो य, तत्थ कसायपमत्ता कोहकसायवसट्टो जाव लोभ० ति, एस कसायपमची, जोगप्पमचो। मणदुप्पणिहाणेणं वइदुप्पणिहाणेणं कायदुष्पणिहाणेणं, तथा इंदियेमु सद्दाणुवाती रूवाणुवाती ५ तथा इरियास॥१३४ मितादीसु पंचसुवि असमितो भवति, तहा आहारउवहिवसहिमादीणि उग्गमउप्पादणेसणाहिं अणुवउत्तो गेहति ॥ अप्पमत्तो दुविहो कसायअप्पमत्तो जोगअप्पमत्तो य, तत्थ कसायअप्पमत्तो खीणकसाओ, निग्गहपरेण आहिगारो, कई तस्सा अप्पमत्त भवति', कोहोदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा विफलीकरण, एवं जाव लोभोति, जोगअप्पमचो मणबयणकायजोगेटिं । तिहिं व गुत्तो, अहवा अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं वा, मणसो वा एगत्तीभावकरणं, एवं वइगवि, एवं काएपि, तहान दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१३॥ (140) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक गुण ध्ययने + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाटाइदिएमु सोइंदियविसयपयारनिरोहो वा सोईदियविसयपत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो ५, एस अप्पमत्तो ७॥ इदाणि नियट्टी, जदा जीवो मोहाणिज्ज कम खवेति वा उवसमेति वा तदा अप्पमत्तसंजतस्स अंणतरपसस्थतरेसु अज्झवसाणट्ठाणेसु स्थानानि चट्टमाणो मोहणिज्जे कंमे खवेति उबसमेति वा जाच हासरतिअरतिसोगभयदुगुंछाणं उदयतो छेदो न भवति ताव सो भगवं अणगारो अंतोमुहुनकालं नियारी भवति दा अनियही नाम जदा जीवो नियट्टिस्स. उवरि पसस्थतरेसु अज्झवसाणढाणसे वट्टमाणो हासच्छक्कोदये वोच्छिण्णे जाव मायाउदयवोच्छेदो न भवति एत्थ वट्टमाणो अणगारो अंतोमुहुचकालो अणियट्टियत्ति भवति | ९॥ सुहुमसंपराइयं कम्मं जो बज्झति सो सुहुमसंपरागो, सुहुमं नाम थोवं,, कहं थोवं?, आउयमोहणिज्जवज्जाओ छ कम्मपग-1 डीओ सिडिलवंधणबद्धाओ अप्पकालट्ठितिकाओ मंदाणुभावाओ अप्पप्पदेसग्गाओ सहुमसंपरायस्स बझति, एवं थोवं संपराश्यकंम तस्स चमति, सुहुमो रागो वा जस्स सो सुहुमसंपरागो, सो य असंखेज्जसमइओ अंतोमुहुत्तिओ विसुज्झमाणपरिणामो चा पडिपतमाणपरिणामो वा भवतित्ति १०॥ उवसंतमोहो नाम जस्स अट्ठावीसातविहंपि मोहणिज्जकम्ममुवसंतं अणुमेत्तपि ण वेदेति, सो य देसपडिवातेन सब्बपडिवातेण वा नियमा पडिबतिस्सति ११।। खीणमोहो नाम जेण निरवसेसमिह कंमणायक मोहणिज्ज खवितं, सो य नियमा विसुज्झमाणपरिणामो अंतोमुहत्तंतरेण केवलनाणी भवतित्ति १२॥ जोगा जस्स अस्थि केव-18 ॥१३॥ लिस्स सो सजोगिकेबली, तस्स धम्मकथासीसाणुसासणवागरणनिमित्तं वयजोगो, ठाणणिसीदणतुयट्टणउबनणपरिवत्तणवि-1 ॥१३५।। हारादिनिमित्तं कायजोगो, मणजोगो य से परकारणं पडच्च भज्जो, कई ?, अणुत्तरोववातिदेवेहि अण्णेहिं या देवमणुएहि मणसा पुच्छितो संतो ताहे तेसिं संसयवोच्छेदनिमित्त मणपायोग्गाई दबाई गेण्हिऊण मणत्ताए परिणामतूर्ण ताहे तोसें मणसा चेच वाग RSHASTRIES RSKEERAREER दीप अनुक्रम [११-३६] (141) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा | रणं वागरेति, ततो तेसिं अणुत्तरादाण ते भगवतो मणपोग्गले वियाणितूण संसयवोच्छेदो भवतित्ति, अण्णहा तस्स नत्थि मणेणं परमाधापयोयणं, तेणं तस्स सकारणं पडुरुच मणजोगो पडिसेहिज्जतित्ति १३।। अजोगिकेवली नाम सेलसीपडिवनओ, सो य तीहिंम से मिकाः जोगहिं विरहितो जाव कखगघङ इच्चताई पंचहस्सक्खराई उच्चारिजंति एवतियं कालमजोगिकेवली भवितूण ताहे सबकम्मवि णिमुक्को सिद्धो भवति १४॥ एत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जो मे जाब दुक्कडंति ।। सूत्र पण्णरसहिं परमाधम्मिएहिं ।।सू.॥ एत्थ दो गाथाओ-अंबे ॥१०॥ असिपत्ते धणु०॥११।। एतेसि एस चावारातिसारंगो-धाडति पहावंती य, हणति विंधति तह निमुंभेति । मुंचति अवरतले अंया खलु तत्थ रहए ॥१॥ ओहतहते य ताहिथं निसपणे कप्पणीहिं कप्पंति । पिडलगचदुलगछिपणे अंबरिसा तत्थ नेरइते ॥ २॥ साडणपाडणतुत्तणविंधण रज्जुत्तलप्पहारेहिं । सामा रइयाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं ३॥ अंतजरफिकिसाणि य हिययं * कालेज्जफुप्फुसे चुणे । सबला रइयाणं पबत्तयंती अपुषणाणं ॥४॥ असिसत्तिकुंततोमरसूलतिसूलेसु सूइचित-12 गासु। पोयंति रुद्दकम्मा उ नरयपालातहिं रोहा ॥५॥ मंजंति अंगमंगाणि अरू वाहू सिराणि करचरणे । कप्पंति IMI कप्पणीहिं उवरुदा पावकम्मरते।।६।।मीरासु सुंढएमु य कंटएसु पयणगेसु य पयंति । कुंभीसुं लोहीसु य पयंति काला MP3 माउणेरइए ॥ ७॥ कप्पंति कागणीमंसगाणि छिदंति सीहपुच्छाणि | खाएंति य रइए महकाला पावकम्मरते ॥८॥ हत्थे पादे ऊरू बाहु सिरा तह य अंगमंगाई। छिंदंति पगामं तू णेरइयाणं तु असिपत्ता ॥९॥ कण्णोट्टणासकरचरणदसण तह थणपुलुरुवाट्टणं । छेदणभेदणसाडणअसिपत्तधणू तुकारेंति ॥१०॥ कुंभीसु य पयणेसु य, लोहीसु +6 % दीप अनुक्रम [११-३६] -58 -% (142) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| % Re% राय कडहिलेहिं कुंभीसु । कुंभीतु नरगपाला हणंति पावैति णरएस ॥११॥ तडतडतडस्स भज्जति भज्जणे अयध्ययन कलंबुवालुगापट्टे। बालूगा परइए लोलेंती अवरतलंमि ॥ १२ ॥ वसपूतिरुधिरकेसविवाहिणि कलकलेंतजतुसोतं । पावेतराणि णिरयपाला जेरइए ऊ पवाहेति ॥१३ ।। कप्पति करकएहिं छिदंति परुप्परं परसुएहिं । तरूमारुहंति संवलि 31 ॥१३७॥ खरस्सरा तत्थ नेरइए ॥ १४॥ भीते य पलायन्ते समंततो तत्थ ते निरंभति । पसुणो जथा पसुवए महघोसा ते तुला नेरइए ॥ १५ ॥ एत्थ जेहिं परमाधमियत्तणं भवति तेसु ठाणेसु जे पट्टिते, एवं पडिसिद्धकरणादिणा जाब दुक्कडंति ॥ सोलससुसूत्रं । गाहाए सह सोलस अज्झयणा तेमु, सुतगडपढमसुतबंधअज्झयणेसु इत्यर्थः, ताणि पुण सोलस एवं-समयो १४ बेतालीयं २ उपसग्गपरिषण ३ थीपरिषणा या निरयविभत्ती५. वीरस्थओ६ कुसीलाण परिभ.सा७॥शाविरियंट धम्म ९ समाही १० मग्ग ११ समोसरण १२ महतधं १३ गंथो १४॥ जमतीतं १५ तह गाथा १६ सोलसमं होति अजायणं ॥शाएत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जाव दुक्कदंति ॥ सत्तरसविधे असंजमे ।। सूत्रं ॥ संजमो-समणधमो पुव्वं भणितो, अहवा जथा ओहनिमुत्तीए, तविपरिते असंजमे, तत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जाव दुक्कडंति ॥ हा अट्ठारसविहे अब्बभे ।। सूत्रं ।। वमं जथा दसविधे समणधम्मे भणितं. तन्विपक्खो अन्यौ, अथवा बभे-समणधम्मो ला॥१३७।। पवयणमायाओ अब्बभतविपक्खो तत्थ जो पडिसिद्धकरणादिणा जाव दुक्कडन्ति ।। एगूणवीसाए णाअजायणेहिं ।।सूगा इमाहिं दोहिं गाहाहि अणुगंतब्बाणि-उक्वित्तणाय१ संघाडे२, अंडे३ कुंमे य४ दीप अनुक्रम [११-३६] (143) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत असंय सूत्रांक माधाः प्रतिक्रमणा हा सेलए ५तुंबे य ६ रोहिणी ७ माही८, मायंदी ९ चंदिमा इय १०॥ १६ ॥ दाबहवे ११ उदगणाते १२ मंडक्के ध्ययने १३ तेतली इय १४ नंदीफले १५ अघरकका १६ आइपणे १७ सुंसुमार पुंडरीए १९ ॥ १७ ।। एत्थ जो मे पडिसिद्ध॥१३० करणादिणा जाव दुक्कडंति ॥ सूत्र वीसाए असमाहिहाणेहिं ।। सूत्रं ॥ तत्थ इमाओ तिनि गाथाओ-दवदवचारि० ॥१८॥ संजलण ॥१९॥ ससरक्ख० ॥२० ॥ इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, नंजया-दवदवचारी यावि भवति १ अप्पमजिवचार यावि भवति २ दुष्पमज्जितचारी यावि भवति ३ अतिरित्तसेज्जासणिए रातिणियपरिभासी ५ थेरोवघातीए ६ | भूतोवघाती ७ कोधणे ८ पिट्ठीमंसिए यावि भवति ९ अभिक्खणं ओहारियावि भवति १० नवाई अधिकरणाई अणुप्पण्णाई उप्पा-19 दइत्ता भवति ११ पोराणाई अधिकरणाई खामियविओसवियाई उदीरेता भवति १२ अकाले सज्झायकारि यावि भवति १३ है ससरक्खपाणिपादे १४ सहकरे १५ झंझकरे १६ कलहकरे १७ असमाधिकरे १८ सूरप्पमाणभाई १९ एसणाए असमिते याची भवति । २० एते धरहिं भगवंतहिं बीसं असमाहिट्ठाणा पण्णचा । तत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जो मे जाव दुक्कडंति ॥ सूत्र एक्कवीसाए सवलेहिं ।। सूत्रं ॥ २१॥ सवले नाम अविसद्धचरिते, सबलोत्ति वा चित्तलोत्ति बा एगहूँ। एत्थ हा गाथाओ, तंजह उ हत्थकम०॥ २१॥ तत्तो य रायपिहुं० ॥ २२ ॥ छम्मासभंतरओ०॥ २३ ॥ मासम्भंतरओ वा० ॥२४॥ गेण्हते य अदिण्णं० ॥२५॥ एवं ससिणिद्धाए॥२६|| संडसपाणसथीए०॥२७॥ आउद्दिमूलकदेगा२८॥॥१३८॥ दस दगलेवे ॥ २९ ॥ दब्बीय भायणेण च ।। ३० ॥ इमे खलु थेरेहिं भगवंतेहि एक्कवीसं सबला पण्णचा, तंजथा SHESERIESIGNERA + गाथा: ||१२|| दीप अनुक्रम [११-३६] L (144) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) (४०) अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ ], आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ཡྻ सूत्रांक [सू.] + गाथा: अनुक्रम [११-३६] प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१३९॥ सूत्र - इत्थकम करेमा सबले १ मेहुणं पडिसेवते सबले २ रातिभायणं भुंजमाणे सबले ३ आहाकमं भुंजमाणे सबले ४ रायपिंडं का पामिचं अच्छेज्जं सट्टे अभिह आह दिज्जमाणं अंजमाणे सबले ५ अभिक्खणं अभिक्खणं पच्चक्खिय भुजमाणे सबले ६ अतो छ मासाणं गणातो गणं संक्रममाणे सबले अंतो मासस्त तयो दगलेवे करेमाणे सबले ८ अंता मासस्स तयो माइडाणाई करेमाणे सबले ९ आउट्टियाए पाणातिवात करेमाणे सबले १० आउट्टियाए मुसावादं वदेमाणे सबले ११ आउट्टियाए अदिण्णादाणं मेण्हमाणे सबले १२ आउट्टियाए अणंतरहियाए पुढवीए ठाणं वा सेज्जं वा निसीहितं वा चेदेमाणे सबले १३ एवं ससिणिद्वार पुढवीए १४ ससरकखाए पुढवीए १५ एवं आउट्टियाए चित्तमन्ताए सिलाए चितमंताए लेलूए १६ कोलावासंसि वा दारुरुवे जीवपतिडिए सअंडे सपाणे सवीए सहरिते सओसे सउनिंगपण गद गमट्टीमक्कडासंताणए तहप्पगारं ठाणं वा सेज्जं वा णिसीयणं वा तेमाणे सबले १७ आउट्टियाए मूलभोयणं वा कंदभोयणं वा पवालभोगणं वा तयाभोवणं वा पत्तभोषणं वा पुप्फभोगणं फलभोगणं वा वीयभोगणं भुंजमाणे सबले १८ अंतो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे सबले १९ अंतो संचच्छरस्स दस | माइडाणाई करेमाणे सबले २० आउट्टियाए सीतोदवग्धारितेण हत्थेण या मचेण वा दव्बीए भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाना भुंजमाणे सबले २१ एते खलु धेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पण्णत्तत्ति, एत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जो मे जाब दुक्कडंति । बाबीसाए परीसहेहिं ।। सूत्रं ॥ परीसहिज्जेते इति परीसहा, अहियासिज्जतित्ति वृत्तं भवति । तत्थ दो सिलोगा- खुधा पिवासा० ॥ ३४ ॥ अलाभरोग० ।। ३५ ।। इह खलु वावी परीसहा समणेणं भगवता महावीरेण कासवेण पवेदिता जे ••• अत्र परिषहानाम् वर्णनं क्रियते (145) शबलाः ॥१३९॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा का भिक्यू सोच्चा णच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिवयंतो पुट्ठो नो बिहन्नेज्जा,तंजहा-दिगिछापरीसहे १ पियासापरीसहे२ 31 परीषहाः ध्ययने ४ सीतपरीसहे ३ उसिणपरीसहे ४ एवं दसमसग०५अचेल०६अरति०७इत्थि०८चरिया०९निसीहिया०१० सेज्जा०११ अक्कोस०१२ ॥१४॥&ावह०१३ जायणा०१४ अलाभ०१५ रोग०१६ तणफास०१७ जल्ल०१८ सक्कारपुरक्कार०१९पण्णा०२० अण्णाण०२१ दंसणपरी-1 सहेचि २२। परीसहाण पविभत्ती, कासवेण पवेइता । तं भे उदाहरिस्मामि, आणुपुब्बिं सुणेह मे ॥१॥ दिगिछापरिगते देहे, तवस्सी भिक्खु थामवं । न च्छिदे नेव छिंदावे, न पए नो पयावए ॥२॥ कालीपब्बंगसंकासे, किसे धमणिसंतए। मातपणे असणपाणस्स, अदीणमणसो चरे ॥ ३॥ ततो पुट्ठो पिवासाए, दोगुब्छी लज्जसंजते । सीतोदगं न सेवेज्जा, विगडस्सेसणं चरे॥४॥ छिण्णावातेसु पंथेस, आतुरेसु पिवासिते । परिसुक्कमुहे दीणे, तं तितिक्खे परीसहं ॥ ५॥ संजतं विरतं लूह, सीतं फुसति एगदा । णातिवेलं मुणी गच्छे, सोच्चाणं जिणसासणं ॥६॥ न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जती । अहं तु अग्गि सेवामि, इति भिक्खू ण चिंतए ॥ ७॥ उसिणपरितावेण, परिदाहेण तज्जिते । प्रिंसु वा परितावेण, सातं नो परिदेवते ॥ ८ ॥ |उण्हाभितत्ते मेधावी, सिणाणं नाभिपत्थए । गातं न परिसिंचज्जा, न वेयावेज्ज अप्पयं ॥ ९॥ पुट्ठो य दंस-I मसएहिं, समरे व महामुणी । णागी संगामसीसे वा, सूरो अभिहणे परं ॥ १० ॥ न संतसे ण चारज्जा, मणंपिरा ४ण पदोसए । ण उवहणे पाणिणो पाणे, मुंजते मंससोणियं ॥११॥ परिजुन्नेहिं वत्थेहिं, भोक्खामित्ति अचेलए । अदुवा सचेलए होक्वं, इति भिक्खू न चिंतए ॥ १२॥ एगदा अचेलए होति, सचेले यावि एगदा । एतं धम्म दीप अनुक्रम [११-३६] RSS (146) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ध्ययने क्वे परीसह ।। ड + गाथा: ||१२|| प्रातक्रमणाला हितं नम्चा, गाणी णी परिदेवते ॥ १३ ॥ गामाणुगामं रीयंतं, अणगारं अकिंचणं । अरती अणुप्पविस्से, सं तिति-18 परीषहाः क्खे परीसहं ॥ १४ ॥ अरतिं पिट्टतो किच्चा, विरते आतरक्खए । धम्मारामे निरारंभे, उवसंते मुणी चरे ॥१५॥ संगो एस मणूसाणं, जाओ लोगसि इथिओ। जस्स एता परिण्णाता, सुकडं तस्स सामपणं ॥१६॥ एवमा-18 दाय मेधावी, पंकभूताओ इत्थीओ | बज्जएज्ज सदा कालं, चरेज्जत्तगवेसए ॥१७॥ एग एव चरे लाढो, अभिभूत है। परीसहं । गामे वा नगरे वावि, नियमे वा रायहाणिए ॥ १८ ॥ असमाणे चरे भिक्खू, न य कुज्जा परिग्गहं । असंसत्तो गिहत्थेहिं, अणिएतो परिवए ॥ १९ ॥ सुसाणे सुण्णगारे वा, रुक्रवमूले व एक्कओ। अकुक्कुओ निसीएज्जा, न य वित्तासए परं ॥२०॥ तत्थ से अच्छमाणस्स, उबसग्गाहिधारए । संकाभीतो न गच्छेज्जा, उद्देत्ता अण्णमासणं ॥ २१ ॥ उच्चावयाहिं सेज्जाहिं, तवस्सी भिक्खु थामवं । नातिवेलं विहंणेज्जा, पावदिट्ठी बिहण्णती ।। २२ ॥पइरिक्कुवस्सयं लधुं, कल्लाणं अदु पावयं । किमेगराति करिस्सामि, एवं तत्थहियासए ॥२३॥ अक्कोसेज्जा परी भिक्खु,न तस्स पडिसजले। सरिसो होति पालस्स, तम्हा भिक्खू न संजले ॥ २४ ॥ सोच्चाणं फरुसा भासा, दारुणा गामकंटका। तुसिणीओ तु चेदेज्जा (उबेहिज्जा उ०) नताओ मणसीकरे ॥२५॥ १४१॥ &ाहतो न संजले भिक्खू, मणंपिन पदोसए। तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खू धम्म विचिंतए ॥ २६ ॥ समण ॥१४१।। संजतं दंतं, हणेज्जा कोइ कत्थई । नत्थि जीवस्स णासोत्ति, एवं पेहेज्ज संजए ।। २७ ॥ दुक्करं खलु भो निच्चं, अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वं से जाइयं होह, णस्थि किंचि अजाइतं ॥ २८ ॥ गोयरग्गपविट्ठस्स, पाणी णो -CM दीप अनुक्रम [११-३६] (147) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने वा - सुप्पसारए । सेओ अगारवासोति, इति भिक्खू न चिंतए || २९ परेसु घासमेसेज्जा, भोयणे परिनिट्ठिते । लढे पिंडे अलद्धे वा णाणुतप्पति पंडिते ॥ ३० ॥ अज्जेवाहं न लब्भामि, अवि लाभो सुए सिया। जो एव पडिसंविक्खे, अलाभो तं न तज्जए ॥ ३१ ॥ नच्चा उप्पत्तियं दुक्खं, वेदणाए दुहहिए। अद्दीणो धावए पण्णं, | पुट्ठो तत्थहियास ||३२|| तेइच्छं नाभिणंदेज्जा, संचिन्तत्तगवेसए। एवं खु तस्स सामण्णं, जं कुज्जा ण कारए||३३|| अचेलगस्स लूहस्स, संजतस्स तबस्सिणो । तणेसु सयमाणस्स, होज्जा गातविराहणा ॥ ३४ ॥ आतवस्स णिवातेण, अतुला होति वेदणा । एवं नच्चा न सेवेंति, तंतुजं तणलज्जिता ||३५|| किलिष्णगत्ते मेधावी, पंकेण य रएणय । गिम्हासु परितावेणं, सातं नो परिदेवति ।। ३६ ।। वेदेज्ज निज्जरापेही, आरियं धम्मणुत्तरं । जाव सरीरभेदोत्ति, जल्लं कारण धारए ॥ ३७ ॥ अभिवादणमन्मुद्वाणं, सामी कुज्जा नियंतणं । जे ताई पलिसेवंति, न तेसिं पीए मुणी ॥ ३८ ॥ अणुक्कसाथी अपिच्छे, अण्णातेसी अलोलुए। रसेसु णाभिगेज्झेज्जा, णाणुतप्पज्ज पंडिते ।। ३९ ।। से णूणं मए पुरुवं, कम्मा णाणफला कडा । जेणाहं णाभिजाणामि, पुट्ठो केणइ कण्हुई ॥ ४० ॥ अह पुढा (पच्छा) उदिज्जंति, कंमा नाणफला कडा । एवमासा से अप्पाणं, नच्चा कम्मविवागतं ॥ ४१ ॥ निरत्थर्गमि विरतो, मेहुणाओ सुसंवुडो । जं सक्खं नाभिजाणामि, धम्मं कल्लाणपावगं ॥ ४२ ॥ तवोवहाणमादाय, पडिमं पडिवज्जओ । एवंपि मे विहरओ, छउमतं न नियहती ।। ४३ ।। नत्थि नूणं परे लोए, हड्डी बाबि तवस्सिमो अदुवा वंचितो मेति, इति भिक्खू न चिंतए || ४४|| अभू जिणा अत्थि जिणा, अदुवावि भविस्सति । (148) परीषदाः ॥१४२॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणामुसं ते पचमाईमु, इति सिक्खू न चिंतए ॥ ४५ ॥ एते परीसहा सब्बे, कासवेण पवेदिता । जे भिक्खन विहं- महावतज्जा, पुष्टो केणइ कण्हुइ ॥४६॥ चि । एत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जाब दुक्कडंति ॥ . कामावताः सूत्र तेवीसाए सुतंगबजायणेहिं ।। मूत्रं । तत्थ इमा गाथा-पुंडरीय १ किरिपठाणं २ आहारपरिषण ३ पच्च-1XI ॥१४॥ श्रा का क्खाणे ४य अणगारे ५ अद्दय ६ णाल ७ सोलसाईच१६ तेवीस।।२३-३६॥ एत्थ जो मे पडिसिद्धकरणादिणा जाव दुक्कडंति।। चउबीसाए देवेहि । पंचवीसाए भावणाहिं ।।मूत्र।। ताओ महब्बयाणं थिरीकरणनिमित्तं भवति, तत्थ खलु पढमस्स महब्बयस्स इमाओ पंच भावणाओ भवंति- ईरियासमिए से निग्गंथे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे २ दळूणं तसे पाणे उद्धटु पाय रीएज्जा साहटु पार्य रीएज्जा संवितिरिच्छं पायं कटु रीएज्जा, सवि परक्कमे संजतामेव परिक्कमज्जा, णो उजुतं गच्छेज्जा, ईरियासमिए से निग्गथोत्ति पढमा भावणा १-१ | अहावरा दोच्चा भावणा आलोइयपाणभोयणभोयी से निग्गंथे, नो अणालोइय-15 पाणभायणभोई सिया, आयाणमेयं अणालोइयपाणभायणभोयी, से निम्नथे आवज्जज्जा पाणाणि वा बीयाणि वा हरिताणि || वा भोत्तए, आलोइयपाणभोयणमायी से निम्गंथेति दोच्चा भावणा १-२। अहावरा तच्चा भाषणा- आदाणभडमचानक्स-1 वणासमिए सिया, आदाणमेयं आदाणभंडमत्तानक्खेवणाअसमिए, से निग्गथे आवज्जेज्जा पाणाणि वा बीयाणि वा हरियाणि बाबा चवरोवित्तए, आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिते से निग्गंथेचि तच्चा भावणा १-३ । अहावरा चउत्था भावणा मणसमिएR॥१४॥ से निग्गंथे, णो य मणअसमिते सिया, जे य मणो पावए सावज्जे पाये भूतोवषादिए, तहप्पगारं मणं णो पुरतो कटु विहरेज्जा, IPI जे गं मणो अपावए असावज्जे जाव अभूतोवपातिए तहप्पगारं मणं पुरतो कटु विहरेज्जा मणसमिए से निग्गंथेचि चउत्था | CAS दीप अनुक्रम [११-३६] ... अत्र महाव्रतानां भावना: वर्णयते (149) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| % A प्रतिक्रमणा का भावणा १-४ । अहावरा पंचमा भावणा- वइसमिए से निग्गथे, जह मणे तह बईवि जाव वइसमिते से निग्गंथति पंचमा भावणा3 महाव्रतध्ययने १-५ । इच्चताहि पंचहि भावणाहिं पढमं महग्यतं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्च संमं कारणं फासितं पालितं सोभितं &ा भावताः तीरितं किट्टितं आराहितं आणाए अणुपालितं भवति १ ।। अहायरे दोच्चे महव्वते मुसावायाओ वेरमणं, तस्स खलु इमाओ पंच भावणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा भावणा- हास परियाणति से निग्गथे, जो य हाससंपउने सिया, आदाणमेयं हाससंपउत्ते से निग्गंथे आवज्जेज्जा मुसं बदित्तए, हास परियाणति से निग्गंथेचि पढमा भवणा २-१ । अहाचरा दोच्चा भावणा अणुवीइ भासए से निग्गंथात दोच्चा भावणा २-२ । अहावरा तच्चा भावणा- को, परियाणति से निग्गथे, नो य कोवणसीलए सिया का आदाणमेतं कोधणसीलए से निग्गथे आवज्जेज्जा मोसवयणाई, कोधं परियाणति से निग्गंथेति तच्चा भावणा २-३ । अहावरा चउत्था भावणा- लोभ परियाणति से निग्गंथेत्ति चउत्था भावणा २-४ । भयं परियाणति से निग्गंथे, नो य भेउरजाइए सिया, आदाणमयं भेउरजाइए से निग्गंथे आवज्जेज्जा मोसवयणाई, भयं परियाणते से निग्गंथोनि पंचमा भावणा २-५ । इच्चेताहिं पंचहिं भावणाहि दोच्चं महब्बतं अहासुतं तहेव जाव अणुपालियं भवति २॥ अहावरे तच्चे महवए अदिण्णादाणाओ बेरमण, ॥१४४ा तस्स खलु इमाओ पंच मावणाओ भवंति, तत्थ खलु इमा पढमा भाषणा- से आगंतारेसु वा ६ अणुवीई ओग्गई जाएज्जा, * ॥१४॥ तत्थ इस्सरे जाव तेण परं विहरिस्सामा, से आगंतारेसु वा (ह) अणुवीयिओग्गह जाएज्जा से निग्गयत्ति पढमा भावणा ३-१ । अहावरे दोच्चे भावणा उग्गहणसीलए से निग्गंथे, णो य अणोरगहणसीलए सिया, जत्थेब ओग्गहणसीलए ओग्गहं तु गेण्हेज्जा तत्थेव ओगाहणसीलए उग्गहं अणण्णवेज्जा, उग्गहणसीलए मे निग्गथति दोच्चा भावणा ३-२ । अहावरा तच्चा भावणा णो 5 दीप अनुक्रम [११-३६] %25 (150) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक महाबत. भावनाः + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा निग्गथे एतावताय उबग्गहे एताव ताय अत्तमणसंकप्पो जाब तस्स य उग्गहे जाय तस्स परिक्खेबे इचावता से कप्पति, णो से: ध्ययने कप्पति एतो चहिया, णो निग्गंथे० इनाव ताव अत्तमणसंकप्पेत्ति तच्चा भावणा ३-३ । अहावरा चउत्था भावणा-अणुण्णवियपालणभोयणभाई से निग्गंथे, जो अणणुष्णवियपाणभायणभोई सिया, आदाणमेतं अणणुष्णवियपाणभोयणभोयी, से निग्गंथ आवज्जज्जा अचियत्नं भोत्तए, अणुण्णवियपाणभोयणभायी से निग्गंथेगि चउत्था भावणा ३-४ । अहावरा पंचमा भावणा-से आगन्तारसु पाया (ह) अणुष्णवियओग्गहजाती से निम्नथे साधमिएसु, तेसिं पुवामेव उग्गहणं अणणुण्णाविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय णो चिट्ठज्जा वा णिसीएज्ज वा तुयइज्ज वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं या पादपुंछणं वा आतावेज्ज वा पदावेज्ज वा,तेसिं पुवामेव | उग्गह अणुयायिय पडिलहिय पमज्जिय ततो संजतामेव चिट्ठज्ज वा जाव पयावेज्ज बा, से आगंतारेसु वा(६)अणुवीयिमितोग्गहजाती निग्गथे सामिए, पंचमा भावणा ३.५ । हच्चेताहिं पंचहि भावणादि तच्च महव्यतं जाव अणुपालियं भवति ३ ॥ अथावरे चउत्थे भंते! महब्बते मेहुणाओ बेरमण,तस्स णं इमाओं पंच भावणामो भवति,तत्थ खलु इमा पढमा भावणा-णो पाणभोयणं अतिमायाए आहारता भवनि से निग्गथे,आदाणमेत पणीयपाणभोयणं, अतिमत्ताए आहारेमाणस्स णिग्गंथस्स संति भेदे सति विभंगे संति फेवलिपण्णताओ धमाओ भंसणता, णो पणीयं पाणभोगणं अतिमायाए आहारेचा भवति से निग्गंथे, पढमा भावणा ४-१॥ अहावरा दोचा भावणा-अविभूसाणुवाई समणे निग्गंधे,णो विभूस.णुवायी सिया, आदाणमेयं विभूसाणुवादिस्स निग्गंधस्स संति भेदे जाव भसणना, अविभूसाणुवाई से निग्गंथे, दोच्चा भावणा ४-२ । अहावरा तच्चा भावणा-णो इत्थीण इंदियाई मणोहराई। मणोरमाई निशाना भवति से निग्गये, दाणमेतं, इत्थीण इंदियाई मणोहगई मणोरमाई निज्झायमाणस्स निग्गवस संति IDHI दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१४५॥ *NA (151) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक IRLS महाव्रतभावनाः + गाथा: ||१२|| G प्रतिक्रमणाभेदे जाव भसणता, णो इत्थीण इंदियाई मोहराई मणोरमाईनिज्माइत्ता भवति से निग्गंधात तरुचा भावणा ४-३। अहावरा ध्ययने चउत्था भावणा-णो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवेत्ता भवति से निग्गंथेत्ति चउत्था भा०, इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सब॥१४॥ णासणाई सेवमाणस निग्गंधस्स संति भदे जाव भसणना, णो इत्यापसुपंडगसंसचाई सयणासणाई सेषित्ता भवति से निग्गवत्ति चउत्था भावणा ४-१ | अहावरा पंचमा भावणा-णो इत्थीणं कहं कहेता भवति से निग्गंधे, आदाणमेतं, इत्थीणं कई कहेमाणस्स निग्गंथस्स संति भेदे जाव भंसकता, णः इत्थीणं कई कहेता भवति से जिग्गंथत्ति, पंचमा भावणा ४.५। इच्नेयाहिं पंचाहिं भावणादि चउत्थं महष्पतं अहासु जाव अणुपालितं भवति || अहावरे पंचमे महब्बते य परिग्गहाओ बेरमण, तस्स इमाओ पंच भावणाओ भवंति, तस्थ खलु हमा पढमा भावणा-सोईदिएण मणुणामणुण्णाई सद्दाई सुणेसा भवति से निगथे, तेसु मणुण्णामणुण्णेसु सहेसु णो सज्जेज्ज वा गिज्झेज्ज वा मुच्छेज्ज वा अज्झोववज्जेज्ज वा विणिपातमावज्जेज्ज वाहीलेज्ज वा निंदेज्जबा खिसेज्ज वागरहेज्ज या तज्जेज्ज या तालेज वा परिभवेज्ज या पब्बहेज्ज वा, सोईदिएण मणुण्णामणुण्णाई सदाई सुणेचा भवति से णिग्गंथेति पढमा भावणा ५-१। अहावरा दोच्चा भावणा-चक्खिादएण मणुण्णामणुग्णाई रुवाई पासिचा भवति जथा. सद्दाइ एमेव५२। एवं धाणिदिएण. अग्घाइत्ता ५.३। जिझिदिएणं आसाएत्ता ५.४ फासिदिएणं पडिसंवेदेचा जाव पंचमा भावणा ५५ इच्चेताई पंचहिं भावणाहिं पंचम महब्वतं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्च संमं कारण फासिय पालियं सोमियं तीरिग किट्टियं आराहितं आणाए अणुपालियं भवति ॥ इरियाममिर सया जने, उचेह भुजेज्ज प पाणभोयणं । आदाणनिक्षेबदुरण्संजते, समाधिते संजमती दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१४६॥ (152) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा ।मणोषयी ॥ १६ ॥५१॥ अहस्ससच्चं अणुचीयभासए, जे कोहलोभभयमोहवज्जए । से दीहरायं समुप्पेहि पासिया, महाव्रतध्ययने मुणीहमोसं परिवज्जए सया॥१३। ५२॥ सयमेव उ पग्गहजायणे घटे, मतिम अणिसं असति भिक्ख ओ-15 भावनाः ग्गहं । अणुण्णविय भुजिय पाणभोयणं, जाइत्ता साहम्मियाण उग्गह ॥ १६॥ ५३ ॥ आहारगुत्ते अविभूसि॥१४७॥ तप्पा, इन्धि न णिजमाए ण संघवेज्जा । बुद्धे मुणी खुदकहं न कुज्जा, धम्माणुपेही संघए बंभचेरं ॥ १६॥५४॥ जे सत्रस्वरसगंधमागते, फासे य पप्प मणुण्णपावण । गेधि पदोसं न करेंति पंडिते, सेहोति दन्ते विरते अकिंचणे गाथाहि पणुवास भावणा अणुभासन्ति, तंजथा-पणुवीसभावणाआ पंचव्ह महब्चताणमेताओ। भणियाओ जिणगणहरपुज्जेहिं णवर मुत्तमि ॥ १॥ इरियासमिती पढम आलोइयअण्णपाणभोईया । आदाणभनिक्खवणाय समिती भवेततिया ॥ २ ॥ मणसमिती वयसमिती पाणतिवायमि होति पंचेया। हासपरिहार अणुचीतिभासणा कोषलोभपरिण्णा ॥३॥ एस मुसाबायस्सा अदिण्णदाणस्स हॉतिमा पंच। पहुसंदिट्ठ पटुं वा पढमोग्गहजाए अणुवीई ॥४॥ ओग्गहणसील वितिया तत्तो गेण्हेज्ज उग्गहं जहियं । तणडगलमल्लगादी अणुण्णवेज्जा तहिं तहियं ॥ ५॥ तच्चमि उग्गहन अणुण्णवे सारिउग्गहे आव । तावतिए मेर कातुं न कप्पती वाहिए तस्स ॥ ६ ॥ भावण चउत्थ साहम्मियाण सामण्णमणपाणं तु । संघाडगमादीणं भुजेज्ज। ॥१४७॥ अणुण्णविय ते उ॥ ७॥ पंचामयं गंतूण साईमिय उग्गहे अणुण्णविय । ठाणादी चेतेज्जा पंचेताऽविण्णदाणस्स ॥ ८॥ भवयभावणाओ णो अतिमातापणीतमाहारो। दोच्च अविभूमणा उ विभूमपत्ती ण तु हवेज्जा दीप अनुक्रम [११-३६] (153) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: सूत्र ||१२|| प्रतिक्रमणा ॥९॥तच्या भावण इत्थीण इंदिया मणहरा ण णिज्झाए। सयणासणबिवित्ताई इस्थिपसुविधज्जिया सव्वे ॥१०॥3॥ दशाधुध्ययने |एस चउत्था ण कहे इत्थीण कहंत पंचमा एसा । सहा रूवा गंधा रस फासा पंचवी एते ॥ ११ ॥ रागहीसचिव-13 दृशाः ॥१४८॥ ज्जण अपरिग्गहभावणाओं पंचेता। मब्बाओ पणुवीसं पतास न वट्टितं जंतु॥१२॥ एन्थ पडिसिद्धकरणा- साधुगुणा दिणा जाव दुक्कडंति ॥ आचारछब्बीसाए इसकप्पयवहाराणं उसणकालेहिं ।। सूत्रं । ते य एवं छय्वीस भवंति-दस उदेसणकाला दसाण युकल्पाः कप्पस्स हानि उच्चव । दस व य ववहारस्स होनि मन्येवि छब्बीमं॥शा ४३ ।। तन्थ पडिसिद्ध करणादिणा जाब दुक्कडंति। सत्तावीसाए अणगारगुणहिं । सूत्रं । ते य इमे-वयाडकक० ॥ ४४ ।। कोधादिरोहणा जाबिय, सनावीस अणगारगुणा कापणना समणाउसो! तेजधा-सवाना पाणानिवायाओ वेरमणं एवं जाय चराईभोयणाओ, सोहंदियसंवरे जाय फासिदिय ११, खमा विरागता भावसचं १४. खमा-दोमनिग्गहो विरागना-रागनिग्गही भावसच्च- सबस्थ सुपणिहियभावप्पणं,करणसच्च-जलू सय्यमणवाणं विस्पष्टं करेति, अहबा भावसाचं अम्भितरलिंगसुद्धी,बाहिरलिंगमुद्धी करण सच्चं१५,मणसमंणाहारो-णिरुभति मणन्ति | भणियं होति,एवं वइकायसमण्णाहारापि१८,कोहविबेगो एवं जाव लोभ०२२,णाणसंपण्णता एवं जाव चरित०२५,बेदणाहियासणया | मारणं तियाहियासणया२७, वेदणाओ सीओसिणभीमाओं ३ अहवा माणसियसारीरियाधीसियाओ ३, मारणतियाहियासणया ज| IIमारणनियं दक्यं नस्स अहियामणया। एन्थ पडिसिद्धकरणादिणा जाप दक्कडंति ॥ दीप अनुक्रम [११-३६] MARCH (154) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 मोहनीय प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा सूत्र अट्ठावीसतिविहे आयारकप्पे ॥ सूत्रं ।। २८ ।। वत्र आयारस्स पंचवीस अज्झयणाओ, घातियं अणुग्धातिय आरोव- पापश्रुतानि ध्ययनेमान सि तिविहं निसीह, ते अट्ठावीसं । एत्थ पडिसिद्धकरणादि जाब दुक्कडन्ति ।। पगुणनीसाए पावसुतपसंगेहिं।।सूत्रात पुण पावसुतं एवं एगुणतीसतिविहं भवति, तंजथा-अठ्ठ निमित्तंगाणि दिग्ब उप्पामास्थानानि ॥१४॥ IN२ अंतलिक्खं च ३ भोमं ४ अगं ५(च) सरं ६,लक्खणं ७ वंजणं ८। तत्थ एक्कक्कं तिविध, तंजथा-सुत्त वित्ती पत्तिय, तस्वीर का अंगवज्जाणं सत्तहं सहस्स मुत्तं सतसहस्सा वित्ती कोडी वत्तियं, अंगस्स सतसहस्सं सुत्तं कोडी वित्ती अपरिमितं वत्तियं, एते चउबीस, तथा गणितं १ जोतिसं २ वागरणं ३ सहसत्थं ४ धणुव्वेदो ५, एसा गुणतीसा, जाणि वा सूयगडे भणिताणि । एत्थ पसंगा- मज्जादातिक्कमेण पवत्तणाणि । एत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जाब दुक्कडंति ।। सूत्र तीसाए मोहणीयट्ठाणेहिं ।। सूत्रं ।। ताणि पुण इमाणि तीसं, अह खलु अज्जो ! मोहणिज्जढाणाई जाई इमाई-इत्थी वा या परिसो वा अभिक्खणं २ आयरमाणे वा समायरमाणे वा मोहणिअचाए कंमं पकरेति, तंजथा-जे केइ तसे पाणे, वारि मज्झे विगाहिया । उदएणोकस्स मारेति, महामोहं पकुव्वती॥शाशपाणिणा संपिहित्ताणं सोयमावरिय पाणिणा अंतोणदंतं मारेती, महामोह पकुब्बती ॥२॥२जाततेयं समारब्भ, बहुं ओरंभिया जण । अंतो धूमेण मारेती,18 महामोहं०॥३॥३। सीसमि जो पहणती, उत्तमंगंमि चेतसा । विभज्ज मत्थगं, फाले, महामोहं० ॥४॥४॥ ॥१४९॥ सीसावेटेण जे केइ, आवेदति अभिक्खणं । तिव्वं अमुहमायारे, महा०॥५॥५। पुणो पुणो विहिणिए, जो दाण उवहणे जणं । फालेण अदु डंडेण, महा० ॥ ६॥६। गूढायारी निगृहेज्जा, मायं मायाए छायए। असम्व दीप अनुक्रम [११-३६] ... अत्र मोहनीयस्थानानि वर्णयते (155) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणावाओ णिण्हाती, महा०॥७॥७॥ जे ण सिया अभूएणं, अकंम अत्तकमुणा । तुम एतं अकासिण्णु, महामोहनीयध्ययन ॥८॥८॥ जाणमाणो परिनाते, सच्चामोसाणि भासती । अजहीणझंझ अरये, महा०॥९॥९। अणासायस्स स्थान णय, दारं तस्सेब घसिया । विपुलं विक्खोभतिताणं, किच्चाण पडियाहिरं ॥१०॥ उवकसंतंपि जपेत्ता, पहिलोमाहिं वग्गुहिं । भोगभोगे वियारेति, महामोहं०॥ ११ ॥ १० । अकुमारभूते जे केसी, कुमारभूतत्तऽहं वदे। इत्थीविसयगेहीए, महामोहं० ॥१२॥ ११ । अचंभचारी जे केई, भचारित्तहं वदे । गदभेव गवां मउमे, विस्सरं मानदती नदं ।। १३ ॥ अप्पणो, अहिते बाले, मायामोसं पहुंसयं । इत्थीविसयगेहीए, महामोहं० ॥ १४ ॥ १२॥ जं निस्सिओ उ बहती,जससाहिगमेण य। तस्स लुब्भइ वित्तसि,महामोह ॥ १४ ॥ १३ । इस्सरेणऽदु गामेण,18 & अणिस्सरे इस्सरे कते । तस्स संपग्गहीयस्स,सिरी अतुलमागता ॥१६॥ इस्सादोसेण आइहे, कलुसाऽऽतुलचेतसाही जे अंतरागं चतेती, महामोहं० ॥ १७ ॥ १४ । सप्पी जथा अंडपुडं, भत्तारं जो विहिसती । सेणावति पसस्थारं, महामोहं० ।। १८॥ १५॥ जे णायगं च रहस्स, णतार णियगरस वा । सेहि बहुर, हता, महामोहं० ॥१९॥१क्षा ॥१५॥ बहुजणस्स णेतारं, दीवं ताण च पाणिणं । एतारिसं नरं हता, महामोहं० ॥ २०॥ १७ । उवहितं पतिविरतं. ॥१५०॥ संजतं तु समाहितं । विउकंम धंमा भसेज्जा, महा० ॥ २१॥ १८ ॥ तहेव णतणाणीणं, जिणाण वरदसिण। जातेर्सि अवपिणमे बाले, महा०॥ २२ ॥ १९ । नेयाउयस्स मग्गस्स, खुढे अवहरती पहुं । तं तप्पियं नो भासेति,I महा० ॥ २३ ॥ २०॥ आयरियउवज्झापहि, सुते विणयं च गाहिते। ते चेव खिंसती बालो, महा० ॥२४॥२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] (156) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा आयरियउवमायाणं, समं न पडितप्पति । अपडिपूयए थद्धे, महा०॥ २५ ॥ १२ । बहुस्सुतेवि जे केई, सुतणमोहनीयध्ययने पविकत्वति । समायवायं वयति, महा० ।। २६ ॥ २३ ॥ अतवस्सिए य जे केईसवेण पषिकत्थति । सम्वलो- स्थानानि भपरे तेणे, महा०॥ २७ ॥ २४ । साहारणमि जे के, गिलाणमि उपट्टिते । पभू ण कुब्बती किंचि, मजज्ञपेस गाला कुब्बती ॥ २८ ।। सढे णियडिपणो णु, कल्लुसाउलचतसे । अप्पणो य अणाधीप महा०॥ २९ ॥ २५ | जो कहाधि-1* करणाई, संपण्जे पुणो पुणो। सम्वतित्थाय भेयाए, महा०||३०||२६| जेय आहंमिए जोए, संपर्पजे पुणो पुणो।। सहाहतुं सहीहेतुं, महामो०३१ ॥ २७॥ जी य माणुस्सए भोए, अदुवा परलोइए। तिप्पयंतो आसयति, महा01 ॥ ३३ ॥ २८ ॥ इही जुत्ती जसो वण्णा, देवाणं बलबीरियं । तेसिं अवंनिम बाले, महा०॥ ३३ ॥ २९ ॥ अपहस्समाणो पस्सामि, देवा जक्वा य गुज्झगा। अण्णाणी जणपूयट्ठी, महा०॥ ३३ ॥३०॥ एते मोहगुणे बुत्ता,कम्मंता IAथिसबद्धणाजे तु भिक्खू विवज्जेत्ता, चरेउजत्तगवेसए ॥३४॥ पुव्यिं ताव विजाणेज्जा, किच्च्चाकिच्चाई पंडितो। तो अकिच्चं विवज्जेज्जा, किच्चाई सेवए बिदू ॥ ३५॥ पत्ते अणुत्तरे घमे, तबेण विविहेण तु । ततो बमे सए दोसे, विसं आसीविसो जहा ।। ३६ ॥ सवत्तदोसे मुद्धप्पा, कालं किच्चा समाहिणा । तिसरीराविणिमुक्को, असरीरं गाठती गति ।। ३७॥ एत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जाव दुक्कडंति ।। १५१॥ - एक्कतीसाए सिद्धादिगुणेहिं ।।सूत्र।। सिद्धाणं आदीए गुणा सिद्धादिगुणा,सिद्धेहि सहभाविन इत्यर्थः ते य अपज्जवसिया,ते या राइम,तंजथा-से ण परिमंडले १ न बढ्द्रे २न तंसे ३ ण चतुरंसे ४ण आयते ५ण किण्हे ६ ण णीले ७न लोहिए८न हालिदे १४ दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१५॥ सूत्र SEARAK (157) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा न सुक्किल्ले १० न मुभिगंधे ११ न दुन्मिगंधे १२ न तिते १३ न कडुए १४ न कसाए १५ न अंबिले १६ न मधुरे १७ सिद्धादिध्ययने दिन कक्खडे १८ न मउए १९ न गरुए २० न लहुए २१ न सीतो २२ न उण्हो २३ न निद्धे २४ न लुक्खे २५ न संगे २६नाल गुणाः योग ॥१५२॥ रुद्वे २७ न काओ २८ न इत्थी २९ न पुरिसे ३० न नपुंसके ३१।। अहवा खीणाभिनिचोहियनाणावरणिज्ज०पंच, खीणाचक्खद-12 सब्रहाच ४ सणाचरणिज्जे एवं णव,खीणसातवेदणिज्जे खीणअसातवेदणिज्जे एवं दुबिहे,मोहणिज्जे खीणदंसणमोहणिज्ज खीणचरितमोहणिज्जे, खीणनिरयाउए ४, खीणसुभणामे खीणअसुभणामे. खीणउच्चगोए रखीणनीयागोए २ खीणदाणं तराइए०५, एते एक्कतीसे सिद्धा-। कादिगुणा । एत्थ पडिसिद्धकरणादिया जाव दुक्कडंति ।। सूत्र बत्तीसाए जोगसंगहेहि।। ते य इमे बत्तीस जोगसंगहा-धमा सोलसविध एवं सुक्कपि,एते पत्तीस जोगाणं संगददेतू , आया ताआलोयणादि श्मे पत्तीस संगहजोगा,तत्थ आलोयणेणं अतिसम्यग्मनोवाक्काययोगाः संगृह्यते, अहवाणाणादियाबाराः संगृवंते, तत्य उदाहरण-उज्जेणी नगरी,जितसत्तू राया,तस्स अट्टणो मल्लो सब्बरज्जेसु अजयो,इतो य समुहतडे सोप्पारगं नगरं, तत्थ सीहगिरीमा राया, सो य मल्लाणं जो जिणति तस्स बहुं दव्वं देति, सो अट्टणो तत्थ गंतूण वरिसे वरिसे पडाग हरति, राया चितेति- एस | अण्णाओ रज्जाओ आगंतूणं पडागं हरति, एस मम ओभावणत्ति पडिमाई मग्गति, तेण मच्छिको एको दिवो वसं पिबंतो, बलं च 13से विण्णासितं, णातूण पोसितो, पुगरवि अट्टणो आगतो, सो य किर मल्लजुद्धा होहिंतित्ति अणागत व सकाओ नगराओ अप्पणो I पत्थयणस्स अवलं भरेतूणं अव्वाबाई एति, संपत्तो सोपारक, जुद्धं पराजितो मच्छियमल्लेणं, गतो सयं आवास, चितेति-एयरस&ारा सवडी तरुणगस्स, मम हाणी, अण्ण मग्गति मल्ल, सुणति य सुरद्वाए अत्थित्ति इंतेण भरुकच्छाहरणीए मामे दूरुल्लकूविधाए SEAST दीप अनुक्रम [११-३६] ... अत्र योग-संग्रहानां वर्णनं क्रियते (158) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणाकरिसओ दिडो, एक्केण हत्येणं हलं वाहेति एक्कणं फलीहे उप्पाडेति, तंदणं ठितो, पेच्छामि से आहारात अबन्ला मुक्का. आलोचनाध्ययने मज्जा य से भर्च गहाय आगता, पत्थिकाकूरस्स उवज्झियघडओ पच्छति, जिमितो सण्णाभूमी गतो, तत्थवि परिक्खति, सव्वं अप्रतिश्रा॥१५३॥ संवचितं, वेकालिकं वसहितं तस्स घरे मग्गति, दिण्णा, ठिता, संकहाए पुच्छति-का जीविका ?, तण कहिते भणति-अहं अकृणो, वित्वं #तुम इस्सरं करेमिचि, तीसे महिलाए कप्पासमुल्लं दिष्णं, सोय अवल्ला सवलेद्दा उज्जेणिं गता, तेणेव वमणविरेयणाणि कताणि, कापोसितो, निजुद्धं च सिक्खावितो, पुणरवि महिमाकाले तेणेव विहिणा आगतो, पढमदिवसे फलहीमल्लो मच्छियमल्लो य जुद्धे एक्को अजितो एक्को अपराजितो, राया चितिवदिवसे होहितित्ति अतिगतो, इमेवि सए सए आलए गतो, अट्टणण फलहीमल्लो भणितो-कहेहि पुत्त ! ते दुक्खावितं, तेण कहितं, मक्खेत्ता से दिपणेण संमदणेणं पुणण्णवीकतं, मच्छियस्सवि रण्णा संमद्दका विसज्जिता, भणति- अहं तस्म पितुपि न बोहेमि. सो को बराओ ?, वितियदिवसे समजुद्धा, ततियदिवसे अप्पप्पहारो जणीसहो वइसाई ठितो मच्छिओ, अट्टणण भणितो-फलहित्ति, तेण फलहिग्गहेण कडितो सीसेण कुंडिकग्गाहेण, सक्कारितो, गतो उज्जेणिं, पंचलखणाण भोगाणं आभागी जातो, इतरो मतो। एवं जथा पडागा तथा आराहणपडागा, जथा अट्टणा तथा आय-HPl रिया, जथा मल्ला तथा साधू . पहारा अवराहा, जो सो गुरुणो आलोएति सो पीसल्लो णेचाणपडागं तेल्लोक्करंगमज्झे हरति, एवं आलोयणं प्रति योगसंग्रहणं भवति, एत सीसगुणा १ ॥ इदाणि केरिसस्स मूले आलोइतव्यं, जो अण्णस्स मुले ण लवति- ॥१५३॥ एरिस एतण पडिसेबिति. तत्थ उदाहरणं-दंतपुरनगर दंतवक्को राया, सच्चवती देवी, तीसे दोहलओ, कई दंतमए पासाए। Mअभिरमिज्जति, दन्तनिमित्तं घोसावियं रण्णा-जहोचितं मुल्ल देमि, जो न देह तस्स राया विणयं करेति, तत्थेव णगरे धणमिचोल 4% दीप अनुक्रम [११-३६] कर -RE (159) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 आलोचना विसं प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणापाणियो, तस्स दोणि मारियाओ,घणसिरी महंती,पउमसिरी उहरिया पियतरियत्ति, अण्णदा सवत्तीण मंडण,पणसिरी भणति- ध्ययने ति एवं गविता, किंतुझ ममातो अधिय' जहा सच्चवतीए तहा ते किं पासादो कीरेज्जा', सा भणति-अदि न कीरति ॥ तो ण अर्हति उब्बरए बार बंधेचा ठिता, वाणियओ आगतो, पुच्छति-कहिं पउमसिरी, दासीहि कहितं, तत्थ अतिगतो, पसा॥१५॥ देति, न पसीयति, जदि नस्थि न जीवामि, तस्स मिचो दढमित्तो, सो आगतो, तेण पुच्छितं, सव्वं परिकहेति, भणति-कीरतु, मा एताए मरतीए तम मरेज्जासि, तुमे मरतेण अहंपि, रायाए घोसावितं तो पच्छण्ण कातच, ताहे सो दढगिता पुलिंदगपायो । ग्गाणि पोचाणि मणियाणि अलत्तगकंकणे य गहाय अडविं अतिगतो, दंता लद्धा, पुजो कतो, तणपिंडिताण मज्झे पंधित्ता सगडे मरेत्ता आणीता, णगरं पवेसिज्जतेसु वसभेण कडित, खडत्ति पडितो दंतो, जगरगुत्तिएहि दिट्ठो, गहितो य, रायाए उवणीतो, बज्झो णीणिज्जति, तं धणमित्तो सोऊण आगतो, तो शयाए पादवडितो विष्णवेति, जथाएते मए आणाविता, सो पुच्छितो लवति-एतं न चेव जाणामि कोत्ति , एवं ते अवरोप्परं भणति, रायाए सवहसाविता पुच्छिता, अभयो दिग्णा, परिकहित, | पूर्यत्ता विसज्जिता । एवं निरवलावेण होतवं आयरिएणं । वितिओऽवि-एक्कणं एक्कस्स हत्थ पणामितं किंचि माण वा० अंतरा पडित, तत्थ माणितब्ब- मम दोसी, इतरणवि मंमत्ति २ ॥ आवतीसु दधम्मत्तर्ण कातच्वं । एवं जोगा संगहिता भवति. तत्थ उदाहरणं-उज्जेणी नगरी, तत्थ घणवम् वाणिC यजओ, सोपं जातुकामी उग्घोसणं करेति जथा णाते, तं अणुण्णवेति धम्मघोसो, तेसु अडवि दूर अतिगतसु पुलिदहि विलूआ- मलितो सत्यो इतो ततो य नहो, सो अणगारो अण्णेण लोगण सभं अडवि पविट्ठो,ते म्लाणि खायंति,पाणियं च पिवंति,सो णिमं दीप अनुक्रम [११-३६] RAKEKRISG ' (160) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ck+% प्रतिक्रमणा भययने प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| ॥१५५| % तिज्जइ, णेच्छति, अवसरे जाते एकत्थ सिलातले भत्तं पच्चाखाति, अदीणं आहियासेमाणस्स केवलणाणं उप्पण्णं, सिद्धो । एवं दढधम्मवाए जोमा संगहिता,एसा दव्यावती, खत्तावती खनाणं असतीए कालावती ओमोदरियादिसु,भावावतीए इमं उदाहरणंमधुरा नगरी, अवृणो राया, जवुणाकं उज्जाणं, अवरेण तत्थ जउणाए कोप्परो दिण्णो, तत्थ दंडो अणगारो आतावेति, सो रायाए णितेण दिहो. तेण रोसेण असिणा सीसं छियां, अण्णे भणंति-आहतो, पच्छा सहिवि मणूसेहि, कांधोदयं पति तस्स आवति. कालगतो सिडो, देवाण महिमकरणं, सक्कागमणं पालएणं. तस्सविय रणो आउडी जाता. यज्जेण भासितो सक्केण. जदि पय्वयसि तो मुच्चसि, पवइतो थेराणं अतिय, अभिग्गई गण्डति-जदि भिक्खागतो वा संभरामिण जमेमि, जदि य जि| मितो तो सेसगंपि बिगिचामि, एवं किर तेण भगवता एगमवि दिवस काहारितं, तस्सपि दबाववी, दंडस्स भायावती, एवं दहधम्मता कातया॥ ____ अणिस्सितावधाणेति, 'थिम् सेवायां 'न निश्रितमनिश्रित, द्रव्यप्रधानं उपधानकमेष, भावुवधाणं तयो, सो किरा अणिस्सितो कातब्बो इह य परत्थ य, जथा केण कतो?, उदाहरणं-अज्ज धूलभद्दस्स दो सीसा-अज्जमहागिरी अज्जमहत्थी य, ते महागिरी सुहस्थिस्स उवज्झाया, महागिरी अज्जमुहथिस्स गणं दातूण कोच्छिण्णो जिणकप्पो तहवि अप्पडिबद्धता होतुत्ति गच्छपडिचढ़ा जिणकप्पपरिकम कति, तेवि विहरता पाइलिपुत्तं गता, तत्थ सेट्ठी वसुभूती तेसिं अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म सावओ जातो, सो अण्णदा भणति सुहस्थि-भगवं! मज्म दिण्णो संसारनित्थरणाबाओ, मए य सयणस्स परिकहितं, ते न तथा लग्गति, तुम्भवि वाच अबाभियोगेणं गतूणं कहेधात्ति, ते गता, धम्म कति, तत्थ य महागिरी पविट्ठो, ते दहण सहसा उ SXX दीप अनुक्रम [११-३६] ५५ (161) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| द्विता, वसुभूती भणति-तुम्भवि अण्णे आयरिया, ताहे सुहत्थी तेसि गुणसंथर्व करेंति, जहा जिणकप्पो अतितो तथावि एते अतिश्रितोध्ययने वाविहं परिकम कति, एवं तसिं चिर कहिता अणुव्यताणि य दातूण गता सुहत्थी. तेण वसभविणा जेभित्ता ते भणिता-जदिपधानता ॥१५॥ एरिसओ साधू एज्जा तो से अग्गतो जथा उज्झित गाणि एवं करेज्जाह, एवं दिण्णे महफलं भविस्सति, बितीयदिवसे महागिरी भिक्खस्स पविट्ठो, तं अपुवकरणं दट्टणं चिंतेति- दव्यओ ४, णातं जथा णातो अहंति तहियागहिते भत्ते | नियत्तो,भणति-अज्जी ! अणेसणा कता, केणं ?, तुमं जं कल्लं अभुद्वितो।। दोषि जणा बइदिसिं गता, तत्थ जितपडिम वंदि-18 चा अज्जमहागिरी एलकच्छं गता गयग्गपदकं बंदका ।। नस्स कहं एलकच्छनामं, तं पुर्व दसग्णपुरं नगरं,तस्थ माविका एक्कस्स मिच्छद्दिडीतस्स दिण्णा, कालियं आवस्सयं करोति पञ्चक्खानि य, मो भणति कि रति उल्लेत्ता कोई जिमनि', एवं उद्धासेति, अण्णदा सो भणति-अहंपि पच्चक्वाभि, सा भणति-भंजिहिसि, सो भणति-कि अण्णदावि अहं रति उद्वेता जेमेमि, दिणं, देवता चितेति-साविकं उप्पासेनि, अज्ज णं उबालभामि, तस्स भगिणी तत्थेव वसति, तीसे रूवेणं रनिं पहेणगं गहाय आगता, पक्खइतो, साविगाए बारितो. भणति-तुभच्चएहि आलमालेहिं कि ममंति ?, देवताए पदारो दिणा, दोवि अच्छिगोलया भूमीए पडिता, साथिया मा मम अयसो होहित्ति काउस्सग्ग ठिता, अद्धरने देवता आगता भणति कि माविए !, सार। | भणति- मम एस अयसोचि, वाहे अण्णम्स एलगस्स अच्छौणि सुपदेसाणि तक्खणमारितस्स आणता लाइताणि, गोसे जणो| १५६॥ भणति- तुह अच्छीणि जथा एलगस्सत्ति, तेण सव्वं कहित, सड्डो जातो, जणो कोतुहल्लेण एति पुच्छति, सम्बत्थ रज्जे फुर्द, दीप अनुक्रम [११-३६] (162) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा भणति- कतो एसि !, जत्थ सो एलकच्छो, अण्णे भणति-सोच्चेव राया, ताहे दसण्णपुरस्स एलगच्छत्ति नामं जातं, तत्थ व मय-1 अतिश्रितोध्ययने गस्स पदओ, तस्स उप्पची जथा इड्डीए॥ पधानता तस्य महागिरीहि अब्जेहि भतं पच्चक्खातं, देवने गता, सुहस्थीवि उज्जेणीए पडिमें वंदगा गता, उज्जाण ठिता, मणि-15 ॥१५७|| तो य-वसहि मग्गादिति, तत्थ एगो संघाडगो भदाए सेटिभज्जाए घरं भिक्खता अतिगतो, पुच्छियतो- कृतो भगवतो , तेहिं । भणित-सुहत्धिस्स, वसहिं मग्गामो, जाणसालाओ दरिसिताओ, तत्थ ठिता, अण्णंया पदोसकाले आयरिया पलिगिगुमं अजायणं परियडेंति, तीसे पुत्तो अवंतिसुकमालो सत्ततले पासाए बत्तीसभज्जाहि सम उवललति, तेण सुत्तविउद्धेण सुतं न एतं नाडगति || भूमितो भूमिय सणेतो २ ओतिष्णो, बाहिं निग्गतो, कत्थ एरिसंति , जाति सरिता, तेसिं मूलं गतो.साहति-अहं अबतिसुकुमा-1 || लोति,नलिणिगुम्मे देवो आसि, तस्स उस्सुको मि, पब्वयामि, असमत्थो दीहं सामण्णपरियाग अणुपालेचा, इंगिणि साहेमि G.अई, तेवि माया से णापुच्छिताति णेच्छति. सयमेव लोयं करोति, मा सयंगहीतुति दिणं लिंग, मसाणे कथारकंडगं, तत्थ भन्न | | पच्चक्खाति, सुकुमालएहि य चाहि लोहितगंधेण सिवाए सपेल्लिकाए आगमणं, सिया एकं खाति एक पेल्लिगाणि,पढमे जंणुगाणि ४ वितिए ऊरू ततिए पोई, कालगतो, गंधोदगं पुष्कवास, आयरियाण आलोयणा, भज्जाण परंपरं पुच्छा, आयरिएहिं कहितं, सड्डी सुण्हाहि समं तं गता मसाणं, पव्वइताओ य, एगा गुम्विणी णिवत्ता, तीसे पुत्तो तत्थ देवकुलं कारेति, तं इयाणि महाकालं जातं, १५७ |लोकेण परिग्गहित, एते उत्तरचूलियाए भणित पाडलिपुत्ते । सम्म अणिस्सिततवो महागिरीण ४॥ इदाणि सिक्खत्ति, सा दुविधा-गहणसिक्खा आसेवणसिक्खा य, आसेवणसिक्खा जथा ओहसामायारीए पयविभा KARS2% दीप अनुक्रम [११-३६] 466 (163) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२|| दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 अध्ययनं [४] अतिक्रमणा ध्ययने ।। १५८।। ], गसामावारी व वणितं, गहणसिक्खाह सुर्य जथा भगवता थूल महसामिणा गहित अणिब्विणणं होतूण, गहणसिक्खणं प्रति संग जोगा संगृहिता तहा इहें भण्णति, तत्थ खितिचण० ॥ १७-११।१३८१ ।। तेण कालेनं अतीतअदाए खितिपतितिं नगरं जितसन्तू राया, तस्स नगरस्स वत्थूणि ऊसण्णाणि, अणं णगरद्वाणं वत्थुपातहिं मम्गावेति तेहिं एवं चणगखेसं अतीव पुप्फेहि य फलेहि य उपवेतं दिहं तत्थ चणगपुरं निवेसितं कालेण तत्थवि वत्थूणि खीणाणि, पुणोवि मग्गिज्जति, तत्थ एगो वसभो अण्णेहिं पारद्धो एकमि रण्णे अच्छति न वीरति अण्णेहिं बस मेहिं पराइणितुं तत्थ उसभपुरं पुणरवि कालेण उसण्णं पुणोवि सो दिड़ो अतीव पमाणाकितिविसि तत्थ कुसग्गपुरं जातं, संभि यू काले पण राया, तं च नगरं अभिक्ख अग्गिणा दज्झति, ताहे लोगस्स भयऊणणनिमित्तं घोसावेति जस्स घरे अग्गी उद्वेति सो नगराओ निष्छुम्भति, तत्थ महाणसि याण पमादेणं रण्णो चैव घराओ अग्गी उडतो, ते सच्चपतिष्णा रायाणो जदि उरप्पर्क ( सपक्ख)न सासामि तो कह अण्णंति निग्गतो नगरातो, तस्स गाउयमेते ठाति, ताहे दंडभडभोइयगमादी तस्थ बच्चति, भगति कहिं बच्चह १, आह-रायगि कतो एह १, रायगिहातो, एवं नगरं रायगिर्द जातं । जदः य राइणो सिंह अग्गी उडितो तदा कुमाराणं जं जस्स पिये आसो हत्थी वा तेन तं नीणितं, सेणितेणं भिंभा णिता, रायाए पुच्छिता केणं किं नीणितं?, अण्णो भगति-मए इत्थी, एवमादि, सेणिओ पुच्छितो भणति भिंभा, ताहे राया भणति सेणिय एस तब सारो भिभित्ति ?, भगति आमं, सो व रण्णो सम्पपिओ, ताहे से बीयं नामकं कतं भिभिसारीति, सो रण्णो पिता लक्खणजुतो य, मा अण्णेहिं कुमारहिं मारिज्जिहितित्ति न किंचिवि देइ, सेसका कुमारा भडचडकरेण णिन्ति, सेणिको ते दद्दूण आद्धति करेति सो ततां निष्फिडितो विष्णातडं गतो, जथा नमोकारे अधिपत्त भोगवाणं (164) 2 शिक्षायां अभयवृत्तं ।। १५८।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१५९॥ निग्गम वेण्णातडे य कासवए । लाभ घर नयण नेष्वग धृता सुस्सृसिंगा दिण्णा ॥ १ ॥ पेसण आपुच्छणता पंडुरकुइति गमण अभिसेओ । दोहल नाम निरुक्ती कहिं पिता मेति रायगिहे ||२|| आगम अमच्च मग्गण खड्डग छगणे य कास तं तु । कहणं मातुअतिणणा विभूषणा चारणं मातुं ॥ ३॥ तं च सेणियं उज्जणीत पज्जोतो रोह को जाति, सो उदिष्णो, सेणिको नीति, अभयो भणतिमा संकट, नासेमि, तेण संधावारनिवसजाणगेण घूमिता दीणारा लोहसंघाडेसु क्खिता डंडावा सडणे, सो आगतो, रोधितं, जुज्झिता कति दिवसे, पच्छा अभयो लेई देखि जथा-तन डंडा सध्ये सेणिएवं भिण्णा, णास मा पहिति, अहवि अपच्चयो तो अमुकस्स २ डंडस अमुगपदेस खण, तेण खतं, दिट्ठो, नडी, पच्छा तो सेणिएणं बलं विलओलितं तेत्रि रायाणो सब्बे कर्मेति ण एतस्स अम्हे कारिचि, अभएण एसा माया कता तेण पत्तीयं । अण्णदा सो अस्थाणी भणति सो मम नत्थि जो तं आणेज्जी, अण्णदा एगा गणिया भणति अहं आणेमि मम सहायिकाओ दिज्जंतु दिण्णाओ से सत्त वितिज्जकाओ जाओ से रुच्यंति मज्झिमवयाओं, मणुस्सा थेरा, तेहिं समं पवहणेहिं सुबहुएहिं भत्तपाणपत्थयणेण पुत्रि व संजतीणं मूले बिडसट्टित्तणं गहाय गताओ, अण्णेसु य गामणगरेसु जत्थ संजता वा सट्टा वा तहिं तर्हि असतीओ सुद्धतरं बहुस्सुताओं जाताओ, रायसिंहं गताओ, चाहिँ उज्जाणे ठिताओ, चेतियाणि वंदंतीओ घरचेतियपरिवाडीए अभयस्स घरं अतिगताओ निर्माहियात अभयो दहूण उम्मुक्कभूसणाओ सुरूवाओ उडतो, सागतं निसीधियाति चेतियाणि दरिसि तापि, वंदिताणि य, अभयं वंदित्ता निविट्ठाओ, जंमभूमीओ निकउमणणाणपरिणेव्वाणभूमीओ य वंदावेति पुच्छति कतो?, ताहे कति उज्जेणीए उम्मुक्को (अमुक) वाणियपुत्तो, तस्स भज्जाउ, सो कालगदो, अम्हे पव्वतुकामाओ, न तीरति पञ्चइसाहि 1 (165) शिक्षायां अभयवृतं ।। १५९ ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१६०॥ वंदितुं पठितव्वएणंति, भणिताओ पाहुणिकाओ होह, ताओ भांति अभत्तट्टिकाओ अम्हे, सुचिरं अच्छिना गताओ, चियदिबसे अमओ एक्कओ आसेण पर गतो, एह मम घरे पारेहात्त, भणति कर्त इमं पारणगं, तुन्भेवि पारेह, चिंतेति-मा मम घरं न जाहिंतित्ति, भणति एवं हांतु, पजिमितो, संजोतिमं मज्जं पज्जितो, सुत्ती, ताहे आसरहेण पलाइतो, अंतरा य अण्णेवि रधा पुर्व ठविता एवं परंपरएण उज्जेणि पवितो, उवणीतो पज्जोयस्स, भणितो य-कहिं ते पंडिच्ची, सो भणति धम्मच्छलेण वंचितो, निबद्धो, पुव्वाणीता य से तत्थ भज्जा, सा उवणीता, ताए का उप्पत्ती ?-- austafare मो तस्स चिरं पति होताचे सेणिकेण सेवा भगिणी दिण्णा, निब्बंधे कते, सा य विज्जाहरस्स इट्ठा, एसा धरणिगोयरी अहं बहाएति विज्जाहरीहिं मारिता, तीसे धूता सा तेण मा एसा मारिज्जेज्जा सेणियस्स उचणीता, खिज्जितां य, सा जोब्वणस्था अभयस्स दिण्णा, सा विज्जाहरी अभयस्स इट्ठा, सेसिकाहिं महिलाहि मातंगीओ ओलग्गिता, ताहि बिज्जाहिं जथा नमोक्कारे चखिदियउदाहरणे जाव पच्चते उज्झिता, तावसेहिं दिट्ठा, पुच्छिता-कतोसित्ति ? कहितं तत्थ सेणिकस्स पुब्बगा तावसा, तेहिं नतुका अम्हन्ति सारविता, सिवाए उज्जेणि गतुं दिष्णा । एवं तीए समं अभयो वसति, तस्स पज्जोयस्स चत्तारि रतणाणि लोहजंघो लेहहारिओ १ अग्गिभीरु रथो २ पलगिरी हत्थी के सिवा देवित्ति४, अण्णदा सो लोहजंघो भरुकच्छं विसज्जितो, ते य चिंतति-एसो एगेण दिवसे एति पंचवीसजोयणाणि, पुणो पुणो अग्हेहिं सदाविज्जामो, एतं मारेमो, जो अण्णो होहिति सो गणिएहिं दिवसेदि एहिति, एचिरंपि वात्र कालं सुहिता होमोति तस्स संपलं पदिष्णा रायाणो, सो नेच्छति, ताघे वीधीए से दवावितं, तत्थवि पुष्वसंजोगिता विसमो (166) शिक्षायां अभयवृत्तं ॥ १६० ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणादिगा दिग्णा, सेसक संबल हरित, सो कतिचि जोयणाणि गंता नदीतीरे खामित्ति जाव सकृणो वारेति, उद्देत्ता पधारो, पुणो ध्ययने र गर्नु परखातो, तस्थवि वारितो, ततियपि-णिवारितो, तेणं चिंतित- भवितव्य कारणेणति, पज्जोतस्स मूलं गतो, निवेदितं राय: शकजं, तं च से परिकहितं, अभयो वियक्खणोत्ति सहावितो, तं च परिकहितं, अभयो भणति-एत्थ अमुकं२ च दव, एस सप्पो ॥१६१॥ समुच्छिमो जातो, जदि उपाडित होन्तं तो दिट्ठीविसेण सप्पेण दट्ठो होतो, तो किं कज्जतु, वणनिगुंजे मुयह, परंमुई मुक्को, वणाणि दढाणि, सो सहुत्तेण मतो, तुडो राया, भणितो-बंधणमोक्खवज्जं वरं बरेहित्ति, भणति-तुम्भ चेव हत्थे अच्छतु । अण्णदाका रणलगिरी बियट्टो, ण तीरति गेण्हितुं, अभयो पुच्छितो, सो भणति उदायणो गातउचि, सो उदायणो किह पद्धोति। तस्स पज्जो-दा #तस्स धूता अंगारवती, अत्तिया पासवदत्ता, बहुयाओ कलाओ सिक्खिता, गंधब्बे उदायणो पधाणो, सो य कोसंबीए सयाणियशामिगावईए य पुत्तो, सो घेप्पतत्ति, केण उवाएण, सो किर जे हत्थी पेच्छति तत्थ गायति जाव बद्धपि न याणति, एवं कालो है वच्चति, पज्जोतेण जंतमओ हत्थी कतो, तस्स बिसयंते चारिज्जति, तस्स वणचरेहिं कहितं, गतो, तत्थ खंधारो परंते अच्छति, सो य गायति, हत्थी ठितो, दुक्को गहितो य, आणिो य, भणितो-मम धुता काणा ते पेच्छसु मा, मा सा तुम दट्टणं लज्जिहिता तित्ति , तीसेवि कहित-उबझाओ कोढिओ मा दच्छिसिचि, सो य जवणियंतरितो तं सिक्खावेति, सा तस्स सरेण हीरति, कोढि-18 है। ओत्ति ण जोएति, अण्णदा चितति-जदि पेच्छामिति चिन्तती अण्णहा पढति, तेण रुद्रुण भणितं-कि काणे विणाससे, सा ॥११॥ भणति- कोढिका! ण याणसि अपाण', वेणं चितित-जारिसो अहं कोढिओ तारिसा एसा काणचि, जइणिया फालिता, दिन द्र अवरोप्पर संजोगो जातो, नवरं कंचणमाला जाणति दासी, अम्मघाती य सच्चेव , अमया आलाणखंभाओ जलगिरी फि दीप अनुक्रम [११-३६] छान (167) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत पर चतुष्क सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणामा डिओ, रायाए अमओ पुच्छिओ, उदायणो गायउत्त, ताहे उदायणो भणति-भवतीए हस्थिणिकाए अहं च दारिका य गायामो, ध्ययन, लाजइणियंतरिता गीतं गायति, गहितो, इमाणिवि पलाताणि, एस बितीओ उ बरो२ । अण्णे भर्णति-उज्जिणि गाए गतो पज्जो तो, इमा दारिका णिमाता, तत्थ गाविज्जिाहितिति णिज्जति, तस्स उदाय मस्स जोगंधरायगो अमच्चो, सो उम्मचकवेसेण पढति-जदि तां चैव तां चैव, तां चैवायतलोचनाम् | न हरामि नृपस्याथै, नाहं जोगंधरायणः ॥ १॥ सो य पज्जोतेण दिडो, ठित-18 ओ चैव काइयं पवोसिरितो, णादरो कतो पिसाओत्ति, सा कंचणमालावि भिण्णरहस्सा, बसंतओ मेंठो, चत्वारि मुत्तघडियाओ चिलााओं, पोसवंती वीणा, कच्छाए बझंतीए सकुंतो नाम मंती अंधलओ भणति-कथायर्या वध्यमानायां, यथा रसति हस्तिनी ।। योजनानां शतं गत्वा, प्राणत्यागं करिष्यति ॥१॥ताहे सण्यजणसमुदयमले उदायणो भणति-एष प्रयाति सार्थः, कांचनमाला वसंतकवैव । भद्रवती घोपवती, वासवदत्ता उदयनच.॥१॥ पधाविता हस्थिणी, नलगिरी संनज्झति ताव पणुवीस जोयणाणि गता, संनद्धो, पच्छतो लग्यो, अहदागते पडिका भिण्णा, जाव ते उपसिंथति ताव अण्णाणे पंचवीस, एवं तिष्णिवि, णगरंच। अतिगतो । अण्णादा उज्जेणीए अग्मी उद्वितो,सो धूलीएवि जलति पाहाणेचिहि इटिकाहिवि, णगर डझति,अभओ पुच्छितो, ॥१६२।। सो भणति-विषस्य विषमौषधं अग्रे अग्निरेव, ताहे अग्गीतो अपणो अग्गी कतो, ताहे ठितो, ततिओ वरो, सोवि तहेच अच्छतानि३। अण्णदा उज्जेणीए असिवं उहित, अमयो प्रच्छितो भणति-अम्भितरियाए अत्थाणीए देवीओ विभूसिताओ एज्जत, जा तुम्मे। | रायालंकारविभूसिते दिट्ठीए जिणति ते मम कहेज्जाह, तहेब कतं, राया पलोएति, सब्बाओ हेडाहातिओ, सिवाए राया जिणितो, कहित-तव चुल्लमातुगाए, भणति-रति अवसणा कुंभवलीए अच्चणियं करेतु, जं भूतं उहेति तस्स सहे करं शुम्भत, तहेव कर्त, दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१६॥ 5BER (168) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा एवं चउक्के अकालएसु य, जाहे सा देवता सिचारूपेण वासति ताहे से मुखे कूर छुमति, भणति-अहं सिवा गोवालगमातति, एवं पर चतुर्क ध्ययने सव्वाणि णिज्जिताणि, तत्थ चउत्यो वरो४। अभयो चिंतेति-केच्चिरं अच्छामा,जामोत्ति भणति-भट्टारगा! वरा दिजंतु, बरेहि पुत्ता, नलगिरिमि हस्थिमि तुम्मे मिंठा सिवाए उच्छंगे निवण्णो अग्गिभीरुस्स रहस्स दारुएहिं चितका कीरतु, तत्थ परिसामि, रायाल ल विसष्णो, तुडो, विसज्जितो सक्कारितो य, ताहे अभओ भणति-अहं तुमहिं धम्मच्छलेण आणीतो, अहं पुण तुम दिवसतो आदिच्च । दीव कातूण रडतं गगरस्स मोण जदिन हरामि ता अग्गिमि अतीमिति, तं भज्ज गहाय गतो। किंचि कालं रायगिहे अजिता दो गणियदारिकाओ अपटिरूवाओ गहाय वाणियगवेसेण उज्जेणीए रायमग्गोगाई आवारि गेहति,ाला अण्णदा दिवाओ पज्जोतेणं, ताहिवि सपिलासाहि दिट्ठाहिं निझाइतो, अंजली य से कतो, अतिगतो नियकमवण, र्ति पेसेति, II ताहि परिकृवितादि धाडिता, मणति-राया न होहित्ति, वितिए दिवसे सणियकं आरोसिता, ततिए दिवसे भणिता-सत्तम &ादिवसे देउले अम्दं देवजण्ाओ तस्थ विरहो. इहरा भाता रक्खति, तेण य तारिसओ मणूसो पज्जातोति णाम कातूर्ण उम्मत्ताद कओ, भणइ-एस मम भाता, सारवेमि णं, किं करेमि एरिसो भातिणेहो, सो महो नहो रडतो पुणो पुणो आणिज्जति, उच्छेहरे अमुका दारुका! अहे पज्जोतो हीरामित्ति, सत्तमे दिवसे ती पेसिता, एउ एगउति मणियो,आगतो, गवक्षणं तंतिताए विलग्गो, ॥१६॥ मणूसेहि पडिवमो पद्धो पल्लंकेणं सम, हीरति दिवसतो नगरमोण, यीचीकरणमूलेणं पुच्छिज्जति, भणति-वेज्जघरं निज्जति, १६३॥ अग्गतो आसरहेहि उक्खिचो, पावितो रायगिई, सेणियस्स कहितं, अर्सि अंछित्ता आगतो, अभएण बारितो, कि कज्जत, सकारता विसज्जितो, पीती जाता ततो परं, एवं ता अभयस्स उहाणपरियाणियं ॥ तस्स सेणियस्स चालणा देवी, तीसे उड्डाणपरि RECA दीप अनुक्रम [११-३६] (169) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा/8गाणियं कहिज्जति, तत्थ रायगिहे पसेणतिसंतिओ नागो नाम रधिओ, तस्स सुलसा भज्जा, स पुत्तकामो इंदखंदादी नर्म- शिद व्यपन सति, साविया णेच्छति, अण्ण परिणेहित्ति, सो भणति-जदि तव पुचो तेणं कज्जंति, तेण विज्जोवदेसणं तिहिं सतसहस्सेहि ख्या: १६ तिणि तेल्लकुलवा पक्का, सकालए सैलाबो-एरिसा सुलसा साविकत्ति, देवो आगतो साधू, तज्जातियरूवेणं निसीहिका कता, सुदाः 18| उद्वेचा वंदति, भणति-किमागमणं,तुम्ह सतसहस्सपार्क तेल्लं, तं देहि, वेज्जेण उवदिङ, देमिचि अतिगता, ओतारेतीए मिण पत्तर्ग, वितिय गहाय निग्गता, तैपि भिवं, तइयपि भिनं, तुट्ठो देवो साहति जथाविधि, बत्तीस गुलियाओ देति, कमेण खाएज्जासि, पत्तीस पुचा होहिंति, जदा य ते किंचि पयोअणं ताहे संभरेज्जासि तो एहामित्ति, ताए चितित-को एच्चिर मीढमुत्ताई| खाहिति'. एताहि सव्वाहिवि एको पुत्तो होज्जा, पुत्ताओ आधृता बत्तीसं, पोई वङ्गति, अद्धितीए काउस्सग्गा, देवो आगतो, हापुच्छति, साहति-सम्याओ खाताओ, सो भणइ-४ ते कतं, एकाउया होहिन्ति, देवेण उवसामितं अस्सात, कालेणं बत्तीस पुत्ता | जाता, सेणिकस्स सरिश्वया वविता,तेऽविरहिगा जाता,देवदिषणत्ति विक्खाता। एत्तो प वेसालीए नगरीए चेडओ राया हेहय-15 | कुलसंभूतो, तस्स देवीण अण्णमण्णाणं सत्त धृताओ-पभावती पउमावती मिगावती सिवा जेट्ठा सुजेडा चेल्लणत्ति, सो चेडओ सावओ, परविवाहकरणस्स पच्चक्खातं, धूताओ ण देति कस्सति, ताओ मातिमिस्सगाओ राय आपुच्छिता अण्णेसि इच्छित काणं सरिसगाणं देति,पभावती वीतिभए उदायणस्स दिण्णा १ पउमावती चपाए दहिवाहणस्स२ मिगावती कोसंबीए सताणिय-1 ॥१६॥ लस्स ३ सिवा उज्जेणीए पज्जोतस्स ४ जेद्वा डग्गामे बदमाणसामिणो जेदुस्स नंदिवद्धणस्त दिण्णा ५, मुजेहा चेल्लणा य दो कणगाओ अच्छति, ते अंतपुरं परिव्याइका अविगता, ससमयं तासि कहेति, सुजेडाए निप्पडपसिणवाकरणा कता, महमकडि-IPI दीप अनुक्रम [११-३६] ॐॐॐ (170) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१६५॥ याहिं निच्छूढा. पदोसमावण्णा निग्गता, अमरिसेणं सुजेडाए फलए रूवं कातूणं सेणियस्स घरमतिमता, दिई सेणिएणं, पुच्छिता, कहितं, अद्धितिं करोति, वरओ दूतो विसज्जितो, तं भणति चडओ-कहऽहं पाधियकुलए देमित्ति, पडिसिद्धो, घोरतरी अद्धिती जाता, अभयागमो, जधा णाते, पुच्छिते कहितं, अच्छह वीसत्था, आणेमित्ति, अतिगतो नियगभवणं, उपायं चिंतेत्ता वाणियग* रूवं करेति, सरभेदवण्णभेदे कातूणं बसालिं गतो, कष्णतेपुरममीचे आवणं गेण्हति चिसपए य सेणियस्स रूवं लिहति, ताहे ताओ कण्णतेपुरदासीओ कज्जगस्स एन्ति, ताहे सुबहु देति, ताओविय दाणमाणसंगहिताओ करेति, पुच्छंति किं एतं चितपट्टए ? भइ सेणिओ अम्ह सामिओ, किं एरिसं तस्स रूवं १ को समत्थो तस्स रूवं का?, जं वा तं वा लिहितं दासचेडीहिं कण्णतपुरे कहितं ताओ भणिताओ-आह ताव तं पट्टकं, दासीहिं मग्गितो, ण. देटि, मा मज्झ सामिए अव काहिथ, बहुयाहि य जायणिकाहिं दिष्णो, पच्छष्णं पेसवितो, दिट्ठो सुजेङ्काए, दासीओवि भिन्नरहस्साओ कयाओ, सो वाणियओ भणिओ, सो भणतिजदि एवं तो इहं चैव आणेमि सेणियं, आणितो, पच्छण्णं सुरंगा खता जाव कण्णंतेपुरं, सुजेडा चेलणं आपुच्छति-जामि सेणिएण समं, दोषि पधाविताओ, जाव सुजेट्ठा आभरणाणं गता ताब मणुस्सा सुरंगाए उबेड्डा, चलणं महाय गता, सुजेट्टाए आराडी कता | चेडओ संद्धो, वीरंगिओ रहिओ भणति भट्टारगा ! मा तुम्मे बच्चह, अहं आणामिति, निम्गतो, पच्छितओ लम्मति, तत्थ दरीए एक्को रहमग्गो, तत्थ ते बत्तीसं सुलसापुता ठिता, ते वीरंगतेणं एगेण सरेण मारिता, जाव सो ते रहे ओसारेति ताव सेणिओ पलाओ, सोवि नियत्तो, सेथिओ सलवति सुजेत्ति, सा भगति अहं चलणा, सेणिओ भणति सुजेद्रुतरिया तुमं चैव, सेणिकस्स हरिसोवि विसादोवि, हरिसो कुणालंभेणं, विसादो रथिकमारणेण, चेलणाएव दरिसो तस्स रूवेणं, विसादो मगि (171) बेल्लाणानमणं ॥१६५॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणा जाणीवंचियाति । सुजेट्ठा य धिररथु काममोगाणत्ति पव्वइता, चालणाए पुत्तो जातो कोणिउत्ति, तस्स का उप्पत्ती।। कोषिक ध्ययने एग पच्चंत नगरं, तत्थ जितसत्तुस्स पुत्तो सुमंगलो, अमच्चपुत्तो सेणिोति पोहिओ, सो ओहसिज्जति, पाणिए उच्चा-ट्रस्था स्वोस्पति लगं पज्जिज्जति, सो दुक्खाविज्जति सुमंगलेण, सो तेण निव्वेएणं चालतवस्सी पब्बइतो, सुमंगलोवि पितरि मते राया जातो, ॥१६६॥ अण्णदा सो तेण ओगासणं वोलेंतो दिडो, पुच्छति, लोगो भणति- एस एरिसं तवं करेति, रण्णो अणुकंपा जाता पुर्व दुक्खावि-13 ओति,निमंतिओ, मम घरे पारहिनि, मासखमणे पुण्णे गतो, राया पडिभग्गो, न दिण्णं, पुणोषि उहितं पविट्ठो, संभारितो, पुणो गतो, निमंतेति, आगतो, पुणोचि पडिभग्गोति, पुणोऽपि उट्टियं पविट्ठो, पुणोवि निमंतेति तइयं, तइयाएवि अणातो बारवालेहिं पिट्टितो, जदिहेल्लाओ एति ततिहलाओ राया पडिभग्गति,सो निग्गतो, अद्धितीए अहं पम्बइतो मि तहावि धरसितोडू एतेणंति निदाणं करेति,एतस्स वधाए उबवज्जामिति, कालगतो अप्पिट्टितो वाणमंतरो जातो, सोषि राया तावसो पब्वइतो, | वाणमंतरो जातो, पुष्व राया सेणिओ, कोणिओ कुंडसमणो जं चेव चल्लणाए पोड्ढे उववण्णो ते चव वितेति- किह रायाणका ट्र अच्छीहिवि ण पेच्छेज्जति, तीए चिंतित-एयस्स गम्भस्स दोसोत्ति, गम्भपातणेहिवि न पडति, दोहलकाले दोहलो, कहाहै सेणियस्स उदरवलिमसाणि खाएज्ज, अम्भतरे परिहाति, न य अक्खाति, निबंधे साविताए कहित, अभयस्स कहितं, ससगचका मेणं मंस कप्पेत्ता वलीए उबरि दिणं, तीसे ओलोगणगताए पेच्छमाणीए दिज्जति, राया अलिगमुच्छिताई करेति, जाहे सेणिया ॥१६॥ चिंतेति ताहे अद्धिती उप्पज्जति, जाहें गम्भ चिंतति किह सम्बंपि खाएज्जामि?, एवं माणितो भवहिं मासेहिं दारओ जातो, रणो निवेदितो, तुट्टो, दासीए छहावितो असोगवणियाए,सेणियस्स कहितं,आगतो,अंगाडिया-कीस पढमधुत्तो उजिातोतिी, गतो SABREAST दीप अनुक्रम [११-३६] RERAKASREPEARAN (172) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| गतेक्रमणा असोमवणितं,तेब सा उज्जोविता,सो भणति-असोगवणचंदउचि,असोगचंदुति नामं च से कतं,तत्य य कुक्कुडपिच्छणं कार्णगुली ध्ययनासे विद्धा मुकमालिया, सा ण पाउणति,सा कुणिगा जाता, ताहे से दारगरूवेहिं कतं नाम कुणिओचि, जाहे य किर तं अंगुलिं पूतंहास नामुत्पतिः गलिति सेणिओ मुखे करेति ताहे ठाति, इतरहा रोवति, सो य संवति । इतो य अण्णे दो पुत्ला जमला चेल्लणाए जाता-हल्लो ॥१६७॥ विहल्लो य, अण्ण सेणियस्स बहवे पुत्ता अण्णासिं देवीणं, जाहे य किर उज्जाणिकाए खंधावार वा जाति ताहे चेल्लणा कृणियस्स* गुलमोदए पेसेति, हल्लपिहल्लाणं खडकते,तेणं घेरेणं कुणिो चिंतेति एते सणिओ ममं देतित्ति पदोसं वहति, अण्णदा कृणियस्स अड्डहिं रायवरकण्णाहिं सम विवाहो कतो,अडओ दाओ जाव उप्पि पासादगतो विहरति । एसा चेल्लणाए उच्पत्ती कहिता ॥ सेणियस्स रण्णो फिर जावतिय रज्जस्स मोल्लं तावतियं देवदिण्णस्स हारस्स सेतणगस्स य गंधहस्थिरयणस्स मोल्लं,तेसि उट्ठाणपरियाणियं कहेतच, हारस्स का उप्पची?, कोसंबी नगरी,धिज्जातिगिणि गुग्विणी पति भणति-पतमोल्लं विढवेहि, के मम्गामिा, भणति-रायाणं पुप्फेहि ओलग्गाहि, ण य बारिज्जिहिसि, सोय ओलग्गितो पुष्कफलादिएहिं, एवं कालो बच्चति । अण्णदा पज्जोतो कोसवीं बच्चति, सो य सताणिो तस्स भयेणं जउणदक्षिणकूल उद्ववेत्ता उत्तरं कूलं एति, सो य पज्जोतो न तरति जउणं उत्तरिउ, कोसंबीए दक्षिणपासे खंधावारं निवेसइत्ता ताति, जे य तस्स तणहारिमादी तेसिं वातघोडएहिं गतूर्ण कण-18 णासा छदिज्जंति, सताणिकमणसा एवं परिकवीणा, एगाए रतीए पलातो. तं च तेण पुष्पपडिकागतेणं दिई रण्णो य निवेदितं. र६७॥ Mराया तुह्रो भणति-भण किं पदमि', भणति-जा बभणी पुच्छामि, पुच्छिता भणति- अम्गासणे कूरं मग्माहीति, एवं सो जमति | दिवसे दिवसे दीणार लभनि दक्षिण, एवं ते कुमारामच्चादि चिंतिति-एस रणो अभासिओ दाणगहितो कीरहति तेवि देति, KAREERICA c दीप अनुक्रम [११-३६] . - - (173) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ 長 अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१६८॥ खद्धादाणिओ जातो, पुसावि से जाता सा तं बहुकं जेमेतब्वं, ण जीरति ताहे वमेति, जिमितो जिमितो दीणारं लभति, पच्छा से कोढं जातं, अभिग्रस्तो तेण, ताहे कुमारामच्चा भगति पुत्ते विसज्जेह, तुम्मे अच्छह, ताहे से पुत्ता जेमेति ताणवि तदेव मणंति, * पितुणा लज्जितुमारद्धा, पत्तो से घरं कर्त, ताहे ते सुहाओ न तहा यद्वितुमारद्वाज, पुत्तावि णाढायंति, तेणं चिंतितं एताणि ममं दब्वेण वङ्गताणि ममं च विहसंति, तह करेमि जह एवाणिवि वरुणं पार्वति । अण्णदा पुता सद्दाविता, भणति पुत्ता !. मम किं जीवितेनं १, अम्ह कुलपरंपरागतो पसुपथेो तं करेभि, तो अणासयं काहामि, तेहि से कालओ थंभो दिण्णो, सो तेण अप्पर्ग उल्लिहावेति उब्बल गियाओ पक्खावेति, जाहे णायं सुगहितो एसो कोढणंति ताहे लोमाई ओक्खणति, फुसति एति ताहे मारेता भणति-तुम्भेहिं चैव खाइतब्बो तेहिं खहतो, कोढेणं गहिताणि, सोचि उता गडो, एगत्थ अडवीए पञ्चतदरीए णाणाविहाणं रुक्खाणं तयपत्तफलाणि य पडियाणि तिफला य पडिता, सो सारदेण उण्हेण कक्को जातो, तं निब्विण्णो पियति, तेण पोट्टं भिण्णं, सोहिते सज्जो जातो, आगतो सामहं जणा भणति किह गई ?, भणति देवेहिं नासिवं, ताणि पेच्छति सडसडेन्ताणि, भणति किह तात ! तुम्भे १, खिसणा, ताहे ताणि भगति तुमे पाविताणि अम्हे एयमवत्थी, भणति - वाढंति, सो जणेण खिसितुमारा, ताहे नट्ठा गतो रायगिहं, दारपालिएण समं दारे वसति, तत्थ बारजक्खीए जो चरुओ तं भुंजति, अण्णा मुंडेरगा बहु खाइता, सामिस्स समोसरणं, सो बारपालिओ तं ठवेत्ता भगवतो वंदुओं गतो, सो दारं न छड्डीति, विसाइतो मतो, बावीए मंडुक्को जातो, पुण्यभवं सरति, उत्तिष्णो, पधाइतो सामि वंदओ, सेणिको गीति, तत्थ एक्केण अस्सकिसोरिण - अक्कंतो मतो देवो जाती ।। सक्को सेणियं पसंसति, सो समोसरणे सेणिकस्स मूले कोटिकरूपेण निविट्ठो, सामिं चच्चरिक्काि (174) हारादीनामुत्पचिः ॥ १६८॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ध्ययने ॥१६॥ + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा कोढोपत्तणिगाहिं सिंचति, तत्व सामिणा छीत, सो देवो भणति-मर, अभएण छीतं, भणति-जीव वा मर वा, सेणिएण छीतं, भणति-चिरं जीवाहि, कालसोकरिएण छीतं, भणति-मा जीव मा मर, सेणिओ रुहो भट्टारए मर इति भाणिते, मणुस्सा सण्णिवा-IPLE हारादीउडिते समोसरणे ममं उवणेज्जाह, सोवि पलाओ, न तीरति गेण्हितूणं, नातो देवोत्ति, गतो घरं, वितियये दिवसे पए गवोनामुत पुच्छति-को सोत्ति ?, ततो से पुब्बवुत्ततं भट्टारगो परिकहेति जाव देवो जातोति, तो तुन्भेहिं छीतेहिं किं एवं भणति', भगवं| | आह-मम भणति-कीस संसारे अच्छसि, णेव्वाणं गच्छति, तुम जाव जीवसि ताव मुह, मतो नरगे जाहिसि, अभयो इहवि चेइयसा-10 | धुपूयाए पुण्णं समज्जिणति, मतो य देवलोग जाहिति, कालो जदि जीवति ता दिवसे २ पंच महिसकसताणि मारेति, मतो यह नरगं जाति, सेणिओ सामि भणति- भगवं! आणाहि, अहं कीस नरकं जामि ?, केण वा उवाएणं नरकं न गच्छेज्जा, सामी | मणति-जदि कालसोयरियं सूर्ण मोएहि जदि य कविलं माहगिं भिक्खं दवावेहि तो तुर्मपि न गच्छेज्जासि नरकं, सो तेसिं मूलं गतो, जवीमंसिता य गं सव्वपगारेहि, गच्छंति, से किर अभवसिद्धीओ, धिज्जातिकीणी य कविला, न पडिवज्जति जिणवयणं, सेणि एण गंतूण धिज्जातिगिणी भणिता सामेण-साधू वंदाहि, णेच्छति, भणिता-मारेमि, तहवि णेच्छति, कालोवि णेच्छति, भणतिमम गुणेण एतिओ जणो सुहितो नगरं च, को व एत्थ दोसोचि, तस्स पुत्तो सुलसो नाम, सो अभएण उवसामितो, सो किर कालो मरितुमारदो, तस्स पंचहि महिससतेहिं ऊणं अहे सत्तमाए पायोग्गं, अण्णदा तेणं पुत्तेण पंच महिससता से पला-1&१६९॥ साविया, तेण विमंगेण दिट्ठा माराधिता, तस्स य मरणकाले सोलस रोगातका पादुन्भूता, अस्सायबहुलताते य नरकपडिरूवपोग्ग-12 लिपरिणामो संवुत्तो, विषरीता इंदियत्था जाता, गीतं सुतिमधुरं अक्कोसंति मण्णति, मणोहराणि रूपाणि विकताणि, खीरं खंड-15 READSAUR दीप अनुक्रम [११-३६] - (175) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक प्रतिक्रमणा ध्ययने का + गाथा: ||१२|| सक्करोवणीतं पूइयंति मण्णति, चंदणाणुलेवर्ण मुमुरं वेदेति, हंसतूलमउई सेज कंटकिसाहासंचयं पटिसंवेदेति, तस्स य तहा- सेचनकविहं मा जाणितूण पुषण से अभयस्स कहितं, ताहे चंदणिकापाणिकं दिज्जति, भणति-अहो मिट्ठ, मीटेण य विलिप्पति, पूति- स्यो मंसाणि से आहारो, एवं किलिस्सितूण मतो अहे सत्तमं गतो । ताहे सयणेण पुत्तो ठविज्जति, सो नेच्छति, मा नरक जाइस्सामि, ताणि भणंति-अम्हे तं पावं विरिचिस्सामो, तुम नवरं एक मारेहि सेसग सर्व परिजणो 3 काहिति, तत्थ महिसगो दिक्खिओ कुहाडो य, रत्तचंदणेणं रत्तकणवीरियाहि य दोवि मंडिता, तेण कुहाडेण अप्पओ आहओ मणाग, मुच्छितो पडितो बिलवति य, सयणे भणति- एयं दुक्खं अवणेह, न तीरतित्ति भणितो, तो कई भणह-अम्हे तं विरिचिहामोचि , एतं अधिकारेण भणितं । तेण देवेण सेणिकस्स तुडेणं अट्ठारसर्वको हारो दिष्णो दोण्णि य अक्खाडिमतया दिण्णा, सो हारो चेल्लणाए दिण्णो, बट्टा नंदाए, ताए रुवाए कि अहं चेडरूबचि कानूर्ण खभे आवाडिता, तत्थ है। एकमि कुंडलजुयलं एकमि देवदूसजुयलं, तुट्टाए गहिताई, एवं हारो उप्पण्णो । सेयणगस्स उत्पत्ती___एकत्थ वणे हथिजूह, तमि जूहे एगो हत्थी जाते जाते हत्थिवालये मारेति, एगा हस्थिणिगा गुचिणी, सा सणिकं २ ओसरित्ता एकल्लिका चरति, अण्णदा कदाइ तणपिंडगं सीसे कानूणं तावसाणं आवासं गता, तेसिं तावसाणं पाएमु पडिता, तेणे नाणं, सरणागतिका वराईका । अण्णदा तत्थ चरती वियाता पुतं, हथिजूहे चरिचा छिद्देण गंतूर्ण थणकं दातूर्ण जाति, एवं संवङ्गति, तत्थ तावसपुत्तमा पुष्फजातीओ सिंचंति, सोवि सोडाए पाणितं तूण सिंचति, ताहे से नामं कत सेयणउचि, संवट्टितो, |मयकालो जातो, ताहे तेणं सो जूहपती गंतूणं मारितो, अप्पणा जूह पडिवण्णो। अण्णदा तेहि ताबसेहिं राजा गाम दाहितित्ति XXX STEM दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१७॥ (176) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा मोदएहि लोमवेत्ता राजगिह गीतो, पवेसावेत्ता बद्धो सालाए, अण्णदा कुलवती तेण चेव पुग्वम्भासेणं दुको भणति-किं पुत्ता! ध्ययने । Xसेचणका, हत्थं से पणामेति, तेण हस्थिणा सो लएतूण मारितो। अण्णे भणंति-जहपतिणा ठितेण मा अण्णावि एस्थ वियाहि- नकारावास चंपाधितित्ति ते तापसकुडगा भग्गा, तेहि तावसेहिं रुडेहिं रणो कहितं सेणिकस्स, पच्छा सेणिकेण गहितो, एसा सेयणकस्स उप्पत्ती । भावासश्च पुथ्वभवो तस्स-एको धिज्जातिको जणं जयति, तस्स दुयक्खर तेण जण्णपाडे ठवितो, सो भणति- जदि सेस ममं देहि,इहरहा है। वि, एतेण भणितं-होउत्ति, सो ठितो, जं सेस तं साहणं देति, तेण देवाउकं निवर्दू, देवलोकं गतो, चुतो सेणिकस्स सुतो जातो दिसेणकुमारो, धिज्जातिओऽपि संसारं हिंडितूण सेचणओ जातो, जाधे किर णदिसणो बिलग्गति ताहे ओहयमणसंकप्पो अच्छति णिम्मदो य, जाती ओधिणा जाणति, सामी पुच्छितो, एवं सब परिकहेति । एसा सेयणकस्स उप्पत्ती ।। ___अभओ किर सामी पुच्छति-को अपच्छिमो रापरिसिनि?, सामिणा भणितं-उद्दायणो, अतो परं बद्धमउडो न पचयति, ताहे| अभयस्स किर सेणिएण रज्जं दिण्णं णेच्छति, पच्छा सेणिको चिंतति-मा कोणिकस्स दितित्ति हल्लस्स हत्थी दिण्णो विहल्लस्स देवदिण्णो हारो, अभयमि पव्ययंतंमि नंदाए देवदूसजूयलं कुंडलााण य हल्लविहल्लाणं दिष्णाणि, महता इडीए अमओ समातिओ पव्वतिओ । अण्णदा कोणिओ कालादीहि कुमारेहि समं मंतेति-सेणियं बंधित्ता एकारसमाग रज्जे करमुनि, तेहि पडिस्मतामा ॥१७१॥ सेणिओ बद्धो, पुच्वण्हे अवरहे य कससतं दवावेति,चेल्लणाए कतोवि ढोकं न देति,मत्तं वारितं पाणियं चेति,ताहे चेलणाए कुमासे वाळेला ॥११॥ बंधित्ता सताओयाए सुराए केसे आउहिता पविसति,सा किर घुयति सतं वारे पाणियं सव्वं मुरा भवति, तीए पभावणं वेयणं ना तेति । अण्णदा कदाइ पउमावतीए पुत्तो उदाती कुमारो,सो जेमंतस्स हत्थे थाले य मुत्तति,ण य चालेति मारुमिज्जिाहितिति जत्तितं दीप अनुक्रम [११-३६] (177) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| 長 अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ १७२ ॥ मुत्तितं ततिलकं क्रूरं अवणेचा सेसं जिमितो, मातं भणति -अम्मो ! अण्णस्सवि कस्सवेि एयप्पिओ पुत्तो होज्जा, सा भणति-दुरात्मा ! तब अंगुली किमिए बमंती पिता मुहे कार्ड अच्छियाइतो, इहरहा तुमं रोवास, ताहे से चितं मडकं जातं, भणति किं खाइ मे गुलमोदए पेसेति!, देवी भणति-मए ते कता, जेण तुमं सदा पितिवेरिओ उदरा आरद्धति सव्वं कहेति, तथावि तुज्झ पिता न विरज्जति, तहवि तुमए पिता एरिसं बसणं पावितो, तस्स अद्धिती जाता, सुर्णेतओ चैव उट्ठाय वाया (हा) मितं लोहडंडे गहाय निगलागि मंजिस्सामीति पधावितो, रक्खवालेहिं रण्णो हितेण णिवेदितं -एस भा (पा) वो लोहडंडं गहाय एतित्ति, सेणिओ चितेति को जागति | केणवि कुमारेण मारिहितिचि तालपुढं विसं खइतं जाव एति ताव मतो, दद्दण मुट्ठतरं अद्धिती जाता, ताहे दहितॄण घरं आगतो, रज्जधुरमुक्कतत्ती तं चैव चिंतेंतो अच्छति, कुमारामच्चेहिं चिंतितं नो राया होतिति तंविए सासणे लिहित्ता जुण्णं कातूण उवणीतं, एवं पितुणो कीरतिपिंडदाणं नित्थारिज्जतित्ति, तप्पभिति पितिपिंडनिवेद्णा पवत्ता, एवं कालेणं विसोगो जातो। पुणरवि तं पितुसंतिकं अत्थाणियं आसणसयणपरिभोगेण दद्दरण अद्धितित्ति ततो निग्गतो चंप रायहाणिं करेति ॥ ते य हल्लविहल्ला तेण सेयणयहत्थिणा समं भवणेसु उज्जाणेसु पुक्खरिणीसु य अभिरमंति, सोवि इत्थी अंतेपुरियाओ अभिरमावेति, तं परमावती पेच्छति, नगरमज्झेण गते हल्लविहल्ला, हारेण य कुंडलेहि य देवदुसज्यलेण विभूसिता इत्थिवरखंधग तापासितूण अद्धितिं गता कृणियं विष्णवेति, सो नेच्छइ पितुणा दिष्णंति, एवं बहुसो बहुसो भण्णंतस्स चित्तमुव्वत्तं ॥ अण्णदा हल्लविहल्ले | भणति रज्जं अद्वेण विरिंचामो सेयणकं मम देह, तेहिं माऽसुरुवखं, चिंतितं देमोति भण्णति, गता य सभवणं, एक्काए रतीए संतपुरपरिवारा बेसालि गता अज्जकमूले, कोणिकस्स कहितं जथा नट्टा कुमारा, तेण य चिंतितं तेवि न जाता इत्थीवि, अमरि- (178) चेटकेन सह युद्धं ॥ १७२॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणाला सेण चेडमस्स दूत पेसेति-जदि गता कुमारा गता, मम हत्थी पेसह, चडओ भणति-जहा तुम दोहितो तथा एतेऽवि, किहालचटकेनसह ध्ययने एताणं हरामि', न देमिाति, दूतो अतिगतो कहितं च, पुणोऽपि दूतो पढवितो-देह न देति, ताहे भणति-जुद्धसज्जा युद्ध ४ा होह एमिति, भण्णति-जथा रुच्चति, ताहे कृणिएण कालादिया दस कुमारा आवाहिता, तत्थ एक्केक्कस्स तिण्णि तिष्णि ॥१७॥ हस्थीसहस्साणि तिष्णि तिण्णि रहसहस्साणि तिण्णि तिण्णि अस्ससतसहस्साणि तिणि तिणि मणूस्सा कोडिओ, कृणिकस्सवि एत्तिकं कसबसंक्खेबो-तेत्तीस सहस्सा हत्थीण रहाणं च, हयाणं च सतसहस्सा,कोडीओ मणूसाणं,तं सोतूण चेडएणवि गणरायाणो मोलता देसपते ठिता,तेसिपि अट्ठारसहं रामीणं समं चेडएणं ती हस्थिसहस्सा रहसहस्सा मणुस्स कोडीओ तहा चेव, नवरि संखेषो-सत्तावण्णाला * सत्तावण्णो । ताहे जुद्ध संपलग्गं, कूणिकस्स कालो डंडणादओ, दो चूहा कता कोणिकस्स गरुलवृहो चेडगस्स सागरचूहो, कालो जुझंतो ताच गतो जाव चेडओ, चेडएण एकस्स सरस्स आगारो कतो, सो य अमाहो, तेण सो कालो मारितो, भग्गं कूणिकस्सा दाम, पडिनियत्ता सए आवासे, एवं दसहिं दिबसेहिं दसवि जणा हता चेडएण कालादीया,एक्कारसमे दिवसे कोणिओ अट्ठमभत्ताला गण्हति, सक्कचमरा आगता, सक्को भणति- चेडओ सावओ अहं न पहरामि, नवरं तुम सारक्खामि, एत्थ महासिलाकंटको स्थमुसले य वण्णेतध्वा जथा पण्णत्तीए, ते किर चमरेण विकुविता, ताहे चेडमसरो किर बहरपडिरूवगे अप्फिडति, गणमा-8 &ायाणो गड्ढा सनगरे गता. चेडओ विसालि गतो, रोधकसज्जो ठितो । एवं चारस वासा जाता रोहिज्जंतस्स, तत्थ य रोधए बह- ॥१७॥ PIविहल्ला सेयणएण निग्गता वलं मारेति दिणे दिणे, कृणिओवि परिस्विहिअति हस्थिणा, अष्णदा चिंतेति-को उवाओ जेण मारे-12 हिज्जेज्जा', कुमारामच्या भणंति-जदि नपरि हत्धी मारिज्जति, अमरिसिओ भणति-मारेज्जउ, ताहे इंगालखड्डा कता, तारे सेयणओ दीप अनुक्रम [११-३६] MIT (179) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत 5 महेबरो सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा 8 ओधिणा पेच्छति, न बोलेति खां, ताहे कुमारा भणति-तुम्भ निमि इमं आवदि पत्ता, तोवि णेच्छति,ताहे ते सेयणएण उचा- | ध्ययने रिया,सो य ताए खड्डाए पडितो रतणप्पभाए उबवष्णो । तेवि कुमारा सामिस्स सीसात्ति बोसिरन्ति,देवताए हरिता । तहवि नगरी त्पत्तिः ॥१७॥ न पडति कोणिकस्स चिंता। ताहेकुलबारकस्स रुट्टा देवता आगासे भणति-समणे जदि कूलवालए, मागहियं गणिय लमेहिति। तद लाय असोगचंदए, वेसालिं नगरिंगहस्सती॥१॥ तं सुणेतओ चेव चपं गतो,कूलवारगं पुच्छति, कहितं, मागहिया सहाद विता, विडसाविगा जाता, पधाविता । तस्स उप्पत्ती-जथा नमोक्कारे । सिद्धसिलगमण खुडग पडिणिय सिललोहणाल य विक्वंभो। साचो मिच्छावादित्ति निग्गतो कृलवालवतो ॥१॥तावस पल्ली नदिवारणं च कोधो.य कोणिए कहणं । मागहियगमण बंदण मोदग अतिसार आणणता ॥ २ ॥ पहिचरणोभासणता कोणिय गणिकत्ति गमण निग्गमणं । वेसाली जह घेप्पति उदिक्व जाना गयेसामि ॥३॥ वेसालि गमण मग्गण सातिकारवण कहण मा तुट्ठा। धूभणरिंदणिवारण इढग निक्वालण पलातो ॥४॥ पडिआगमणं रोहण गहभ हलवाहणापतिण्णा याचेहगनिग्गम वहपरिणतो य माता उबालद्धो ।। ५ ।। कोणिका मणइ-चडक! किं करोमि , II मणति-जाव पुक्खरिणीतो उद्वेमि ताव नगरी मा अतीहित्ति, तेण पडिवणं, चडओ सबलोहमिग पडिमं गले घिउ ओतिष्णो, का धरणणं सभवर्ण णीतो, कालगतो देवचे गतो । विसालीजणो सब्बो महिस्सरेण मालबालिणं साहारितो । को माहिस्सरोत्तिी, ॥१७॥ तस्सव चडगस्स धूता सुजेडा बरग्गंर्ण पब्बइता, सा उस्सयस्स अंतो आतावति ता य पेढाला परिवायओ। मासा विज्जासिद्धी विज्जाओ दातुकामो पुरिसं मग्गति, जदिबभचारिणीए पुना हाज्जा ता सा मुंदरे होज्जा, ते दीप अनुक्रम [११-३६] (180) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१, २] निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१- १४१८], आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१७५॥ "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आतावेतिगं दणं भूमिकनामोई कानूर्ण विज्जाए विवज्जासो, तत्थ उउकाले जाते गन्भो, अतिसतणाणीहिं कहितं च एताए कामकारो जातो, सङ्कुधरे बङ्गावितो, समोसरणं गतो साहुनीहिं समं तत्थ य कालसंदीवो बंदिता सामि पुच्छति तो मे भयं १, सामी भणति सच्चतो तातेति, ताहे तस्स मूलं गतो, अवण्णाए भणति अरे तुमं मं मारेहिसिति पादेसु बला पाडितो, संबडियो, अणदा तेण परिव्वायकेण हितो, विज्जाओ सिक्खावितो, महारोहिणं साहेति इमं सत्तमं भवं, पंचसु मवग्गहणेसु मारितो, छट्ठे छम्मासाब से सा उगेण नेच्छिता, इहमारद्धो साहितुं, अणामतिए चितिकां कातूर्ण उज्जालेता अल्लचम्मं वितता पामेण अंगुडएणं चक्कंमति जाब कट्टाणि जलंति, एत्थंतरे कालसंदीयो आगतो कट्टाणि छुमति, सत्तरी गतो, देवता से सरूवेण उदड्डिता भणति मा विग्धं करेहि, अहं एतस्स सिज्झितुकामा सिद्धा, केई भर्णति-पिट्टमओ विसो कतो, भणति एवं उत्तमं अंगं परि वय जा ते पविसामि सरीरं, तेण निडालं दिष्णं, सा निडालेण अतिगता, तत्थ विलं जातं, देवताए ततियं अच्छं कयं से, ते पेढालो मारितो मम माता रायभूता एतेण धरिसितति, पच्छा कालसंदीचं आभोएति, दिट्ठो, पलातो पच्छतो ओलग्गति, एवं हेड्डा य उवीर य, पातुं कालसंदीवेण तिष्णि पुराणि विकुब्विताणि, सोषि ताणि विकुञ्चिता सामिपादमूले अच्छति, ताणि देवताण पडतो ताहे ताणि भणति अम्हे विज्जाओ सो महारगमूले गतोति, तत्थ गतो, एक्कमेक्कं खामितो अण्णे मणंतिलवणे महापाताले मारितोचि, पच्छा सो विज्जाचक्कपट्टी तिसंझं सम्यतित्थगरे वंदिता नहं च दात्ता पच्छा सो अभिरमति, तेण देण से महिस्सरो नाम कर्त। सो य किर धिज्जातियाणं पदोसमावण्णी, कण्णाणं सतं सतं विणासेति, अण्णेसु य अंतेउरेसु अभिरमति, तस्स दो मिता-नंदी व नंदीसरो य एवं पुप्फरण चिमाणेण अभिरमति, एवं कालो वच्चति, अण्णया उज्जे , 3 (181) महेश्वरोत्पत्तिः ॥१७५॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ।। १७६ ।। णीए पज्जीतस्स अंतेपुरे सिवं मोनूर्ण सेसिकाओं घरिसेति, पज्जातो चिंतति को उचाओ होज्जा जंग एसो विणासेज्जाः, तत्थ एका उमा नाम गणिका अतीव रूवस्मिणी, सा किर ध्रुवपरगहं गेण्हति जाहे अंतेण एति, बच्चते काले ओतिष्णो, ताए दोणि पुष्फाणि विकसितं च मउलितं च पणामितं महेस्सरेण फुल्लितस्स हत्थो पणामितो, सा मउलं पणामेह, एतस्स तुम्मे अरिहति, कहीं, ताहे भणति एरिसकाओ कष्णाओ, ममं ताव पेक्खहत्ति, तीए सह संवसति, तीए हतहियओ कतो, एवं कालो बच्चति । सा पृच्छति कार बेलाए विज्जाओ ओसरति १ तेण सिड-जाहे मेहुणं सेवामिन्ति, तीए रण्यो कहितं मा मपि मारेहित्ति, पुरिसेहि अंगस्स उवरिं जोगा दरिसिया, एवं रक्खामो, ते य पज्जीतेण भणितासह एताएवि मारेज्जाद, मा व दुराइयं करेहि, ताई मणुस्सा पच्छण्णां कता, ताहि संसो मारितो सह ताए, ताहे नंदिस्सरो वाहिं विज्जाहिं अधिष्ठितो आमासे सिलं वेडन्बित्ता भणति हा दासा मतति, ताहे सनगरी राया उल्लपडसाडओ पाएस पडितो. खमाहि एक्कवराहन्ति, सो भणति नदि एतस्स सन्वण्णगं अच्चेह तो मुयामिति, एवं च नगरे नगरे वेदान, तमि पडिवष्णो, आयतणाणि कारिताणि, एसा माहिस्सर उप्पत्ती ॥ ता सुण्णगं नगरं कृणिको अतिगतो, गर्भणंगलेहिं वाहेति एत्थंतरे सेणिकभज्जाओ कालिमातिकाउ पुच्छति अच्छे पुता संगामातो एहिन्ति णविति, जथा निरयाबलिया पव्वताओं । ताह कृणिको चेपमागतो, तस्थ सामी समोसढो, ताहे कणिक चिनेति पडुगा मम हत्थी अस्मावि, तो जामि सामि पुच्छामि अहं चक्कवट्टी होमि न होमिति ?, निग्गतो सव्यबलसमुदपणं, वंदिता भणति केवइया चक्कवडी एस्सा, सामी साहति सच्चे अतीता, पुणो भणति कर्हि ओवज्जामि, लडीए पुढवीए, तहवि असतो सव्वाणि एगिंदियाणि लोमयाणि रयणाणि करेना ताहे सव्यबलेन तिमिसगुहं गतो, अमे भने कने भणति कतमालाओ (182) महेश्वरोत्पत्तिः ।।१७६ ।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] भाष्यं [२०५-२२७] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा - १, २ ], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ १७७॥ अतीता चक्कवडियो, जाहित्ति, गच्छति, हरिंथ विलग्गो, मणि हरिथमत्थर काढूण पत्थितो, कतमालयण आहतो मतो, छड्डीए पुढवीए गतो ताहे ते रायाणो उदायिं वेति उदायिस्सवि चिंता जाता, एत्थ नगरे मम पिता आसिन अद्वितीय अण्ण नगरं कारेति, मग्गह गत्युंति वधुपाढगा पेसिता, तेवि एगत्थ पाडली उवरिं चासो अववासितेण तुंडणं पासंति, कीडगा से अप्पणी चैत्र मुहं अतिन्ति । किह सा पाडलित्ति : दो महराओ-दक्षिणा उत्तरा य, उत्तरमडुराओ वाणियदारओ दक्षिणमहुरं वहणजत्ताएं गतो, तत्थ तस्स एक्केण वाणियकेण सह मित्तता, तस्स भगिणी अष्णिका, तेण मतं कतं, सा से जेमेन्तस्स बीयणकं घरेति, सो तं पाए आरो णिवण्णेति, अज्योववण्णो, मम्गाविया, ताणि तं भणति जदि इदं चैव अच्छसि जाब एक्कं दारगरूवं जाति तो देमो, पडिवण्णो, दिण्णा, एवं काली वच्चति, अण्णया तस्स दारगस्स अमापितीहि लेहो पेसितो- 'अम्हे अंधलीभूताणि, जदि जीवंताण पेच्छतो तो एहि' से लेहो उबणीतो, सो तं वायति, अनूणि मुयमाणो तीए दिट्ठा, पुच्छति न किंचि साहति तीए लेहो गहितो, वायितो, तं मणति-मा अद्धिति करेहि, आपुच्छामि, ती सबं अमापितॄणं कहितं विसज्जिताणि, णिग्गताणि दक्षिणतो महुराओ सा य अणिका गुब्विणी, सा अंतरापहे वियाता, चितेति अमापितरो नाम काहिंतित्ति न कर्त ताहे रमावेतो जणो भणति अणि आपुतोचि, कालेण पचाणि तेहिवि से तं चैव नामं कर्त, अण्णं न पतिट्ठाहितित्ति, ताहे सो अष्णिकापुसो अमुक्कपालभावो भोगे अवहाय पव्वंदतो, थेरतणे विहरमाणो गंगाए तडे पुष्फभई नाम नगरं गतो ससीसपरिवारो, तत्थ पुप्फकेतू राया, पुप्फवती देवी से जुगलागि दारको दारिका य जाता, पुप्फचूलो पुप्फचूला य, ताणि अण्णमण्णमणुरताणि, तेण रामाए चिंतितं जदि विजोइज्जति तो मरि (183) पाटलि पुत्रीया पाटली ॥ १७७॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा | हिंति, एताणि चेच मिहुणक करेमि, तेण णागरा पुच्छिता-एत्थ जं रयणं तत्थ को वसायति , राया, नगरे अंतेपुरे वा, एवं ते पाटलिध्ययने पत्तियायेचा माताए चारेतीए संजोगो घडावितो, अभिरमंति, सा देवी साविकातेण निवेगेण पञ्चइता, देवो जातो, ओहिणा || पेच्छति धूतं, वतो अम्भहिको हो, मा नरकं गच्छिहितित्ति तसे सा सुविणकेन नरका दरिसेति, सा भीता राणं अवतासेति, पाटली ॥१७८॥ एवं सा रत्रिं रति, ताहे पासंडिणो सदाविता, कहेह-केरिसा नरका?, ते कति, ते अण्णारिसका, पच्छा अण्णिकापुना पुच्छिता-फेरिसका नरकति?, ते कहेतुमारद्धा-निच्चंधकारतमसा०, सा भणति-किं तुम्भेहिवि सुविणकि दिवा', आयरिका भणति-तित्थकराणं आदेसोत्ति , एवं गते काले देवलोका दरिसेति, एत्थवि तहेच पासंडिका , अण्णिकपुत्तेहिं कहित, ताहे देवी | भणति-किह गरका गंमंति', किह वा देवलोका' गमंति, ताहे साधुधम्मो कहितो, सा राजाणं पुच्छति, तेण भाणितं-तो देमि। जदि इह चेव मम घरे भिक्खं गेहसि,ताए पडिसुतं, पबहता ॥ तत्थ य ते आयरिया पवइए विसज्जित्ता जंघाबले क्षीणे तस्थेवटी विहरंति, ताहे सा देवी भिक्ख अंतपुराओ आणेति, एवं कालो बच्चति, अण्णदा कदायि तीसे भगवतीए सोभणेहि अज्झवसा हिं केवलनाणं उप्पणं, केवली किर पुधपवत्तं विणयं न भेजति, अण्णदा सा अज्जा आपरियाणं हिदयइच्छितं आणेति, सेमIP काले जेण सिम्हो जिव्यति, एवं सेससुवि, ताहे ते भणति-जं मए चिंतितं तं चेच ते आणीस, सा भणति-जाणामि, किह , अति सएणं केवलेणं, खामिता केवली आसादितोत्ति, अण्णे भणंति-वासे पडते आणीत , ताहे ते भणति- किं अज्जे । बासे पड़ते आणेसि, सा भणति-जेणतेणं अचित्तो तिणतेण आगता, कहं जाणासि १, अतिसएण, खामेति, ते अद्धिति पकता, ताहे सो IPI केवली भणवि-तुम्मेवि चरिमसरीरा सिमिहिह, मा अद्धिति करेह, किदवा कहिं पति, गंगं उत्तरंता, ताहे चेव पउत्तिण्या, ॐॐॐ दीप अनुक्रम [११-३६] (184) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाणावाए जैर्ष जेणं पासण विलग्गति तं तं निबुडति, मजो ठिता सव्वा पाणिए बुडेति,तेहिं णाविएहि पाणिए ढा, गाणं उप्पण, INI उदायिध्ययने देवेहिं कता महिमा, पपा तत्थ जातं तित्थं ॥ सा सीसकरोडी मच्छकच्छमेहिं खज्जती एकत्थ उच्छलिता पुलिणे, सा इतोमरण य ततो य बुज्झमाणी एगस्थ लग्गा, तत्थ पाढलिबीर्य किहवि पडितं, दाहिणाओ हणुकातो करोडी भिंदतो पोतओ उहितो, नन्दवंश ॥१७९॥ तत्थ तं चास पेक्षति, चिंतेति-एत्थ राजाणकस्स एवं सयं चेत्र रतणाणि एहिंति, नगरं निवेसेंति, तस्थ सुत्ताणि पसारिजंति, राज्य नमित्ती भणति-ताच जाहि जाब सिवाए वासितंति तो नियत्तीज्जासिति , ताहे पुब्बातो अंतातो अवरामहो गतो, तत्थ सिवा रडिता, ततो उत्तरहुत्तो गतो,तत्थवि, पुणो पुव्याहुतो गतो, पुणो दक्षिणमुहोतं किर बीयणकसंठितं, नगरनाभीए उदाइणा जिणघरं कारित, एवं पाइलिपुत्तस्स उप्पत्ती ।। सो उदायी तत्थ ठितो रज्ज झुंजति, सो य राया ते दंडे अभिक्खणं २ ओलग्गावेति, ते चितेंति-किह न होज्जा तो एताए धाडीए मच्चिज्जामोति, इतो य-एगस्स रायाणगस्स कहचि अबराहे रज्ज हित, सो राया नहो. तस्स पुसो ममतो उज्ज| पीए आगतो, एक रायाणक अलग्गति, सो व बहुसो परिभवति उदाइस्स, ताहे सो रायसुतो पादे पडिओ विष्णवेति-अहं तस्स पीर्ति पियामि नवरि मम चितिज्जओ होज्जासि, तेण पडिस्सुतं, गतो पाइलिपुत्र, पाहिरिकामझिमिकाअभंतरिकासु परिसासु ओलम्गितूण छिदं अलममाणो साहुणो अतींति, ते अतीयमाणे णिज्जायमाणे पेच्छति,ताहे एकस्स आयरियस्स मूले पम्वइतो, तेण . सच्चा परिसा आराहिता तमया जाता,राया अट्टामिचाउडसीसु पोसहं करेति, तत्थ आयरिकावि अतिति धम्मकहानिमिर्च, अण्णदा वेकालिक आयरिया भणति- गेहद उपकरणं, राउल अतीमो, ताहे सो सरनि उद्वितो, गहितं उवगरणं, पुन्चसंगोविता ये| % दीप अनुक्रम [११-३६] ASEARCH (185) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाककलोहकत्तिका सावि गहिता, पच्छण्णं कता, अतिगता रायकुलं, चिरं धम्मो कहितो, आयरिया पासुत्ता, रायावि, तेण उद्वेत्ता कल्पाकस्य ध्ययने लारणो सीसे निवेसिया, तत्थेव अधिके लग्गा, निग्गतो, ठाणइत्ताविन वारेंति पब्वइतओत्ति, रुधिरेण आयरिका छिक्का, पेच्छंति मार राया बिचावाडितो, मा परयणस्स उड्डाहो होहितित्ति आलोइतपडिक्कता अप्पणा सीसं छिदंति, तेवि कालगता, सोवि एवं ॥ ॥१८॥ इतो य हाबियदासो सालिकाए उवज्झायस्स कहेति-सुविणए ममं अंतेण नगरं वेढितं,एवं पभाए दिट्ठो, सो सुविणसत्थं जाणति,४॥ ताहे से घरं तूण मत्थओ धोतो, धृता दिण्णा, दिप्पितुं च आरद्धो, सीयाए णगरं हिंडाविज्जति, सो य राया अंतेपुरपालेहि | सेज्जावतीए दिट्ठो, सहसा उ कवितं, णातं, अपुनोत्ति अण्णेण दारेण णीतो, सक्कारितो, अस्सो य अधिवासितो, अम्भितरे हिंडावितो मज्झे, बाहिं निग्गतो राउलातो,तस्स हावियदासस्स पढि अड्डेति,पासंति य क तेयसा जलंत,सो रायामिसेगेण अभिसित्तो, राया जातो, ते दंडभडभोयगा दासोति न तहा क्णिय करेंति, सो चिंतति-जदि विणयं न करोति तो कस्स अहं रायत्ति ? अत्था| णीतो उल्लेत्ता अंतो पविट्ठो, पुणो निग्गतो, न उट्ठति, गेहधत्ति भणिता ते अवरोप्परं हसंति, तेण अमरिसेण अत्थाणीमंडविकाए | पडिहारा बिलोकिता, ते असिवग्गहत्था उद्विता, केवि भारिया, केवि बद्धति, पच्छा विणयं उवहिता, खामितो व राया। तस्स कुमारामच्चो नत्थि, सो मग्गति । इतो य कविलो नाम भणो नगरस्स बाहिरिगाए वसति,विकालिकं च साहुणो आगता,दुक्खं विकाले णगरं अतिगंमतिति ॥१८॥ तस्स अग्निहोत्तधरे ठिता, सो भणो चितेति- पुच्छामि ताणे किंचि जाणति गति, पुच्छिता, पकहिता आयरिया, सो सङ्की जातो तं चेव रमणि, एवं काले बच्चति अण्णदा अण्ण साधुणो तस्स घरे वासारत्तं ठिता, तस्त्र य पुचो जायमेतओ रेवयीहि SARKARISHA दीप अनुक्रम [११-३६] (186) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा गहितो, साधूर्ण मायणाणि कप्ताणं भायणाणं हट्ठा ठवितो ताहे नट्ठा वाणमंतरी, तीसे पया थिरा जाया, कप्पकोनि य तस्स & कल्पाकस्य ध्ययने णामं कतं, ताणि दोवि कालगताणि, इमो य चोदससु विज्जाट्ठाणेसु परिनिहितो नाम लभति पाडलिपुत्ते, सो य संतोसेण दाणं कुमारा गच्छति, दारिकाओवि लम्ममाणीओ णेच्छति पव्वइस्सामिति, अणगखंडिकसतेहिं परिवरिओ हिंडति । इतो तस्स निग्गमण-14 ॥१८॥ अतिगमणपहे एक्को मरुको, तस्स धूता जलूसकवाहिणा गहिता, लाघवं सरीरस्स नत्थि, अतीव रूविणीवि ण कोइ बरेति, महंती जाता, रुधिरं च से आगतं,माताए से पितुं कहितं, सो चिंतेति-भवज्झा एसा, कप्पयो सच्चसंधाओ, तस्स उवाएण देमि, तेण घरे कूवो खतो,तत्थ ठविता,तेण अतण कप्पओ नीति,इमो य महता सद्देण कृवितो-भो भी कविला! कूवे पडिता धूता, जो णं शनिथारेति तस्सेसा, तं कप्पओ सोनूणं पधातो, किवाए उत्तारिता य, अणेणं भणितो य-सच्चसंघो होज्जासि पुत्तकत्ति:, मताहे तेण जणवादभीतेण पडिवण्णा, अच्छति तीए सह परिभुजतो, ओसहेहि य विसदा जाता । रायाए य सुतं-कप्पओ पंडित ओत्ति, सहावितो विष्णवितो, रावाण पभणइ- अहं ग्रासाच्छादनं विनिर्मुच्य प्रतिग्रहं न करोमि । कई किंचि संपडिवज्जामि, चितेति-न तीरति निरखराही कारखं, ताहे से राया छिद्दाणि मग्गति, अण्णदा राजाए जो एताए साहीए निल्लेवतो सो सद्दावितो, 18 तुम कप्पकस्स पोचाणि घोबसि नवनि ?, भणति-घोयामि, ताहे राजा पभणितो- जदि एयत्चाहे आणज्जा तो से मा देज्जासि, | अण्णदा इंदमहे भज्जा से भणति-मज्झवि ता पोत्ताणि रयाबहित्ति, सो णेच्छति,सा अभिक्खणं २ बड़ेति, तेण पडिवण्यं, णीताणि ॥१८१॥ रजकघरं, सो भणति- अहंपि विणा मुल्लेण रजामि, सो छणदिवसेहि मम्गितो, अज्जह होत्ति कालहरण, सो छणो वोलीणो, तहवि न देति, एवं वितिए वरिसे ण दिण्णाणि, ततिए वरिसे, दिवसे दिवसे मग्गति ण देति, तस्स रोसो जानो, भणति कप्पओ दीप अनुक्रम [११-३६] (187) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणादि ते रुधिरे ण रयामि तो अग्गी अतीमि, तेहिं दिवसेहिं गतो छुरियं गहाय, सो रजको भज्ज भणइ- आणेहित्ति, दिण्णाणि, कल्पाकस्य ध्ययने तस्स पोई फालेता रुधिरेण रयावेति, भज्जा य भणति-रायाए बारिता मोति, किं ते एतेण अवरई, कप्पकस्स चिंता जाता-लाकुमारा एसा रण्णा माता, कुमारामच्चत्तणं णच्छितति, जादि पच्चइतो हुँतो तता कि एवं होतं, बच्चामि, मा गोहेहिं निज्जीहामिति । ॥१८॥ | गतो राउलं, राया उद्वितो, भणति-संदिसह किं करेमि', तं मम विष्णप्पं चिंतंतु तुम्भति, सो भणति- जाणसितंकीरतत्ति। & रखकसेणी य आगता, तं रायाए समं दर्ण उल्लावितुं गट्ठा, कुमारामच्चो ठितो, सच्वं रज्जं तदायत्तं जातं, पुत्तावि से जाता। कातीसे अण्णाणं च ईसरघूयाणं ॥ अण्णदा कप्पकस्स पुत्तविवाहो, सो चिंतेति-संतेपुरस्स रणो मनं दातम्चे, आभरणाणि णिज्जोगो। | य सो ताणं सज्जेति, जो य तेण कुमारामच्चो उबडितो सो तस्स छिद्दाणि मग्गति, तेण कप्पकस्स दासी दाणमाणसंगहिता | कता, जो तव सामियघरे दिवसोदन्तो तं परिकहेज्जाहित्ति, तीए पडिवणं, साहितं च जहा रण्णो नियोगो घडिज्जति, तेण छिदं । ल«ति रायाए पाएसु पडितो विष्णयति-जदिवि अम्हे तुम्हेहि अवगीता तहवि तई संतिकाणि सिस्थाणि धरति अज्जवि तेणं अवस्सं कहेतब जथा किर कप्पतो तुम्भ अहित चिंतेत्ता पुतं ठवेति, रायणिज्जोगो सज्जिज्जति, पेसविता चारपुरिसा, दिईला रुट्ठो राजा, सकुटुंबो कवे छूढो, कोद्दवकूरसेतिका पाणियगलंतिका य सिं दिज्जति सव्वाणं, ताहे सो भणति- एएण सव्वेहिवि मरियच्च, जो सक्को कुलोद्धरणं करेति वेरनिज्जायणं च सो जेमतु, ताणि भणति- अम्हे असमत्याणि, भत्ताणि पञ्चक्खामो,॥१८॥ तेहिं पच्चक्खातं, ताणि देवलोगं गताणि, कप्पओ तं जिमति, पच्चतरातीहि य त सुतं जहा कप्पओ विणासितो, जामो गिण्हामो गंदाति आगतेहि पाटलिपुत्तं बेदित, नंदो चिंतेति-जदि कपको होतो तो ण एते एवं अभिहवंता, पुच्छिता चाररक्खपाला- अस्थि दीप अनुक्रम [११-३६] (188) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१८३॥ - कोइ? भत्तं परिच्छति ? जो तस्स वंसे कोइ दासोवि महामती, तेहिं भणितं अस्थि, ताहे आनंदपण उक्कोएत्ता पीणितो पंडल्लुइतो, वेज्जेहिं संखितो, आउक्खसा कारिते पागारे दरिसितो कप्पओ, ते भीतर डंडा ससंकिता जाता, गंदं च परिहीणं जातूणं सुतरं अदिति, ताहे लेहो विसज्जितो जो तुम्भं सब्बेसिं अणुमतो सो एतु तो संधी जं वा भणीहि तं कज्जिहिति, तहिं दूतो विसज्जितो, कप्पओवि निग्गतो, नदीए मज्झे णावाए मिलितो कप्पओ हत्थसणाहिं भणितं उच्छुकलावकस्स हेडा उबारे चण्णिम्स मज्झे किं होति १, दहिकुंडगस्स हेट्ठा उचरिं च छिण्णस्स मज्जे किं होतु १, घसित्ति पडितस्स किं होतित्ति भणित्ता तं पदाहिण करेंतओ पडिनियत्तो, इतरो विलक्खओ नियत्तो, पुच्छितो लज्जति अक्खाइतुं, पलवति बहुकोचि अक्खातं, नड्डा, गंदोचि कप्पएण भणितो- सण्णहह पच्छतो, आसहत्थी पगहिता, पुणो ठवितो तंमि ठाणे, सो य निघाडामच्चो मारितो । तस्स कप्पकस्स वंसो दर्वसेण समं अणुयत्तति, नवमओ नंदवंसच्यस्तो महापद्मो, कप्पगर्वसे सगडालो कुमारामच्ची । तस्स पुतो धूलभदो सिरियओ, धृताओ जक्खा जक्खदिण्णा भूया भूयदिष्णा सेणा वेणा रेणा ॥ इतो य वररुयी धिज्जाइतो असणं वित्तार्ण र्णदं थुणति दिवसे दिवसे अपुल्येहिं राया तुट्टो सगडालं पलोएति सो न तूसतित्ति न देति, वररुणा सगडालभज्जा पुप्फादीहिं ओलग्गिता, मणति-सगडालो पसंसतु सुभासितंति, सो तीए भणिओ, पच्छा भणति किह मिच्छतं पसंसामिति, एवं दिणे दिणे गणती महिलाए करणि कारितो अण्णदा भणति सुभासितंति, ताहे दिणाराणं असयं दिष्णं, पच्छा दिणे दिणे पदिष्णो, सगडालो चिंतेति-निट्ठितो रायकोसो होतिति भवति भट्टारगा! किं तुम्भे एयस्स देहतिः, तुमेहिं पसंसियाचे, भणति अहं पसंसामि लोककल्याणि अविणडाणि पद्धतित्ति, राया भणति-किं लोककव्वाणि ?, सगडालो भणति एवं मम धूताओषि पति, किमंग (189) महापद्मनन्दस्य शकटालो मात्यः वररुचिवृत्तं ॥१८३॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक प्रतिक्रमणा । ध्ययने ॥१८॥ [सू.] + गाथा: ||१२|| ARRAT पुण अण्णो लोको?, जक्खा एक्कास सोतूणं गिण्हति वितिका वितिके ततिका ततिके वारे गण्हति,ताओ अण्णदावि परिसंति अंतेपुरं, महापननजवणिकाअंतरिताओ कताओ, चररची आगतो धुणति, पच्छा जक्खाए गहितं, ताए कविय, वितियाए दोण्हवारं सुतं, ततियाएला न्दस्य तिग्नि चार सुतं ताएवि कड्डियं, रायाएवि पत्तीतं तं, वररुचिस्स दारं चारितं । पच्छा सो दीणारे रति गंगाए जैते ठवेति , ताहेशकटालाइ | दिवसतो थुणति गंगं, पच्छा पादेण आहणति, गंगा देतित्ति एवं लोगो भणति , कालंतरेण नायाए सुतं, सगडालस्स कहेति मात्य: | तस्स किर गंगा देति, सगडालो भणति-जदि मए गते देति तो देति, कल्लं वच्चामो,तेण पच्चायतो मणुस्सो विसज्जितो, विकाले | पच्छण्णो अच्छाहि, जं वररुई ठवेति तं आणेहि, सो गतो, आणीता पुट्टलिका, सगडालस्स दिण्णा, गोसे गंदो आगतो पेच्छति | थुर्णतं, धुणे निचुड्डो हत्थेहिं पादेहि य जंतं मग्गति, नत्थि, बिलक्खो जाओ, ताहे सगडालो तं पोट्टालियं दरिसेति, रण्णा | ओभामितो गतो, पुणो छिद्दाणि मग्गति सगडालस्स एतेणं सव्वं खोडितंति । अण्णदा सिरिकस्स विवाहो, रण्णो आयोगो है। सज्जिज्जति, वररुचिणा तस्स दासी ओलग्गिता, तीए कहितं-रंणो मनं देहित्ति,ताहे तेण चितित-एतं छिद्दति चेडरूवाणं मोदए दातूर्ण इमं पाढेति-णदो राया णवि जाणति, सगडालो करेहिति।नंदोराया मारेविणु, सिरियं रज्जे ठवेहिति॥शाताणि * पढंति, तं रण्णा सुतं, गवेसावित, दिट्ठ, कृवितो राजा, जतो जतो सगडालो पाएम पडति तओ तओ राया पराहुत्तो ठाइ, सग डालो परं गतो, सिरिओ महापडिहारो नंदस्स.तं भणति-पुत्त! किं अहं मारेज्जामि? सव्वाणि मारिज्जंतु, तुमं ममं रणो पादपडितं मारेहि, सो कण्णे ठएति, सगडालो भणति-अहं तालपुडं विसं खामि पायपडितो अहं, ततो तुम पुत्वं मतं ममं मारेहि, सिरिएण ॥१८॥ पडिस्मुत, वाहे मारितो, राया उडितो, हा हा अहो अकज्ज, सिरिओ भणति-तो तुम्भ पाचो सो अम्हं पए व पावोत्ति, दीप अनुक्रम [११-३६] (190) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा सक्कारितो, सिरिओ भणितो-कुमारामच्चत्तर्ण परिवज्जाहि, सो भणति-मम भाता जेड्डो थूलभद्दो बारसमं वरिसं गणि- स्थूलभध्ययने यघर पविद्वस्स, सो सहावितो, भणति-चिंतेमि, राया भणति- असोगवणिकाए चिंतेहि, सो तत्थ अतिगतो चितेति-द्रिस्य दीक्षा ॥१८५॥ ४ करिसं भोगकजं पक्खिताणं , पुणरवि नरकं जाइतव्यं होहिति, एते णाम एरिसा भोगत्ति पंचमट्टितं लोयं कातूण ४ वररुचेपाओतं कंबलरतर्ण रजोहरणं छिदित्ता रण्यो मूले गतो, एवं चिंतितं, राया भणति-सुचिंतितं, निग्गतो , राया चितेति-पेच्छामि | मरणं कि विडत्तणेण गणियाघरं पविसति गवति, आकासतलगतो पेच्छति, नवरं मतगकलेवरस्स जणो ऊसरति मुहाणि य| । ठवेति, सो मझेण गतो, राया भणति- निविणकामभोगो नु भगवति, सिरितो ठावितो । सो संभूतविजयस्स मूले पवइतो ।। सिरितो किर भातुणेहेण कोसाए गणियाघरे अल्लियति, सा य अणुरता धुलभद्दे अण्णमणुस्से णेच्छति, तीसे कोसाए डहरिका भगिणी ओवकोसा, तीए समं वररुची वसति, सो सिरिओ मातुज्जामूले भणति- एतस्स निमित्तं अम्हे पितुमरणं भातुवियोग च सपना, तुज्झ य पियवियोगो जातो, एतं सुरं पाएहित्ति,तीए भगिणी भणिता-तुमं मत्तिका सो अमत्तो जे व तव भणिधिसि,विरागो। से होहिति, एतं पियाएहि सा पपाइता, सो नेच्छति, सा भणति- अलाहि ममं तुमे, ताहे सो तीसे अवियोग मग्गंतो चंदप्पमं । ४ सुरं पियति, लोगो जाणति खीरति, कोसाए सिरिकस्स कहितं, राजा सिरिक भणति- एरिसो तव पिता मम हितिको आसि, में सिरिको भणति- सच्चकं भट्टारक! एतेण मत्वालएण एवं कर्त, राजा भणति- मज्ज पियति', पियह, कह?, तो पेच्छह, सो ॥१८५॥ राउलं अतिगतो, तेण उप्पल भावितेल्लकं मणुस्सहत्थे दिण्णं,एयं वररुइयस्स देज्जासि, इमाणि अण्णेसि, मो अत्थाणिकाए पभा-11 इतो, जो सो भावितओ सो बररुइस्स दिण्णो, जं चेव अग्याति तंचव भिंगारेण आगतं, निच्छूढो, चातुबेज्जेण पादच्छिा दीप अनुक्रम [११-३६] r (191) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ।। १८६ ।। - ततकतकं पज्जितो मतो ॥ धूलभदसामीवि संभूतविजयाणं मूले घोराकास्तवं करेति विहरंता पाउलिपुत्तं आगता, तिणि अणकारा अभिग्गई गुण्डंति, एगो सीहगुहाए, तं पेच्छंतओ सीहो उसंतो, अण्णो सप्पगुहाए, सोचि दिडिविसो उवसंतो, अण्णो कूवफलए, धूलभदो कोसाए घरे, सा तुडा परीसहपराजितो आगतोनि, भणति किं करेमि १, उज्जाणघरे ठाणं देहि, दिण्णं, रसि सव्यालंकारविभूसिता आगता, चाई पकिता, सो मंदरोपमो अकंपो, ताहे सन्भावेणं पडिस्सुणेति धम्मं, साविका जाया, भणति जदि रायवसेणं अण्णेणं समं वसेज्जा, इतरहा बंभचारिणीवतं गेण्हति, ताहे सीहगुहातो आगतो चत्तारिवि मासे उपवासे कातूर्णं आयरिएहि ईसिति अति भणितोय सागतं तव दुक्करकारकत्ति, एवं सप्पइतीचि कूत्रफलगइतोवि, धूलभद्दसामी तत्थेव गणिकाघरे भिक्खं गण्डति, सोवि चतुम्मासेसु पुण्णेसु आगतो, आयरिया संभमेण उद्विता, भणितो य- अतिदुक्करकारकत्ति, ते भति तिष्णिवि- पेच्छह आयरिका रागं वहति अमुच्चपुत्तोति । त्रितियए वरिसारत्ते सीहगुहासमणो भणति गणियाघरं बच्चामिति अभिग्गई गेण्हति, आयरिया उवउत्ता, वारितो, अपडिस्सुर्णेतो गतो, बसही मग्गिता, दिण्णा, सा सम्भावेण ओरालसरीरा विभूसिता अविभूसिया वा, सुणेति धम्मं, सो तीसे सरीरे अज्झोववण्णो ओभासात, भणति-जदि नवार किंचि देखि, किं देमि, सतसइस्सं, सो मग्गितुमारद्धो, नेपालविसए सावओ, जो तर्हि जाइ तस्स सतसहस्समुल्लं कंबलं देति, तहिं गतो, दिष्णं तेण सरायाणपण, एति, एकत्थ चोरेहिं पंथो बद्धो, सउणो वासति सयसहस्सं एति, चोरसेणावती जाणति, नवरं संजतं पेच्छति, वोलीणी, पुणो वासति, सतसहस्से गतं, तेण सेणावतिणा गंतूण पलोहतो, सम्भावं पुच्छितो भणति अस्थि कंबलो, गणिकाए मि, मुक्को, गवो, तीसे दिण्णो, ताए चंदणिकाए छूढो, सो भणति मा विणासहि, सा भयति- तुम एवं सोयसि अप्पाणं गवि, (192) श्रीस्थूलभद्रस्य अतिदुष्करकास्तिा ॥१८६॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ १८७॥ तुम एरिसओ चैव होहिसि, उवसामेति लद्धबुद्धी, इच्छामि बेदावच्चति गतो, पुणोवि आलोवेचा विहरति । आयरिएहिं भणितोंएवं दुक्करदुक्करकारओ थूलभद्दो, पुण्वं खरिका इच्छति, इदाणि सड्डी जाता अदिट्ठदोसा तुमे पत्थितत्ति उवालद्धो, एवं चैव विहरति ॥ सा गणिका रधिकस्स रणा दिण्णा, तं अक्खाणं जथा नमोकारे न दुकरं तोडितु अब ० । तंमि य काले वारसवरिसो दुक्कालो उबडितो, संजता इतो इतो य समुदतीरे अच्छिता पुणरवि पाडलिपुते मिलिता, तेर्सि अण्णस्स उद्देसओ अण्णस्स खंड एवं संघाडितेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि, दिडिवादी नत्थि, नेपालवाणीए य भदवाहुस्सामी अच्छंति चोदसपुच्ची, तेसि संघेणं पत्थवितो संघाडओ दिट्टिवादं चाएहित्ति, गतो, निवेदितं संघकज्जं तं ते भतिदुक्कालनिमित्तं महापाणं ण पविट्टो मि, इयाणि पविडो मि. तो न जाति वायणं दातुं पडिनियतेहिं संघस्स अक्खातं, तेहिं अण्णोवि संघाडओ विसज्जितो- जो संघस्स आणं अतिक्कमति तस्स को डंडो १, ते गता, कहितं तो अक्खाइ उघाडेज्जर, ते भगति मा उघाडेह, पेसेह मेहावी सत्त पाडिपुच्छगाणि देमि, भिक्खायरियाए आगतो १ कालवेलाए २ सण्णाए आगतो ३ | वेयालियाए४ आवस्सए पडिपुच्छा तिष्णि, महापाणं किर जदा अतिगतो होति ताहे उप्पण्णे कज्जे अंतोमुहुत्तेण चोहसवि पुण्याणि अणुप्पेहेज्जति, उक्कइओवइयाणि करेति, ताहे धूलभरसामिप्यमुक्खाणि पंच महावीर्ण सताणि गयाणि, ते य पपढिता, मासेण एकेण दोहिं तिहित सच्चे ओसरिता, न तरंति पाढिपुच्छरणं पढितं, धूलभरसामी ठितो, थैवावसेसे महापाणे पुच्छितो न हु फिलमसि १, न किलंमामि, खमादि कांच कालं, तो दिवस सब्बं वायणा होहिति, पुच्छति किं पढितं १, केचियं वा अच्छति? आयरिया भणति अट्ठासीति मुत्ताणि, सिद्धत्यकेण मंदरेण य उपमाण, भणिओ य एतो ऊगतरेणं कालेणं पढि (193) स्थूलभद्रस्य पूर्वपाठ: 1122011 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१८८॥ हिसि मा विसादं बच्चेज्जासि, समते महापाणे किर परियाणि णव पडिवुष्णाणि, दसमकं च दोहिं वत्थूर्हि ऊणकं एतंमि अंतरे विहरन्ता आगता पाडलिपुचं, धूलभहस्स य ताओ भगिणीओ सत्तवि पव्वइतिकाओ भांति आयरिका ! भाउकं बंदका बच्चामो, उज्जाणे किर ठितेल्लका, आयरिए वंदित्ता पुच्छंति कहिं जेडुभाते ? भणति एताए देवकुलिकाए गुपति, तेण य चिंतितंभगिणीणं इडि दरिसेमित्ति सीहरूवं विउच्चितं, ताओ सीई पेच्छति, ताउ चैव भीता नट्ठाओ, भांति सीहेण खइओ, आयरिएणं भणितं ण सो सीहो, धूलभहो, जाह इदाणिं, ताहे गताओ, वंदिओ य, खमकुसलं पुच्छति, जथा सिरिओ पन्चहतो, अम्मत्तद्वेणं कालगतो, महाविदेहे य पुच्छिका गता अज्जा, दोवि अज्झयणाणि भावणा विमोची य आणिताणि, वंदित्ता गताओ । वितियदिवसे उद्देसणकाले उबट्ठितो, न उदिसंति, किं कारणं १, अजोगो, तेण जाणितं कल्लत्तणकं भणति ण काहामि, भणति ण तुमं काहिसि, अण्णे काहिंति, पच्छा महता किलेसेण पडिवण्णा उपरिहाणि चत्तारि पुव्वाणि पढाहि मा अण्णस्स देज्जासि, ते चत्तारि ततो वोच्छिणा, दसमस्स य दो पच्छिमाणि वत्थूणि वोच्छिष्णाणि, दस पुष्याणि अणुसज्जेति । एवं सिक्वं प्रति योगा संगहिता धूलभरसामिणा ५ ॥ निष्पडिकम्मसरीरतणेणं जोगसंगहो कातव्वो । तत्थ इमं विधम्मेण उदाहरणं ११ १२ १३८२ ।। पतिट्ठाणे नगरे नागवस् सेड्डी, णागसिरी भज्जा, सङ्काणि, नागदतो पुचो णिविणकाम भोगो पवतो, सो पेच्छति जिणकाणं पूयासक्कारं, विभासा, परिमापडिवण्णकाणं च विभासा सोवि भणति अहं जिनकप्पं पडिवज्जामि, आयरिएहिं बारिओ, न द्वाति, सतं चैव पडिवज्जति, णिग्गतो, एगत्थ वाणमंतरे पडिमं ठितो, देवताए सम्मदिट्टिकाए मा विणस्सिहितित्ति इत्थिरूवेणं उवहारं महाय जगता, वाण (194) निष्प्रतिकर्मशरीरत्वं ॥१८८॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत अज्ञातो सूत्रांक ESS + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाट मतरि अंचेचा मणति-गेहद खमणत्ति, पललकुरो भक्खरूवाणि य गहियाणि, खाइत्ता पडिम ठितो, जिणकप्पिका ण सुवंति, पोडयोसरिका जाता, देवताए आयारयाणं कहितं, सो सेहो अमुकत्थति, तो साधू पेसिता, आणीता, देवताए भणितं बेल्लगिरि ॥१८९॥ देज्जाह, ठितं, सिक्खितो य, न एवं कातव्वं पडिकम्म ६ ॥ इदाणिं अण्णाततत्ति, जं उबहाणं कीरति तं पच्छण्णं कातव्बं, एवं कतं न नज्जेज्ज पुणो, न गुणपूजादिनिमित्तं परिण्णातं कातव्यं । तत्थ उदाहरणं-१७,१३।१३८४॥ कोसंबी नगरी, अजितसेणो राया, धारिणी देवी, धम्मवग्गू आयरिया, ताणं | दो सीसा-धम्मघोसो य धम्मजसो य, विगतभया महत्तरिका, विणयवती सीसिणिक्का, तीए भत्तं पच्चक्खातं, संघण महता | भइड्डीए निज्जामिता विभासा, ते धम्मवग्गूसीसा दोषि परिकम करेति । इतो य उज्जेणीये पज्जोतसुता दोण्णि-पालओ गोपालओ य, गोपालओ पब्बइतो, पालगो रज्जे ठितो, तस्स दो पुत्तारज्जबद्धणो अबतिवद्धणो य,पालको अवतिबद्धणं राजाणं रज्जबद्धणं जुवरायाण ठवेत्ता पम्वइतो.रज्जबद्धणस्स भज्जाधारिणी,तीसे पूतो अवंतिसेणो, अण्णदा अतिवद्धणो राया धारिणीए उज्जाणे बीसत्थाए सब्बंगाई दतॄणं अज्झोववण्यो, दूती विसज्जिता, सा गच्छति, पुणो पुणो पेसेति, तीए अहाभावेण भणित-भातुकस्सबि न लज्जति?, तेण सो मारितो, विभासा, तंमि वियाले सगाणि| आभरणाणि गहाय कोसंबी सत्यो बच्चति तत्थ एगस्स सगस्स वाणियगस्स अल्लीणा गता, कोसंबीए संजतीण पुच्छिता वसहिं, रण्यो जाणसालाए ठिताओ, तत्थ गता, बंदित्ता साविकत्ति पव्वइता पुच्छासुद्धा, तीसे य गम्भो अहुणोचवण्णो बढति, मा ण पवावेहिंतित्ति तं ण अक्खातं, पच्छा जाते महरिकाए पुच्छिता, ताए सम्भावो कथितो जह रट्ठबद्धणमज्जाह, संजतिमझे Ca दीप अनुक्रम [११-३६] ADHAIRPERS 14-%956 (195) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा[अप्पसारिफ अबछारिता,विजाविता रति, साधणीणं मा उहाहो होहितित्ति, ताहे सा अंतउर अतीती, नाममा आमरणाणि यावा ध्ययने उक्खणित्ता रणो अंगणए ठवेत्ता पच्छण्णे अच्छति, अजितसेणेणं आगासतले गतेणं पभा मणीण दिहा, गहितो यणेण, अम्ग पधानता महिंसीए दिण्णो, सो य अपुत्तो। सा संजतीहिं पुग्छिता भणति-उदाणकं जातंति, विकिंचित, खइयं हाहातात, वाहे सा अतपुर | अतीति णीती य, अंतपुरिकाहिं सम मित्तया जाया, तस्स मणिप्पभोत्ति नामं कत, सो राया मतो, मणिपभो राया जातो, सो है य तीए संजतीए धारिणीए णेहं वहति। सो य अबतिवद्धणो पच्छातावेण भातावि मारितो सावि देवी न जायत्ति भातुणेहेण य अवंतिसेणस्स रज्ज दातूण पच्चइतो। सो य मणिप्पमं कप्पा मग्गति, सो य ण देति, ताहे सब्बबलेणं कोसंबी पधावितो । ते य दोवि अणकारा परिकमे समचे दएको चिंतेति जथा विणयवतीए इड्डी तथा ममचि होतुत्ति नगरे भत्तं पच्चक्खाति, वितिओ धम्मजसो विभूसं नेच्छतो कोसंबीए उज्जणीए अंतरा बत्थकातीरे पब्बतर्कदराए एकत्थ भत्तं पच्चक्खाति । ताहे तेणं अवंतिसेणेण कोसंबी रोहिता, तत्थ जणो य अप्पए अद्दण्णो न कोति धम्मघोसस्स अल्लियति,सोय पत्थितमत्थमलममाणो कालगतो, वारहिं निष्फेडो न लम्मतिसि पागा॥१९॥ रस्स उबरिएण एडितो, सा पब्वइतिका चिंतति-मा जणक्खयो होतुति रहस्सं मिंदामि, बंतपुर अतिगता, मणिपर्भ उस्सारिचा ॥१९ ॥ काभणति-कि भातुएण समं कलहेसि.सो भणति-कहंति, ताहे सवं परिवाडीए कहेति जदिन पत्तियसि मातरं पुग्छाधि, पुच्छात, तीए णात-अवस्सं रहस्सभेदो जाओचि, कहितं जथावत्तं, रहबद्धणसंतिगाणि य आभरणाणि पनामझदाय दाइया पनीता भणति- जदि ओसरामि ता मम अजसो, भणति-तंपि बोहेहि, एवं होतुति निग्गता, अचंतिसणस्स णिवेदितं-पष्माका B53845555 दीप अनुक्रम [११-३६] (196) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाला दङ्कमिति, अविणवा, पादे दळूण गाता अंगपडिचारिकाहिं, ताउ पादपडिताओं परुण्णाउ, कहितं तव मातत्ति, सोविल अलामत ध्ययने पादपडितो परुष्णो, तस्सवि सव्यं कहेति एस ते भाता, दोवि बाहिं मिलिता, अवरोप्परं अवदासतूणं परुण्णा,कंचि काल कोसंबीए। | अच्छित्ता दोषि उज्जेणी पधाविता, मातादि सह महरिकाहिं नीता जाव बच्छकातीरं पत्चाणि, ताहे जे तंमि जणपदंमि साधुणो ५ लाते बंदए ओतरते विलग्गते य दळूणं पुच्छति, ताहे ताहिवि वंदितो, वितियदिवसे राया पधावितो, ताओ भणति-भत्तपच्चरखाकातओ एस्थ ता अम्हे अच्छामो, ताहे ते दोवि रायाणो ठिता दिवे दिवे महिमं करेंति, कालगता, एवं ते गया रायाणा, एवं तस्सका अणिच्छमाणस्सवि जाता, इतरस्स इच्छमाणस्स न जाता पूजा ७॥ I लोभविवेगताए जोगा संगहिता भवंति, अलोभता तेण कातन्वा, कह?, तत्थोदाहरण-१७-१५।१७।।१३८५।१३८७ ।।साहतं. नगरं पोंडरीओ राया कंडरीको जुवराया, जुगरण्यो भज्जा जसभद्दा, ताहे पुंडरीओ तं पत्थेति तहेव सो जुवराया मारितो, साविमा लासावस्थि, अहुणोचवण्णगम्भा जाता, अजितसणो आयरिओ, किसिमती महत्वारिका, सा तीए मूले पबईता जथा धारिणी तथाला विभासितव्या गवरि दारओ न छड़ितो, खुडगकुमारोत्ति से नामं कर्त, पब्बइओ, सो जोवणत्या जातो चिंतेति-पव्वज्जन तरामि कातुं, मातरमापुच्छति जामि, सा अणुसासति, तहविन ठाति, ताहे भणति-तो खाइ मम निमित्तं बारस वरिसाणि करेहि लापव्यज्ज, मणति-करेमि, पच्छा आपुच्छति, महचारिक आपुच्छाहित्ति, तीए वारस बरिसाणि, उबज्झायो वारस वरिसाणि, आयरिओ₹ा वारस वरिसाणि, सवाणिवि अद्वचत्तालीसं बरिसाणि, तहवि न ठाति, विसज्जितो, ताई पच्छा माताए भणिता-मा जहिवा।। तहि वा बच्चाहि, महल्लपिता तुज्य पुंडरीको तहिं वच्चाहि, इमा ते पितुसंतिका नाममुदिका कंबलरतणं च मए जीणित, दीप अनुक्रम [११-३६] ॥१९ ॥ य . . . (197) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ध्ययने सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा एताणि गहिय वच्चाहित्ति गती गगरं, रण्णो जाणसालाए आवासितो कल्लं रायाणं पेच्छामित्ति, तहिं च रत्तीए नट्टिका नति, सोतितिक्षायां 5य खुडओ आम्भितरपरिसाए पेच्छतित्ति,साय नट्टिका सब रति नच्चिऊणं पभातकाले निदाति, ताहे सा धोरिया चितेति-तोसितारन्द्रत ११९ परिसा बहुगं च लद्धं, जदि एत्थ वियति तो धरिसिता मोति इमं गीतियं पगीता, मुटु गाइतं सुटु वाइतं० । एत्थंतरे है || खुट्टएणं कंबलरतणं उच्छूटं, जसभदो जुवराया, तेण कुंडलं सतसहस्समुलं, सिरिकता सत्यवाही, तीएवि हारो, जयसंधी अमच्ची, 15 दाणवि कडगो, कण्णवालो मेंठो, तेण अंकुसो, जो य किर तत्थ तूसति रूसति वा देति वा सो सव्वो लिखिज्जति, जदिल जाणति सुट्ट, न जाणति तो डंडो तेसिन्ति,एवं सम्येवि लिहिता, पभाए सद्दावितो पुच्छितो खुट्टओ-तुमे किं दिणं, सो जथा ४ा पिता मारितो तं सव्वं परिकहति, न समस्थो जै सम अणुपालेतुं तो तुम्भ मूलं आगतो, रज्जं लभिमित्ति, सो मणति-देमि, लखुाओ भणति-अलाहि उ, सुविणतओ बट्टति, मारेज्जा, मा व पुबकतोवि संजमो णासिहिति । जुवराया भणति-मारेतु मग्गामि, थेरो राया रज्जं न देवित्ति, सोवि दिज्जतं णेच्छति । सत्थवाहमज्जा भणति-बारस बरिसाणि पउत्थस्स, पंथे वट्टति, तो अण्णं | पवेसेमिति बीमंसा बद्दति । अमच्चो अण्णेहिं रायाणेहि समं घडामि । हत्थिमेंठं पच्चतरायाणो भणति-एतं हरिथं मारेहि आणेह है बत्ति । ते भणिता रण्णा तहा करेहति, णेच्छंति, खुङगकुमारस्स मग्गतो लग्गा पब्वइता । तेहिं सबेहिवि लोभो परिचत्तो ८॥ तितिक्खा कातव्वा । जहा सामाइके चक्कदिढते १७१८१९ ॥ १३८८-१३८९ ॥ इंदपुर इंददत्ते बावीस सुता सुरिंददत्ते य । पब्बइए निव्वतिसुता आगमण स रज्ज देज्जा य॥१॥(महुराए जियसत्तू सयंवरो निब्बुहए उ म१-१८११३८८ अग्गियओ पब्बतओ पहुलिय तहसागरी य योद्धव्यो। पक्कदिवसेण जातामहुराए सुरिंदवत्तीय दीप अनुक्रम [११-३६] IDI|१० (198) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक ध्ययने शाचं ॥१९३॥ + गाथा: ||१२|| १७१९ ॥ १३८९ ।। वृत्तं महुराए चव बीयं नाम इंदपुरति ॥ आजवम् .. अज्जवलणं नाम अज्जनणं तं कायवं, तत्थ उदाहरणं १७-२०॥१३९०॥ चपाए कोसियज्जो अज्झावओ, तस्स दो सीसा, ४ अंगओ, से भद्दओ, तेण अंगरिसित्ति नामं कर्त, रुद्दओ य वियओ, सो गंठिभेदओ. ते दोवि दारुयाणं पत्थविता, अंगरिसी दारुयाणं भारगं गहाय पडिएति, इमोवि दिवसं रमित्ता विकाले संभरितं ताहे पधावितो अडवी, तं च पेच्छति दारुभारेणं एंत, | सो चितेति णिच्छूढो होमिति । इतो य जोगजसा नाम वच्छवाली पुत्तस्स पंधगस्स भ नेतूर्ण दारुभारएण एति, रुद्दएणं सा ट्रागदाए मारिता, दोरुभारगं गहाय अण्णेण मग्गेण पुरतो अतिगतो, उवज्झायस्स हत्थे बिहुणमाणो कहेति-एतेण तुज्झ सुंदरसी | सेण जोतिजसा मारिता वराई, विभासा, सो आगतो, धाडितो, वणसंडे चिंतेति, सुभझवसाणं जातीसरणं संजमो केवलनाणं, ४ा देवा महिमं करेंनि. देवेहि कहितं जथा एतेण अम्भकखाणं दिण्ण, रुदओ लोकेणं हीलिज्जति, सो चिंतेति-सच्चयं मए अब्भक्खाणं | दिणति, सो चिंततो संबुद्धो पत्तेयबुद्धो जातो, बंभणो भणी य पब्बइताणि, चत्तारिवि सिद्धागि १०॥ मुईनाम सर्च, सच च संजमो, सो चेव सोयं, सच्च पति जोगसंगहणं । तत्थ उदाहरण-१७-२१ ॥१३९१।। सोरिक नगरं सुरंबरो-II जक्खो, तत्थ घणजओ सेट्ठी सुभद्दा मज्जा, तेहिं सुरंबरो नमंसितो-जदि पुत्तो जाति तो महिसगसत देमोनि, ताण संपत्ती जाता, 18 ताणि संघुजिाहितित्ति महावीरसामी समोसरितो, सेट्ठी निग्गतो, सभज्जो संयुद्धो, अणुब्बताणि गहिताणि, सो जक्खो सुविणएला मग्मति महिससए, तेण पिदुमता दिण्णा । सामिस्स दो सीसा धम्मघोसो धम्मजसो य, एगस्स असोगपादवस्स हेवा गुणेति, ते | | पृब्वण्हे ठिता, अबरण्हेवि छाया ण परियत्तति, एक्को भणति- तुझं लद्धी, वितिओ भणति-तुझं, एको कातिकभूमिं गतो, तहेब | दीप अनुक्रम [११-३६] %A5%CE%ER (199) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक प्रतिक्रमणा ध्ययने १९ है EAKER + गाथा: ||१२|| अच्छति, बिइओघि गतो, तहेव अच्छति, तेहिं णातं जथा न एकस्सवि लद्धीसामी पुच्छितो, इहेव सोरिए जहा समुद्दविजयो राया सम्यग्दर्शन आसि, जण्णजसो तावसो भज्जा सोममित्ता पुत्तो तीसे जष्णदत्तो, सोमजसा सुण्हा, ताण पुत्तो नारदो, ताणि उंछवित्तीणि,एक-द्र शुद्धिः दिवस जेमेंति, एकदिवस उपवास करति,ताणि तं नारदं पुष्वण्हे असोगपादयस्स हेवा ठवेऊणं उछति । इतो य वेदहातो बेसमणकाइका देवा जंभका तेणं अंतणं वितीवयंति, ते पेच्छंति दारंग, ओधिणा आमोईति, सो तातो देवनिकायातो चुतो, ते ताए अणुकंपाए तं छाहि मंति। एसा असोगपुच्छा नारदुप्पत्ती य । सो उम्मुकबालभावो तेहि भएहिं विज्जाओ पणत्तिमादीओ पाढितो, कंचणकुंडियाए मणिपाउयाहि आगासेण हिंडति, अण्णदा बारवतिं गतो, वासुदेवेण पुच्छितो- किं सोयति', सो न तरति निय्येहेतु, वक्खेवं काऊण अण्णाए कहाए उट्ठति, पुथ्वबिदेहे सीमंधरं तित्थगरं जुगवाहू वासुदेवो पुच्छति-किं सोय, तित्थगरेण भणितं- सच्च सोय, तेण एक्केण पादेण सर्व उवलद्धं, पुणो अवरविदेहं गतो, जुगधर तित्थगरं महाबाहूतं चेवर पुच्छितो, तस्सवि सव्वं उवगतं, पच्छा बारवति आगतो वासुदेवं भणति- किं ते तदा पुच्छितंति , सोयं, भणति-सच्चं , कि सच्चति पुच्छितो पुणो खोमाइतो, वासुदेवेण भणित-जहि ते तं पुच्छित तहिं एतपि पुच्छितवं होतंति खिसितो, ताहे भणति-: सच्चं मट्टारओ न पुच्छितोत्ति, चिंतितुमारदो, जाति सरिता, संबुद्धो, पढमं अज्झयणं सोच्चमेव वदति। एवं सोएण जोगा R संगहिता १९॥ सम्यग्दर्शनविशुद्ध्यापि किल योगाः संगृह्यन्ते । तत्थ उदाहरण-१७-२४।।१३९४।। साकेते महाबलो राया, पुच्छति-कि नात्य | मम जे अण्णाराईणं, चित्तसभा, कारिता, दो विक्खाता चित्तकारका तेसि दिण्णा विमलो पभासो य, जइणिकाअंतरिया चिति, दीप अनुक्रम [११-३६] (200) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१९५|| एक्कण निम्मविता, पक्कण भूमी फता, रायाए तस्स दिहूं, तुट्ठी य पूहतो, पभाकरो पुच्छितो भणति-भूमी कता, न ताव चित्तेमि,। जसमाधान सो चिंतेति-केरिसा भूमी कता ?, गतो, जणिका अवणीता, इतर चिचकम्मं तत्थ दासीत, राया कुविओ, पण्णविओ, पभणति-| आचारोपमा एस्थ संकता, तं छाइयं, नवरिं कुठं पेच्छति, तुट्ठो, एवं चेव अच्छतुति भणितो, एवं सम्मत्तं बिसुद्धं कातव्वं । एवं जोगा संग-! पगत्वं हिता भवंति १२ ॥ समाधाणं-चित्तसमाधाण । तत्रोदाहरण-सुदंसणपुर नगर, सुसुणागो गाहापती, सुजसा भज्जा, ताणि सट्टाणि, सुव्यतो सापुत्तो, सुहेण गम्भ अभिडतो मुहेण जातो एवं वह्नितो एवं जाव जोन्यणत्यो संबुद्धो, आपुग्छिता पबहतो, एकल्लविहारपडिम पडिवण्णो, सक्कपसंसा, देवेहि परिक्खितो अणुकूलेण-धष्णो कुमारसंभयारी एक्केण, बितिएण को एताओ कुलसंताणच्छेदगाओ अधण्णोत्तिा, सो भगवं समो, एवं मातापिताणि से विसयपसचाणि दंसिताणि, पच्छा मारिजंतगाणि कलुणं कहेंति, तहावि समो, ४ पच्छा सव्ये उद् विउन्धिया, दिव्वाए इरिथगाए सविम्भमं पुलोइयमुक्कदोहनीसासमवगूढो तथावि संजमे समाधिततरो जातो, केवलं उप्पणं जाव सिद्धो १३ ॥ आयारउवगच्छणताए जोगा संगहिता भवन्ति । उदाहरण-पाडलिपुत्ते हुतासणी माहणो जलणसिहा भज्जा, सावकाणि, ku१९५॥ दो पुत्ता- जलणो य दहणो य, चत्वारि पव्वइताणि, जलणो उज्जुसंपण्णा, दहणो मायाबहुलो, एहित्ति जाति जाहित्ति एति, सो तस्स ठाणस्स अपडिक्कमित्ता कालगतो, दोवि सोहम्मे उववण्णा अभितरपरिसाए पंचपलिओवमाइंठितीगा देवा जाता, सामी ला दीप अनुक्रम [११-३६] (201) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| 長 अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥१९६॥ आगतो, आमलकप्पाए अंबसालवणे समोसरणं, ते दोवि देवा आगता, तत्थ नट्टविहिं दाएंति, एक्कं उज्जुयं विउब्विस्सामित्ति वकं विकुव्वति वकं विकुव्विस्सामित्ति उज्जुयं विकुब्वति, एक्को उज्जुयं विकुव्विस्सामित्ति उज्जुयं विकुब्वति वकं विउब्विस्सामित्ति वकं विच्वति, तं विकुब्वितं दवण गोतमसामी पुच्छति । ताहे सामी तं सत्र्यं परिकति मायादासोति, जलणेणं आयारोवगतेण जोगा संगहिता इति १४ ।। विणयोगतत्तणेण जोगा संगहिता भवन्ति, तत्थ उदाहरणं-उज्जेणी अंबरिसी माहणो मालुका भज्जा, सङ्ग्राणि, मालुका कालगता, सो पुत्त्रेण समं पव्वतो, सो दुम्बिणीतो, काइकभूमीए कंटए निक्खणति, सज्झायं पढंताणं छीयति कालं उवहणति सर्व्वं समायारं विवच्चासेति, ताहे साहुणो आयरिए भणति-जदि वा एसो अच्छतु अहवा अम्हे, सो निच्छूडो, पितावि से पच्छतो जाति, अण्णस्स आयरियस्स मूलं गतो, तत्थवि निच्छूढो, एवं किर उज्जेणीए पंच उवस्सयसताई, सब्वेहिं निच्च्छूढो, सो खेतो गंतूण सण्णाभूमीए रुपति, सो मणति किं खंत! रुपसि, ताहे भणति खेतो तुमं नामं निंबउत्ति कतं ण अण्णा, एएहिं अणाभागेहिं आयारेहिं तुम्हतणएणं अपि थाणं न लभामि, ण य वट्टति उपपन्नइतुं, ताहे तस्सवि खुट्टगस्स अद्धिती जाता, भणतिखेता ! एक्कसि कहिंचि ठाणं लभामोत्ति, भणति न लम्भति, जदि नवीर पन्यावगाणं तहिं गता, पव्वइता अक्खुभिता, आयरिका भणति मा अज्जो ! एवं होह, पाहुणका अज्ज, कल्ले जाहिंति, ठिता, ताहे सो चेल्लओ तिष्णि तिष्णि उच्चारपासवणभूमीओ पडिलहेति, सध्या सामायारी विभासितव्या, तुट्ठा, सो बिओ यमयखुद्दीओ जातो, तरतमजोगेणं पंचवि सताणि पडिस्सकार्ण आराधितरण, निरंगंतुं न देति एवं पच्छा सो विणओवगो जातो १५ ।। (202) विनयोपगवं ॥१९६॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ध्ययने भरजे सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाला वितीए जो मतिं करोति, तस्स जोगा संगहिता भवन्ति, तत्थ उदाहरणं-पंदुमधुरा, तत्थ पंच पंडवा, तेहिं पचइतेहिं पुत्तो धृतिमतिः रज्जे ठवितो, ते अरिडनेमिसामिस्स मूलं पधाविता, ते हत्थीकप्पे भिक्खं पहिडिता, तेहिं हिंडतेहिं सुतं-अरिहनेमी कालगतोत्ति, संवेगः ॥१९॥ । तेहिं गहितं भरपाणगं च विगिचित्ता सेत्तुजे भत्तं पच्चक्खातं, सिद्धा | ताणं बसे अण्णी राजा पंडसेणो नाम, तस्स धृताउ मती दय सुमती य, ताओ लक्खण वंदियाओ सुरढ वारियसभोवर्णतेण समुद्देण एंति, उप्पातिएण लोको खंदरुदाणि नमसति, इमाहिं धणिततरकं अप्पा संजमे जोइतो, एसो सो कालोति, भिण्णं वहणं, ताओ संजय सिणागतंपि, कालगताओ सिद्धाओ, एवं एकत्थ सरीराणि उच्छलिताणि ताणि, सुट्टितेण लवणाधिपतिना महिमा कता, देवुज्जोतो कतो, ताहे पभासं तित्थं जातं । दोहिवि ताहि धितीमति करेंतीहि जोगा संगहिता १६ ॥ सम्यग् वेगः उद्वेगः संवेगः, तत्थ उदाहरणं-॥१३९९-१४००॥चपाए मित्तप्पभो राया,धारिणी देवी,धणमिचो सत्यवाहो, दाधणसिरी भज्जा, तीसे उवाइकसतेहिं पुत्तो जातो, लोको भणति जो एत्थ धणसामद्धे कुले जातो तस्स सुजातं, निम्बित्ते वारसाहे सुजातोत्ति नामं कतं, सो किर देवकुमारोपमे रूवेणं, तस्स ललितं भणितं अण्णे पुण सिक्खंति, ताणि य सावगाणि । तत्थेव नगरे धम्मघोसो अमच्चो, पियंगू भज्जा, सा सुणेति एरिसो सुजातोत्ति, अण्णदा दासीओ भणंति-जदा सुजातो इतो वोलेज्जा तदा & मम कहेज्जाए जं तोणं पेच्छामि, अण्णदा सो मिचविंदपरिवारितो तेण अंतेण एति, दासीहिं पियंगूए कहितं, सा निग्गता, अण्णाओ य सवचीओ, दिडो, ताओ भणंति-धष्णा सा जीए भागावडिओ, अण्णदा ताओ अबरोप्परं भणंति-अहो लीला तस्स, | ताहे पियंगू सुजातस्स येसं करेति, आभरणवसणेहिं विभासा, सा य रमति, एवं वच्चति, एवं हत्थच्छोभा विभासा, अमच्चो 18/ SSAER दीप अनुक्रम [११-३६] -IN (203) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणाय आगतो, निस्सढं अंतेपुरति सोवाए निग्गच्छिय बारछिद्देण पलोएति, दिट्ठा विकहति एसो चिंतेति-विण? अंतेउरंति, भणतिध्ययने पिच्छणं होतु, मा भिण्ण रहस्से सहरतराओ होहिंति, मारेतुं मग्गति मुजातं, विभेति, पिता से रण्णो अच्चितो, मा ततो विणासे IMहितित्ति उवायं चिंतेति, लद्धो, अण्णदा कूडलेहेहिं पुरिसा कता, जो मित्तप्पभस्स विपक्खो तेण किर सामतेण लेहा विसज्जिता 8 मित्तप्पमं मारेहित्ति सुजानस्स, तुम वीसंमें गतो, ते अद्ध रज्जस्स देज्जिहित्ति, तेण से लेहा आणीता, रण्णो अग्गतो धारिता, 131 दिराया कुवितो, तेवि लेहकारका वज्झा आणता, तेण पच्छण्णा कता, मित्तप्पभो चिंतेति-जदि लोगणातं कज्जिाहिति तो पउरक्खो भो मे होहितित्ति ममं च तस्स रण्णो देज्जा अयसो, उवाएणं मारेमि । तस्स मित्तप्पभस्स एग पच्चतं नगरं अरखुरी नाम, तस्स र चंडज्झयो नाम राया, तस्स लेहं देति, जथा सुजातं पेसेमि तं मारेहित्ति, सुजातं सद्दावेत्ता भणति-वच्च अरक्खुरितं, तत्थ बिति-18 जिओ होऊण रायकज्जाणि पेच्छाहि, गतो तं नगरि अरकावरि नाम, दिहो, अच्छतु वीसत्था तो मारिज्जिदिति, दिवे दिवे एगट्ठा अभिरमंति, सो तस्स रूवं सीलं समुदायारं च दट्टणं चिंतेति-गुणं अंतपुरिए समं विणट्ठो तेण मारिज्जति, तो किह एरिसं रूर्व विणासमित्ति उस्सारत्ता सच्च परिकहेति लेह च दरिसेति, तेण सुजातेणे भणति- जाणसि तं करेहित्ति, तेण भणित -न तुम मारेमिति, एकं करेहि, पच्छष्णो अच्छाहिति, तेण चंदजसा भगिणी दिण्णा, सा घि तंदूसिता, तीए समं अच्छति, परिभोगदोसेण वडित, सुजायस्सवि ईसिटि संकेत, सावि तेण सड्डी कता, चितेति-मम तणएणं एसोवि विणहोति संवेगमावना, भत्ता ॥१९८॥ दापच्चक्खाति, तेण चव निज्जामिता, देवो जातो, ओधी पउंजति, दट्टण आगता, वंदिता भणति-कि करमा, सो संवेगमावण्णो चिंतेति-जदि अम्मापियरो पेच्छेज्जा तो पब्वयामि, तेण देवेण सिला विकुचिता नगरस्त उवरिं, नागरा पयता धूवहल्था पाद-TP RECSIRSANA दीप अनुक्रम [११-३६] (204) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 संवेगः प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| * प्रतिक्रमणापडिता विष्णवैति , देवो तासेति-हा दासा। सुजातो समणोवासओ अमरचण अकज्जे दृसिनो अज्ज मे चूरेमि, तो नवरि मुगामि ध्यापन जदि नवरं तं आणेचा पसादेह, कहि सो', भणति एस उज्जाणे, सणागरो राजा णिग्गतो खामितो, अमापितरो रायं ॥१९॥ीच आपुच्छित्ता पच्चइतो, मातापितंपि पब्बइतं, ताणि सिद्धाणित्ति । सो य धम्मघोसो निश्चिसओ आणतो, जेण तस्स गुणा पतरंति, जथा-यथा नेत्रे तथा सील, यथा नाशा तथार्जवम् । यथा रूपं तथा वित्त, यथा सील तथा गुणाः ॥११॥ अथवा- विषम | समविषमसमा. विषमैर्विपमाः समः समाचाराः । करचरणकणनासिकदंतांष्ठानिरीक्षणे: पुरुषाः॥२॥ पच्छा सोवि निवेदमावण्णी, है सच्चं मए भोगलोमेण विणासावितोत्ति निग्गतो, हिंडतो रायगिहे थेराणं अतिए पव्वइतो ।। विहरंतो बहुस्सुतो वारत्तपुरं गतो, तत्थ अभग्गसेणो राया, बारतो अमच्चो, सो भिक्खं हिंडंतो वारत्तगस्स घरं गतो, तत्थ य पतमधुसंजुत्तं पायसत्थाल पीणितं, भंडणं जातं, तत्थ बिन्दू पडितो, सो पाडितं तं नेच्छति, वारचओ ओलोकणगतो पेच्छति, जाय तत्थ मच्छिकाओ लीणा, ताओ घरकोइलिका पत्थेति, तं मज्जारा, मज्जारं घरपच्चंतियमुगओ, तं वत्थव्यओ चिंतेति, ममनि ते दोवि भंडणं लग्गा, मुणसामिका उट्टिता, भंडणं जातं, मारामारी, वाहि निग्गना, पाहुणका बलं पिंडेचा आगता, महासंगामो जातो, पच्छा बारतो पचिंतितो-एतण कारणणं न इच्छितंति, सोभणं अज्झवसाणं उवगतो, जाती सरणं, संबुद्धो, देवताए भंडणकं उवणीतं ।। सो वारत्तकहैरिसी विहरतो सुसुमारपुरं आगतो, तत्थ धुंधुमारो राया, तस्स अंगारवती धूता रूविणी साविका, तत्थ परिवाइका अतिगता, वादे पराजिता, पदोसमावण्णा, सा चितेति-बहुसावत्तए पाडेमिति चिनफलहए लिहिता उज्जणीए पज्जोतस्स अंते अतिगता, दिट्ठ फलक, पज्जोतेण पुच्छिता, कहितं च णाए, पज्जोतो तस्स अक्कंतीए दूतं पेसेति, सो धुंधुमारेण निच्छुढो, भणति-पिवा ACAREER ** दीप अनुक्रम [११-३६] १९९॥ .. (205) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रणिधिः सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा 3 साए विषएण य दिज्जइ, दूतेणं पडिआगतेणं बहुतरकं पज्जोतस्स कहितं, आसुरनो निग्गतो सब्वत्रलेणं, सुसुमारपुर रोहति, ध्ययने त धुमारो अंतो अच्छति अप्पचलो य । वारत्तकरिसी एकत्थ जक्खघरए चच्चरमुले ठितेल्लओ,सोराया भीतो एसो महाबलवकोत्ति, ॥२०॥ मित्तिक पुच्छति, सो भणति-जाव ताव निमित्तं गेहामि, चेडकरूवाणि रमंति,ताणि भेसविताणि, तस्स वारत्तकस्स मूलं गताणि 13 रोवंताणि, तेण भणिताणि मा बीभधत्ति, सो आगंतु भणति- तुज्झ जयोति, ताहे मज्झण्णे उस्सण्णद्धाण उवरि पडितो, वेद्वित्ता नगरं नीओ, बाराणि बद्धाणि, पज्जातो भणितो-कतोमुहो ते वातो, भणति-जं जाणास तं करेहि, भणति-कि तुमए महासासणे] | विणासितेणं ?, ताहे से महता विभूतीए अंगारवती दिण्णा, बाराणि मुक्काणि, तत्थ अच्छति, अण्णे भणंति-तेण देवताए उच. 18 चासो कतो, तीए चेडरूवाणि विउविताणि, निमिर्च गहितंति, ताहे पज्जोतो नगर हिंडति, पेच्छति अप्पसासणं राया, अंगावतीं पुच्छति- किह अहं गहितो?, सा साधुवयर्ण कहेति, सो तस्स मूलं गंतु भणति- वंदामि नेमित्तिकखमणति, सो भगवं |उवउत्ते पव्वज्जातो जाव चेडकरूवाणि विउविताणि संभरिताणि । चंदनसाए सुजातस्स धम्मघोसस्स पारत्तकस्स सम्वेहिवि संवगण | जोगा संगहितत्ति, केइ तु सुरंवरं जाव मितावती पन्बइता परंपरओ, एतपि संभवति । संवेगिन्ति गतं १७॥ II पणिधी नाम माया,सा दुविधा-दव्वपणिधी य भावपणिधी य,दधपणिधीए उदाहरण-भरुकच्छे णधवाहणो राया कोससमिद्धो, माइतो य पतिट्ठाणे सालवाहणो बलसमिद्धो, सो नहवाहणं रोहति, सो कोससमिद्धो जो हत्थं वा सांसं वा आणेति तस्स सहस्से में। सतसहस्से य कोडादीए हियं देति, ताहे ते नहवाहणमणुस्सा दिवे दिवे मारेंति, सालवाहणमणुस्सावि केइ मारेत्ता आणति, सो तेसि न किंचिवि देति, सो खीणजणो पडिज्जाति, पुणो रितीयवरिसे एति तत्वविहतो णासेति, एवं कालो बच्चति,अण्णदा अमच्चो मणति RECECRECTOR: दीप अनुक्रम [११-३६] (206) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणाममं अवराहेत्ता णिव्यिसयमाणवेहि, मसाणि य बंधादि, तेण तहेव कतं, सोवि ततो निग्गंतूण भरुयच्छ गुग्गलभारं गहाय गतो, प्रणिया ध्ययने IPएकत्व देवकूले अच्छति,सामंतरज्जेसु य फुडित जथा सालवाहणेण अमच्चो णिच्छ्ढोति,भरुयच्छे य न जातो केणइ, केणइ कोसिति यो ॥२०१॥ पुच्छितो भणति- गुग्गलभगवं नाम कतै अहंति, जीह या गातो ताण कहेति जथा जेण विहाणेण निच्छूढो अहालहुसगणति, पच्छा योगMनहवाहणेण सुतं, मणुस्सा विसज्जिता, नेच्छति कुमारामच्चत्तणस्स गंधपि, सो य आगतो राया, संत नीओ ठवितो य, अमच्चो संग्रहाः १८ बीसंभं जातितूण भणति- पुण्णेहिं रज्जं लहति, पुणोषि अण्णस्स जम्मस्स पत्थयण कीरतु, वाहे देवकुलाणि थूमतलागवावीओ | नहवाहणखाइका च, एवमादीहि दवं विणासितं, सालबाहणो आवाहितो,पुणोषि ता विसज्जित,अमरुच भणति- तुमंपि पडितो, | सो भणति-न घडामि, अंतेपुरिगाण आभरणा पहिति, पुणो गतो पतिद्वाणं, पच्छा अंतेपुरियाण णिव्वाहेति, तमि निहित | सालवाहणो आवाहितो, नस्थि दातब्ब, सोवि पलातो नगरंपि गहितं । एसा. दवप्पणिधी ॥ भावप्पणिहाणिए उदाहरण-18 भरुयच्छे जिणदेवो आयरिओ, भयंतमित्तो कुणालो य तच्चंनिका दो भातरो वादी, तेहिं पडहओ निक्खालितो, जिणदेवो चेतियवंदओ गतो मुणेति, तेण बारितो, रायकूले बादो जातो, पराजिता रत्तपडा, दोवि य ते पच्छा विणा एतेसि सिद्धतेणण| | तीरति उत्तरं दातुति पच्छा मातिहागणं ताणं मूले पच्चइता, विभासा गोविंदवत् , पच्छा पढंताणं उवगतं,ते भावतो पडिवण्णा, | साधुणो जाता। एसा भावप्पणिधी १८॥ X ॥२०॥ सुविधीए जोगा संगहिता भवंति, विधिरनुज्ञा जा जस्स इट्ठा सा भवति सुविधी, तत्थ उदाहरणं जहा सामायनिज्जत्तीए अणुकंपार-बारवती वेतरणी धनंतरि अ भवियअभविके वेज्जे । करणा य पुच्छियमी गति निदेसे य संयोधी दीप अनुक्रम [११-३६] (207) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणाशासो वानरजूहवती. चिंता य सोभणा जाता, साधुणा य कहितं तेहिं गतिदिएहि,सहस्सारे उववण्णो,सो य साहरितो १९॥ प्रणिध्याध्ययने संवरण जोगा संगहिता भवति, तत्थ पडिबक्खेण उदाहरण-रायगिहे सेणिएणं बद्धमाणसामी पुच्छितो, एक्का देवी नट्ट-पल ॥२०२॥ला विधि उवर्दसत्ता गता, का एसत्तिः, सामी भणति-धाणारसीए भद्दसेणो जुण्णसट्ठी, तस्स मज्जा नंदा इति, तीसे धूता सिरी, सानी ४ वडकुमारी वरकपरिवज्जिता, तस्स कोढए चितिए पासस्सामी समोसढो, सिरी पन्चइता, गोवालीए सीसिणिका दिण्णा, सा8 संग्रहाः 8ोपुवं उग्गेण विहरिना पच्छा ओसण्णा जाता, हत्येण पादे धोचति जथा दोवती विभासा, वारिज्जंती उठेतूण अण्णत्थ गता है। १९-२१ विभत्ताए बसहीए ठिता, तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता चुल्लाहिमवते पउमे दहे सिरी जाता देवगणिका, एताए ण संवरो कतो, पडिवक्खा कातब्बो, अण्णे भणंति- हत्विणिकारूवेण वाउक्काएति, ताहे सेणिएणं पुच्छित २०॥ ___अत्तदोसोवसंहारो कातब्बो,जदि किंीच काहामि तो दुगुणो धो होहितित्ति,तत्थ उदाहरणं-बारमतीए अरहमित्तो सेट्ठी, अणुधरी भज्जा, सावकाणि, जिणदेवो पुत्तो, तस्स रोगो उप्पण्णी, ण तीरति चिगिच्छितुं, वेज्जा भणति-मांस खाहि, सो |णेच्छति, सयणपरियणो अम्मापियरो य पुतणेहेणं अणुजाणंति, सो णेच्छति, किह चिररक्खितं बतं मंजामित्तिा, उक्तं च| वरं प्रविष्ट ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । बरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणा,न शीलवृत्तस्खलितस्य जीवितम् ॥१॥ अचदोसोवसंहारो कतो, मरामिति सच सावज्ज पञ्चक्खात, कहवि पउणो तहावि पञ्चकखातं घेव, पन्यज्जा कता, इतो 8I सुहावसाणस्स णाणमुप्पणं जाब सिद्धोत्ति २१ ॥ ॥२०२॥ सव्वकामेसु विरज्जितव्वं,तत्थ उदाहरण-उज्जणीए देविलासत्तो राया,तस्स भज्जा अणुरचा लायणा णाम,अण्णदा स SEX दीप अनुक्रम [११-३६] (208) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| हराया सज्जाए अच्छति, देवी वाले जोएति, ताए पलितं दिई, भणति-भट्टारगा! दूतो आगतो, सो य ससंभम भयहरिसाइतो प्रतिक्रममा प्रणिध्या दमों ध्ययने उद्वितो, पच्छा देवी भणति-धम्मदूतोत्ति सणितं अंगुलीए वेढेता उक्खतं, सोवण्णे थाले धोमजुयले ठएत्ता नगरं हिंडावितं, योग पच्छा अद्धिती करेति, अण्णदा अजाते पलिते अम्हें पुब्बजा पव्ययंति, अहंपि पब्बयामित्ति पउमरहे पुतं ठवेत्ता पथ्यइतो सदेवीओ ॥२०॥ ( तावसो, संगतओ दासो अणुमतिका दासी, ताणिवि अणुरागेण पवाताणि, असितगिरिमि अस्समो तावसाणं, तत्थ गताणि, संग्रहाः २२ का संगतओ य अणुमातिका य केणति कालंतरेण उप्पव्वइताणि, ताणि दोणवि अच्छंति, देवीए गम्भो नक्खातो, संवद्धितुमारद्धो, हराया अद्धिति पकतो अयसो जातोत्ति, अवसंचसो पच्छण्णं सारवेति, सुकुमाला देवी वियायन्ता कालगता, तत्थ दारिका जाता, सा अण्णाणं तापसीणं धणं पियंती संबविता,ताहे से अद्धसंकासात्ति नाम कर्त, सा जोवणत्था जाता, सा पितरं अडवीतो आगतं । ४ावीसामेति । सो तीसे जोव्यणे अझोववष्णो अज्जा हिज्जो लएमिचि मुज्झति, अण्णदा पधायितो मेण्डामित्ति, उडगकढे। &ाआयडितो पडिती चितेतमारतो-धिद्धिीच. इहलोगे फलितं एतं. परलोए ण णज्जति किपित्ति संघद्धो, जाती सरिता, भणति-18 भवितव्वं खल्लु भो सब्बकामविरत्तेणंति अज्झयण भासति । धृता निरज्जे, संजतीणं दिण्णा, सिद्धाणि । एवं सब्यकामविरज्जितेण जोगा संगहिता २२।। पच्चक्खाणं दुविहं मूलगुणपच्चक्खाणं च उत्तरगुणपच्चस्खाणं च, मूलगुणपच्चक्याणे उदाहरण-साएते सत्तुजयो ★२०३॥ राजा, जिणदेचो सावओ, सो दिसाजाताए गतो कोडिवरिसं, ते मेच्छा, तत्थ चिलाती राया, तस्स तेण पण्णाकारा रतणाणि मणीया पोचाणि य दिष्णाणि, तत्थ ताणि णस्थि, सो चिलातो पुच्छति, अहो रतणाणि रूवियाणि, कहिं एताणि', सो साहेति दीप अनुक्रम [११-३६] (209) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा अण्णरज्ज, चिंतेति-जदि नाम संबुज्झेज्ज, सो राया भपति-अहे जामि, रतणाणि पेच्छामि, तुम्भ तणकस्स रण्णो बीहेमि, जिणदेवो प्रणिध्याध्ययने लाभणति-मा बीमहि, ताहे तेण तस्स रण्णो पेसितं, तेण भणितं-एउत्ति, आणीतो साकेत, महावीरस्स समोसरणं, सत्तुंजतो निष्फिडोलो | सपरिवारो,महता इट्टीए जणसमूहो निम्फिडितो,तं पासित्ता चिलातो जिणदेवं पृच्छति-कहि जणो जाति',सो भणति-एस सो रतण-13 योग॥२०॥ &ा संग्रहाः वाणिओ, भणति-जामो पेच्छामोत्ति, दोवि जणा निग्गता, पेच्छति भट्टारगस्स छत्तातिच्छत्तं सीहासणाणि विभासा, पुच्छति-कहा m २३-२४ लब्भतिः, ताहे सामी दब्बरतणाणि भावरतणाणि य वण्योति, भणति चिलातो-मम भावरतणाणि देहित्ति,भणति-रतहरणगोच्छएहिं । साहिज्जंति, पब्वइतो । एते मूलगुणा २३ ॥ उत्तरगुणपच्चक्खाणे-चाणारसी णगरी, तत्थ दो अणगारा वासावासं ठिता-धम्मघोसो धम्मजसोय, ते मासेण मासखम-1 णणं अच्छंति, चतुत्थे पारणगे मा णितियवासो होहितिति पढमाए पोरिसीए सज्झाय बितियाए अत्थपोरिसी ततियाए उग्गाहेत्वा पधाइता, ते सारइएणं उपहेणं अम्भाहता तिसाइता गंगं उत्तरमाणा मणसोवि पाणियं णेच्छति, ते उत्तिण्णा, गंगादेवताए गोउलाणि विउविताणि, आउट्टा समाणी विभासा, ताहे सद्दावेति-एह साधू ! भिक्खं गेण्हह, ते उवउत्ता दट्टण तस्स रूवगंधा | साहहिं पटिसिद्धा, पधाइता, पच्छा ताए अणुकंपाए वासबद्दलं विकुव्यितं, भूमी उल्ला सीतलेणं बातेणं अप्पाइता, गाम पत्ता, | तत्थ भिक्खं गहाय पारितं, एवं उत्तरगुणा २४ ॥ वियोसग्गी भाणितब्बो दयवियोसग्गे व भाववियोसग्गे य उदाहरणं जथा-चंपाए नगरीए दहिवाहणो राया, चेडम-18 धूता पउमावती देवी, तीसे दोहलो किह अहं राघवत्यस्थिता उज्जाणकापणाणि विहरेज्जा ?, सा उलुग्गसरीरा जाता, 12 दीप अनुक्रम [११-३६] २०४॥ (210) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [सूत्र /११-३६] / [ गाथा - १,२], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२०५॥ राया पुच्छति, ताहे राया व साय जयहत्थिमि, राया छत्तं धरेति, गता उज्जाणए, पटमपाउस च, सीतलएण मट्टिगागंधेण इत्थी अम्माहते वर्ण संभर, वियो वणाभिमुो पयायो, जणो ण तरति ओलग्गितुं दोवि अडविं पवेसिता, राया वडरुक्ख पेच्छति, देवि भणति एतस्स वडस्स हेड्डेण जाहित्ति तो तुमं साखं गेण्हेज्जासि, ताए पडिसुतं न तरति राया दक्खो, तेण साला गहिता, सो उत्तिष्णो, निराणंदों गतो चंपं, साबिय इत्थिका गीता निम्माणुसं अडविं, जाव तिसागतो पेच्छति दहं महतिमहालयं, तत्थ उत्तिष्णो अभिरमति हत्थी, इमावि सणियं ओइण्णा, ओकिण्णा तलाकाओ, दिसाओ न जाणति, एकाए दिसाए साकारभत्तं पच्चक्खाइत्ता पधाविता, जाव दूरं गता ता तावसो दिट्ठो, तस्स मूलं गता, अभिवादितो, पुच्छति कतोसि अंमो ! इहं आगता ?, ताहे कहेति अहं चेडगस्स धृता जाव इहं दत्थिणा आणीता सो य तावसो चेडगनियल्लओ, तेण आसासितामा बीभेहित्ति, ताहे से वणफलाणि दातूणं एकाए दिखाए अडवीतो णीणिता, एतोहिंतो हलच्छित्ता भूमी, तं ण अक्क मामो, एसो दंतपुरम्स विसयो दंतचक्को शया, ता तुमं अडबीओ निग्गता, दंतपुरे अज्जाणं मूले पव्वता, पुच्छिताए गन्मो नक्खातो, पच्छा जाते महत्तरिकाणं आलोएति सा बियाया समाणी सह नाममुद्दाए कंबलरतणेण व सुसाणे उज्झति, तत्थ मसाणपालो पायो तेण गहितो, मज्जाए अप्पितो, अवकिष्णपुत्तत्ति नामं कर्त, सा अज्जा तीए पाणीए समं मेचि करेइति, सा अज्जा ताहिं संजतीहिं पुच्छिता कहिं गन्भो?, भणति-मतगो जातो, मे उज्झितो, सो तत्थ संवद्धति, ताहे दारगरूवेहिं समं रमति, सो ताणि डिक्करिकाणि भणति -अहं तुज्झ राम्रा मम करं देह, सो सुक्खकच्छूए गहितो, ताणि भणति मम कंडुयह, ताहे से करकंडति णामं कर्त, सो य ताए संजतीए अणुरतो, सा य से मोदए देति, जे वा भिक्खं लङ्कं लभति, संबद्धितो सो म (211) न्युत्सर्गः ॥२०५॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [ गाथा-१,२३, निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१) आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ २०६ ॥ "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) 136496.49 - साणं रक्खति, तत्थ दो संजवा तं मसाणं केणति कारणेण अतिगता जाय एगत्थ वंसकुडंगे डंडगं पेच्छंति, तत्थ एगो डंडगलक्खणं जाणति, सो भगति जो एवं डंडगं गण्डति सो य राया होहितित्ति, किंतु पडिच्छितव्यओ, जाव अण्णाणि चचारि अंगु | लाणि बडति ताहे जोगोत्ति, तं तेण मातंगचेडएणं एक्केण य विज्जातिएणं सुयं, ताहे सो विज्जाइको अप्पसारिकं तस्स चरंगुलं खणिऊण छिंदति, तेण य चेडेण दिट्ठो, उद्दालिओ, सो तेण घिज्जाइएणं करणं णीतो- देहि उंडगं, सो भणति-मम मसाणे, न देमि, धिज्जातिगो भणति -अण्णं गेण्ड, सो च्छति, भणति एतेण ममं कज्जं, सो दारओ न देति, ताहे दारओ पुच्छितो- किं न देसि ?, भगति अहं एतस्स डंडगस्स पभावेण राया होहामितिः ताहे ते कारणका हसितूणं भणति जदा तुमं राया होज्जासि तदा तुमं एतस्स गामं देज्जासि, पडिवण्णो, तेण धिज्जातिगेण अण्णे धिज्जातिगा गहिता जथा एतं मारेता हरामो तं तस्स मातपिताए सुवं ताणि तिम्णिावि नद्वाणि जाव कंत्रणपुरं गताणि, तत्थ राया मरति, आसो अधिवासितो, तस्स चाहिँ पुत्तस्स मूलं आगतो, पदाहिणीकातूणं ठितो, जाब नागरा पेच्छति लक्खणजुत्तं, जयसो क्तो नंदी आहतं इमोवि जयंतो उट्टितो, बीसत्थो आसं विलग्गो, पबेसिज्जति, मातंगोत्ति घिज्जातिगा ण देन्ति पवेस, ताहे तेणं टंडगरतणं गहितं, जलितुमारद्धं, ते भीता ठिता, ताहे तेण वाडहाणगा हरिएसा विज्जातिगा कता उक्तं च-दादवाहनपुत्रेण राज्ञा तु करकंडुना । वाटहानवास्तव्याचांडाला ब्राह्मणीकृताः ॥ १ ॥ तस्स य घरनामं अवकिष्णकोत्ति, पच्छा से तं चेडरूवकतं पतिट्ठितं करकंडकत्ति, ताहे सो धिज्जातिको आगतो, देहि मम गामं, मणति -जो ते रुच्चति, सो भणति मम चंपाए घरं तत्थ देहि, ताहे दहिवाहणस्स लेहं देति देहि मर्म एगं गामं अहं तुज्यं जं रुडचीत गामं वा नगरं वा तं देमि, सो रुट्ठो-दुट्टमातंगो अप्पाणं न याणति, (212) ॥२०६॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणावो मम लेहं देतित्ति, दूतेण आगतेण कहितं, करकंह कुवितो, गतो, चंपा रोधिता,जुझं वद्दति, ताहे संजतीए सुतं-मा जणक्खओ व्युत्सर्गः ध्ययने होहितिचि करकई उस्सारेत्ता रहस्सं भिंदति एस तव पितत्ति, ताणि अमापितरो पुच्छिताणि, तेहिं सम्भाबो कहितो, माणेणं ण PI ॥२०७॥ ओसरति, ताहे सा चंपं अतिगता, रणो घरं एति, णाता, पादपडिताओ दासीओ परुण्णाओ, रायाएवि सुतं, सोवि आगतो, वैदिचा आसणं दातूणं तं गब्भ पुच्छति, भणति-एसो जो एस णगरं रोहित्ता अच्छति, तुडो, निग्गतो, मिलितो, दोवि रज्जाणि तस्स दातूणं दधिवाहणो पब्यइतो, करकंडू महासासणो जातो। सो किर गोउलप्पिओ, अणेगाणितस्स गोउलाणि जाताणि, जाब सरदकाले एग गोवच्छयं घोरग सेततं पेच्छति,मणति-एतस्स मातरं मा दुहेज्जह, जदा बडितो होज्जा तदा अण्णाणं गावीणं दुई पाएज्जाह, ते गोवा पटिस्सुणति. सोवि उ वत्तविसाणो खंधवसभो जातो, राया पेच्छति, सो जुद्धिकतो जातो, पूणो काले-13 भण राया आगतो, पेच्छति महाकायं जुण्णवसमं पटुएहि परिघट्टिजंतं, गोवे पुच्छति-कहिं सो वसभोत्ति ?, तेहिं सो दाइतो, पेच्छंतओ विसण्यो, चिंतेति 'सेयं सुजायं० गोढुंगणस्स . पोराणयं० एवं संबुद्धो, जाइसरणं, पव्वइतो विहरति । | इतो य पंचालासु जणवदेसु कंपिल्लं नगरं, तत्थ दुम्मुद्दो राया, सो इंदकेतुं पासति लोगेण महिज्जतं अणेगकुडमीसहस्सपरि। मंडिताभिरामं, पुणो य विलुत्तं पडितं च मुत्नपुरीसाण मझे, सोबि संबुद्धो, जो इंदकेतुं मुपलंकियं तु सोवि विहरति । ॥२०७॥ P इतो य विदेहे जणवए मिहिला गरी, तत्थ नमी राया, तस्स दाहो जातो, देवी चंदणं घसति, बलयाणि खलखलेंति, सो भवति-कण्णाघातो होति, देवीए एक्केण एक्कं अवणेतीए सवाणिवि अवणीताणि, एक्के ठितं, राया तं पुच्छति, ताणि REACHERE दीप अनुक्रम [११-३६] * (213) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 काव्युत्सर्गः प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा बलयानि न खलखलात, सा भणति-अवणीताणि, सो तेण दुक्खेण अभाहतो परलोकाभिमुद्दो चिंतेति-बहुकाणं सो, एक्कस्स ण, | ध्ययने तएवं बहुयाण जाब विहरति । ॥२०८॥ इतो य गंधारविसएसु पुरिसपुर नगर, तत्थ नग्गई राया, सो अण्णदा अणुज णिग्गतो, पच्छति चूतं कुसुमित, तेणं एगा मंजरी गहिता, एवं खंधावारेण लएन्तेणं कट्ठापसेसो कतो, पडिएतो पुच्छति-कहिं सो चूतरुक्खे, अमच्चेण अक्खातो, पस्सति, | तो किह कहाणि कतो?, भणति-तुम्भेहिं एगा मंजरी गहिता, पच्छा अण्णोण जणेण गहिता, सो चिंतेति-एवं रज्जसिरिति जाच रिद्धी ताव सो भणति-अलाहि, जो धूतरुवयं ७।१७-४६ । २१६ भा० । सोवि विहरति । चत्तारिवि विहरमाणा खितिप| तिढे णगरे चाउब्बारं देवकुलं, पुथ्वेण करकंडू पविट्ठो, दुम्मुखो दक्षिणेण, किह माधुस्स अण्णतोमुहो अच्छामित्ति तेण वाणमतरेण दक्षिणपासवि मुह कत, नमी अपरणं, ततोपि मुहं कतं, गंधारो उत्तरेण, तओषि मुह फर्य । तस्स किर करकंटकस्स आबालतणाउ सा कंडू अस्थि चव, तण कंडकणं गहाय मसिणमसिणं कण्णो केइतो, तं तेण एगस्थ संगोवितं, तं दुमुहो पेच्छति । सो भणति-जदा रज्जं०।१७-४-७ उ० २७६।। जाव करकंडू पडिबयणं न देनि ताव नमी वयणसमकं इमं भणति जदा ते पितिय रज्जे ॥ उ० २७७।। कि तुम एतस्स आउनगोत्ति भणति, ताहे गंधारो भणति-सव्वं परिचज्जः । उ०२७८॥ ताहे करकंड भणति-मोक्खमग्गपवण्णाणं (गं पवनसु)।१७प्र० उ०२७९ ।। कस्सऊ वा परो मा वा०।१७-4श जधा जलंताणि । १७-५२।१४०९. सुचिरंपि बं०।१५-५३।१४१ । ताण सव्वाणंपि दबबिउम्सम्गो जं रज्जाणिल उज्झिताणि, भावविउसग्गो कोहादीणं २५ ॥ ॐॐ0146 दीप अनुक्रम [११-३६] २०८॥ (214) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] भाष्यं [२०५-२२७] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६] / [गाथा- १, २ ], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२०९॥ न पमादो अप्पमादो, तत्थ उदाहरणं- रायगिहे जरासंधो राया, तस्स सव्वप्यहाणाओ दो गणिकाओ मगहसुंदरी मगहसिरी य, मगहसिरी चितेति-जदि एसा न होज्जा मए एक्कलियाए राया इत्थगतो होज्जा जसो यत्ति, तीसे छिद्दाणि मग्गति, ताहे मगहसुंदरीए नट्टदिवसंमि कण्णिकारेसु सोवणिकाओ विसधृविताओ सूचीओ केसरसरिकाओ पक्खिताओ, ताहे तीए मगहदरीए महतरिका पेच्छति भमरा कणिकाराणि न अल्लियंति, वृतेसु णिणेन्ति, ताहे ऊहितं णूर्ण सदोसाणि पुष्फाणिति, जदि व मणिहिन्ति एतेहिं पुण्फेहिं अच्चणिका अचोक्खा विसभाविताणि वा तो गामेल्लकत्तणं होहितित्ति, तो उवाएण वारेमि, साय रंवं उत्तिष्णा, अण्णदा मंगलं गाइज्जति, तं दिवसं इमं गीतियं पगीता-पत्तए वसंतमासए० ।। सा चिंतेति- अपुव्वगीतिका, णातं सदोसाणि कणिकाराणि ते परिहरंतीए गीतं नच्चितं च सविलासं, ण व छलिता, परिहरिय अप्पमता नहं गीतं किर न चुक्का । एवं साधुणावि पंचविहे अप्पमादे रक्वेंतेण जोगा संगहिता भवति २६ ।। सोय अप्पमादो लबे अद्धलवे वा पमादं ण जाइतव्यं । भरुअच्छे एको आयरिओ, तेण विजयो सीसो उज्जेणिं पत्थविओो कज्जेणं, सो जाति, तस्स गिलाणकज्जेण केणइ वक्खेवो, सो य अंतरा वासावासेण रुद्रो अणुगतणं उद्विर्तति गडपिडए गामे वासावासं ठितो नागघरे, सो चिंतेति-गुरुकुलवासो न जातो, इहवि करेमि, तहेब जो उपदेसो तेण ठेवणायरितु ठावितो, सो कालं गहाय आवस्सए काउस्सग्गं कातूणं वंदिता आलोएति, मज्झेवि वंदित्ता पच्चक्खाणं सयमेव गेण्हति, पच्छा कालं निवेदेति, सयं चैव भणति तहचि, एवं चक्कवालसमायारी विभासितब्बा, एवं किर सो सव्वत्य ण चुक्को, खणे खणे उक्खरिज्जति र्कि मे कतं किं च मे किच्च सेसमिति । एवं किर अप्पमादेणं जोगा संगहिता भवति २७ ।। (215) अप्रमादो योग संग्रह : ॥२०९॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 R प्रत सूत्रांक ध्ययने + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा का झाणेणं संवरो जोगाणं जत्थ सो शाणसंबरजोगो, जोगसंगहो । तत्थोदाहरण-संवबद्धणे णगरे मुंडिवओ राया, तत्थ . ध्यानबसुभूती आयरिया बहुसुता, तेहिं सो राया उबसामितो सहो जातो, ताणं सीसो पूसमितो बहुस्सुतो अण्णत्व ओसण्णो अच्छति, अण्णदा तेर्सि आयरियाणं चिंता जाता-सुहमझाणं पविसामि, ते महापाणसरिसर्य, तं किर जाहे पविसति ताह एवं जागसनि-II रोधं करोति जथा किंचिविण चेतति, ताण य जे मूले ते अगीतत्था, तेण पूसमिचो सदावितो, आगतो, कहितं से, तेण पडिवणं, लताहे ते एकत्थ उबरए निब्बाघातेण झायति, सो तेण अंतेण ताणं पसं न देति, भणति-एनो ठिता बंदह, आयरिया बाउला, त एवं करेंति । अण्णदा ते अवरोप्परं मंतेति-कि मण्णे होज्जा', गवेसामु ता, एगो उबरगबारे ठितो निब्बणेह, चिरं अच्छितो, | आयरिओ न चलति न फंदति, ऊसासनीसासोचि नस्थि, सहमो किर एवं, तेण गण अण्णसिं कहितं, तेहिदि जोइत, ते | रुडा, अज्जो। तुम आयरिए कालगएविन कहेह; सो भणति- पा कालगतत्ति, सायंति, मा बाघात करेह, अण्णे मणति-पण्याइतगा एसो लिंगी मण्णे बेताल वा साहेतुकामो लक्खणजुत्ता आयरिका तेण न कहेति, अज्ज राति पेच्छिहिष, ते आरद्धा तेण सम विवदितं, तेण पारिता, ताहे तेहि सो राया उत्सारतणं आणीतो, आयरिया कालगता सो किगीन देति निष्फडित, एसोविछा राया पेच्छति, तेणबि पत्तितितं जहा कालगतात्ति, पूसमित्तस्स न पचीयति, सीया सज्जिता, जाहे णिच्छओ णातो ताहे विणासितं सेहेहिंति, पुच भणितो सो आयरिएहिं-जाहे अगणी अण्णो वा अच्चयो होज्जा ताहे वामंगुट्ठए छिवेज्जासित्ति, छिचो,का पाती पडिबुद्धी, भणह-कि अज्जो! वाघातो कवो', भणति-पेच्छह एतेहिं सेहेहि तुम कत, ते अचाडिता परिसिका किरिका IX॥२१॥ पविट्ठो । एरिसिक किर झाणं पविमिनथ्वं तो जोगा संगहिता भवति २८ ।। A दीप अनुक्रम [११-३६] KASA-SMSAX (216) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [ गाथा-१,२३, निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 श्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२११॥ उदओ जदिवि किर मारणंतिया वेदणा तोवि अहिवासेयब्वा, एत्थोदाहरणं- रोहिडगं नगर, ललिता गोडी, रोहिणी जुनकणिका, सा अण्ण जीवणोवार्य अलभंती तीसे गोट्टीए भत्तं परंघिता, एवं कालो वच्चति, अण्णदा तीए कटुकं दोद्धिकं बहुसंभारसंभितं उवक्खडितं, विण्णासति जाब मुद्दे ण तीरति कातुं, तीए चिंतितं खिसिया होमि गोट्टिएहिंति सिग्धं अण्णं उबक्खडेमि, एतं भिक्खायराणं दिज्जिहिति, मा दव्यसंजोगो नासतु, जाव धम्मरुची नाम साधू मासखमणपारणगडाए पविडो तस्स दिण्णं, आगतो आलोपति गुरूणं, तेहिं भाजणं गहितं, खारगंधो य गातो, विष्णासितं तेहिं चितितं जो एवं आहारेति सो मरति, भणितो विणेहि वाहिन्ति, सो गहाय अडविं गतो, एकत्थ दढरोक्खरे विकिंचामित्ति पत्ताबद्धं मुयंतस्स हत्थो लितो, सो तेण एकट्ठ पुट्ठो, तेण गंधेण कीडियाओ आगताओ, जा जा खाति सा सा मरति, तेण चिंतितं मए एकेण वा समप्यतुति मा जीवघातो भवतुति एकंते थंडिल्ले आलोचितपडिक्कंतो मुहणंतकं पडिलेहेता अणिदंतेण आहारितं वेदणा य तिब्या जाता अहितासिता, सिद्धो । एवं अहियासेतव्वं २९ ।। संगो नाम 'संज संगे' येनास्य भयमुत्पद्यते तं जाणणापरिष्णाए णातूणं पच्चक्खाणपरिणाए पथक्खातव्वं, तत्थोदाहरणंचंपाए जिणदेवो सत्थवाहो साबको जाव उग्घोसेत्ता अहिछत्तं बच्चति, अंतरा अडवि पवण्णो, सत्यो पुलिंदेहिं विलुलितो, बच्चंतो सो साओ नासंतो अडविं पविट्टो, जान पुरतो अग्गी मग्गतो बग्घा दुहतो पवातं, सो भीतो असरणं णातूणं सतमेव भावलिंग परिवज्जेत्ता कतसामायिको पडिमं ठितो, साएहिं खड़तो सिद्धो एवं संगपरिण्णाए जोगा संगहिता भवंति ३० ॥ 1 पायच्छित करेंतस्स जथाविधीए देतस्स य उववज्जित्ता जोगा किर संगहिज्जेति । तत्थोदाहरणं एत्थ नगरे वणगुत्ता (217) बेदना संगप्रायचिताराधनाः ॥२११॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक २३ + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणामाआयरिका, ते किर पायच्छित्तं जाणंति दातुं छदुमत्थत्तेवि, जहा एपिएण सुज्झति वा नवत्ति इंगितेण, जो य ताणं मूके वहति आशातनाः ध्ययने सो र सुहेण नित्थरति, तं च अतीचारं सोहेति, अग्गहिकं च निज्जरं पावति, एवं दाणे व करणे य जोगा संगहिता भवति ३१॥ १२१॥ आराहणाए मरणकाले जोगा संगहिता भवंति, तत्थोदाहरणं-विणीताए भरहो, उसमभगवतो समोसरणं, सव्वं वण्णेतव्वं ४जहा कप्पे, सा मरुदेवा भरहविभूति पासिता भणति भरह-तुज्झ पिता एरिसं विभूति जहिता एकल्लओ अवसणो हिंडसि। &ाभरहो भणति- मम कतो विभृती तारिसी जारिसी तातस्सी, जदिन पचियह एस जामो पासामो, भरहो निफिडति सबबलेण, |मरुदेवावि, एक्कहिं हथिमि बिलग्गा जाव पेच्छति छत्तातिच्छत्तं सुरसमूहं च धुवंत, भरहस्स य वत्थाभरणाणि ओमिलायंताणि, | मरहो भणति-दिहा ते पुत्तविभूती?, कतो मम एरिसा सा, तो सएणं चिंतेतुमारद्धा, अपुम्बकरणं अणुपविट्ठा, जातीसरणं नत्थि, जेण वणस्सतिकातिएहिंतो उम्बट्टिका, तत्थेव हत्थिखंधवरगवाए केबलनाणं, सिद्धा, इमाए ओसप्पिणीए पढमसिद्धो मरुदेवा । एवं Alआराहणं प्रति योगसंग्रहो कायच्चो ३२ ।। | एते बचीस जोगसंगहा, एत्थ पडिसिद्धकरणादिणा जो मे अतियारो कतो तस्स मिच्छामिदुक्कडति । तेत्तीसाए आसातणाहिं०॥ सूत्रं ॥ आसातणा णामं नाणादिआयस्स सातणा, यकारलोपं कृत्वा आसातना भवति, ताओ य तेत्तीसं एवं भवति, तंजहा- सेहे रातिणियस्स पुरतो गंता भवति आसातणा सेहस्स १। सेहे रातिणियस्स सपक्खं गंता २१२॥ ला भवति आसातणा सेहस्स २ । सेहे रातिणियस्स आसण गंता भवति आसातणा सेहस्स ३श एवं तेणं अभिलावेणं सेहे रातिणि-IMI यस्स पुरतोवि चिद्वित्ता मवति आसातणा ४ । सेहे रातिणियस्स सपक्खं चिविता भवह आसातणा ५ । सेहे रातिणियस्स आसणं । दीप अनुक्रम [११-३६] + | ...अत्र ३३ आशातनानां वर्णनं क्रियते (218) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा &ाचिद्वित्ता भवइ आसातणा ६ सेहे रातिणियस्स पुरतो निसीइत्ता भवति आसातणा ७ सेहे रातिणियस्स सपक्वं निसीहत्ता भवति गो:33 ध्ययने आसातणा८ सेहे रातिणियस्स आसण्ण निसीयित्ता मवति आसातणा ९ सेहे रातिणिएण सद्धि बहिया विहारभूमि निक्खते आशातनाः समाणे तत्थ पुण्यामेव सेहतराए आयमति पच्छा रातिणिए आसायणा सेहस्स १० सेहे रातिणिएण सद्धि पहिया पियारभूमि वा ॥२१३॥ *विहारभूमि वा निक्खंते तत्थ पुब्वामेव सेहतराए आलोएति पच्छा रातिणिए. आसायणा सेहस्स ११ केयी रातिणियस्स पुच संलचए सिया, तं पुब्बामेव सेहतलाए आलवति पच्छा राइणिए आसातणा सहस्स १२ सेहे रातिणियस्स रातो वा दिया था वाहरमाणस्स अज्जो ! के सुत्तो के जागरे, तत्थ सेहे जागरमाणे रातिणियस्स अपडिसुणेत्ता भवति आसातणा १३ सेहे असणं वा ४ पडिगाहेत्ता तं पुवामेव सेहतरागस्स आलोएति पच्छा रातिणियस्स आसातणा सेहस्स १४ तहेव असणं चा ४ पडिगाहेत्तात पुज्नामेव सेहतरागस्स पडिदंसेति आसातणा १५ सेहे असणं ४ पडिगाहेत्ता पुच्चामेव सेहतराग उवणिमंतेति पच्छा रातिणियं ।। आसातणा सेहस्स १६ सेहे रातिणिएण सद्धिं असणं ४ पडिगाहेत्ता तं रातिणियं अणापुच्छित्ता जस्स इच्छति तस्स तस्स खड़ी खद्धं दलयति आसातणा सेहस्स १७ सेहे रातिणिएण सद्धिं असणं वा ४ आहारेमाणे तत्थ सेहे खळू खद्धं डाय डाय रसियं ॥ रसियं ऊसडं ऊसडं मणुष्ण२ मणाम२ निद्धंर लुक्खं लुक्खं आहारेत्ता भवति आसातणा सेहस्स १८ सेहे रातिणियस्स बाहरमाणस्स माअपडिसुणेचा भवति आसातणा सेहस्स १९ सेहे रातिणियस्स बाहरमाणस्स तत्थ गते चेव पडिसुणेचा भवति आसातणा सेहस्स & ॥२१॥ M२० सेहे रातिणिय किंति वत्ता भवति आसातणा सेहस्स २१ सेहे रातिणिय तुमंति वत्ता भवति आसातणा सेहस्स २२ सेहे रातिपणिय खद्धं सद्धं वदति आसायणा सेहस्स२३सेहे रातिणीयं तज्जाएक तज्जातं पडिहणेत्ता भवति आसातणा सेहस्स२४ कीस अजोडू दीप अनुक्रम [११-३६] (219) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२१४॥ गिलाणस्स न करेसि ?, भणइ तुमं कीस तु न करेसि ?, आयरिओ भगति तुमं आलसिओ, सो भणति तुमं चेव आलसिओ इत्यादि २५ सेहे रातिणियस्स कहे कहेमाणस्स इति एतंति बत्ता भवति आसातणा २६ सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स णो सुमणसे भवति आसातणा २७ सेहे रातिणियस्स कह कहेमाणस्स परिसं भेत्ता भवति आसातणा सेहस्स २८ सेहे रातिणियस्स कह कहेमाणस्स कहं अच्छिदित्ता भवति आसातणा २९ सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स तीसे परिसाए अणुट्ठिताए अभिण्णाए अवोच्छिण्णाए अब्बो गडाए दोब्बंपि तच्चपि तमेव कहं कता भवति आसातणा ३० सेहे रातिणियस्स सेज्जासंधारगं पादेन संघद्वेता हत्थे अणणुण्णवेता गच्छति आसातणा सेहस्स ३१ सेहे रातिणियस्स सेज्जासंधारगंसि चिट्टित्ता वा णिसीतिचा वा तुम ट्टित्ता वा भवति आसातणा ३२ सेहे रातिणियस्स उच्चारणे वा समासणे वा चिट्टित्ता वा निसीतित्ता वा तुयट्टित्ता वा भवति आसातथा सेहम्स ३३ ॥ अहवा सूत्रोक्तानां आसातणाए, तेत्तीस पडुच्च इत्यर्थः, ताओ य इमाओ सुरोणेव भण्णंति, तंजथा-अरहंताणं आसातणाए १ सिद्धाणं आसातणाए २ आपरियाणं आसातणाएं ३ उवज्झायाणं आसातणाए ४ साहूणं आसातणाए ५ साहृणीणं आसातणाए ६ एवं सावयाणं ७ सावियाणं ८ देवाणं ९ देवीणं १० इहलोगस्स ११ परलोगस्स १२ केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स १३ सदेवमणुयासुरा लोगस्स १४ सव्वपाणभूतजीव सत्ताणं. १५ कालस्स १६ सुतस्स १७ सुतदेवताए १८ वायणायरियस्स० १९ जं वाइर्द्ध २० विच्चामेलियं २१ हीणक्खरियं २२ अच्चक्खरियं २३ पयहीणं २४ घोसहीणं २५ जोगहीणं २६ विणयहीणं २७ दुहु दिपणं २८ दुदु परिच्छितं २९ अकाले कती (220) अर्हदादी नामाशातनाः ३३ ॥ २१४॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक SKSE + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा सज्माओ ३० काले ण कओ सज्झाओ ३१ असज्झाइए समाइयं ३२ समाइए ण सज्झाइयन्ति ३३ तस्सल अर्हदादीAll मिच्छामि दुक्कडं! नामाशासूत्र तत्व अरहताणं आसातणा भण्णति- णत्थि अरहंता, तिहिं णाणेहि जाणता वा कीह घरवासे भागे झंति , तत्रोत्तर- तनाः ३३ भोगनिर्वर्तनीयगुणाः प्रकृतिबलादिति । भणति वा-तिस्थकरो केवलणाणे उप्पण्ण देवमणुएहिं वागरति गंधयपुप्फोगारबलिमादीयं उवणीतं पाहुडियं किं उपजीवति दोसे जाणतो ?, तत्रोत्तरं-ज्ञानदर्शनचारित्रानुपरोधकारकस्य अघातिकशुभप्रकृतेः तीर्थकृमामकर्मोदयाददोषः वीतरागत्वाच्चादोष इति ।। सिद्धाणं आसातणा-सिद्धा नस्थि निच्चेट्ठा था, उवयोगे या सति राग-1 दोसेहिं भवितवं, उत्तर- सिद्धशब्दादेवास्ति, निच्चेट्ठाणं वीर्यान्तरायचयाददोषः, उवयोगवि वा सति रागद्दोसो न भवति, कपायाणां निरवशेषक्षयात् , अण्णा भणति- केवलणाणदसणाणं किं एगसमए उपयोगो नस्थि एगगाले ?, तत्रोत्तर- एतेसिं दोण्हंपि जीवसारुवा एगकाले उवयोगो न भवतीति । आपरियाणं आसातणा- सेहे रातिणियस्स पुरतो गंता जया दसाहिंतो पुन्व-- भणितं, मणदोसेण वा-डहरो अकुलीणोत्ति व दुम्मेहो दमग मंदबुद्धित्ति । अवि अप्पलाभलद्धी सीसो परिभवति आयरिशा परस्स वा उवदिसंति दसविहं वेयावच्चं अप्पणो किंण करेंति,एवमादी,उत्तर-खहरोऽवि णाणबुडो अकुलीणोत्तिय गुणाहियो किह गु। दुम्मेहादीणिविते भणत:संताई दुम्मेहो।।१॥ जाणंति नविय एवं निद्धम्मा मोक्खकारणं नाणं। 8|॥२१५।। निचं पगासयंता यावधादिकुब्वति॥शाएवं उबजझायाणंपि।।समणाणं-असद्दणातुरियगती विरूवणेवस्थात्ति एवमादि, एवं अण्णेवि आसातणापगारा संति-अरहताणं आसातणा जथा-निरणुकंपताए अतिउग्गो उपदेसो कातव्यो इच्चादि,सिद्धाणं % A दीप अनुक्रम [११-३६] 5 %4:* (221) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रांतक्रमणा का असरीराणं नस्थि अणावमं सुह इच्चादि, आयरिया-भिक्खं न हिंडंति सुहसीला सीसपाडिच्छिए उवजीवंति इच्चादि , एवं उव-15 अहंदादीध्ययन लिझायापवि सा, साधणं अण्णोणपडिचोदणकोहादीहि कमबंधणत्ति इच्चेवमादि । साहणीणं कलहणा बहुवगरणा, अहवा सम- नामाशा: INणाणं समणीओ उवद्दवा एवमादि ।। सावगाण जधा आरंभताण कतो सोग्गती? एवमादि । एवं सावियाणवि ।। देवाणं अवि-1 पतिना: ३३ ॥२१॥ काउन्चिए ण तरंति किंचि कातुं, कामगद्दमा अणिमिसा य, अणुत्तरा वा निच्चेट्ठा, सामत्थे या सति किमिति तच्चं पवयणमुण्णति 18न करेंति, एवमादि ॥ एवं देवीणपि ॥ इहलोगस्स-इहलोगो मणुस्सस्स मणुस्सलोगो, परलोगो सेसाओ तिष्णि गतीयो, MI आसातणा विभासेज्जा ।। केबलिपण्णत्तो धम्मो सुतधम्मो चरित्तधम्मो य,आसातणाओ-पाययभासानबद्धं को वा जाणति प्रापणीत केणेदं । किं वा चरणेणं तू दाणेण विणेह भवति?त्ति, ॥१॥ एवमादि।। सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स आसातणाए, & देवादीयं लोग अण्णाहा भणति, सत्त द्वीपसमद्राः, प्रजापतिकृतं वा युवते, प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्वा ।। सव्वपाणभूतजीवसत्ताणं आसातणाए पाणा-बेइंदियादयो जत्तो व आणमंति वा पाणमंति वा तम्हा पाणत्ति वत्तध्या, भूता-पुढविमादि एगेदिया जम्हार ४ा भुवं भवंति भविस्संति य तम्हा भूतत्ति वत्तव्वा, जीवा-जेसि आउअसहव्वता,ते य सम्बे संसारिणो जम्हा जीवींसु जीवंति जीविस्सति । य तम्हा जीवत्ति वत्तब्वा, सत्ता संसारिणो संसारातीताय जम्हा संतीति तम्हा सत्तति बत्तव्या, एगद्विता वा एते,एतेसिं आसादणा २१६॥ काजथा मुहुमतसेहिं थावरेहि य अव्वत्तवेदणतणेणं उद्दवितेहिं तुच्छो कमबंधो एवं विभासेज्जा।। कालस्स आसातणा, किं कालगह-12 लोण? किं वा पडिलहणादिकाला आराहिज्जति एवमादि। सुतस्स आसातणा-को आतुरस्त कालो?,महलंयरधोब्धणे व को कालो। जदि मोक्खहेतु गाणं को कालो तस्सकालो वा ॥१॥ एवमादि । सुतदेवताए सुतदेवता जीए सुतमधिद्वितं दीप अनुक्रम [११-३६] (222) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा & तीए आसातणा,णस्थि सा, अकिंचिक्करी वा एवमादि । वायणायरियस्स आ० वायणायरिओ नाम जो उवज्झायसंदिडो उद्दे- परसमुत्थध्ययने सादि करेति तस्स आसातणा- निदुक्खसुहो बहुवारा बंदणं वा दवावेति एवमादि । जं वाइद्धं व्याविद्धं विपर्यस्तरत्नमालावतमस्वाध्या यिक ४ अण्णण पगारेण जा आसातणा तीए, एवं जोएज्जा,विच्चामेलितं कोलिकपायसवत् , हीणक्खरं अक्खरहीणं अच्चक्खरं ॥२१७॥ अहिगक्खरै पदहीण घोसहीणं एवं जहा सामाइए जोगहीण उवहाणं जोगो एवं विभासेज्जा जाव असज्झाइए सझा इतं सज्झाइए ण सज्झाइतंति, तत्थ असज्झाइयं नाम जामि कारणे सज्झाओ नवि कीरति तं सब्बं असज्झाइयं, तंच बहुलाविहं, तस्स इमे भेया- असज्झाइतं तु दुविहं० ।। १४१९ ।। आयसमुत्थं चिट्ठतु ताब, उरि भणिहिति, जं पुण परसमुत्थं ते। इम पंचविह-संजमघादो०॥ १४२० ।। एतमि पंचविहे असज्झाइए जो सज्झायं करेति तस्स आयसंजमविराहणा। तत्थ दिद्रुतोघोसणयमेच्छरपणोत्ति, अस्य व्याख्या-मिच्छभय० ॥१४२१ ।। खितिपतिद्रुितं नगरं, जितसत्तू राया, तेण सविसए घोसा-14 वितं जहा- मेच्छो राया आगच्छति, तं गामकुनगराणि मोत्तुं समासण्णे दुग्गेसु ठायह, मा विणस्सिहिह, जे द्विता रण्णो वयोण दुग्गादिसु ते ण विणट्ठा, जे पुण ण ठिता ते मेच्छादीहिं विलुत्ता, ते पुणो रण्णा आणाभंगो मम कतोत्ति जंपि किंचि हितसेसं ४ातंपि डंडिता, एवं असज्झाइए सज्झात करेंतस्स दुहतो डंडो,इह भवे सुरत्ति देवताय छलिज्जति परभवे पडुच्च णाणादिविराहणा[8 पच्छित्तं च, इमो दिद्रुतोवणतो-राया इध०॥१४२२ ।। जहा राया तहा तित्थगरो जथा जणवदजणा तथा साधू जथा आघो-18 सण तथा सुत्तं असज्झाइए सज्झाइतपडिसेहगति, जारिसा मेच्छा तारिसा असज्झाइमा जहा रतणधणावहारो तथा णाणदंसणचरणविणासो, सव्यं उपसंहारेतन्वं ।। को इत्थ लित्तो पमादेगति, अस्य विभासा- थोवावसेसः ॥ १४२३ ।। सज्झायं करेंतस्स | दीप अनुक्रम [११-३६] ... अत्र अस्वाध्यायिकम् वर्णनं क्रियते (223) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा डाथोचोऽवसेसगो उद्देसगो अज्झयणं चा ता पोरुसी अतिवच्चिसु ता अहवा सज्झाय कालवेला व सग्बादि, जो आउडियाए सज्झायं संयमोपचाध्ययनकरेति सो णाणादिहीणो भवति, अणायारत्थो य देवताए य छलिज्जति संसारे व दीहकालं अणुपरियति, पमादणवि करेंतोडू टतिकमस्याछलिज्जति च्चेव, दुक्खं संसारे य अणुभवति ।। तत्थ जे तं संजमोवघातियं तं इमं तिविहं माध्यायिक ॥२८॥ 8. महिया य० ॥१४२४ ॥ पंचविहस्स य असज्झाइयस्स कं कह परिहरितवमिति तप्पसाहगो इमो दिट्टतो- दुग्गाति. दिएगस्स रण्णो पंच पुरिसा, ते बहुसमरलद्धविजया, अण्णदा तेहिं अच्चंतविसमं दुग्गं गहितं, तेसिं तुट्ठो राया इच्छित नगरे पयार मादेति. ते किंचि असणादिकं पस्थादिगं वा जणस्स गेहंति तस्स बेतणय सर्व राया पयच्छति । एकोण० ॥ १४२६ ।। तसि । हा पंचण्डं पुरिसाण एपेण राया तोसिततरो, तस्स गिहावणरस्थासु सव्वत्थ इच्छियपयारं पयस्छति, चउर्जा रत्थासु चेव इच्छितप यारं पयच्छति, जो एते दिण्णपयारे वा आसादेज्ज तस्स राया दंडं करेति, एस दिट्ठतो, इमो उपसंहारो- जया पंच पुरिसा तथा पंचविहं असज्झातियं, जथा सो एगो अब्भहिततरो पुरिसा एवं पढम संजमोवघातिय, सर्व पाप सादिज्जति, तमि वहमाणे ण सज्झातो व पडिलेहणातिका काइया चेट्ठा कीरति, इतरेसु चतुसु असज्झाइएसु जथा ते चतुरो पुरिसा रत्थासु व अणासाय|णिज्जा तथा तेसु सज्झाओ चेव ण कीरति सेसा सव्वा चेट्ठा कीरति,आवस्सगादि उक्कालियं पढिज्जति । महियादितिविहस्स संजमोवघातियस्स इमं वक्खाणं मा॥२१८॥ महिया०॥ २२० भा०॥ महियत्ति धूमिका, सा य कत्तियमग्गसिरादिसु गम्भमासेसु भवति, सा य पडणसमकालं चला सुहुमत्तणतो सव्वं आउक्काइयभावितं करेति, तत्थ तस्कालसमं चब सब्बावि चट्ठा णिरुम्मति । ववहारसचित्तो पुढविक्कायो | दीप अनुक्रम [११-३६] (224) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक संयमोपघा ध्यायिक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणाला अरष्णो वा उपन्तो आगतो रतो भण्णति, तस्स सचित्तलक्षणं धूर्णतो ईसिं आतंबो दिगंतरेसु दीसति, सोवि निरंतरपावेण तिष्ह IN दिणाणं परतो सव्वं पुढविक्काइयभावितं करेति, तत्र उत्पातसंकासंभवः । अभिण्णवासं तिविहं बुन्बुदाति, जत्थ बासे पडमाणे ॥२१॥ उदगबुन्बुदा भवंति तं चुन्बुदवरिसं,तेहिं बज्जितं तव्वज्जं, सुहुमफुसारहिं पडमाणेहिं फुसितवरिसं, एतेसु जहसंखं तिण्णि पंच सच है दिषा, परतो सव्वं आउक्कायभावितं भवति । संजमघातस्स सब्बभेदाणं इमो चउब्विहो परिहारो-ब्वे खेत्ते०पच्छद्धं अस्य व्याख्या दब्वे तं चियः ॥ २२१ ॥ भा० । दब्बतो तं चव दवति महिया सचित्तरयो भिण्णवास वा परिहरिज्जति, जहितं चेदिति जहिं खत्ते महिया पडति तहि चेव परिहरिज्जति, तच्चिरन्ति पडणकालाओ आरम्भ जफिचरकाल पडति तच्चिरं परिहारी, सचंति भावतो ठाणभासादित्ति ठाणंति काउस्सग्गं न करेंति ण य भासंति, आदिसदाओ गमणागमणपडिलेहणसझायादि न करेंति मोतुं उस्सासउम्मेसन्ति मोतुं, ते णो पडिसिझंति उस्सासादिया, अशक्यत्वात् जीवितव्याघातकृत्वाच्च, क्षेषा क्रिया सर्वा णिपिध्यते, एस उस्सग्गपरिहारो। आइण्णं पुण्ण सचित्तरये तिणि भिण्णवासे तिष्णि पंच सत्त, ततो परं सज्झायादि सव्वं न करेति, अण्ण भणति-बुन्बुयवरिसे अहोरत्त, तथ्वज्जे दो अहोरत्ता,फुसियवरिसे सच,अतो परं आउक्कायभाविते सब्बचेट्टा णिरुज्झति । कही-चासत्ता ।। १४२७ ।। निक्कारणे वासकप्पकंबलीए पाउता णिहुता सन्यम्भंतरे चिटुंति, अवस्सकातब्बे दावा कज्जे इमा जतणा-इत्थेण भूमादिअच्छिविकारेण वा अंगुलीए वा सण्णेति-इमं करेहि मा वा करेहित्ति, अह एवं नावगच्छति सहपालियअंतरिया जतणाए भासंति, गिलाणादिकज्जे वा बासकप्पपाउया गच्छति । संजमघातात दार गत । इदाणिं उप्पाएत्ति दारं, अभ्रादिविकारवत् विखसापरिणामतो उप्पातो, उत्पातो पांशुमादी भवति । पंशु य०॥१४२८।। SEXCAR दीप अनुक्रम [११-३६] RC%E5% AA% २१९॥ (225) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [सूत्र / ११-३६] / [गाथा - १, २] भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], प्रतिक्रमणापंसुवरिसं मंसरिसं रुधिरवरिसं केसत्ति वालवरिसं, आदिकरणा सिलावरिसं रउग्घातपडणं च एतेसिं इमो परिहारो-मंसरुधिरे ध्ययने ॥ २२० ॥ अहोरचं सज्झाओ न कीरति, अवसेसा पंसुमादीया जचिरं कालं पडंति तेत्तियं कालं सुतं नंदिमादीयं न पति, पंसुरओग्धाताण इमं वक्खाणं- पंसू अच्चि० गाहा ।। १४२९ ।। धूमागारो आपांडरो रओ, अचित्तो य पंसू भण्णति, महास्कंधावारगमनसमुद्भूत व विसापरिणामतो समता रेणुपतना रउग्घातो भण्णति, अहवा एस रओ, रओवरघाओ पुण पंसुरिया भणति, एतेसु वातसहितेसु निव्वातेसु वा सुत्तपोरिसिं न करेंति । किं चान्यत्-साभावि० || १४३० || एतेसु पंसुरउग्धाता साभाविगा हवेज्ज असामाविगा वा, तत्थ असाभाविगा जे निग्घात भूमिकंपचंदोवरागादिदिव्वसहिता, एरिसेसु असाभाविक्रेसु कते उस्सग्गे ण करेंति सज्झायं, सुगिम्हएत्त जदि पुण चेत्तसुद्धिपक्खदसमीए अवरण्हे जोगं निक्खिवंति, दसमीओ परेण जाब पुण्णिमा एत्यंतरे तिष्णि दिणा उबराउवरिं अचित्तरउग्घातावणं काउस्सग्गं करेंति तेरसिमादिसु वा तिसु दिणेसु तो सन्भाविके पडतेवि संवच्छरं सज्झायं करेंति, अह तुस्सग्गं न करेंति तो साभाविकेवि पडते सज्झायं न करेंति । उप्पातंति गतं । "इदाणिं सादिवित्ति, सह देवेण सादेवं, दिव्बकृतमित्यर्थः । गंधव्व० | १६ | ३१ || गंधव्वनगरविउच्चणं दिसाडाहकारणं विज्जुभवणं उक्कापडणं गज्जितकरणं जूवगो वक्खमाणो जक्खालित्तं जक्खुद्दिसं आगासे भवति, एत्थ गंधव्वनगरं जक्खुद्दित्तं च एते नियमा दिव्यकता, सेसा भवणिज्जा, जतो फुडं न नज्जति तेण तेसिं परिहारो, एते गंधव्यादिया सव्वे एक्कं पोरिसिं उवहणंति, गज्जितं दो पोरिसीओ उवहणति । दिसिदा० ।। १४३२ ।। अन्यतमादिसि महानगरं प्रदीप्तमिवोद्योतः किंतु उपरि प्रकाशमधस्तादंधकारः ईदृग् छिनमूलो दिग्दाहः, उक्कालकखणं सदेहवण्णरेहं करेंति जा पडति सा उक्का, (226) ओत्पाता स्वाध्याकिं ॥२२० ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक WHERE + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा दा रेहविरहिता वा उज्जोतं करेति जा पडति सावि उक्का, जूवगोत्ति संझप्पभा चंदप्पभा य जेण जुगवं भवति तेण जूवगो, सादिव्याध्ययने सा य संझप्पमा चंदप्पभावरिता फिडंति न नज्जति, सुक्कपक्खपाडिवगादिसु तिसु दिणेसु. संझच्छेदे य अणज्जमाणे कालवेली स्वाध्या॥२२१॥ न मुणंति अतो तिष्णि दिणे पादोसियं कालं न गेहति, तेसु तिसु दिणेसु पादासियं सुत्तपोरिसिं न करेंति । केसिंच०॥१४३शा यिक जगस्स सुभासुभमत्थनिमित्तुप्पाओ अवितच्चो आदिच्चकिरणविकारजणिओ आदिच्चेसु वत्थामय आयंचो किण्हसामो वा सगडद्धिसंठितो डंडो अमोहत्ति, एस जूवगो, सेस कंठ्यं । किं चान्यत- चंदि० ॥१४३४ ॥ चंदसूरुवरागो गहणं भणति एयं वक्खमाणं, साभ्रे निरभ्रे वा व्यंतरकृतो महागर्जितध्वनिर्निर्धातः,तस्यैव विकारो गुंजमानो महावनिर्गुजित,सामण्णतो तेसु चतुसुवि अहोर सझाओ न कीरति, निग्घातगुंजितेसु बिसेसो-वितियदिणे जाव सा वेलत्ति णो अहोरत्तच्छेदेण छिज्जति, जथा अण्णेसु असल्झातिएसु, संझाचतुत्ति-अणुदिते सुरिए मज्मण्हे अस्थमणे अद्धरत्ते य, एतासु चतुसु सज्झायं न करेंति पुष्वत, पाडिवएत्ति चउण्हं महामहाणं चतुसु पाडिवएसु सज्झायं न करेंति, एवं अण्णपि जति मह जाणेज्जा जहिन्ति गामनगरादिसु तंपि तत्थ बज्जेज्जा,सो गिम्हगो पुण सव्वत्थ नियमा भवति, एत्थऽणागाढजोगा नियता निक्खिवंति, आगाढ न निक्खिवंति, पढ़ति, के व पुणो वेते महामहाः, उच्चंति-आसाढी०।१४३५ ।। आसाढी-आसाढपुष्णिमा इह, लाडाण पुण सावण्णपुष्णिमाए भवति, इंदमहो आसोयपुष्णिमाए भवति, कत्तियात्ति कत्तियपुष्णिमा चेव सुगेम्हओ चेनपुणिमा, एते अंतदिवसा गहिता ॥२२॥ आदितो पुण्णिमा, जत्थ जत्थ विसए जतो दिवसातो महामहा पवति ततो दिवसातो आरम्भ जाय अंतदिवसो ताव समाओ पून कातब्बो, एतेसिं चेव पुण्णिमाणं अर्णतरं जे बहुलपाडिबगा ते चतुरोवि बज्जेतवति । तत्थ को दोसो'-अण्णतरय० ॥१४३८॥ :5 दीप अनुक्रम [११-३६] % (227) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ध्ययन प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| ॥२२॥ सरामसंजतो संजयत्तणओ इंदियविसायादिअण्णतरपमादजुत्तो हवेज्जा, विसेसतो महामहेसु, ते पमादजुनं पडिणीया देवता छलेज्जा, अप्पिडिया खिशादिच्छलणं करेज्जा, जतणाज पुण साईजो अपिडिओ देवो अद्धोदधीऊणद्विती सोन सक्केतिहा ला स्वाध्या यिक छलेतुं, अद्धसागरोवमहितीओ पुण जतणाजुत्तं छज्जा. अस्थि से सामत्थं,तंपि पुण्यवेरसरणादिणा कोई छलेज्जत्ति। चंदिमसूर बरागत्ति अत्थ व्याख्या-उकोसेण|१४३९॥चंदो उदयकाले चेव गदितो संसंते रातीए चतुरो अण्णं च अहोर एवं दुबालस,अहवा. उप्पादग्गहणे सब्बरातियमहणं सगहो च्चेव निबुहो संदूसितरातीए चतुरो अण्णं च अहोरत्तं एवं बारस,अहवा अजाणतो अम्भच्छपणे संकाए ण पणज्जति के बेले गहणी,परिहरिता राती पभाते दि8 सग्गहो बुशे,अणं अहोर,एवं दुवालस,एवं सूरस्सवि उदयस्थमणग्महेण सम्गह ४ निबुझे उवहतरातीए चतुरो अण्णं अहोर परिहरति, एवं बारस, अह उदेंतो गहितो तो संदूसितमहोर अवरं च अहोर परिह-18 रति, एवं सोलस, अहचा उदयवेलाए गहितो उप्पादितम्गहणे सवदिण होत गहणं सग्गहो चेव निवुडो संसितमहोरचस्स ला अट्ठ अण्णं च अहोरत्त, एवं सोलस, अहवा अन्मच्छष्णे ण णज्जति, केवलं होहिति गहणं, दिवसओ संकाए ण पढितं, अस्थमण-12 वेलाए दिई गहणं, सग्गहो निबुडो, संसितस्स अट्ठ अण्णं च, एवं सोलस । सग्गह ॥ १४४० ।। सग्गहनियुड़े एवमहोर & उवहतं, कहं ?, उच्यते, सूरादी जेनहोरत्ता,सूरुदयकालाणु जेण अहोरत्तस्स आदी भवति, तं परिहरिचा संदसितं अण्णपि अहोर परिहरितवं, इमं पुण आदिणं-चंदो रातीए गहितो रातीए चेव मुक्को तीसे चेव रातीए सेस वजणिज्ज, जम्हा आगामिसूक Ik२२२॥ दये अहोरत्तमादी, सूरस्सवि दिया चेव गहिओ दिया च्चेब मुक्को तस्सेच दिवसस्स सेसं राती य वज्जणिज्जा, अहवा सम्गह-ला निबुड़े एवं विही मणितो । ततो सीसो पुच्छति-कह चंदे दुवालस सरे सोलस जामा', आचार्य आह- सूरादी जेण होतहोरता, दीप अनुक्रम [११-३६] (228) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [ गाथा-१,२३, निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१) आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२२३॥ सदस्य नियमा अहोरसद्धे गते गणसंभवे अणं च अहोरनं, एवं दुबालस, सूरस्स पुण अहोरवादीए अतो दुसित होतं परिहरितुं अप्यपि अहोरचं परिहरिवन्वं एवं सोलस । सादिव्यन्ति गतं । इदाणिं बुग्गदेति दारं, बुग्गह इंडियमादिति, अस्य व्याख्या - सेणाहि० || १४४२ || इंडियस्स वुग्गहो, आदिसदाओ सेणाहितस्स च, एवं दण्डं भोइयाणं दण्डं महत्तराणं दोन्हं पुरिसाणं दोन्हं इत्थीणं मन्लाण वा जुद्धं पिट्ठातगलोभंडणो वा आदिसदाओ विसयपासिद्धा मुर्भखुरलसुविग्रहाः प्रायो ऽभ्यन्तरबडूला, तथा प्रमत्तं देवता छलेज्ज उडाहोवि, निदुदुक्स्यत्ति जणो भणेज्ज- अम्द जावतिपत्ताणं इमे सज्झायं करेंतिति अचिततं दवेज्ज विसयसंखोहो परचक्कागमे दंडिए वा कालगते भवति अण्णराइएति रण्ये कालगते पम्भट्ठेवि जावण्णो राया णो विज्जति सभपत्ति जीवंतस्स रण्णो बोहिहिं समंततो अहिदुयं, जच्चिरं समयं तत्तियं कालं सज्झायं ण कीरति । जदिवस सुतं निदोच्च तस्स परतो अहोरतं परिहरंति, एस डंडिए कालगते, सेसेसु इमो विही-तदिवस० || १४४३ ॥ गामभोइए कालगते तदिवसति तं दिवसं परिहरति । आदिसदातो मतहर० || १४४४ || गामरमतहरे अधिकारनिउचो बहुमतोय पगतो बहुपक्खितोति बहुसयणो वागडसादिअधिने सेज्जातरे य अण्णंमि वा अनंतरघरगाओ आरंभ जाव सतघरंतरं एवेसु मतेसु अहोरनं सज्झातो न कीरवि, अह करेति निदुक्खचिकाउं जणो गरहति अक्कोसेज्ज वा निच्छुक्मेज्ज वा अप्पसद्देण वा सणितं करेंति अणुप्पेति वा, जो पुण अणाहो मरति तं जदि ओमिष्णं इत्थसतं वज्जेतभ्वं अणुभिष्णं असज्झाइयं न भवति, तहवि कुत्सिवंति का आवरणातो व दि त्यसतं वज्जिज्जति जदि एतस्स नरिथ को परिवेतओ ताहे सागारिक० | १४४५ ॥ गाथा, ताहे सागारिकस्स (229) विग्रहास्वा घ्यायिकं ॥२२३॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] भाष्यं [२०५-२२७] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [ सूत्र / ११-३६] / [गाथा - १, २], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 श्रतिक्रमणा५) आदिसहातो पुराणसङ्कअस्स भद्दस्स वा कहिज्जति इमं छड्डेह, अम्हं सज्ज्ञातो न सुज्झति, जदि तेहिं छड़ितं तो सुद्ध, अह नेच्छति ध्ययने वाहे अण्णं बसहिं मग्गति, अह अण्णा बसही न लब्भति ताहे वसभा अप्पसागारितं परिड्डावेंति, एस अभिण्णे विधी अह भिण्णं काकसाणादिएहिं समंता विकिष्णं तं दिडुं विवित्तंमि सुद्धा, असदभावं गवेसंतेहिं जं दिवं तं सव्वं विनिचितंति छड़ितं, इतरंति अदि तंमि तत्थत्थेवि सुद्धा, सज्झायं करेंताणवि ण पच्छित्तं । एत्थ एवं पसंगतो भणितं । बुग्गहेत्ति गतं । इदाणिं सारीरन्ति दारं, तत्थ - ॥२२४॥ सारीरंपि० ।। १४४६ ।। एत्थ माणुसं चिट्ठतु, तेरिच्छं तात्र भणामि, तं तिविहं मच्छादियाण जलजं गवादिजाण थलर्ज मयूरादियाण खहचरं, एतेसिं एक्केक्कं दब्बादियं चतुब्विहं एक्केक्कस्स वा दब्बादिओ इमो चउहा परिहारो- पंचदिय० ॥। १४४६।। दव्वतो पंचदियाणं रुहिरादि दव्वं असज्झाइयं, खेत्ततो सट्ठिए हत्थन्मंतरे, परतो न भवति, अहवा खेचतो पोग्गलाइण्णं, पोग्गलं मंसं तेन सब्बं आकिष्णं व्याप्तं तस्सिमो परिहारो तीहिं कुरत्थाहिं अंतरियं मुज्झति, आरतो न सुज्झति, महन्तरत्थाए य एक्काएवि अंतरितं सुज्झति, अनंतरित दूरट्ठितं ण सुज्झति, महंतरत्था रायमग्गो जेण राया बलसमग्गो गच्छति देवजाणरहो वा विविहाय संवहणा गच्छंति, सेसा कुरत्था, एसा गरे विही, गामस्स नियमा बाहिं एत्थ गामो अविसुद्धणेगमदरिसणेण सीमापज्जतो, परम्गामसीमाए सुज्झतीत्यर्थः । कालत्तिः तिरियं असज्झाइयं संभवकालाओ जान ततियाए पोरिसीए ताव असज्झाइयं, परतो सुज्झति, अहवा अट्ठ जामा असज्झाइयं, ते जत्थायतणं तत्थ भवंति, भावतो पुण परिहरंति सुतं तं च दिमयोगदारं तंदुलवेतालियं चंदगवेजलगं पोरुसीमंडलमादी, अहया चतुद्धा तुत्ति असजाइयं चतुव्विधं इमं सोणियं रुहिर (230) शारीरास्वाध्या यिकं ॥२२४॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 शायने प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा चम्मं अढि च, साणिण उरिखत्तमसे इमो विही अंतो यहि ॥१४४९॥ साहुवसहीतो सट्ठीए हत्थाणं अंतो चाहिं च धोतन्ति शारीरा भगदर्शनमेतत् अंतो घोय अंतो पक्क,अंतोग्गहणाओ पढमवितियभंगा,बहिग्गहणा ततिओ मंगो,एतेसु तिस असज्झाइय, जमिश स्वाथ्या पदेसे धोतं आणत्तुं वा रद्धं सो पदेसो सट्ठीए हत्थेहि परिहरितव्बो, कालतो तिण्णि पोरिसीओ । पहिधोय० ॥ १४५० ।। एस४:यिक ॥२२५॥ चउत्थभंगो, एरिस जदि सट्ठीए हत्थाणं अम्भितरे आणीत तथापि तं असज्झाइयं न भवति, पढमचितियभंगेसु अंतो धोवितुं पीते रद्धे वा तमि धोतट्ठाणे अवयवा पडंति तेणं असज्झाइयं,ततियभंगे चाहिं धोवित्तुं अंतो पणीते मंसमेव अवज्झायंति, तं च उकिनमसं-आइण्णपोग्गलं ण भवति, जं काकसाणादीहिं अणिवारितपयारेहिं विपकिणं नज्जति तं आइण्णं पोग्गलं भणितव्वं, महकाओ पंचेंदियओ जत्थ हतोतं आघातणं वज्जेतव्वं खेचओ सढि हत्या कालतो अहोरत्तं,एत्थहोरत्तच्छेदो सूरुदए,रद्धपक्कं वा मंस असज्झाइयं न भवति, असज्झाइयं जत्थ य पडितं तेण पदेसण उदगवाहो बूढो तं तिपोरुसिकाले अपुण्णेवि सुद्ध, आषातणं लन सुज्झति । महाकाएत्ति अस्य व्याख्या-महाकाए पच्छद्ध,मुसगादी महाकाओ, सो बिरालादिणा हतो जदि तं अभिण्णं चेव गिलित्तुं घेत्तुं वा सट्टीए हत्थाण चाहिं गच्छति तो केई आयरिया असज्झाइयं नेच्छंति, ठितपक्खे पुण असज्झाइयं चेव, अस्थाथेस्य व्याख्या-मूसगादि ॥ २२२ ॥ भा० । गतार्था । तिरियमसज्झाइकाधिकार एव इमं भणति-अंतो बर्हि18। च०॥१४५१ ।। अंतो यहिं च भिन्ने अंडयंति, अस्प व्याख्या P॥२२॥ अंडय० साधुवसहीतो सट्ठीए हत्थाणं अंतो भिन्ने अंडए असज्झाइयं, बाहिं भिण्णे ण भवति, अहबा साहुवसहीए अंतो बाहि वा अंडयं भिन्नति वा उज्झितंति वा एगहुँ, तं च कप्पे वा उज्झितं भूमीए वा, जदि कापे तो तं कप्पं सट्ठीए हत्थाण बाहिं दीप अनुक्रम [११-३६] (231) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 R प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा | नेतुं धावति ततो सुद्ध, अह भूमीए मिष्णं तो भूमी खणितु ण छडिज्जति, न मुज्झतीत्यर्थः, इतरहात तत्वत्थे सढि हत्था शारीराध्ययने | तिणि पोरिसीओ परिहरिजंति । इदाणि बिंदुत्ति, असज्झाइयस्स किं पमाणी, बिंदुमाणमेण होणेण अधिकतरेण वा असझाओल स्वाध्या।।२२६॥ | भवतित्ति पुच्छा, उच्यते, मच्छियापादो जहिं बुडति तं असज्झाइयप्पमाणं । इदाणि वियायत्ति- अजरायु०॥ २२४ भा०॥ यिक ४ जरु जासिं न भवति तासि पसूयाणं चागुलितामाइयाणं तासिं पसहकालाउ आरम्भ तिण्णि पोरुसीओ असझाओ मोत्तुं अहोरत्तदच्छेद, आसष्णपसताएवि अहोरत्तच्छेदेण मुज्झति, गोमादिजरायुजाणं पुण जाव जरूं लेबति ताव असज्झाओ, जरे चुतेत्ति जाहे जरं पडितं ताहे ततो पडणकालाओं आरम्भ तिण्णि पहरा परिहरिज्जंति, रायपह बूढ सुद्धत्ति अस्य व्याख्या-रायपह-II द्रबिंदु पच्छद्धं, साहुचसहिआसण्णेण गल्छमाणस्स तिरियंचस्स जदि रुधिरबिंदू मलिता ते जदि रायपधंतरिया तो सुद्धा, ते रायपहे चव बिंदू गलिता तथावि कप्पति सज्झाओ कातुं, अह अण्णंभि पहे अण्णत्थ वा पडितं तं जदि उदगवुड्डी वाहेण वा हरिता |तो सुद्ध, पुणत्ति विशेषार्थप्रदर्शने, पलीवणगेण वा दले सुज्झति, परवयणे साणमादीणिाति परोत्ति-चोयगो तस्स इमं वयण-10 जदि साणों पोग्गलं समुदिसित्ता जाव साधुवसतिसमीबे चिट्ठति ताव असज्झाइयं, आदिसहाओ मज्जारादी, आचार्याह-जति ★ फुसति ।। २२५ ॥ भा०॥साणो भोत्तुं मंस लेत्यारितेणं तुंडेणं वसहिआसण्णण गच्छतो तस्स गच्छतस्स जदि तुंडं रुहिरलित खोडादिफसित तो असझाइय, अहया लेस्थारियाँडो वसहिआसण्णे चिट्ठति तहवि असमाइय,इहरहत्ति आहारिएण चोयग। असज्झाइयं न भवति, जम्दा तं आहारिय वंतं अर्वतं वा आहारपरिणामेण परिणयं, ते च असझाइयं न भवति, अण्णपरिणामतो | मुत्नपुरिसादि व । तेरिच्छं गतं, इदाणि माणुसं-माणुस्सयं०॥१४५२ ॥ तं माणुस्सं असमाइयं चउविह- चम मंस रुहिरं | दीप अनुक्रम [११-३६] EAKERASIERS F२२६॥ (232) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [ गाथा-१,२३, निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१) आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२२७॥ ], "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अहं च, अहं मोतुं सस्स तिविहस्स इमो परिहारो- खेत्तओ हत्थसतं कालतो अहोरतं, जे पुण सरीराओ चैव वणादिसु आगच्छति । परियावण्णं विवण्णं वा तं असज्झाध्यं न भवति, परियावण्णं जथा रुहिरं चैव पूतपरियारण ठितं विवण्णं खदिरकल्कसमाण रसिगादिकं च, सेसं असज्झाइयं भवति, अहवा से आगारिरितुसंभवं तिष्णि दिणा वियायाए वा जो सावो से सत्त वा अडवा दिणे असज्झाइयं भवति । बियायाए कहं सत्त अड वा ?, उच्यते रक्कडा० ।। १४१३ ॥ णिसेगकाले रतुक्कडताए इन्थि पसवति तेण तस्स अट्ठ दिणा परिहरितव्वा, सुक्काहिमचणतो पुरिसं पसवति तेण तस्स सत्त दिवसा, जं पुण इत्थिए तिन्हें दिणाणं परेण भवति तं रिडं न भवइ, तं सरोगजोणित्थीएमहोरतं भवति, तस्स उस्सग्गं कातुं सज्झायें करेंति । एस रुहिरे बिही। जं वृत्तं ' अहिं मोचूर्ण' ति तस्स इदार्णि विधी इमो भण्णति - विहे दं० ।। १४५४ ॥ जति दंतो पडितो सो पयत्तओ गवेसितथ्यो, जदि दिट्ठो तो हत्थसताओ परं विर्गिचितब्बो, अह न दिडो तो उघाडयातुस्सग्गं कातूण सज्झायं करेति, सेसट्टिएसु जीवविमुक्कदिणारंभातो हत्यसत मंतरे ठितेसु बारस वरिसे असज्झाइयं । 'झामिय सुद्ध सीताणे' ति अस्स व्याख्या- सीताणे० ।। २२६ ॥ भा० ।। पुन्वद्धं, सीताणेति सुसाणे जाणि चियगरोवितदङ्गाणि न तं तु अङ्कितं असज्झाइतं करेंति, जाणि पुण तत्थ अण्णत्थ वा अणाहकलेवराणि परिहविताणि अणादाण वा इंधणादिअभावेण ठितत्ति क्खिता ते असज्झायं करेंति, पाणानि मातंगा तेसिं अडंबरो जक्खो, हिरिमिक्खोवि भष्णति, तत्थ | (233) मानुष्या स्वाध्यायिकं ॥२२७॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रतिक्रमणा ध्यबने ॥२२८|| सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| हा सज्जोमयअट्ठीणि उविज्जति, एवं रुद्दघरे य, कालतो वारस वरिसा खत्तओ हत्थसतं परिहरणिज्जा । आवासितं०॥१४५५॥ मानुया एवीए पुव्वद्धस्स इमा विभासा तास्वाध्या| असिवोमा०॥ १४५६ ॥ जत्थ सीतानहाणं जत्थ वा असिवओ मताणि बहणि छहिताणि आघातणंति जत्थ वा यिक महासंगाममया बहू एतेसु ठाणेसु अविसोहितेसु कालतो वारसवरिसे खेचतो इत्थसतं परिहरति, सज्झायं न करेंतीत्यर्थः, अह का एते ठाणा दवग्गिमादिणा दडा उदगवाहो वा तेणंतेण चूढो गामणगरे वा आवासंतेण अप्पणो परिछावणाय सोधितो, सेसंति जा गिहीहिं न सोधितं, पच्छा तत्थ साधू ठिता, अप्पणो वसही समंतेण मग्गिता, जं दिहतं विगिचित्ता अदिठेचा तिणि दिणे उग्घाडणउस्सग्गं करेत्ता असढभावा सज्झाय करेंति, सारीरगाम० पच्छदं, इमा विभासा--सारीरंति मतगसरीरं व जदि डहर-1 |ग्गामे ण निष्फेडितं ताव सज्झायं न करेंति, अह नगरे महंते गामे वा तत्थ वाडगसाहीतो वा जाव न निप्फेडियं ताव सज्झावं | परिहरंति मा लोगो निदुक्खत्ति उडाई करेज्जा । चोयग आह-साहुवसहिसमीवेण मतगसरीरस्स णिज्जमाणस्स12 जदि पृष्फवत्यादि किंचि पडितं ते असज्झाइयं, आचार्य आह-निज्जन्त ॥१४५७।। मतगसरीरं उभयो बसहीए हत्थसतम्भंतर जाव निज्जति ताव तं असझाइयं, सेसा परवयणभणिता पुष्फादी पडिसेहेतव्वा, ते असझाइयं न भवति, जम्हा सारीरमसज्झा ॥२२८॥ इयं चउब्बिह-सोणियं मंस चम्म अहिं च, अतो तेसु सज्झाओ ण वज्जणिज्जो । एसो तु० ॥ १४५८ ॥ एयो संजमघातादिओ | पंचविहो असज्झातो भणितो, तेहिं चेव वज्जितो पंचर्हि सज्झाओ भवति । तत्थत्ति तंमि सज्झायकाले इमा वक्ष्यमाणा मेरत्ति सामायारी || पडिक्कमित्तुं जाव बेला न भवति ताव कालपडिलेहणाए कताए गहणकाले पत्ते गंडगदिलुतो भविस्सति, गहिते दीप अनुक्रम [११-३६] RE- % (234) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणा सुद्धे काले पढवणवेलाए गडगदिटुंतो भविस्सति । स्याद् उदिः किमर्थ कालग्रहणं?, अत्रोच्यते-पंचविहा० ॥१४५९ ।। पंचविहंकालभूमि संजमोवघातादिगं,जदि कालं अपेत्तुं सज्झायं करेंति तो चतुलगा, तुम्हा कालपडिलेहणाए इमा सामायारी-दिवसचरिमपोरुसीए प्रत्युपेक्षणा चउभागावसेसाए कालगहणभूमीओ ततो पांडलेहेतरुवा, अहवा ततो उच्चारपासवणभूमी य-अधियासिया० गाथा ॥१४६०॥1 ॥२२९।। अतोत्ति निवेसणस्स तिनि उच्चार अहियासियार्थीडले आसष्ण मज्झदूरे पडिलेहेति, अणाधियासिज्जीडलेवि अंतो एवं चेव * तिमि पडिलहेति,ततो थंडिला बाहिं निवेसणस्स, एवं चेव छ भवंति एत्य अहियासिया दूरयरे अणहियासिया आसण्णतरे कातव्या, पासवणेवि एतेणेव कर्मण बारस, एते सव्ये चतुवीस, अतुरियमस्मंमितं उबउत्तो पडिलेहेना पच्छा निधि कालग्गहणथंडिले | पडिलेहेज्ज, जहण्णेण तत्थ हत्यमेतरिते. अहत्ति अर्णतरे थंडिलपडिलेहजोगाणतरमेव मरो अन्थमेति, ततो आवस्मगं करति, तस्सिमो विधी-अह पुण० ।। १४६२ ।। अह इत्यनंतरे मुरुन्धमणाणंतरमेव आवस्सगं करेति, पुनर्विशेषणे, दृविहमावस्सगकरणं है| बिसेसेति- निवाघातं बाघातिमं च, जदि निवाघात तो सम्बे गुरुसहिता आवस्मयं करेंसि, अह गुरु सड्डेसु धम्म कहेंति तो आवस्सगस्स साहहिं सह करणिज्जस्स बाघाती भवति, जैमि कालेनं करणिज्ज तं भासतस्स बाघाता भण्णात, तता ते गुरू। निसिज्जधरो य पच्छा चरित्ताइयारजाणणटुता उवसम्गं ठाउँति- सेसा तु०॥ १४६३ ।। सेसा उ गुरुं आपुरिछना गुरुट्ठाणस्स31 मग्गतो आसने दूरे अधारातिणियाए जं जस्स ठाणितं तं तस्स सट्ठाणं तत्थ, पडिक्कमंताण इमा ठवणा [01:1 ॥ ॥२२९॥ गुरू पच्छा ठायतो मझेण गओ सहाणे ठायति, जे वामतो ते अणंतरसम्वेण गतुं सट्ठाणे ठायति,जे दाहिणयो अणतरमवसवण| तं चेव अणागतं ठाति सुत्नत्थज्झरणहेत, तस्थ य पुण्यामेव ठायंता 'करेमि भंते ! सामाइय'मिति मुन फरेंति, जाहे पच्छा | HAREER-3 दीप अनुक्रम [११-३६] (235) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཙྪིནྡྲིཝཱ ཎྜཔྤཡྻལླཱཡྻ + गाथा: [११-३६] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [ गाथा-१,२३, निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१) आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२३०॥ "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) ], गुरू सामाrयं करेता वोसिरामिति भणित्ता ठिता उस्सग्गं ताहे पुब्वद्विता देवसियातियारं चितेंति, अण्णे भणति वाहे गुरू सामाइयं करेति ताहे पुव्यडियावि तं सामाहयं करेंति, सेसं कंठं जो होज्ज० | १४६४ ॥ परिसंतो प्राघूर्णकादि, सोपि सज्झायज्ञाणपरो अच्छति, जाहे गुरू ठंति ताहे तेऽवि बालादिया ठंति । एतेण विधिणा- आवासं० || १४६५|| जिणेहिं गणधराणं उचदिई, ततो परंपरएण जाव अम्हं गुरुवदेसेण आगतं तं का आवस्सगं अण्ण तिष्णि युतीओ करेंति, अहवा एगा एमसिलोइया बितिया बिसिलोइया तझ्या तिसिलोइया, तेसिं समत्तीए कालवेलपडिलहणविधी हमा कातव्या, अच्छतु ताव विही, इमो कालभेदो ताब बुच्चति दुविधो० ॥। १४६९ ॥ पुव्वद्धं कंटं जा अतिरित्तवसही बहुकप्पडिगसेविया य सा धंघसाला, ताए णितअतिताणं घट्टणपडणादि वाघातदोसो सडकहणेण य वेलातिक्कमदोसो एवमादि। बाघाते || १४७० ॥ तस्मि वाघातिमे दोणि जे कालपडियरगा ते णिग्गच्छति, तेर्सि ततिओ उवज्झायादि दिज्जति, ते कालग्गाहिणो आपुच्छणं संदिसावर्ण कालपवेदणं च सव्वं तस्सेच करेंति, एत्थ गंडगदितो न संभवति, इतरे उवत्ता चिठ्ठति, सुद्धे काले तस्सेव उवज्झायस्स प्रवेदिति, ताहे डंडधरगो बाहि कालपडियरगो चिट्ठति, इतरे दुयगादिवि अंतो पविसंति, ताहे उवज्झायरस समीवे सच्चे जुगवं पट्टवेंति, पच्छा एमो गीति, दंडधरो अतीति तेण पडुविते सज्झायं करेति, 'निब्वाधाते' पच्छद्धं, अस्यार्थः- आपुच्छण० ॥ १४६८ ।। निव्वाघाते दोणि जणा गुरुं पुच्छंति कालं वेच्छामो ?, गुरुणा अन्मणुष्णाता कितिकंमंति चंदणं कातुं डंडगं घेतुं उवउचा आवस्तिमासज्ज करेंता पमज्जता य गच्छंति, अंतो जदि पक्खुति पति वा वत्थादि वा बिलग्गति कितिकम्मादि किंचि विवई करेंति तो कालवाघातो, (236) आवश्यकविधिः कालग्रहणं ॥२३०॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक कालग्रहणं + गाथा: ||१२|| ARC प्रतिक्रमणा |इमा कालभूमीए पडियरणविधी-इदिएहि उवउत्ता पडियरंति, दिसत्ति जत्थ चउरोवि दिसाओ दिस्संति, उर्दुमि जदि विण्णि | ध्ययने । तारा दिस्संति,जादि पुण अणुवउचा अभिट्ठो वा इंदियविसओ दिसत्ति दिसामोहो दिसाओ तारगाओ वा ण दीसति वासं वा ॥२३ पडति असज्झाइयं वा जातं तो कालबहो । किंच-जदि पुण॥१४६९ ॥ तेसिं चेव गुरुसमीवातो कालभूमि गच्छताण अंतरे जदि छीतं जोती वा फुसति तो नियतंति, एवमादिकारणेहिं अव्याहता ते निव्वापातेण दोवि कालभूमि गता संडासगादि विधीए पमज्जिचा निसण्णा उद्घहिता वा एक्केक्को दो दिसाओ निरिक्खतो अच्छति । किंच-तत्थं कालभूमीए ठिता सज्झाय-13 ॥ १४७० ॥ तत्थ सज्झायं अकरेंता अच्छंति कालवेलं च पडियरन्ता, जदि गिम्हे तिष्णि सिसिरे पंच वासासु सत्त कणगा| |पेक्खेज्जा तथावि नियत्तंति,अहया निव्याघातेण पत्ता कालग्गहणबेला तो ताहे जो डंडधारी सो अंतो पविसित्ता साधुसमीपे भणतिबहुपटिपुण्णा कालबेला मा पोलं करेह, एत्थ गंडगोवमा पुल्चमणिता कज्जति, आघोसि० ॥१४७१ ॥ जहा लोगे गामादिगंडगेण आघोसिते वहहिं सुते थोयेसु असुतेमु गामादिवित्तं अकरेंतेमु डंडो भवति, बहुर्हि असुते गडगस्स डंडो पडति, तहा इहंपि उपसंहारेतब्ब, ततो डंडघरे निग्गते कालग्गाही उत्थेति । सो कालग्गाही इमेरिसो-पियधमो० ॥ १४७२ ॥ पियधमो 18 दडधम्मो य, एत्थ चतुभंगो, तत्थिमे पढमभंगे-निच्चं संसारभयुब्बिग्गचित्तो संविग्गो, बज्ज- पायं तस्स मीरू बज्जभीरू, जथा दतं न भवति तथा जयति, एत्थ कालविधिजाणको खेतष्णो, सत्तमंतो- अभीरू, एरिसो साधू कालं पडिलहेति, जग्गति गृहाति चेत्यर्थः, तेय ते वेलं पडियरंता एमेरिसं कालं तुलेति-काल संझां० ।।१४७३ ।। संझाए धरतीए कालग्गहणमाढ, कालग्गहणं सझाए य ज सेसं एतो दोवि जथा समं समप्येति तथा कालवेलं तुलेति, अहवा तिन उतरादियासु ससंझं गेहंति, चरिमत्ति दीप अनुक्रम [११-३६] ASCENGLISH ॥२३॥ (237) Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा अवरा ताए अवगतसंझाएवि गेहंति, ण दोसो, सो कालग्गाही वेलं तुलेत्ता कालभूमीओ संदिसावणणिमित्तं गुरुपायमूलं गच्छति, कालग्रहणं ध्ययने तत्थेसा विधी-आउत्त०॥१४७४|| जथा निग्गच्छमाणो आउनो निग्गतो तहा पविसंतोवि आउत्तो पविसति, पुन्वनिग्गतो चेव ॥२३ ॥ जदि अणापुच्छाए कालं गेहति पविसंतोवि जदि खलते पडति वा पत्थवि कालुवघातो, अहवा वाघातोत्ति अभिघातो लेटुइट्टा लादिणा, भासत मूढ पच्छदं मांन्यासिकं उपरि वक्ष्यमाणं, अहबा एत्थवि इमो अत्थो भाणितब्बो-बंदणं देतो अण्णं भासंतो दादेति वंदणदुयं न ददाति,किरियासु वा भूढो आवत्तादिसु वा संका-कता ण कतति, वंदणं देंतस्स इंदियविसओ वा अमणुण्णमागतो। मिसीहिय० ॥ पविसंतो तिन्नि निसीहिताओ करेति, नमो खमासमणाणंति णमोक्कारं च करेति, इरियावहियाए पंचउस्सास४ कालियं उस्सग्गं करेति, उस्सारिते णमो अरहताणंति पंचमंगलं चेव कट्टति, ताहे कितिकमंति वारसावत्तं वंदणं देति, भणतिसंदिसह पादोसियं कालं गिण्हाभो, गुरुबयण-गेण्हहत्ति, एवं जाब कालग्गाही संदिसावेत्ता आगच्छति ताव पितिओत्ति डंडधरो सो कालं परियरति । पुणो पुन्बुत्तेण विहिणा णिग्गतो कालग्गाही. थोवाब० ॥ १४७६ ॥ उत्तराहुत्तोत्ति उत्तरामुखः डंडधारीवि वामपासे रिजुतिरियदंडधारी पुब्बाभिमुहो ठायति, कालग्गहणनिमित्तं च अठुस्सासकालियं काउस्सगं करेति, अण्णा |पंचुस्सासियं करेंति, उस्सारिते चउबीसत्थयं दुमपुफिया सामण्णपुव्वयं च एते तिणि अखलिते पढित्ता पच्छा पुवाए एते" शाचे तिष्णि अणुप्पेहेति, एवं दक्षिणाए अबराए य गवंतस्स इमे उबधाता जाणितव्या-बिंदू य छीए यः॥१८-६६ ।। १४७७॥ २३२॥ गेहतस्स जदि उदगबिंदू पडेजा, अहया अंगे पासओ वा रुधिरबिंदू, अप्पणा परेण वा जदि छीतं, अज्झयणं वा कट्टतस्स जदि | अण्णतो भावो परिणतो, अनुपयुक्त इत्यर्थः, सगणेत्ति सगच्छे तिण्डं साहणं गज्जिते संका, एवं विजुच्छीतादिसुवि । भासंत. KACACARSA%A5%-56 दीप अनुक्रम [११-३६] (238) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कालय प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणापच्छवस्स न्यस्तस्य इमस्य च विभासा- मूढो ब० ॥ १९.६७ ॥ १४७८ ।। दिसामोहो संजातो, अहवा मुढो दिसं पडल्प ध्ययने । अज्जपणं का, काजच्यते, पढमं उत्तराहुत्तेण ठातव्वं, सो पुण पुबाहुत्तो पढमं ठायति, अजयणेसुवि पढमं चउब्बीसत्यो ॥२३३॥ सो पुण मूढत्तणतो दुमपुष्फियं सामण्णपुव्वयं वा कति, फुडमेव बंजणाभिलावेण भासंतो कङ्गति, फुडफुडेता वा गण्हति, एवं न सुज्झति, संकेतोत्ति पुव्वं उत्तराहुत्तेण ठातुं ततो पुब्बाहुनेण ठातब्बं, सो पुण उत्सराओ अबराहुत्तो ठायति, अज्झयणेसुवि चउवीसत्थातो अण्ण चव खुडियायारगादि अज्झयणं संकमेति, किं अमुतीए दिसाए ठितो ण बत्ति, अज्मयणेवि किं कड़ित ण वेति, इंदियविसए य अमणुण्णेत्ति अणिहो पत्तो जथा सोंतिदिए रुदितं वंतरेण वा अट्टहास कतं रूवे विभीसिगादि विक| तरूवं वा गंधे कलेवरादिगंधो रसस्तत्रैव स्पर्श अग्निज्वालादि, अहवा इडेसु रागं गच्छति अणिद्वेसु इंदियविसएसु दोस, एवमादिउवघातवज्जितं कालं घेत्तुं कालनिवेदणाए गुरुसमीवं गच्छंतस्स इमं भण्णति- जो वच्च० ॥१९-६८॥ १४७९ ॥ एसा भद्दबाहुकता गाथा, तीए अदिदेसे कतेवि सिद्धसेणखमासमणो पुम्बद्धभणितं अतिदेसं वक्खाणेति- आवासि०॥ (सिद्ध०) जदि णितो आवस्सितं न करेति पविसंतो वा णिस्सीहित, अहवा अकरणमिति आसज्ज न करेति, कालभूमीओ गुरुसमीवं पद्वितस्स जदि अंतरेण साणमज्जारादी छिंदंति, सेसा पदा पुन्वभणिता । एतेसु सधेसु कालवधो भवति । गोणादि। ॥२॥ (सिद्ध०) पढम ता गुरुं आपुच्छित्ता कालभूमि गतो, जदि कालभूमीए गोणं णिसण्णं संसप्पगा वा उद्विता पेक्खति तो णियत्तते, जदि कालं पढिलेहितस्स गेहतस्स वा णिवेदणाए वा गच्छंतस्स कविहसितादीएहि कालवहो भवति, कविहसितं नाम आगासे विकतरूपं मुझं वानरसरिसं हास करेन्ज, सेसा पदा गयत्था । कालग्गाही निव्वापातेण गुरुसमावमागतो- इरिया दीप अनुक्रम [११-३६] ॥२३३॥ SEX (239) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [ गाथा-१,२३, निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१) आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२३४॥ "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) ], ॥ १४८० ॥ जदिवि गुरुस्त हत्थंतरमेचे कालो गहितो तथाचि कालपवेदणाए इरियावहिया पडिक्कमितव्वा, पंचूसासमेतं कालं काउस्सगं करेति उत्सारितेवि पंचमंगलं वयणेण कति, हे बंदणं दातुं कालं निवेदेति-सुद्धो पादोसिओ कालोति, ताहे डंडधरं मोतुं सेसा सच्चे जुगर्व पट्टवेंति, किं कारणं १, उच्यते- पृथ्वुत्तं जं मरुगदितोत्ति सचिणहित० ॥ १४८१|| बडो बंडूगो विभागो एगई, आरितो आगारितो सावितो वा एग, वडेण आरितो बडारो, जहा सो वडारो संणिहिताण मरुयाण लब्भति, न परोक्खस्स, तथा देसकथादिपमादिस्स पच्छा कालं ण देति, दरत्ति अस्य व्याख्या वाहिद्विते पच्छद्धं कंठं || सच्चे हिवि० पच्छद्धं अस्य व्याख्या पवित० ।। १४८२ ।। डंडधरेण पट्ठविते वंदिते एवं सव्वेंहिं पविते पच्छा भणति अज्जो ! केण किं सुतं दिवा, दंडधरो पुच्छति अण्णो वा, तेवि सच्चं कहेंति, जदि सन्देहिवि कहितं ण किंचि दिहं सुतं वा तो सुद्धे करेंति सज्झायं, अह एगेणवि फुडं किंचि विज्जुमादिगं दिडं गज्जितादि वा सुतं ततो अमुद्धे न करेंति, अह संकितो- एगस्स उदि एगेण संदि दिडं सुतं वा तो कीरति सज्झायो, दोपहवि संदिद्धे कीरति तिद्धं विज्जुमादि एगसंग ण कीर्ति सज्झायो, तिन्हं अण्णाण्ण संदेहे कीरति, सगणंमि संकितेति परगणवयणातोऽसज्ज्ञातो न कारायो, खेत्तविभागेण देसि चेत्र असज्झाइयसंभवो । 'जं एत्थं णाणतं तमहं वोच्छं समासेणं' ति अस्यार्थः कालयतु०॥१४८४ ॥ तं सव्वं पादोसिते काले भणितं इदाणिं चतुसु कालेसु किंचि सामण्णं किंचि वइसेसियं भणामि, पादोसिते दंडधरं मोजं एक्कं ऐसा सब्धे जुगवं पट्टवेंति, सेसेसु तिमु अङ्कुरचे विरचिय पाभातिते य समं वा विसमं वा पट्टचेति ॥ किंचान्यत् इंदिय० ।। १४८५ ।। सुद्ध इंदिओवओगे उवउत्तेहि सव्वकाला पडिजागरितन्त्रा, कणगेसु कालसंखाकतो विसेसो भण्णति विष्णि सिग्यमुवद्दणंतित्ति तेण उक्कोस मण्णति, चिरेण उवघातोति तेण सच जण, (240) कालग्रहणं ॥२३४॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणासेस मजिसम. अस्य व्याख्या-कणगा॥१४८६१ कणगा गिम्हे तिणि सिसिरे पंच वासासु सत्त उवहणति, उक्का एक्काकालमह.. ध्ययन शव उवहणति काल, कणगो सण्हरेहो पगासविरहितो य, उक्का महन्तरेहा पगासकारिणी य, अहवा रेहविरहितोबि फुलिंगोHI पहासकरो उक्का चेव । 'वासासु य तिषिण दिसा' अस्य व्याख्या-वासासु य०॥ १४८७ ।। जत्थ ठितो वासकाले तिष्णिवि 1.२३५।। दिसा पेक्षति तत्थ ठितो पाभातियं कालं गेण्हति, सेसेसु तिसुवि कालेसु बासासु उडुबद्धे चउसु चेय जत्थ ठितो चतुरोवि दिसाविभागे पेक्खति तत्थ ठितो गेण्हति ।। 'उडवद्धेसाग्गा तिन्निति अस्य व्याख्या- तिसु तिषिणः ॥१४८८ ।। तिसु कालेसु पादोसिए अङ्करत्तिए घरतिए य जहण्यणेणं जदि तिणि तारिगाओ पेक्वंति तो गेण्डं ति, उदुबद्धेचेवाद अम्भादिसंथडे जदिवि एक्कपि तारं ण देवखंति तहाबि पाभातियकालं गेहंति, वासाकाले पुण चतुरेव काला अम्मसंधडे ताराम अदीसंतीसुषि गण्डंति । छण्णे णिविट्ठोत्ति अस्य व्याख्या-ठागासति०॥ १४८९ ।। जदि वसहीए बाहि कालगाहिस्स ठागो णस्थि ताहे अंतो छष्णे उद्वितो गण्हति, अह उद्धट्टितस्सवि अंतो ठातो स्थि ताहे छण्ण चव निविट्ठा गेहति, बाहिं ठितो य एको पडियरति, वासचिन्दसु पडतीसु नियमा अंतता ठितो गण्डति, तत्थषि उद्धाहता * निसण्णो वा, नवरं पडियरगोत्रि अंतो ठितो चेव पडियरति, एस पाभातिए गच्छुवग्गहड्डा अपवायविहीं, सेसा काला ठागासती ण घेतब्बा, आइण्णओ वा जाणितव्वं । कस्स कालस्स के दिसं अभिमुदहिं पुवं ठायचमिति भण्णाति-पादोसिय० ॥ १४९०॥ * ॥२३५॥ पादासिए अद्धरतिए नियमा उत्तराभिमुद्दो ठाति, वेरथिए भयणचि इच्छा उत्तरमुद्दो पुनमुहा वा, पाभातिए णियमा पुण्वमुदा।। इदाणिं कालग्गहणपरिमाण भण्णाति-कालचत०॥ १४९१ ॥ उस्सग्गे उकोसेण चतरो काला घेपंति, उस्सग्गे चेव जहण्णेण दीप अनुक्रम [११-३६] (241) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत कालग्रहणं सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा तिग माति, पितियपदंति अववादपदं तेण कालदृगं भवति अमायाविना,कारणे अगृहाणस्येत्यर्थः, अहवा उकोसण चतुष्कं भवति, ध्ययने लाजहण्णे हाणिपदे तिगं भवति, एकमि अगहित इत्यर्थः, वितिते हाणिपदे कते दगं भवति, द्वयोरग्रहणमित्यर्थः, एवं अमायाविणो तिणि वा अंगण्हतस्स एको भवति, अहवा मायाचिमुक्तम्य कारणे एकमपि कालं अगृहतो न दोषो- प्रायश्चित्तं भवति ।। कहं वा | ॥२३६॥ 13/पुण कालचउक० ?, उच्यते--फिडिय० ॥ १४९२ ।। पादोसियं काले घेर्नु सब्बे पोरुसि कातुं पुण्णपोळसीए सुत्नपाढी सुवन्ति, अत्यचिंतगा उकालपाढिणी य जागरंति जाब अडरना, नतो फिड़िते अद्धरने कालं येतं ते जागरपिया सुवति, ताहे गुरू उर्दुत्ता गुणेति जाय चरिमो जामो पत्तो, चरमजामे सव्वे उट्टेना बेरत्तिय पत्तुं सज्झायं करोति, ताहे गुरू मुवंति, पत्ते पाभातिए काले जो। पाभातियं कालं घेरिति सो कालम्स पडिकमितुं पाभातियं कालं गेहति, सेमा कालबेलाए पाभाइयकालस्स पडिकमंनि, तता आव-1 स्सयं करेंति । एवं चतुरो काला भवंति । निष्णि कही, उच्यते, पाभातिते अगहिने ससा तिष्णि, अहवा-गहिनमि०॥१४५३शावरत्तिए अगहिते सेसेसु तिसु गहितेमु तिणित, अङ्करत्तिए वा अपहिते निषिण, पादोसिए या अगहिने तिष्णि, दोषिण कहं , उच्यते, पादोसिअड्डरत्तिण्सु गहितेमु सेसंस अगहितेसु दोणि भवे, अहवा पादोसिते वेरनिए गहिते दोष्णि, अहवा पाभातियपादोसिएसु गहितेसु सेससु अगहितेसु दोष्णि, गन्ध विकप्पे पादोसिएण चेच अणुबहतेण उवयोगतो सुपडिजुग्गितेग सब्बकाले पटनित्ति न 15दोसा, अहवा अडरसिपबेरनिय गहिए दोष्णि, अहवा अङ्करनियपाभाइएमु गहिइएम.दोणि, जदा ऐका तदा अण्णतरं गेहति । कालचउक्ककारणा इमे', कालचउकग्गबण उस्सग्गतो विधी व, अहवा पादोसिये गहिते उवहते अड्डरनं घेर्नु सज्झायं करेंति, तमिवि उवहते बेनियं घेत्तुं सज्झायं कति. पाभातितो दिवसट्ठा घेनब्यो चेव, एवं कालचउर्फ दिदै. अणुबहते पूण पादोसिते सुपडि दीप अनुक्रम [११-३६] । २३६॥ ** । * (242) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक + गाथा: ||१,२|| प्रतिक्रमणायग्गिते सच्चे राई पढति, रत्तिएणवि अणुवहाँण सुपडियाम्गितेण पाभानियममुद्धे उदिढ दिवसतोऽपि पढति, कालचउके अग्गह-लकालग्रहर्ष ध्ययन कारणा इमे-पादोसियं न गण्हति असिवादिकारणतो ण सुज्झइ वा, अडरत्तियं न गेष्हति कारणतो न सुज्ञति वा, पादोसिएम ॥२३७॥ वा सुपडियग्गितेण पढंतित्ति न गेण्हति. बरतियं कारणता ण गिष्ईति ण सुज्झति वा, पादोसियअड्डरत्तिएण वा पतित्ति ण गेण्हति, पाभातियं ण गेहंति कारणतो न सुज्झति वा । इदाणिं पाभातियकालग्गणविहिं पत्नेयं भणामि-पाभाइय०॥१४९५॥ पाभाइयंमि काले गहणविधी पट्टवणविही य । तत्थ गहणविधी इमाणवका०॥ भा. २२४ ॥ दिवसतो सज्झायविरहिताण प्रदेसादिकहासंभववज्जण8 मेधावितराण य विभंगवज्जणढाए, एवं सम्बेसिमणुग्गहणट्ठा णव कालग्गहणकाला पाभातिए अणुअण्णाता, अतो णवकालग्गहणवेलाहिं सेसाहिं पाभातियकालम्गाही कालस्स पडिकमउ, सेसापि तवेलं उवउत्चा चिट्ठति, कालस्स तं बेलं पडिकमंति वा ण वा, एगो णियमा ण पडिकमति, जदि छीतरुतादीहि ण सुज्झिहिति तो सो च्चेव वेरत्तिओ पडिजम्गितो होहितित्ति, सोवि पडिकतेमु गुरुस्स कालं निवेदेचा अणुदिते सूरिए कालस्स पडिकमते, जदि घेप्पमाणेण णब वारा उबहतो ई कालो तो णज्जति जहा धुवमसज्झाइयमस्थिति ण करोति सज्झायं, पापबारम्गहणविधी इमो 'संचिक्खि तिणि छीतरुणाई' ति, अस्य व्याख्या-एक० ।। २२५ मा.॥ एगस्स गिण्हतो छीतरुतादीहिं हते संचिक्ख तित्ति ग्रहणा बिरमतीत्यर्थः, पुणो गिहंति, एवं तिष्णि वारा, ततो परं अण्णो अणमि थंडिले सिणिण वारा, तस्सपि उबहते अण्णो अण्णमि थीडले, तिडं असतीए दोणि जणा नववाराओ पूरंति, दोण्हयि असतीए एको चेव नवसाराओ पूरेति. डिलेमुवि अववादो, दोसु वा एकमि वा| गव्हंति । 'परबयणे खरमादि 'ति, अस्य व्याख्या-चोदेति चोयग आह-जदि रुदितमणिद्वे कालवहो ततो खरेण रडित | दीप अनुक्रम [११-३६] AGRAM (243) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [ गाथा-१,२३, निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१) आयं [२००-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२३८॥ 4 वारस वरिसे उपहंमतु, अण्णेसुबि अणि इंदियविसएस एवं चैव कालवहो भवतु | आचार्य आह-चोयग० ॥ २२६ मा. ॥ माणुससरे अणि कालवधी, संसगति तिरिया तेसिं जदि अणिट्टो पहारसदो सुणिज्जति तो कालवधो, पावासिगा ' अस्प व्याख्या- पावासिय०। जदि पाभातियकालग्गहण वेलाए परसित भज्जा पतिणो गुणा संभरंती दिवे दिये रुवेज्जा तो तीए रोयणवेलाए पुव्वतरो कालो घेचच्यो, अह सावि पच्चूसे बेज्ज ताहे गंतुं पप्णविज्जति, पष्णवणमणिच्छाए उघाडणकाउस्सग्गो कीरति । 'एवमादीणिति अस्य व्याख्या वीसरस६० ।। २२७ भा. ।। अच्चायासेण रुदंते वीसरसरं भणति तं उवहणते, जं पुण महुरसदं घोलमाणं च तणोवहणति, जावमजं पिरं ताव अव्यसं, तं अप्पेणवि विस्सरसरण उवहणति, महन्तं उस्सुंभरोवणेणीव उपहति पाभातिय कालग्गहणविधी गता । इदाणिं पाभातियपट्टवणविधी- गोसे दर० ॥ पच्छ गोसत्ति उदिते आदिच्चे दिसावाला दिसालोयं करेता पट्टवेंति, अद्धपट्टविते जदि छीताणा भग्गं पट्टवणं पुणो दिसावलोग करेसा तत्थेव पट्टवेंति, एवं ततियवाराएव । दिसावलोयकरणे इमं कारणं आतिण्णं० ।। १४९६ || आइण्णपिसितंति आइण्णं पोरगलं तं काकमादीहिं आणियं होज्जा, महिया वा पडितुमारद्धा एवमादि, एगडाणे तयो वारा उपहत हत्थसतबाहि अण्णड्डाणं गंतुं पेहिन्ति पडिलेहिन्ति य, पट्टवेतित्ति वृत्तं भवति, तत्थवि पुव्युत्तविहाणेण तिष्णि द्वारा पट्टवेंति, एवं चितियट्ठाणेवि असुद्धे ततोपि इत्थसतं अण्णं ठाणं गंतु तिष्णि वारा पुव्युत्तविहाण पट्टवेंति, जदि सुद्धं तो करेंति सज्झायं णव वारा खुतादिणा हते नियमा हतो कालो ( ततो ) पढमाए पोरुसीए सज्झायं न करेंति । पट्टचितं०|| जदा पट्टषणाए तिथि अज्झयणा सम्मता तदा उबरिं एगो सिलोगो कड्डेतब्बो तंमि समते पडवणं समप्पेति सुज्झति य, बितियपादो गतस्यो । सोणितत्ति अस्य व्याख्या-आलोगेवि० ॥। १४९८ ॥ (244) कालग्रहणं ॥ २३८॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| ॥२३९|| प्रतिक्रमणा तत्थ सज्झायं करतेहिं सोणितवनिका दीसति तत्थ न करेंति सज्झायं, कडगचिलिमिलि वा अंतरे दातुं करेंति, जत्थ सज्झाय हकालपण ध्ययने व करेंताण परिसकलेबरादियाण गंध अष्णमि वा असुभगंधि आगच्छति तस्थ सझायन करेंति, अण्णरथ गंतु करेंति. | अण्णपि चंधणसेहणादिआलोयं परिहरेज्जा, एवं सब्य नियाघाते काले भणितं, वाघातिमकालेवि एवं चव, णवरं गंडगमरुगदिट्टते ॥ण भवति । एतेसा॥१३९९ ।। वितिय० ॥ ॥ (न वृती) दोवि कंठाओ, एवं परसमुत्थं गतं । इदाणिं आयसमुत्थं भण्णति- आयसमुत्थमसज्झाइयल्स इमे भेदा- आयस. ॥ १५०० ।। एगविधं समणाण, तं च वणे प्रभवति, समणीण दुविह-वणे उद्दसंभवं च, इमं वणे विहाणं- धोयमि य०॥ १५०१ ।। पढम चिय वणो हत्थसतस्स बाहिरतो धावितुं णिप्पगलो कतो, ततो परिगलं ते तिष्णि बंधा जाव उक्कोसण करेंतो वाएति, दुविई- व्रणसमय उड्य च, दुबिहषि एवं बापट्टगजतणा कातब्बा । समणो० ॥ १५०२ ।। वणे धोवणप्पगले हत्थसतबाहिरतो पट्टग दातुं बाएति, परिगलमाणण मिण्णा दतमि पट्टगे तस्सेव उरि छारं दातुं पुणो पट्ट देति पुणो वाएति य, एवं ततिर्यपि पट्टगं बंधेज्जा यायणं च देज्जा, ततो परंश गलमाणे इत्थसतबाहिर गंतुं वर्ण पट्टगे य घावितु पुणो एतेणब अण्णत्थ गतुं अणणेव कमेण वाएइ, अहया अण्णस्थ गतुं पढति । ४एमेव य० ॥ १५०३ ॥ इतरंति उट्टय, तत्थवि एवं चेय, पावर सत्त बंधा उक्कोसेण कातन्वा, तहवि अढते हत्थसतबाहिरतो ल घोतुं पुणो वाएंति, अहवा अण्णत्थ पदन्ति । आणादोया दोसा भवंति । इमे य-सुतणाणं०॥ १५०५॥ सुतणाणअणुक्यारतो ॥२३९॥ ID अपत्ती भवति, अहया सुतणाणभनिरागेण असज्झाइए सज्झाइयं मा कुणसु, उवएसो एस, जे लोगधमविरुद्धं च तं न कातब्ब। अपिधीते पमत्तो लम्भति, तं देवता छलेज्ज, जहा बिज्जासाहणवइगुण्णचाए बिज्जा न सिझति तहा इइपि कंमखयो ण भवति, दीप अनुक्रम [११-३६] (245) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||3,3|| दीप अनुक्रम [११-३६] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [ सूत्र / ११-३६] / [गाथा - १, २], निर्युक्तिः [ १२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥ २४० ॥ वैगुण्यं वैधर्मता, विपरीतभावा इत्यर्थः, वैधम्मताएं य-सुतधम्मस्स एस धम्मो जं असज्झाइए सज्झायवज्जणं, करेंति य सुतणाणायार बिरार्हेति, तम्हा मा कुणसु । चोयग आह- जदि दंतट्टिम्ससोणितादी असज्झायो णणु देहो एतधम्मओ चैव, कई तेण सज्झाय करेह ?, आचार्य आह- कामं दे० ।। १५०६ ॥ कामं चोयगाभिप्पायणुमतत्ये, सध्यं तम्मयो देहो तथावि जे सरीरा ते अवत्तत्ति पृथग्भूता ते वज्जणिज्जा, जे पुण अणवजुत्ता तत्थत्था ते गो वज्जणिज्जा, इति उपप्रदर्शने, एवं लोके दृष्टं, लोकोत्तरेऽप्येवमित्यर्थः । किं चान्यत्- अभिंतर० || १५०७ || अभ्यंतरा सूत्रपुरीषादी तहिं चैव वाहिरे उवलित्तो ण कुणति, अणुवलितो पुण अभितरगतेसुवि तेसु अह अच्चणं करेति । किं चान्यत्- आउट्टिगा || १५०८ ॥ जा पडिमा संनिहितित्ति देवताहिट्ठिता सा जदि कोइ अगाढितेण आउहियंति जाणतो बाहिरलित्तो तं पाडमं छिवति अच्चणं च से कुणति तो न खमते खित्तचित्तादि करेति रोगे वा जणेति मारेति वा, इयत्ति एवं जो असज्झाइए सज्झायं करेति तस्स णाणाय रविराहणाए कंमबंधो, एस से परलोइओ दंडो । इहलोए पम तं देवता छलेज्ज | स्वात् आणा व चिराहणा वा धुवा चैव । कोइ इमेहिं अप्प| सत्थकारणेहिं असज्झाइए सज्झायं करज्ज - रागेण० ।। १५०९ ॥ रागेण दोसओ वा करेज्ज, अहवा दरिमण मोहमाहिओ भणेज्जाका अमुत्तस्स नाणस्स आसातणा १, को वा तस्स अणायारो ?, नास्तीत्यर्थः । एतेसिं इमा विभामा गणिस६० ।। १५१० ॥ महिसोत्ति पूज्य तुट्ठाणंदिओ परेण गणिवायगो बाहरिज्जन्तो भवति, तदभिलासी असज्झाइएवि सज्झायं करेति, एवं रागेदोसे, किंवा गणि वाहरिज्जति वायगो वा अपि अद्विज्जामि जेण एतस्स परिसवत्तीभूतो भवामि, जम्हा जीवसरीरावयवो असज्झाइयं तदा सव्वं असज्झाइयमयं, न श्रद्धातीत्यर्थः । इमे दोसा- उम्मायं ० ।। १५११ ॥ खित्ताइगो उम्मायो, चिरकालिओ (246) कालग्रहणं ॥२४०॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| प्रतिक्रमणा रोगो, आसुधाती आतंको, एते वा पावेज्जा, धम्माओ भंसेज्जा मिच्छादिट्टी वा भवति, चरिताओ वा परिवडति । इहलोए 18| शेषातिध्ययने ॥ १५१२ ।। सुयणाणायारविवरीयकारी जो सो णाणावरणिज्ज कम बंधति, तदुदयाओ य विज्जाओ कतोक्याराओवि फलं न देंति, चारा ॥२४॥ न सिध्यन्तीत्यर्थः, विधीए अकरण परिभवो, एवं सुतासातणा, अविधीए य बट्टतो नियमा अट्ट कमपयडीओ बंधति हस्सद्वितीओXI यदीहद्वितीओ करेति मंदाणुभावा य तिब्वाणुभावाओ करेति अप्पपदेसाओ बहुप्पदेसाओ करेति, एवकारीय नियमा दी का संसारं निन्वति, अहवा णाणायारविराहणाए दसणायारविराहणा, णाणदंसणविराहणाहिं नियमा चरणविराहणा, एवं तिण्हं विरा-DI हणाए अमोक्खो अमोक्खा नियमा संसारो, वितिय० ॥ पूर्ववत् । सर्वत्र अणुप्पेहा अप्रसिद्धा इत्यर्थः । असज्झाइयणिज्जुत्ती| सम्मत्ता ।। एत्थ पडिसिद्धकरणादिणा वा अतियारो तस्स मिच्छामिदुक्कडंति ।। एवं ता सुत्तनिबंध, अस्थतो पुण तेचीसाओ चोत्तीसा भवंतीति चोत्तीसाए बुद्धवयणातिसेसेहिं, पणतीसाए सच्चवयणादिसेसेहिं छत्तीसाए उत्तरायणेहिं एवं जहा समवाए जाव सतभिसयाणक्खत्ते सतगतारे पण्णत्ते, एवं संखेज्जेहिं असंखेज्जेहिं अणतेहि य असंजमवाणेहि य संजमट्ठाणेहि यजं पडिसिद्धकरणादिणा अतियरितं तस्स मिच्छामिदुक्कडंति । सव्योविय एसो दुगादीओ अतियारगणो एगविहस्स असंजमस्स पज्जायसमूहो इति, एवं संवेगायथं अणेगधा दुक्कडगरिहा कता । &I..इदाणि परिणामविसुद्धिथिरीकरणथं गुणबहुमाणतो यदिदं निग्गं पावयणं आराहितमारद्धं तं जेहिं उवदिई आराहितं चय॥२४॥ तेसिं णमोक्कारपुम्बर्ग एतस्स चेव गुणमाहप्पं भावेंतो एतम्मि अप्पणो ठिति आराधणं च दरिसेन्तो इदमाह-णमो चउब्धीसाए टू तित्थगराणं उसभादिमहावीरपज्जवसाणाणं इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरंजाव किरियं उपसंपज्जामित्तिा दीप अनुक्रम [११-३६] (247) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) आयं [२००-२२७] अध्ययनं [४] मूलं [ सूत्र / ११-३६ ] / [गाथा-१,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमण ध्ययने ॥२४२॥ सूत्र णमो चउच्चीसाए जाव पज्जवसाणाणं ' एवं सुगमं एतेण तेसि णमोक्कारो कती । इणमेवेति इदं प्रत्यक्षीकरणे, तमेव पागतेण इणमोति मंगति, इदमेव निर्बंध्यं प्रवचनं वक्ष्यमाणगुणमाहात्म्यं नान्यत् शाक्यादि, निग्गंथाणमिदं नैर्ग्रन्थ्यं, निग्गंधा जघा पण्णत्तीए, पावयणं सामाइयादि बिंदुसारपज्जवसाणं, जन्थ णाणदंसणचारितसाहणवावारा अणेगधा वणिज्जति एतं एतद्गुणभाहप्पुयवेतं पवत्तते, जथा सच्चं सद्धयो हितं सच्च, सद्भूतं वा सच्चं, अणुत्तरं सब्बुत्तिमं केवलिगं केवलं अद्वितीयं एतदेवैकं हितं नान्यत् द्वितीयं प्रवचनमस्ति, केवलिणा वा पण्णत्तं केवलियं, पडिपुण्णं णाणादिसाधगपयोगऽपडिडिडितं, याउति नैयायिकं न्यायेन चराते नैयायिक, न्यायाबाधितमित्यर्थः, संसृद्धं समस्तं युद्धं संसुद्धं बहुविध चालणादीहिं पेयालिज्जत सल्लत्तणं सलाणि-मायानिदाणमिच्छत्तसल्लाणि तेसि कत्तणं-छेदणं, सिद्धिमग्गं सिद्धत्तणं सिद्धी तीए मग्गो प्राप्त्युपायः, एवं मुत्तिमग्गं मुत्ती-निर्मुक्तता निःसंगता इत्यर्थः निज्जांणमग्गं निर्याण संसारात्पलायणं निव्वाणमग्गं निव्वाणं निव्वती आत्मस्वास्थ्यमित्यर्थः एवं चैव मग्गं विसेसेति- अवितहमविसंधिं सव्वदुक्वप्पहीणमरगति सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं णिज्जाणूमग्गं णिव्वाणमग्गं अवितथं तथ्यं एवं अविसंधि- अव्यवच्छिन्नं सव्यदुकुखप्पहीणमग्गं सर्वसंक्लेशविहीनं, यतो एवंगुणं अतो एतमाहप्पयमित्यादि । एत्थंति निग्गंथे पावयणे स्थिता इति वृत्ताः जीवाः, किं:- सिजांति सिद्धा भवति, परिनिष्ठितार्था भवतीत्यर्थः, ते य बुज्नंति अत आह-बुज्झति बुद्धा भवंति, केवली भवतीत्यर्थः एवं मुच्वंति मुच्वंति नाम सन्चकम्मादिसंगेण मुक्ता भवति, परिनिव्वायंति परिनिष्युया भवति, परमसुहिणो भवतीत्यर्थः सव्वदुक्खाण अंतं करेति सब्वेसिं सारीरमान-साणं दुक्खाणं अंतकरा भवंति, वोच्छिष्णसम्यदुक्खा भवतीत्यर्थः । अण्णे भांति सिज्यंति मोहनीयक्खएण निष्ठितार्थाः मति (248) निर्ग्रन्थ प्रवचनस्थितिः ॥२४२॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| अतिक्रमणाट वुझंति केवलीभवंति मुच्चंति सव्वकम्मुणा परिणिव्वातंति निव्याणं गच्छंति, एवं च सव्वदुक्खाणं अंतं करेंतित्ति । निर्घन्धध्ययने अण्णे पूण मणंति- सिझंति-अणिमहिमादि)सिद्धीसंपना भवंति बुज्झति अतिसतचोघजुता भवंति, विण्णाणयुता इत्यर्थः, प्रवचनमुंचति मुक्ता भवंति सब्बसंगेहिं परिणिव्यायंति उबसंतपसंता भवंति सव्वदुक्वाणमंतं करेंति सबदुक्खरहिता भवंति, मतिदस्थितिः ॥२४३| जतो य एवं एयं अतो एत्थ बट्टितय्वमिति अप्पणो ठिति एतामि दरिसेति,तं धम्मं सहामि इत्यादि, जो एस बष्णितनिग्गथपवयणाभिहितो धम्मो तं धर्म सदहामि सामण्णण एवमेतमिति पत्तियामि अप्पणो प्रतीति करोमि, एवं एव एवमेतति रोएमि रुचिं करेमि, एतमि अमिलापातिरेकेण आसे वनाभिमुखतया इति, अण्णे पुण एताणि एगढाणि भणंतिति । फासेमि आसेवणादारेणति अणुपालेमि आसेवनाभ्यासेन अहवा पुब्वपुरिसेहिं पाळितं अहंपि अणुपालेमिति, एवं च तं धम्मं सदहतो पत्तियंतो रोएंतो फासेंतो अणुपालेतो तस्स धम्मस्स अन्भुट्टितोमि आराहणाए विरतोमि विराहणाए अतो असंजम पडियाणामि संजमं उपसंपजामि परियाणामित्ति ज्ञपरिण्णया जाणामि पचखाणपरिणता पञ्चक्खामि, उपसंपज्जामित्ति अधिराधणाप्रयत्नमित्यर्थः । सोय असंजमो विसेसतो दुविहो-मूलगुणअसंजमो उत्तरगुणअसंजमो य, अतो सामण्णेण भाणऊण संवेगाधर्थ विसेसतो चेव भणति-अभं परियाणामि बंभं उबसंपजामि । अबभग्गहणेण मूलगुणा भण्णतिचि, एवं अकप्पं कप्पं च, अकप्पग्गहणेण उत्तरगुणाति । इदाणि द्वितीयसंसारमोक्षकारणमधिकृत्याह-अण्णाणं परियाPणामि णाणं उवसंपज्जामि। तृतीयमधिकृत्याह-मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उचसंपल्यामि, इदाणि सव्वं बज्झं किरिया कलायमधिकृत्याह--अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि अप्पसस्था किरिया अकिरिया, इतरा किरिया इति । । दीप अनुक्रम [११-३६] (249) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) सूत्रांक [सू.] + गाथा: ॥१२॥ 長 अनुक्रम [११-३६] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययन [ ४ ], आयं [२००-२२७] मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा- १,२], निर्युक्तिः [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रतिक्रमणा ध्ययने ॥२४४॥ इदाणिं असेसदोसर्विसुद्धिनिमित्तमाह-संघयणादिदौर्बल्यादिना जं पडिक्कमामि परिहरामि करणिज्जं जं च न पडिक्कमामि अक्रणिज्जं, तथा छानस्थिगोपओगाच्च जं संभरामि जं च न संभरामि कंठ्यं, तस्यैवंविधस्य तस्स सव्वस्स अणायरितं पति पढिकमामि, अणायरितं घातिकमोंदयतः खलितमासेवितं पडिकमामि मिच्छादुकडादिणा । स एवं पडिकमितृण पुणो अकुसलपवित्तिपरिहाराय आत्मानमालोचयन्नाह - समणोऽहं संजतविरतपाडहतपच्चक्रवातपावकमो आणिदाणो दिद्दिसंपण्णो मायामासविवज्जिनोति । समणोऽहं- पच्बइतोऽहं तत्थ य संजतो-संमं जतो, करणीयेसु जोगेसु सम्यक्प्रलपर इत्यर्थः तथा विरतो--सव्वातो सावज्जजोगातो, एतं च एवं इतः यतो पडितपञ्चकखातपावकमो अणिदाणो जाव बजितोतिपहितं अतीतं जिंदणगरहणादीहिं पच्चक्खातं सेस अकरणतया पावकमं-पावाचारं येण स तथा विसमो एस दोसोति । एतत् | | हितमात्मनो भेदेन भावयन्नाह अणिवाणो निदान परिहारी, सव्वगुणमूलभूत गुणयुक्तत्वं दर्शयन्नाह दिट्ठि संपणोति दिट्ठी संमदसणणाणाणि, मायामोसविवज्जिनोत्ति मायागर्भमुसावादपरिहारी इत्यर्थः, एरिसोय होतो कहं पुण अकुसलमायरिस्सं?, इतरहा मायामोसभाप्यसंग इति । एवं अप्पार्ण समुकित्तेतुं ततो जे भगवंतो एतंमि प्रक्रमे स्थिता तेसिं बहुमाणतो सुकाणुमोदणन्थं वंदणंकातुकामो ते समुक्किनेति- सूत्र अङ्गातिजेसु दीवसमुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु जावंत के साधू स्यहरणगोच्छपडिस्गहधरा पंचमहत्वधरा अहारससीलिंगसहस्सधरा अक्खुपायारचरिता ते सव्वे सिरसा भणसा मत्थएणवंदामित्ति । केइ पुण | समुप गच्छपडग्गपदं च न पति अण्णे पुण- अड्डाइज्जेस दोन दीवस मुद्दे पति एत्थ विभामा कातव्या । ते इति (250) निर्ग्रन्थ प्रवचन स्थितिः ॥२४४॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [सूत्र /११-३६] / [गाथा-१,२], नियुक्ति: [१२४३-१४१५/१२३१-१४१८], भाष्यं [२०५-२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कायोत्सा ध्ययनं प्रत सूत्रांक [सू.] + गाथा: ||१२|| ॥२४५।। सूत्र साधवः सव्वेत्ति गच्छनिग्गतगच्छवासीपत्त्ययुद्धादयो सिरसा इति कायजोगेण मत्थएणर्वदामिति एस एव वइजोगो २ । एवं संवन्धोऽतुं सुप्पणिहाणस्थमिदमाह धिकारय.... खामेमि सब्बजीवा,सम्वे जीवा म्वमंतु मे। कंठ्यं । मेत्ती मे सव्यजीवेसु, वेर मज्म न केण ॥१॥ मेची णाम | सिर्व उपशम इत्यर्थः,एवं आलोइय णिदिय गरहित दुगुंछियं सम्म। तिविहेण पडिक्कतो वंदामि जिणे चउब्बीसाशतिर एवमिति अनेन प्रकारेण आलोइयं पयासितूणं गुरूणं कहितं णिदिय-मणेण पच्छाताबो गरहितं बहजोगेणं, एवं आलोइयाणिदियगरहियमेव दुगुंछित, एवं तिविहेण जोगेण पडिकतो बंदामि जिणे चउव्वीसति । एवं दिवसतो भणितं । रातिमादिसुवि एवं चेव | भणितब्ब, पवरं रातियादिअतियारो माणितव्यो । भाणितो अणुगमो। इदाणिं नयाः। ते य पूर्ववत् ।। इति पडिकमणनि-1 ज्जुत्तीचुण्णी सम्मत्ता ।। दीप अनुक्रम [११-३६] इदार्णि काउस्सग्गजझयणं, तस्य चायमभिसंबंध:-आवस्सगं पत्युतं, तस्स पढमारंभे मंगलं विग्धोवसमादिनिमित कत, मंगलादिपत्थणेण यणंदी अणुयोगद्दाराणि य वित्थरेण वण्णिताण,तस्स य छविधस्स छ अज्झयणाणि सामाइयादीणि, तत्थ चत्तारि अणुगताणि-सामाइयं चउवीसत्थयो बंदणयं पडिकमणति,तत्थ य सावज्जजोगविरती उकित्तणं गुणवतो य पडिवची प्रखलितस्स निंदणा एते अत्याधियारा पत्तकालमनस्सं कातब्बत्ति वाणिता, एत्थवि पत्तकालं काउस्सग्गेण तिगिच्छा अवस्स २४५॥ ... अत्र अध्ययनं -४- 'प्रतिक्रमणं' परिसमाप्तं ... अत्र अध्ययनं -५- 'कायोत्सर्ग' आरभ्यते (251) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 R प्रत सत्राक [सू.] ||गाथा|| कायोत्सगाना | कातम्पत्ति एतं वणिज्जति, पडिक्कमित्तू य पडिक्कमणमुत्सकङ्कणेण ततो पच्छा चरित्तादीण उत्तरीकरणादिणा पाषकम्मणिग्या- संपन्धाध्ययन तत्थं काउस्सग्गो कातव्वोत्ति काउस्सग्गज्झयणं भण्णति, तस्स चसारि णियोगदाराणि उवक्कमादीणि परवेत्ता अत्याधिगारो ॥२४६|| वणविगिच्छाए, सो य वणो दुविधो- दव्वे भावे य, दव्ववणो ओसहादीहिं तिगिच्छिज्जति, भाबवणो संजमातियारो तस्त पायच्छितेष तिगिच्छणा, एतेणावसरेण पादच्छित्तं परूविज्जति । वणतिगिच्छा अणुगमो य, तं पायच्छि, दसविह-आलोय १४ पडिक्कमणं २ तदुभयं ३ विवेगो ४ बियोसग्गी ५। तवो ६ छेदो ७ मूलं ८ अणवट्ठप्पं ९ पारचितं चेति १० ॥१९-१ ॥ १५१३ ।। जथावराह, जहा सल्ले उद्धरिए वणतिगिच्छा कीरति, जथा कंटकगमादि जदि अप्पं निहोस च सल्लं तो उद्धरणमेचेण पाउणति, अहणज्जति वई खतं अमलितं दुखेज्ज ताहे मलिज्जति, जदि तहवि स्सभिज्जति तो उद्धरेत्ता कनमलादीण पूरिज्जति, तहवि सदोस होज्जा तो विभंगिज्जति, अह गाढविद्दारु फरुसं से दोस गोणसखतितादि जहा तो मूलातो छिज्जति, अह तहाविहूं तो मूलच्छेदोवि कालंतरेण पयत्ततो कीरति, कमिइ पुण चणे खेत्तादीण णिकालितूण तथा मूलच्छेदो| कीरतित्ति, एवं चेव इहवि भाववणे तिगिच्छा दसविहं पायच्छितं, तत्व जो आलोयणाए सुज्झति सो ताए सोहेतव्यो, एवं जाव जो पारंचितेणं सुज्झति सो तेणंति, तत्थ परोप्परस्स वायणपरियट्टणवत्थदाणादिए अणालोतिए गुरूणं अविणओचि आलोयणा| रिह, पडिक्कमणं पुण पवयणमादिसु आबस्सगकमे वा सहसा अतिक्कमणे पडिचोतितो सयं वा सरितूण मिच्छादुक्कडं करेति २४६॥ | एवं वस्स सुद्धी, मूलुत्तरगुणातिकमसंदेहे आउत्तेण वा कए आलोयणपडिकमणमुभय, आहारातीर्ण उग्गमादिअसुद्धाण गहितार्ण पच्छा विण्णाताण संपत्ताण वा विवेगो परिच्चागो, विओसग्गो कातुस्सग्गो गमणागमणसुविणणाईसंतरणादिस, तबो मूलुचरगुणा EACHAR दीप अनुक्रम [३७-६२] ... अत्र व्रण-चिकित्सा मध्ये प्रायश्चितस्य दशविध-भेदानां वर्णनं क्रियते (252) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक (स.) RECENCES ||गाथा|| कायोत्सर्गा लियारे पंचरातिदियाति छम्मासावसाणमणेकधा, छेदो अवराधो पंचएण सासणविरुद्धादिसमायारेण वा तवरिहमतिकंतस्सा कायध्ययन पंचराईदियादिपध्यक्जाविच्छेदणं, मूल पगाढतरावराहस्स मूलतो परियातो छिज्जति, अणवट्ठो मूलच्छेदाणंतर केणति कालविहिणा निक्षेपाः ट्रा पुणो दिक्खिज्जति, पारंचितो खेत्तातो देसातो वा णिच्छुन्भति, छेदमूलअणवठ्ठपारांचिताणि देसकालपुरिससामत्थादीणि पडच | ॥२४७॥ दीतिचि, एवं एसा अवरा वणस्स सोधी कीरति । एत्थं काउस्सग्गारिहण अहिगारो, सेसाणि सट्ठाणे भणिहिन्ति, णामणिप्फण्णे | पुण णिक्खेचे काउस्सग्गोत्ति, तत्थ दारगाथा निक्वेवेगह ॥ १५२३ ॥ काउस्सग्गस्स निक्खेबो विभासितम्बो,एवं योजं. तत्थ काउस्सग्गो कायस्स उस्सग्गे य दो पदाणि, तत्व कायस्स निक्खेवे इमा गाथा-णामंठवणसरीरे ॥ १९-२४ ॥१५३७।। कायस्स निक्ववो दुवालसविहो, णाम वणाओ गताओ, सीर्यत इति सरीरं सरीरं चेक कायो सरीरकाओ सो ओरालियादि पंचविहो, गतिकायो निरयगतिमादिसु पत्तेय ली पत्तेय जो कायो, अहवा गतिसमावण्णस्स जो काओ मो गतिकाओ, गतीए कायो गतिकायोति, तथा चापांतरालगतावपि तेयाकमगाणि अस्थि थेव, निकायकायो छज्जीवनिकायो, अस्थिकायो धमस्थिकायादि, दवियकायो कायपाओग्गदव्या, जथा परमाणुमादी दुपदेसियादीणं, पत्तेयं पत्तेयं जस्स जस्स जे अणुरूवा मातुगादयो दिहिवादे छायालीसं मातुगापदाणि बंभिलिचीए वा अक्खराणि अण्णस्थवि जत्थ एगपदे बहू अत्था समोयरंति सो मातुगाकायो, संगहकायो जथा परमाणुमादि सुवण्णादिपरिणामा M ॥२४॥ पिंडिता बहवे, भारकायो काबोडी, उक्तं च तुद्धकायो, तत्थ कारक-एको कायो दुहाजातो॥ १५४१॥ एत्थ अक्खाणकर जथा पडिक्कमणे परिहरणाए, भावकायो उदयियादीया वा भावा दुगमादी जत्थ विज्जति जीचे अजीचे वा सो मावकायो, दीप अनुक्रम [३७-६२] ... अत्र काय + उत्सर्गस्य निक्षेपा: कथयते (253) Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] || गाथा || दीप अनुक्रम [३७-६२] “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र / ३७-६२ ] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १२४३ - १६५१ / १४१९- १५५४], भाष्यं [ २२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कायोत्सर्गा ध्ययनं ॥२४८३ एत्थ जथासंभवं सरीरकायादिणा अहिगारी । तस्स एगडिया कायो सरीर देहो ० || १५४३|| इदाणिं उग्गो, सो विधीणामदुवणाओ गताओ, वतिरितो दब्युस्सग्गो अकिंचिकरं सदोस च का जो जं दवं छड्डेति तत्थ अकिंचिकरं जथा भिण्णभिक्ने भागणं सदो, जथा विसकतमभियोगकर्त वा एवमादि, अहवा जेण दब्येण जस्थ वा दब्बे दव्वभूतो छत एस दब्बूरसग्गो खेत्तुस्सग्गो जथा मरहादीहिं चकवड्डीहिं भारहं वासं पच्चयंतेहिं छड़ित जो वा जं खत्तयं चयति जीन वा खेत्ते चयति किंचि जंमि वा खेत्ते उस्सग्गो वणिज्जति एवमादि, कालुस्सग्गो जो जं कालं उज्झति, जहा उज्झितो वसंतो मदेण, पण वाहति छडितो वा सिसिरो, एवमादि, अह चारितकालं पप्प रीमिज्जति वासारचे वा ण विहरिज्जति जच्चिरं च कालं उस्सग्गो जम्मि वा काले उस्सग्गो वणिज्जति एवमादि, गोआगमती उस्सग्गो पसत्थो अपसत्थो य, पसत्थो अण्णाणादीणं जातिमदादीण य, अपसत्थो णाणादीण उज्झणा, जेण वा भावेण वा चयति एवमादि ॥ अथ तस्स एगट्टिता-उस्सग्ग विओसरणज्झवणा य० ।। १५४८० ।। एत्थ जथासंभवं अप्पसत्थओस्सग्गादिणा अधिगारो इति । इदाणिं विधाणमग्गणन्ति, सो पुण काउस्सग्गो दुविधो- चेट्टा काउस्सग्गो य अभिभवकाउस्सग्गो य, अभिभवो णाम अभिभूतो वा परेण परं वा अभिभूय कुणति, परेणाभिभृतो, तथा हणादीहिं अभिभूतो सव्वं सरीरादि वोसिरामिति काउस्सग्गं करेति, परं वा अभिभूय काउस्सग्गं करेति, जथा तित्थगरो देवमणुयादिणो अणुलोमपडिलोमकारिणो भयादी पंच अभिभूय काउस्सग्यं कानुं प्रतिज्ञां पूति, बेडाउस्सग्गो चेद्वातो निष्फण्णो जथा गमणागमणादिसु काउस्सग्गो कीरति, अहवा जदि उबस्सग्गो अबो भवति छिदिति वा तो चलति, जो एसो चेट्ठाकाउस्सग्गो, एस अणेगविधो पुरतो वणिद्दिज्जति । इदाणि कालपरिमाणदारं (254) भेदौ कालमानं च २४८|| Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक सि .] ||गाथा|| कायोत्सगो कालप्पयाणेण पुण अभिभवकाउस्सग्गस्स इमं कालपमाणं-जहण्णेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेण संवत्सरं, जथा बाहुबलिस्स, सेसा कायोत्स ध्ययन मझिमा काउस्सग्गा । चट्टाकाउस्सगे पभेदा अणेगेसु ठाणेसु गमणागमणादिसु भवंति,तेसि कालपमाणं उपरि भण्णिहिति । इवार्णिमेदाः ॥२४९॥ भेदपरिमाणं, तत्थ भण्णति-सो पुण काउस्सग्गो दन्वतो भावओ य भवति,दव्यतो कायचट्ठानिरोहो, भावतो काउस्सग्गो झार्म, नै दुविधं- पसत्थं अपसत्थं च, पसत्थं धम्मसुक्काणि, अपसत्थं अट्टराहाणि, एत्थ दवभावसजोगेणं काउस्सग्गस्स णव भेदा उप्पज्जति, इमे उसिउस्सितो तु पढ़मो १ उसितो २ उसितणिसण्णओ चेव ३। णिसणुस्सिओ४ णिसण्णो ५ णिसण्णगणिसण्यातो चेव ६ ॥ १५५६ ।। निवणुस्सितो ७ णिवपणो ८ णिवपणगणिवण्णओ य ९ णातब्बो । एतेर्सि तु| पदाण पत्तेयपरूवणं वोच्छं ।। १५५७ ।। संवरितासवदारो॥१५६२ ॥ चेतणमचेतणं० ।। १५६३ ।। धम्म सुक्का |च दुवे झापति०॥ १५७६ ।। धम्म सुक्कं च दुवे णवि झायति॥१५७७ ॥ अह रोई च दुचे झायति ॥१५८६॥ | धम्म सुक्कं च दुवे०॥ १५८७ ॥ धम्म सुक्कं च दुवे नवि झायति॥१५८८ ॥ अहं रोई चदुवे झायइ॥१५८९॥ धम्म सुक्कं च दुवे ।। १५९० ।। अझ रोई च दुवे धम्म सुक्कं च दुवे नवि० ।। १५९१ ॥ झायह० ॥१५९२॥ अतरन्तो तु निसण्णो करेज्जः ॥ १५९३ ।। गाथाद्वादशकं तु भावेतब्वं । तत्थ सरीरमुत्थितं भावोपि धर्मशुक्लध्यायित्वा- ॥२४९॥ | दुत्थित एव, एस उसिउस्सितो पढमो गमो १ द्वितीयस्तु केवलमस्य शरीरद्रव्यमुच्छ्रितं भाषस्तु ध्यानचतुष्टयवियुतः अथादाफ्न्ने द्र तत्प्रायोग्यलेश्यायुक्तः २ तृतीयस्तु केवलमस्य कायोत्सर्गकृत्वान शरीरमुरितं भावस्तु निषण्णः आतेरौद्रं च ध्यायतीति ३ अण्णे। CARRIERASA दीप अनुक्रम [३७-६२] APER ... अत्र कायोत्सर्गस्य नव-भेदानां वर्णनं क्रियते (255) Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 सूत्र गाथा|| कायोत्सर्गा तिष्णि गिलाणथेरादीणं अगणी वा वास वा महिया वा महाबातो वा सागारितं वा मसगा वा अणधियासतो वा असमत्थो कायोत्सगेध्ययन । ट्र होज्जा ताहे उबविट्ठोबि करेति, ते पुण णिवण्णो करेति, तं किल नियमा असमस्थचणेणं जावतिओ उहितओ सक्केति कातुंटू सावतिए तथा करेति, सेसे उवविठ्ठो करेति, जत्तिए सक्केति उबेडो कातुं तेत्तिकं करति, सेसे असमत्थो संविहो करेति, एवं विभा-IN I२५०॥ व्याख्या सज्जा । तत्थ पढभो सरीरेग निसण्णो भावस्तु धर्मशुक्लध्यायीति, द्वितीयस्तु यथाठितो, एवं तृतीयः, जदि णिसण्णो ण तरिति | ताहे असहू णिवण्णोवि करेज्ज काउस्सग्ग, णिवण्णस्सवि जहा उत्थियस्स तिणि गमा इति । एवं णामणिप्फष्णो किल गतो नाला इदाणिं सुत्तालाचगनिष्फणस्स अवसरः इत्यादिचर्चः पूर्ववत् । एत्थ पुण इमं सुत्त 'करेमि भंते सामाइयं वोसिरामित्ति, एतस्स वक्खाणं जथा सामाइए ॥ आह-वेलं वेलं करेमि भंते! सामाइयंति एत्थ पुणरुत्तदोसो न', उच्यते, यथा वैद्यः विषघातादिनिमित्त येलं वेलं ओमंजणादि करेति मतपरियणादि च, जहा बा भत्तीए गमो णमोत्ति,न य तत्थ पुणरुत्तदोसो, एवं एसोऽवि रागादिविसघातणत्थं संवेगत्थं सामाइयपस्थितो अहंति परिभावणत्थं एवमादिणिमित्र पुणो पुणो भणतिति ण दोसो, महागुण इति । अथ करेमि भंते! इत्यायुक्त्वा कायोत्सर्गाध्ययनप्रथमसूत्रमिदमारभ्यते-इच्छामि ठाइतुं काउस्सग्गं,इच्छामीत्यात्मानं P | निर्दिशति, स्थातुं आसितुं, कायोत्सर्गो भणितः, अनेन इच्छापूर्वकं करणं दर्शयति, न तु पलाभियोगादिना इत्यादि भाष्यं । २-सूत्र अथ किमर्थ कायोत्सर्गकरणमित्याह- जो मे देवसिओ अतियारो जाव मिच्छामि दुक्कांति एतस्स अत्था जथा पडिक्कमणे, पुणो भणण अनुसरणापर्थ । तस्स उत्तरीकरणेण० सुत्त । तस्स आलोइणिदियपडिक्कतस्स अतियारस्स ट्री | उत्तरीकरणादिणा पावाण कम्माण निविषातणट्टाए ठामि काउस्सग्ग, उत्चरकरणं णाम तस्स पुन आलोयणादि कतं, इमं पुण दीप अनुक्रम [३७-६२] kट (256) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक [स] ||गाथा|| कायोत्सगोल काउस्सग्गकरणं उत्तरकरणं तस्स, एवंकरणेण पावकम्मनिग्धातणा भवतित्ति एवं भाव्य, एस्थ गाथा- खंडितविराहिताणं कायोत्सर्ग-- ध्ययन ॥१९-९८ ॥ १६०४॥ भावितार्था, अवराहे पायच्छित्तं कातव्वमित्याह- पायच्छित्तकरणेण, काउस्सग्गो य पंचम सूत्र ॥२५॥ पायच्छिति, पायच्छित्तस्स पुण निरुत्तगाथा- पार्व छिंदति ॥१६०५ ॥ अवराहेणं मलिणतणं भवतीति तद्विशुद्धिःला व्याख्या कार्येत्याह-विसोधीकरणेण, दन्वभावविसोधी विभासेज्जा, अबराडो सलं भवति तत उद्धरेतव्यमित्याह-विसल्लीकरणेण, दव्यभावसलं (१६०६) पुग्वं भणितं, एवं पावाणं कम्माणं निग्घायणढाए, मिण्णं कायोस्सग्गपयोयणमिदमिति केचित् । अडविहंपि कम्मं पावं जेण थोवेवि संते जेव्वाणगमणं णस्थि तेण तं अट्ठविहपि पावं कम्मं णिग्यातेतव्यं अतस्तदर्थ ठामि काउस्सग्गंति, एगद्विताणि वा उत्तरकरणपायच्छित्तकरणविसोहीकरणविसल्लीकरणपदाणि, अण्णे पुण भणंति-तस्सालोइतणिदितस्स जं किंचि अपटिक्कतं अपरिसोधितं तस्स इदं उत्तरकरणं, अनेनातिचारविशुद्धिर्भवतीति, अहवा एवं सो आलोइयणिदियतोवि उस्सग्गेण चउत्थेण पायच्छित्तविहाणेणं अप्पाणं सोहेति, अहवा सामाइयचउब्बीसत्थयवंदणपडिक्कमणाणि विसोहीए कातवाए मूलं, इर्म से उत्तरकरणं, किं पुनस्तद्', उच्यते, पायच्छितकरणं, प्राय इति वाहुल्यास्याख्या, चित्त इति जीवितस्याख्या, प्रायश्चित्तं सोधयतीति प्रायश्चित्तं, प्रशस्तं वा चित्तस्य विशुद्धिकारणमिति वा प्रायश्चित्तं, बा अथवा 'चिती संज्ञाने' प्रायशः ल वितथमाचरितमधमनुस्सरतीति वा प्रायश्चितं, तस्स पायच्छित्तस्स करणं, किंनिमित्त-विशोधिनिमित्, बिसोही निसल्लुतं तणिमिस, उद्धारितसव्यसाहो अहवा विसल्लो पावाणं कम्माण निग्यातणाए पकीरति, अट्ठविहस्स कम्मस्स, एतं चेव पावं, 'इन हिंसागत्योः' निः आधिक्य, आधिक्येन घातः निर्यातः अस्यार्थाय, अर्थ्यत इत्यर्थः, पावाणं कम्माणं निग्धावणवाए ठामि काउ दीप अनुक्रम [३७-६२] Y२५ ... अत्र कायोत्सर्ग-सूत्रस्य व्याख्या क्रियते (257) Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 खत्र ||गाथा|| कायोत्सगों स्सगं, 'टा गतिनिवृत्ती' तिष्ठामि-उपगच्छामि कायोत्सर्ग पुव्वं भणितमिति ॥ कथमिति चेत् भण्णति-अण्णस्थूससितणं कायोत्सर्ग नीससितणमित्यादि, अन्यत्र इमाणि कारणाणि व्युदस्य, जाणि कज्जाणि भणति ताणि मोत्तुं कार्य ठाणेणं मोणेणं प्राणेणं ॥२५शात बोसिरामीत्यर्थः । तत्थ ऊर्ध्व स्वासः उच्छ्वासः अधः स्वासः निःस्वासः, खासितेणं छीएणं जमाइतेणं उडुएणति कंव्यं व्याख्या वातनिसर्गितेणं वातनिसग्गतो बाउकाइयं भमलीए पित्तमुच्छाए भमली-आकस्मिकी शरीरश्रमिः मुच्छणा प्रतीतैव पित्तमुच्छा| पित्तसंखोभेण जा मुच्छा । सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमा अंगसंचालो रोमुग्गममादी बीरियसयोगिसद्दव्यताए चलणं वा होज्जा, दृश्यादृश्यं सुहम बाह्य, सुहमेहिं खेलसंचालहिं अम्भतरेहिं सुहमेहि दिहिसंचालहिं मुहुमो दिविसंचालो ण| 8 तीरति एगमि दव्वे दिविनिवेसो कातुं, उम्मेसादि य होज्जत्ति । किमित्येवमिति चेत्, उच्यते--उस्सासं ण णिभति18 &||१९-१०१ ॥ १६०७ ।। कासखुतः ॥११-१०२ ।। १६०८ ॥ वायणिसग्गुडोए० ॥ १९-१०३ ।। १६०९ ।। वीरिया १९-१०४ ॥ १६१० ।। आलोयण ॥१९-१०५ ॥ १६११ ।। न कुणइ निः॥१९-१०६ ।। १६१२ ॥ एताओ भाणित-12 ६ व्याओ,जतो एवमेते उस्सासादी अनिरोधक्खमा अत एवमाह,जदि पुण अण्णत्धूससितादि अभाणत्ता काउस्सग्गं ठितो उस्सासादीणि करेति तो मा भगविराहणाओ होज्जत्ति अतो एवमादिएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिली होज्ज मे काउस्सग्गोत्ति, का एवमादिपहि-एवंप्रकारेहिं अण्णेहिवि, जथा अगणी बोहिभयं वा तिरिया वा मज्जारादी ओछिदेज्जा पवडेज्जा अण्णो वा सावत-12 | मादी पवडेज्जा दीहजातिडक्को वा सतं अण्णे वेति,एवमादिग्गहणं सब्बवाघातज्झयणथं,आगारा-कारणाणि, तेहिं अभग्गो अविराहितो होज्जा मे काउस्सग्गोत्ति । कालावधारणार्थ जाव अरिहंताणं भगवंताणं णमोक्कारेणं ण पारोमि ताव । जावात्ति CASSETUREBAR दीप अनुक्रम [३७-६२] SGGER (258) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक [स] ||गाथा|| कायोत्सगोजथा सामाइए अरहंता जथा नमोकारे भगवंता जथा पेदियाए पूजावचनमेतत् नमोक्कारो पुव्ववण्णितो, पाराणितं वा पा कायोत्सर्गध्ययन लणति वा पारगमणति वा एगट्ठा, तस्स परिमाणे असमत्ते जदि उस्सारेति ण पालितं भवति, तम्हा पुण्णे वत्तव्यं णमो अरिहंताण, स्वरूप एवं पालितं भवति । एत्थ य जावइयं जस्स परिमाणं अणेगविहं भणित तावइयं काल ठातूण णमोक्कारेणं पारेतब्बति नमोक्कारगहणं, तावच्छन्दः प्रतिनिर्देशे, जाय नमोक्कारं न करेमि तावइयं कालं काय ठाणेण मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि,* कायो पुष्वमणितो ते ठाणेणीत उट्ठाणादिगं ठाणमभिगिज्म, कायप्पसरनिरोघेणेत्यर्थः, एवं मोणेणंति बतिपसरणिरंभषण18 झाणेणति सद्विषयचिन्तनादिमभिगृह्येत्यर्थः बोसिरामित्ति संस्कारादिव्यापाराकरणेन परित्यजामित्ति । इयमत्र भावना- कार्य स्थानमौनध्यानाभिग्रहणेण उक्तक्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासद्वारेण व्युत्सृजामि,नमस्कारेण पारगमनं यावदूलस्थानादि18 स्थितः निरुद्धवाक्प्रसरः प्रशस्तध्यानानुगतस्तिष्ठामीतियावत्, वोसट्टे काकमि य दिट्ठिनिवेसं कातुं अच्छंति तेण निच्चलचं भवति,13 | काउस्सग्गस्स ठाणविधी जथा ओहानिज्जुत्तीए निव्वाधात ठायंता चेव पुज्वं सामायिकं करित्ता सुतं अणुपेहंति जावायरिएण | बोसिरामित्ति भणित ताहे इमेवि अतियारमुहपोतियापडिलहणादीयं चिंतेंति, अण्णे भणंति- जाहे आयरिया सामाइयं पगविता 18 ताहे ते तहाठिता चेव अणुप्पेहेंति, पढम सुतं चिंतेति । अत्राह-एत्थ किनिमित्तं काउस्सग्गो कीरति?, जेण णिरज्जस्स णिरवज्जता || होति सुहं च एक्कगोचिंतहिति,उक्तं च-काउस्सगग्गमि हितो नेरजकायो निरुवइपसरो। जाणति सुहमेगमणो देवास-ला ॥२५३॥ ययादिअतियार।।३२प्र.परिजाणेतु य तत्तो संमं गुरुजणपयासणेणं तु। सोहेति अप्पगं सो जम्हा प जिणेहिं सो भणितो॥३३प्र.।सो काउस्सग्गो एत्थ-काउस्सग्गं मोक्खपहदेसितं०॥१५९१।। काउस्सग्गं मोक्खपहं इति देसितं जिणेहि ॐKAE% AAKAA दीप अनुक्रम [३७-६२] (259) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक म. + || गाथा || दीप अनुक्रम [३७-६२] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [५] मूलं [सूत्र / ३७-६२] / [ गाथा-], निर्बुक्तिः [१२४३-१६५९ / १४१९- १५५४] भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कायोत्सर्गा ध्ययनं ॥२५४॥ - जेण णिरवज्जता होति, अहवा मोक्खपही जैनसासनं तंमि देसितं विधेयत्वेन, मोक्खपहिगेहिं वा जिणेहिं दर्शितं मोक्ष जिगमिषूणां कर्तव्यतया, अहवा मोक्ख पहो- गाणादीणि तस्स देखियं, देसयतीति देखियं तं देशयतीत्यर्थः । एवं जाणितूणं ततो धीरा घी:बुद्धिस्तया राजन्त इति धीराः, देवसियातियारस्स य परिजाणणई काउस्सग्गं ठेतित्ति ।। एवं काउस्सग्मे ठितेण मुहणन्तियमादि | ।। १५९६ ।। कर्तुं जाब एत्थ काउस्सग्गे ठितो ताव अणुप्पेहेतच्च सव्वं देवसितं चिंतेत्ता जावइया देवसियातियारा ते सब्बे समाणइत्ता ते दोसे आलोयणाणुलोमे पटिसेवणाणुलोमे य ठवेज्जा, तेसु समतेसु ।। १५९७|| धम्ममुकाणि झाएज्जा जाब आयरिएहि उस्सारिति ।। १६१५ ।। आयरिया पुण अप्पणोच्चयं देखियं च दो बारे चितेति ताव इमेहिं एक्कसि चिंतितो होति, किं कारणं १, तस्स अहिंडितस्स अप्पा यतियारा सिस्सादीणं हिंडंताणं बहुतरा, दिवसग्गहणं किं निमित्तं १, दिवसादीयं तिथं पसत्थो बेति, एवं एताओ तिष्णि गाथाओ दिवसे, एवं पक्खिएवि दिवसो चाउम्मासिएवि दिवसो संवच्छरीएवि दिवसो, तेण दैवसा तिष्णि, एवं ता पदोसे, पच्चू से शतिया आतियारा, पक्खिया चाउम्मासिया संवत्सरिया णत्थि एतेण कारणेग दिवसग्गहणं पुण्यं व केवलं दुगुणाणुप्पेहा पच्चदताणं वा पयोगतं णातूण अपरिमितेणं कालेण उस्सारेतव्यं तं च णमो अरिहंताणंति भणित्ता पारेति, पच्छा श्रुतिं भणति सा य ती जेहिं इमं तित्थं इमाए ओसप्पिणीए दोसियं णाणदंसणचरितस्स य उबदेसो तेसिं महतीए भतीए बहुमाणतो संथवो कातव्बो, एतेण कारणेणं काउस्सग्गाणंतरं चउवीसत्थाओ, सो य उबउत्तेहि पढिचा गुणवतो पडिवत्तिनिमित्तं सचमाणं संवेगसारं अवराधालोयणा कातव्या, विणयमूलो धम्मोचिकातुं वंदितुकामो गुरुं संडास पडिलेहेता उनको मुहणंतमं पडिलेहिति, ससीसं कार्य पमज्जिता परेण विणण विकरणविशुद्धं कितिक्रमं कातव्वं तत्थ सुत्तगाथा (260) कायोत्सर्गस्वरूपं ॥२५४॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सुत्राक [स] कायोत्सगाट आलोयण वागरणा पुच्छणा पूयणा य सज्झाये। अवराहे य गुरूणं विणओ मूलं च वंदणयं ॥१॥ पयुंजित्ता विनयः "ध्ययन [अन्भुत्थाय जथारातिणियाए दोहि हत्थेहिं रयहरणं गहाय अक्खलिय आलोएति जथा गुरू सुणेति, ओणतकाओ संजतभासाओाकृतिकर्म ॥२५॥ पुण्यरपिये दोसे पागडेति गुरुस्स । तत्थ सुत्तगाथाओ- विणएण विणयमूलं गंतूर्ण साधु पादमूलंमि । जाणावेज्ज सुविहितो जह अप्पाणं तह परंपि ॥१॥ कतपाबोधि मणुस्सो आलोइय णिदिउं गुरुसगासे । होति अझरेगलहुओ। ओहरियभरोव्व भारवधो ॥२॥ उप्पण्णा उप्पण्णा माया अणुमग्गतो णिहतब्बा। आलोयणा जिंदणगरहणाहिंण पुणो प विलियंति ॥ ३ ॥ जदिनस्थि अतियारो ताहे संदिसहत्ति भणिते पडिकमहत्ति भाणियब्ध, अह अतियारोत्थि तो पायच्छिनं पुरिमादीयं दिति, तं च तहेव अणुचरितव्यं, मा अणवस्थादीया दोसा भविस्संति । एत्थ सुत्चगाथा-- तस्स या पायच्छित्तं जं मग्गविदूगुरू उवदिसंति । तं तह अणुचरितचं अणवत्थपसंगभीतेणं॥शाअणवस्थाए उदाहरणं तेलहारपण चडेणं,कद्दमलित्तएणं तेणएणं पसंगविणिवारणट्टाए आता उवालभितब्बो जथा ण पुणो अतियरति, एतेण कारणेणं बंदणाणंतरं आलोयणा, आलोइय पुणरवि सामाइयं, ववगतरागदोसमोहो होतूर्ण पंचंदियअसंवुडो तच्चित्तो संमणो जाव तब्भावणाभावितो सुते सुत्ते उवउत्तो अणुसरेञ्जा । एतेण अभिसंबंधेण आलोयणाणतरं सामाइयं, ततो णाणदसणचरित्ताणं विसुद्धिणिमि पडिसिद्धाणं करणातियारस्स किच्चाणं अकरणातियारस्स जधोवदेसस्स असद्दहणाअतियारस्स वितहपरूवणातियारस्सय विसोहिनिमित् ॥२५५॥ उवट्ठपठिकमणणं पदं पदेण अणुसज्जितर्फ उवउत्तण, तीतं निंदामि अणागतं पच्चक्खामित्तिकालविभागेण पसत्येसु ठाणेसु। जथा अप्पगो ठाति तहा कातन्वं । तत्थ सुत्तगाथा-एते चेव अणभिगता भावा विवरीततो अभिणिविट्ठो । मिच्छाद RECE गाथा|| दीप अनुक्रम [३७-६२] % % (261) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + || गाथा || दीप अनुक्रम [३७-६२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र / ३७-६२ ] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १२४३ - १६५१ / १४१९- १५५४], भाष्यं [ २२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कायोत्सर्गा ६ सणमिणमो बहुष्पगारं वियाणाहि ॥ १ ॥ एवं वातू अन्वितं पदंपदेणं तब्वं ध्ययनं व्युचदिद्रुतेण विणयमूलो धम्मोति पुण्वृत्तविहिणा वंदणखमावणापुच्वं णिवेदणं च सेसगावि खमावेतव्या । तत्थ सुत्तगाथा ॥२५६॥ पुणरावची खलिते, ततो वेज्जतिगयपुपडिकंतोचि आयरियाणं वंदणं कातूर्ण आयरिय उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुल गणे था। जे मे केइ कसाया सब्वे तिविर्हेण खामेमि ॥ १ ॥ सव्वस्स समणसंघस्स भगवतो अंजलिं करे सीसे । सव्वं खमावइत्ता खमामि सव्वस्स य तुमपि ॥२॥ एएणाभिसंबंधेण वंदणाणतरं खमावणा, ततो सगावि जीवा खमावइतथ्या, एवं बवगतरागदोसमोह इति पुणरवि सामाइकपुल्वगं चरितविसोधणहेतुं काउस्सग्गे हविज्जत्ति । गयदिते च चेव जा काइ चरितविराधणा कया पडिक्कमणालोयणाहिं ण सुद्धा तीसे | विसोहिणिमित्तं काउस्सग्गोत्ति वा जोगनिग्गहोति वा, ऐतेण कारणेणं चरित्तातियारविसोधिनिमित्तं सामाइयं कट्टितूण काउस्सग्गदंडगं च जाव तस्स उत्तरीकरणेणं जाव वोसिरामित्ति । एवं णिरवज्जेणं णिरेजेणं तस्स भत्तीए काउस्सग्गो कातव्वो । केच्चिरं कालं पमाणेण ऊसासाणं १, सिलोगे चत्तारि पादा, पादे पादि ऊसासो । तत्थ गाथा- पादसमा उस्सासा कालप्रमाणेण होति गातव्या । एतं कालपमाणं उस्सग्गे होति पातव्वं ।। १९१-३३१३३६ ।। तत्थेमा परिमाणगाथा- साथ सतं गोसद्धं सायं वेयालियसंज्ञा तत्थ, अत्थेद्वपडिक्कमणे पढिते पच्छा तिसुवि काउस्सग्गेसु उस्साससतं भवति, तेर्सि पढमो चारित्तकाउस्सम्मो, तत्थ पण्णास उस्सग्गो, उस्सारेता विसुद्धचरित्तदेसयाणं महाभुणीणं महाजसाणं महाणाणीणं जेहि णिव्वाण. मग्गोवदेसो कतो तेसि तित्थगराणं अविहतमग्गोवदेसगाणं दंसणसुद्धिनिमित्तं णामुक्त्तिणा कीरति । किंनिमित्तं १, चरितं (262) क्षामणा ।।२५६॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक सि. गाथा|| सूत्र-'लोगस्स-सूत्र, गाथा: १-७ कायोत्सगो विसोधितं, इदाणि दसणविसोधी कातव्यत्ति, एतेगाभिसंबंधेण चउवीसत्थओ, सो पुब्बि भणितो, तस्स विसोहणनिमित्त काउ-हबईचैत्यध्ययन यस्सरगं करेंतो पराए भनीए भणति स्वपः सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं बंदणबत्तियाए.' इत्यादि, अस्य ब्याख्या-न केवलं चउवीसाए, जेवि सव्वलोए सिद्धादी रिहंता चेतियाणि य तेसिं चेव प्रतिकृतिलक्षणानि 'चिती संवाने ' संज्ञानमुत्पद्यते काष्ठकर्मादिषु प्रतिकृतिं दृष्ट्वा, यथा अरहंत|पडिमा एसा इति, अण्णे भणंति-अरहंता तित्यगरा तेसिं चेतियाणि-अरिहंतचेतिताणि, अप्रतिमा इत्यर्थः, नेसि बंदनाप्रत्यय ठामि काउस्सग्गमिति योगः, तत्र बंद्यत्वात्तेषां वंदनार्थ कायोत्सर्ग करेमि, श्रद्धादिभिवर्द्धमानैः सद्गुणसमुत्कीर्जनपूर्वकं कायो| सर्गस्थानेन वंदन करोमीतियावत् एवं पूज्यत्वात्तेषां पूजनार्थ कायोत्सर्ग करोमि, श्रादिभिवर्धमानः सद्गुणसमुत्कीर्तनपूर्वक कायोत्सर्गस्थानेनैव पूजनं करोमीत्यर्थः, जथा कोई गंधचुण्णवासमल्लादीहिं समम्पर्चनं करोतीति । एवं सक्कारवत्तियाए सम्माणवत्तियाएऽवि भावेतन्वं, गवरं सक्कारो जथा वत्थाभरणादीहि, सक्कारेणं संमं मणणं, केई भणंति-बंदणादयो एमद्विता आदरार्थ उच्चारिजातत्ति, बंदणादीणि किमर्थमित्याह- बोधिलाभवत्तियाए चोधिलाभो- संमइंसणादीहिं अविप्प| योगो, सद्धर्मावाप्तिरित्यन्ये, प्रेत्य सद्धर्मावाप्तिवोंधिलाम इत्यन्ये तदर्थ, चोधिलाभो किमर्थमित्याह- निरुवसग्गवत्तियाए, निरुवसग्गो- मोक्खो तदत्थं, एत्थ सिद्धाए मेहाए धितीए धारणाए अणुप्पेहाए बढमाणीए ठामि-करेमि काउस्सग्ग| मिति, तस्थ सद्धा- भक्त्यतिशयः, साभिलाषता इत्यन्ये, संमत्ते तीवाभिनिवेश इत्यन्ये, तीए वड्डमाणीए । एवं मेहाए, मेहा-पद्धत्वं दान पुनः चला, इतो तद्गुणपरिज्ञानमित्यन्ये,अन्ये पुनः मेधाएत्ति आसातणाविरहितो तच्चे य मग्गे ठितो इति, ठिती मणोसुप्प BANKA दीप अनुक्रम [३७-६२] ॥२५७॥ ... अत्र अर्हत्वैत्यस्य व्याख्या क्रियते (263) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ध्ययन ||गाथा|| कायोत्सर्गााणिहाण, ण दुरागादीहि आकुलो, धारणा यथोपदेशाविस्सरणं, अन्य तु धारणाएनि अहंद्गुणाविस्सरणरूपया, नतु तच्छ्न्य तया | इति, अनुप्रेक्षा तद्गुणानामनुचिंतनं, चङ्कमाणी बर्द्धमाना, केह पुग अणुप्पहाए बढमाणीए णू पढेति, अन्ने पुण वर्णति-श्रद्धार्थ ॥२५८॥ श्रद्धानिमिर्च च ठामि काउस्सग्गं, एवं मेहादिसुवि भावेतव्वं । ठामि काउस्सग्गं इत्यादि पूर्ववत् । पणुवीसउस्सासकाउस्सग्गी, णमोक्कारेण पारेति,ततो णाणातियारबिसुद्धिनिमित्तं सुतणाणणं मोक्खसाहणाणि साहितित्तिकातुं तस्स भगवतो पराए मत्तीए तिप्परूवगणमोक्कारपुच्वगं थुतिकित्तणं करोति, तंजथासूत्र | पुक्स्वरवरदीवर्द्ध धातपिसंडे य जंबूदीचे य । भरहेरवयविदे हे धम्मादिकरे णमंसामि ॥१॥ इत्यादि, पुष्कर घरदीपस्य अर्धं पुष्करवरदीवटुं तमि धातकीखंडे य. दीचे जंबुद्दीवे य अड्डाइज्जा दीवा समयखेतं, तं च माणुमुत्तरेणं णगरमिव सध्यतो पागारपरिक्खितं, तत्थ पंच भरहाणि पंच एरवयाणि पंच महाविदेहाणि तेसु सत्तरं चक्कवढिविजयशतं तेसु धमादिकरे णमसामि, तीर्थमेव धर्मस्तस्यादिकर्तारस्तीर्थकराः, तथाहि-प्रत्येकं स्वस्वतीर्थानां आदिकर्तारस्तीर्थकराः, तत्थ उक्कोसपदेणं | सत्तरं तीर्थकरसतं, जहण्णपदेणं वीस तीर्थकरा, एते ताव एगकाले भवंति, अतीताणागता अर्णता तित्थकरे णमंसामिति ॥१॥ एवं तप्परूवगणमोक्कारो कतो, इदाणि सुतधम्मस्स भगवतो थुई भणति तमतिमिरपडलविद्धंसणस्स सुरगणन रिदमाहियस्स । सीमाधरस्स वंदे पप्फोडियमोहजालस्स ॥२॥ तमो-विष्णाणमंदता जहा पुढविकायादीणं तिमिर- विज्ञानाल्पता जथा सेसगाणं, तमतिमिराणं णिमित्तभूतं पडलं तमतिमिरपडलं जाणावरणादिकमबंधमेव अहवा तमो-अणवबोधो सो चेव तिमिर तमतिमिरं तस्स कारणं पडलं तमतिमिरपडलं चेच, अहवा दीप अनुक्रम [३७-६२] KKRIE-EX ॥२५८॥ ... अत्र श्रुतस्तवस्य व्याख्या क्रियते (264) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक ||गाथा|| कायोत्सगो तमो- अपरिज्ञानहेतः स एवं तिमिरपडल, अहवा तमो- अपरिज्ञानहेतुः स एवं बहलो तिमिरं तस्स पडलं वर्गः समूहालातस्तवः ध्ययन पडलाणि वा, अण्णे पुण भणति- तमो बद्धं पुढं निधन णाणावरणीय विकारित तिमिरं तस्स पटलं-दं पटलानि वा- समानजाती॥२५९॥ || यवृंदानि तमतिमिरपटलानि वा, अण्णे पुण भणंति- तमो अपरिज्ञानं तं चेव बहुतरं तिमिरं तं चैव बहुतरतमं पटलं एवमादि भंग R दसज्जा, तं तमतिमिरपटलं ताणि वा जेण विद्धसिजति तं तमतिमिरपटलविद्धसणं, तथाहि-ज्ञानावरणीय ज्ञानावसायेन विद्धसिज्जतित्ति अतो तस्स । तथा सुरगणनरिंदमाहितस्स सुराणं गणा सुरगणा सुरगणाणं णरगणाण य इंदा सुरगणनरिंदा अहवा | सुरगणा गरिंदा य सुरगणणारंदा,एवं भावेज्जा तहि महितस्स-पूजितस्य,नमस्कृतस्येत्यर्थः,तथा सीमा मेरा मर्यादा इत्यनान्तरं, | णाणादीणं अविराधणं, सीमं धारयतीति सीमंघरं तस्स, एतेसिं विशष्यपदं उरि भणिहिति, केयी पुण भणति-इमं चेव विशेष्यपद | सीमाधरस्येति सुतणाणस्स,सुतणाणग्गहणं पुण जतो-सुतणाणमि णेपुण्णे,केवले तदणंतरं । अप्पणो सेसकाणं च, जम्हा जासं पविभावग।।शान्ति, पंदे वंदर्ण करेमि।। मोहणिज्ज कम्मं सभेदं मोहजालमित्युच्यते तं जम्हा सुतणाणण पप्फोडिज्जति वस्खै रेणुवत् तस्मादुपचारतः श्रुतज्ञानमेव प्रस्फोटितमोहजालं भण्णति, मोहणिज्जे य विहते ततो एतस्स लाम इति एवं निर्देश इति, अहवा मोहजालं-मूढविकप्पजालमित्यन्ये विकल्पजालमिति वा, नास्ति श्रुतज्ञाने अज्ञानमित्यर्थः, पप्फोडितमोहजाल श्रुतणाणमित्यन्ये। 8 एवंविहस सुतणाणस्स पंदणं काउं दाणिं तस्स चेव गुणोपदर्शनद्वारेणाप्रमादगोचरतां दर्शयबाद जातीजरामरणसोगपणासणस्स, कल्लाणपुक्खलविसालसुहाचहस्स। को देवदाणवणरिंदगणचितस्स, धम्मस्स सारमुबलकम करे पमादं ॥३॥ EECKGROEACCEGORY **** दीप अनुक्रम [३७-६२] ॥२५९॥ (265) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक सि.] कायोत्सगो ४॥ जातीजरामरणसोगपणासणस्सेति भाव्यं, अणेण सम्बदुक्खप्रतियातित्वमाह,कल्याणं श्रुतज्ञानविदो या ऋद्धयः ऐहिकाः श्रुतस्तवः ध्ययन | पारलौकिकाश्च तैः पुष्कलं-समधिकं विशालसुखं निर्वाणं आवहति-ढोकयति तदुपदेशकर्तुः कल्लाणपुष्कलविशालसुहायह, अण्णे ॥२६॥ | भणति-कल्लाणं पुर्व भणितं, एतत्कल्याणं पुष्फल मिति-शोभनं, सतीप्वाप ऋद्धिपु तासु यन्त्र मूच्छेति तत्फलं पुष्कलं भवति, तं विशाल-सुबहुलं बहुविधं सुई आवहति तदुवदेशकर्तुः कल्लाणपुष्कलविसालसुहावह तस्सेवंगुणसुहावहस्स, अण्णे भणंति- कल्लाणं प्रधानं पुष्कलं संपूर्ण, न च तदल्पं, किं तु विशाल-विपुलं, कि तं?,सुह,तं आवहति प्रापयति, एवं अणेगे भंगे दरिसेति, अनेन सर्वे | | सुखावहत्वमाह, को सकनविण्णाणी पाणी देवदाणवणरिंदगणच्चितस्स गतार्थ, अस्य च गतार्थस्यापि पुनर्भणर्न पूर्वोक्ततमतिमिरविद्धसणादिविसेसणत्थं, संगहणमूयणस्थ, तस्स मुतधम्मस्स एवंविहं सारं-सामर्थ्य द्रव्यादिशेयपरिज्ञानमित्यन्ये चरण[मित्यन्ये उपलभितूण करे पमादं ?, को सकनविनाणो नरो कुर्यात्प्रमाद?, तदधिगमे तद्भक्तो तदुपदेशे च एत्थ पमादकरणामखममित्याकृतमिति ।। यतश्चैवमत एतदाह सिद्धे भो! पपयो णमो जिणमते गंदी सदा संजमे, देवनागसुवन्नकिन्नरगणसम्भूअभावञ्चिते । लोगो जत्थ पतिहितो जगामणं तेलोक्कमच्चासुरं, धम्मो वतु सासतं विजयतो धम्मोत्तरं वतु ॥४॥ एवंविधाय एस इति सिद्धोपन्यासा, क्व सिद्धः, जिणमते बद्धमाणसामिणो तित्थे सेसाणं व तिस्थगराण, अहवा एवंविधो BIR६०॥ स इति सिद्धो नाम साधनं, यः कुतः ?, जिनमत इतिकृत्वा, सर्वज्ञैरर्थस्य भाषितत्वात् सर्वलब्धिसंपनश्च गणधरैः दृब्धत्वात्सिद्ध| निर्वचनीयमविचाल्यं, श्रुतज्ञानमेवेत्यर्थः, अण्णे पुण भणंति-सिद्धं-प्रतिष्ठितं प्ररूदं सर्वकालिक नित्यमित्यर्थः जिणमतं, तथाहि-11 ECARE गाथा|| दीप अनुक्रम [३७-६२] (266) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक [सू.] गाथा|| कायोत्सगाएतं दुवालसंग गणिपिडगं न कयाइ नासी न कयाइ णत्थि न कयाइ न भविस्सइ भुवि च भवइ य भविस्सह य एवमादि । सिद्धेश्रुतस्तवः ध्ययन जिणमते भो इत्यानंश्यस्यामंत्रणि, पयतो प्रयत्नपरः, पुणोवि भत्तिबहुमाणतो णमो इत्याह, अहया प्रयतो भूत्वा नमस्करोमि, एताओ य गंदीओ संजमे भवतु, नंदी-समिढ़ी, किंभूते संजमे?- देवणागसुवमकिन्नरगणेहि सद्भूतभावेनाचिते, तथा लोको ॥२६॥ णदासजम भ छजीवनिकायो लोको लोकयनीति लोकः जत्थ संजमे प्रतिष्ठितो विषयतया संस्थितः तथा जगमिणं चराचरं जत्थ पतिद्वितं IM सर्ववत् , तथा तेलोकमणुयासुरं वा जत्थ पतिद्वितं, मनुष्याश्चासुराश्च मनुष्यासुरं, तथाहि-पढममि सब्जीवा० ॥ तमि संजमे नंदी सदा भवतु, एतदप्पभावे नित्याशीर्वादः, एवं संजमे नंदि आससितूणं सुतधम्मस्स सब्धकालिकं विजयतो वाद आससितो एवमाह 'धम्मो बढ्तु' इत्यादि, स एस एवंभूतो सुतधम्मो बहतु वृद्धि उपगच्छतु शाश्वतं यथा भवति, विजयमासृत्य विविधेहिं अणातापरदायदाणि जण इत्यर्थः, तथा धर्मोत्तरं सम्मदसणं तं बहुतु, सम्यग्दर्शनस्य च समृद्धिं करोस्वित्यर्थः, अहवा दि सदा संजमे भणितगुणो धमो बहतु सासओ सासयं वा, धमो-सुतधमो भणितगुणो, पातु, पातु मुद्धिं तु, सासओ। जम्हा पंचसुवि महाविदेहेसु ण कदाइ बोच्छिज्जति तम्हा सासओ, सासतं वा जथा भवति । एवं स्वयं च विजयतो धर्मोत्तर वङ्गत।। विजयेनान्यधर्मोत्तरं यथा भवति एवं च बर्द्धता, धर्मेर्वा गुणैः उत्तरं धर्मोत्तरमिति, अण्णो अण्णाभावे वण्णेति तंपि अनया दिशा भाव्य, संपुण्णं पुण चोद्दसपुचिमादी वष्णेति, तस्सेवं वणितस्स सुतस्स भगवतो वंदणवत्तियाए जाव वोसिरामिति ॥२६१॥ काउस्सग्गो पणुवीसउस्सासो णमोकारेण पारणं ॥ एवं चरित्तदसणसुतधम्मतियारविसोहिकारगा काउस्सग्गा कता । इदाणि चरित्तदसणसुतधम्भाणं संपुण्णफलं जेहि पत्तं तेसिं बहुमाणतो पराए भत्तीए मंगलनिमित्तं च भुज्जो धुति भण्णति SHRESNESSKARE दीप अनुक्रम [३७-६२] (267) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक म. + || गाथा || दीप अनुक्रम [३७-६२] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [५] मूलं [सूत्र / ३७-६२] / [ गाथा-], निर्बुक्तिः [१२४३-१६५९ / १४१९- १५५४] भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कायोत्सर्गा ध्ययनं ॥२६२॥ - सूत्र सिद्धाणं बुद्धाणं पारगताणं परंपरगताणं । लोयग्गमुवगताणं णमो सया सध्यसिद्धाणं ॥ २ ॥ सूत्रं ॥ सिद्धाः परिनिष्ठितार्थाः बुद्धा-विष्णाणमता पारगता णाणसुहादीणं पर्वतं प्राप्ताः परंपरगताः अप्रमत्तस्थानाद्यनुक्रमप्राप्तेः लोग्गं उडलोयस्स अग्गं तं लोयग्गं उबगताणं णमो सदा सव्वकालं सव्वसिद्धाणं सव्वेसिपि सिद्धाणं । तस्थ सिद्वादीति अदवा गमो सव्वसिद्धाणंति अतीतद्भाए जतिया सिद्धा संपतं च जे सिज्ांति तेसिं णमो अहवा सदाग्रहणं सिद्धत्त बुद्धतादीनं साद्यपर्यवसितत्वख्यापनार्थमिति, अण्णे भणंति- सिद्धाणं-सिद्धत्वं प्राप्तानां ते य साममेण विज्जासिद्वादीयावि भवंति अतो भण्णति बुद्धाणं, अवगतस्याऽविपरीततच्चानां एवमवि मा प्रयोजनांतरतः पुणोवि संसारं एिितति भणति पारगताणंसंसारस्य प्रयोजनवातस्य वा पर्यंतं गताणं एतेवि पारंपर्येण गता, एगे गया पुणो अणागता पुणो अण्णे, एवं पुण सब्वेवि एगदा अणादिसिद्धा वा, अथवा एगे पटुच्च अण्णे गता अण्णे पड़च्च अण्णे, एवं परंपरगता, तेऽवि लोयग्गमुत्रगता, ण पुण इह जरथ वा तत्थ वा ठिता, एवं णमो सदा सज्वसिद्धाणं सव्वेसिं सिद्धाणं सव्वसिद्धाणं अहवा सर्व्वे साध्यं सिद्धं येषां ते सर्वसिद्धा इति । अण्णे पुण सिद्धाणं बुद्धाणं पारगताणं परंपरगताणं एताणि एगट्टिताणि भणति, सिद्धति य बुद्धत्तिय पारगतति य परंपरगतसि वयणाओ इत्याद्यलं विस्तरेणेति । इदाणि मत्तिमाणतो जस्स भगवतो तिथे वयं ठिता तस्सवि धुती भंगतिजो देषाणचि देबो० ॥ २ ॥ सूत्रं ॥ य इत्युपदेशवचनं, देवाणवि देवो देवाधिदेव इत्यर्थः यं देवा प्रकृतजलयः प्रांजलयः णर्मसंतिति नमस्कुर्वति, तमिति निर्देश, देवदेवमहितं च महितं पूजितं, अहवा देवदेवं अधिकं अहवा देवदेवा इंदा तेसिपि अधिक तेर्हिपि या महिनं देवदेवमहितं, सिरसा बंदे महावीरं सिरसागहणेण तज्जातीयत्वात् मणसा वायाए य बंदे महावीरं महति " ... अत्र सिद्धस्तवस्य व्याख्या क्रियते (268) सिद्धस्तुतिः ॥२६२॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक म. + || गाथा || दीप अनुक्रम [३७-६२] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [५] मूलं [सूत्र / ३७-६२] / [ गाथा-], निर्बुक्तिः [१२४३-१६५९ / १४१९- १५५४] भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कायोत्सर्गा ध्ययनं ॥२६३॥ *6+56 +9 महावीरवद्ध माणसा ॥ वर्धमानस्वामिन एवं नमस्कारसामर्थ्यदर्शनद्वारेण पूर्ति भगति- yenisfy arteri० ॥ ३ ।। सूत्रं । ओषतः फिर कंठति, भगवतो पुण अणेगनयभंग आगमगहणं गुरू भतित्ति एते तिष्णि सिलोगा भण्यंति, सेसा जहिच्छाए। ततो पुण संसारांणत्थारगाणं आयरियाण बंदणं । जथा रण्णो मणूसो आणचियाए पेसितो पणामं कातूणं गतो तं कज्जं समाणेचा पुणरवि पणामं कानूणं तं आणनियं णिवेदेति, एवं इत्थावि गुरुणं वंदित्ता चरिते विसोहि कातून दंसणे गाणे य मंगलं च कातृणं जे पूजारिहा पुणरवि गुरुं वंति, भगवं ! कर्त पेसणं आयविसोहिकारगन्ति, एतेण कारणेण मंगलाणंतरं मतिवहुमाणविणयप्पसमा पृच्छणाणिमित्तं वंदणं च करेति, वंदणं कातूर्ण उक्कड़ओ आयरियामिमुह यिणयरइयमत्थगंजलिपुडो जाद्दे पुत्र आयरिया धुर्ति भणिता पच्छा सो भणति, अण्णहा अविणयो भवति, आयरिया वा किंचि अत्थपदं, पच्छितंतरालो य कतो, मा ताव आयरिया कस्सइ अतियारं मेरट्ठवर्ण च विस्सरितं सारेंति, ताओ व श्रुतीओ एगसि लोगादिव कुंतियाओ पदअक्खरादीहिं वा सरेण वा बहुतेण तिष्णि मणितुणं ततो पादोसि करेंति । एवं ता सायं । इदाणि पभाते का विधी- पढमं सामाइयं कातूणं चरितविसोधिनिमित्तं काउस्सग्गो बितिय चउवीसत्थयं काडतूण दंसणविसोहिकारको ततिओ सुतणाणविसोद्दिनिमित्तं तत्थ राहयातियारे चितेति तथा धृतीणं अवसाणाया आरद्ध जाव इमो ततिओ काउस्सग्गोचि पमानं किं एत्थ है, सुत्तं गोसद्धं सतस्स पढमं पणुवीसा वितिरवि पणुवीसा, ततिए पस्थि पमाणं । तत्थ आयरिओ अपणो अतियारे चिंतेतूण उस्सारेति जेण पुणहिता सध्धेवि, ततो वंदणगं, ततो आलोयणा ततो परिक्रमणं ततो पुणरवि बंदणगं वागणं ततो पामाइयानंतर काउस्सग्गी, ततो पच्चक्खाणं गुणधारणाणिमितं, तत्थ चिंतेंति- कन्दि नियोगे णिउत्ता गुरुर्दि तो तारिसं ••• अत्र प्रातः प्रतिक्रमण-विधिः प्रदर्शयते - 1 (269) प्राभाति कादिप्रतिक्रमणानि ।। २६३ ।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक [स.] ||गाथा|| कायोत्सगोत संपडिम्बज्जिस्सामि, साहुणा य किर चिंततव्व-छम्मासखमणं जाव करेमि, ण करेज्जा, एगदिवसेण ऊणगं करेतु जाव प्रामातिपंचमास पंच ३-२-१ अद्धमासो चउत्थं आयंबिल, एवं एगहाणं एगासणं परिमाणिनीय पोरुसी णमोकारोत्ति , अज्जत्तणगाओ। कादिप्रति क्रमणानि ॥२६॥ यकिर कल्लं जोगवड्डी कातव्या, एवं वीरियायारो ण विराधितो भवति , अप्पा य णिद्धाडितो भवति, जे समत्थो कातुं तं हिदए करेति, अण्णे भणंति-एवं चिंतेतब्ब-किं मए पच्चक्खातब्ब, जदि आवस्मयमादियाणं जोगाणं सकेति संघरणं कातुं ता अभत्तहूँ ववसति, असकेंतो पुरिमडायबिलेगट्ठाणं, असकेंतो निव्वीय असतो पोरुसमादिविभासा, अह चउत्थभत्तिो छटुं ववसइ छट्ठभत्तिओ अट्ठमीमच्चादि विभासा उस्सारेचा संथर्व कातुं पच्छा बंदित्ता पडिवज्जति, सम्येहिवि णमोकारहत्तेहि समर्ग उद्वेतव्यं, एवं सेसएसुवि पच्चक्खाणिसु, पच्छा तिणि धुतीओ अप्पसद्देहिं तहेव भण्णति जथा घरकोइलियादी सत्ता ण उट्ठति, कार्ल | वंदित्ता निवेदिति । जदि चेतियाणि अस्थि तो वंदन्ति धुतिअवसाणे चेत्र, पडिलेहणा मुहणंतगादि संदिसह पडिलेहेमि बहुवेला य। एवं च कालं तुलेतूणं पडिकमति जथा ततिया धूती भणिता पडिलेहणवेला य होति । आह-किं निमित्त विवरीतं पाडक्कमिज्जति जथा सायं गतं तथा पदेवि पडिकमिज्जतु, उच्यते,कोइ साहू णिद्दाइमो होज्जा तो णिवाभिभूतो ण तरति चिंतेतुं, अविय। अंधकारे वैदेताणं आवडणादयो दोसा, असंखडं च तुमं ममं उबरि पडसि, मंदधम्मा य कितिकम लोवेंति, एवमादि, जाव पुण PR६४॥ तिणि काउस्सग्गा कीरति ताव पभायं होति,एतेण कारणेण विवरीतं कीरति । एवं ता देवसिए भणितं। पक्खिए इमा विधीदेवसियं जाहे पडिकंता णिवेडगपडिकमणेणं ताहे गुरू निविसंति,ताहे वंदित्ता भणंति इच्छामि खमासमणो ! पक्खियं खामण, एवं जहष्णेणं तिष्णि उकोमेणं सम्बे, पच्छा गुरू उद्वेत्तणं अहारायणियाए खामिति, इतरेचि जथाराहणियाए खामति, सम्बेवि | दीप । अनुक्रम [३७-६२] RAre (270) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] + || गाथा || दीप अनुक्रम [३७-६२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र / ३७-६२ ] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १२४३ - १६५१ / १४१९- १५५४], भाष्यं [ २२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कायोत्सर ध्ययनं सूत्र ॥२६८५॥ ३२ सूत्र सूत्र पूर्णति इमं देवसियं पडिकंतं पक्खियं पडिकमा वेह, ताहे पविखयं पडिकमणंसि कडिज्जति कड्डिता मूलगुणउत्तरगुणेहिं जं खंडितं विराहितं तस्स पच्छिचनिमित्तं विष्णि उस्साससताणि काउस्सग्गो की रति, पारिते उज्जोयकरन्ति, औवविट्ठा मुहणतगं पडिलेहेता बंदति, पच्छा पक्खियं विणयाइयारं खार्मेति चितिए, जथा राया जाणामावि पूसमाणएवं एवं इमेवि सीसा कालगुणसंधर्व करेति । पियं च जं मे हट्टाण० सच्चं सोभणो कालो गतो अण्णोवि एवं चैव उबट्टितो, गुरूवि भणति साधूर्हि समं, ततिए खमावितावबोधिताणं चेहयवंदणं च साहूवंदणं च निवेदेति, इच्छामि खमासमणी ! पुवि चेतियातिं वंदित्ता इत्यादि कंठं णवरं समाणा-बुडवासी वसमाणा गावविगप्पविहारी, आयरिओ भणति अपि वंदामि । चउत्थे अप्पगं गुरुसु णिवेदेति, तत्थ जो अविणओ कतो तं खमावेंति- इच्छामि खमासमणो! तुज्झ संतियं अहा- कप्पं०, आयरिओ भणति-आयरियसंनियं, अहवा गच्छसंतियंति, पंचमे भमंति--जं विषएह तं इच्छामि सव्वं, इच्छामि खमासमणो! कताई च मे कितिकमाई जाव तुम्भण्डं तवतेयसिरीए हमाओ चाउरंत संसारकंताराओ साहस्थं णित्थरिस्सामोतिक सिरसा मणसा मत्थएणवंदामोचिकटड, गुरू आह-आयरिया णित्थारगा, ससाणवि सव्वेसिं साहूणं खामणवंदणगं पढमगं, जाहे अतिवियालो वाघावो वा ताहे सत्तण्डं पंचण्डं तिण्डं वा । पच्छा देवसिय पडिकमंति । पडिकंताणं गुरुसु बंदिएस बङ्गमाणिगाओ तिष्णि धुतीओ आयरिया भणंति, इमे य अंजलिमउलियहत्थया एकेकाए समत्ताए णमोकारं करेंति, पच्छा सेसगावि भणन्ति । तावसं ण सुत्तपोरुसी वि य अत्थपोस्सी, धुतीओ भष्णति जीसे जत्तियाओ । एवं चैव चातुम्मासिएवि णवरं इमो विसेसो- चाउम्मासिकाउस्सग्गो पंच सताणि उस्सासाणं, संवत्सरिए च असहस्स उस्सासाणं, एस विसेसो, चाउम्मा सियसंचच्छरिएस सन्देहिं मूलउत्तरगुणाण (271) क्षामणा विधिः ॥२६५॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत कायो सुत्राक [सू.] ||गाथा|| कायोत्सर्गा आलोएतब्ब, ताहे पटिकमिज्जति, चाउम्मासिए एगो उपसग्गदेवताए काउस्मग्गो कीरति, अब्भाहओ पभाते आवासए कते | ध्ययन चातुम्मासियसंवत्सरिएसु पंचकल्लाणगं गेहंति, पुष्यगहिता अभिग्गहा णिवेदेतब्बा, जदि ण सम अणुपालिता तो कूजितकक रसगोः ॥२६६॥ राइतस्स काउस्सग्गो कीरति, पुणरवि अण्णे रोहितच्या, णिरभिग्गहेणं किर ण वति अच्छित, संवच्छरिए य आवासए कते पज्जोसवणाकप्पो कडिजति, पूछि चेव अणागतं पंचर सवसाधूर्ण सुणिताणं कडिज्जति कहिज्जति यति ।। एते ताव बेलाणियमेण भणिता काउस्सग्गा, इमे अणियता, तत्थ दारगाथा--भत्ते पाणे० ॥२३४॥ गमण गामादिसु आगमणं ततो चेक, भत्तस्स जत्थ वच्चति जदि ण ताव देसकालो ताहे पडिकभित्ता अच्छति, ततो पडियागतो पुणावि पडिकमति, एवं पाणस्सवि, सवर्ण संथारओ बसही वा, आसणगं पीढगादि, एसेसि मग्गतो गतो एतं पडिक्खेज्ज, अरहतघरं गतो साधूर्ण च वसहिं गतो, अदुमिचउद्दसीसु अरहंता साधुणो य देतचा उच्चारविओसग्गे पासवणवियोसग्गे दोसुवि जदिवि हत्थमे गंतूर्ण वोसिरति तोवि पडिकमति, | अह मत्तए ताहे जो विगिचति सो पडिकमति, सेसएसु जदि हत्थसतं नियत्तणस्स पाहि या तो पडिकमति, अह अंतो। |ण पडिकमति, एतेसु पणुवीस उस्सासा, गमणागमणचि गतं । विहारेति असझाए अण्णस्थ सज्झायणिमित्तं गतस्स पणुवीस उस्मासा ॥ इदाणिं सुत्तत्ति, उद्देससमुद्देसे सत्तावीस अणुण्णवणियाए, सुने उरिढे जो काउस्सग्गो समुदिढे अणुण्णवणियाए, तेसु की सत्ता स उस्सासा अच्छितूर्ण सय चेव उस्तारति जदि असढो, सढस्स आयरिश्रा उस्सारेंति, जाच आपरिओ न उस्मारेति ताव सुत्र ॥२६६॥ टासायति, आयंबिलविसज्जणे विगयविसजणे य सचावीसं. उवस्सयदेवयाए य सत्तावीस, कालग्गहणे पडवणे य अणसणाए पडि-II कमणे अढ उस्सासा, आदिग्महणा कज्जणिमित्तं गच्छतो अवस्खलितो अदु उस्सासे काउस्सम्मो कातब्बो, ताहे गंमति, जदिर TERROREA5% दीप अनुक्रम [३७-६२] % (272) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक म. + || गाथा || दीप अनुक्रम [३७-६२] "आवश्यक" - मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [५] मूलं [सूत्र / ३७-६२] / [ गाथा-], निर्बुक्तिः [१२४३-१६५९ / १४१९- १५५४] भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कायोत्सर्गा ध्ययनं ॥ २६७॥ - चितियपि तो सोलस उस्सासा, ततियं जदि अवसउणो तो अच्छति अण्णं सोमणं सउणं पडिच्छंतो, सुतक्खधपरियहणे पसं उस्सासा, अण्णे भणति कालगण्हणे पट्टणे य पंच उस्सासा, अणेसणाए कालपडिकमणे सुतखंधपरियहणे य एतेसु अट्ठ, सुत्तनि गतं ॥ सुमिणे पाणवहे मुसावादे अदते परिग्गहे संत उस्सासाण, मेहुणे दिट्ठीविप्यरियासियाए सतं इत्थीए सह अट्ठसय, रात्रिग्रहणं दिवासोतव्वणिवारणत्थं, णावन्ति गावउत्तिष्णो जदिवि ण संघदेति तथाविरियावद्दियाए पणुवीस उस्सासा, नई उत्तिष्णा तत्थवि पणुवी, चला वा सडेवो वा तत्थवि पणुवीसंति, दारं ॥ इदाणिं असदत्ति, एते सव्वेवि नियया अ अणियता य काउस्सग्गा निकूड कातव्या । बिसेसतो आवासगवेलाए पडिमाट्ठाणेसु य, तत्थ गाथा- जो बलु तीसतिवरिसो० ||२३५भा० । तीसतिगस्स उदको बालस्स, सत्तरिकस्स परिहाणी, जो तीसतिओ सत्तरिएण समं ठाती समं च उस्सारेति सो जथा कूडवाही बल्ले मरालो, जति मरालो बिसमे अद्धाणसीसके समिलं पच्छतो विलंषति पच्छा इंमति तस्स दो दोसा-हम्मति वहाविज्जति य, दोषि भरा उबरं होंति, एवं हमोवि अप्पणो दो भरे उवरिं करेति, मायानिष्कण्णं तं च कायकिलेस, तम्हा वीरिमं ण णिगृहे तन्वं, निकूड कातव्यो सविसेसो सरिसगातो, ऊणगे का पुच्छा?, एवं तवोकंममादीवि वयाणुरूवं तरुण थेराओ सर्विसेसं बलाणुरूवंति, कोइ तरुणो असमत्यो घेरो समत्थो तेणवि विरीयं ण निगूहेतच्वं, थाणुरिव अचलत्तणं, उडुंति कायो य शाणं च गहितं, अव्वाबाईमि जत्थ ण छिज्जति अप्पणो परस्स वा जर्हि वा चाहा ण भवति तत्थ ठाइतव्यं, सढं पुण एवं भवति पयला यति० ॥। १६४० ।। काउस्सग्गकरणवेलाए मायाए पयलायति, आलावमादि वा पृच्छति, कंटकमादि वा उद्धरति, उच्चारपासवण बोसिरओ वा गच्छति, धम्मक वा करेति मायाए मेलण्णं वा दरिसेति एवमादीहिं कूर्ड इवति एयंति । इदाणिं विहित्ति, काए विद्दीय काउस्सग्गे (273) कायोत्सर्गाः ॥२६७॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसू अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सुत्राक [सू.] ||गाथा|| कायोत्सगोठावितव्वं , तत्थ कायोत्सर्ग ध्ययन चउरंगुलमुह ॥ १६४२ ॥ चउरंगुलं पदांतरं कातन्वं, उज्जुगहत्थे मुहपोती रब्बए रजोहरणं, दोहिवि पासेहिं दोवि दोषाः ॥२६८॥ हत्था लंबिज्जंति, घणं चोलप अवलंबित्ता दिडी जुगतरे, अण्णे भणति जथा पदे पेच्छति, सञ्चगतेहि मुफेहि जहा काउस्सग्गे 18 ठाति, वीसहूँ जं कंड्यणादिपडिकमणं ते ण करेति, वियत्तो सुढे वा दुहे वा सो चियत्तदेहो करेज्जा। दोसत्ति काउस्सग्गं च है करेंतो इमे दोसे परिहरेज्जा घोडग लता य०॥ १६४३ ।। सीसोकंपिय० ॥ १६४४ ॥ घोडओ जहा विसमेण पादेण ठाति आउंटावेत्ता १ लता जहा कंपति २ खंभे वा कुडे वा अवत्थंभेचा माले वा सीस अवत्थंभेता ठाति ३ र.वरी जहा सागारीयमग्गं अच्छाएति ४ । बहू जहा ओमत्था ठाति, हेटाहुतं मुहं करोतीत्यर्थ: ५ णियलियओ जथा पादे मेलेता ठाति, अतिविसाले वा करेति ६ लात्तरं से जण्णुगाणि पावेति चोलपहगं, उवरि वा णामि चोलं दिति ७५णत्ति थणए अच्छाएति चोलपट्टेणं जहा इत्थी सीतादीहिं2 अच्छति ८ असंतुत इति वा उड्डिाच बाहिरओद्धी पण्हिताओ मेलेचा अम्गपादे चाहिराहुत्ते करेति अम्भितरउड्डी अग्गपादे मेलेसाहू पण्हिताओ वित्थारेति ९ संजती पाउएर्ण ठाति १० रयहरणं जथा खलितं तधा धरेति १० वायसो जथा दिदि भमाडेति ११ छप्पतियाहिं खज्जामित्ति चौलपत्यं जहा कविट्ठ तहा सागारियठाणे करेउं ठाति, अण्णे भणंति-कविद्वं जथा गेण्हित्ता ठाति १२ ॥२६८॥ सास ओकपेति १३ मूओ जहा हुएति अच्चतं एसो एवं गुणुगुणेतो अणुप्पेहिति १४ छिज्जते अंगुलि चालेइ १५ आलावए वा गणेइ संठावेद वा १५ ममुहा बा चालेइ काउस्सम्गे ठिो छिज्जते वा भमुहाओ चालेइ १७ वाणरो जहा ओढे लंबापेइ एवं Aॐॐ दीप अनुक्रम [३७-६२] ... अत्र कायोत्सर्गस्य दोषा: वर्णयते (274) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ध्ययन सत्राक [स.] ||गाथा|| कायोत्सगो। | उडे लंबावेह काउस्सग्गे ठिओ, वारणी हत्थी, अण्णे भणंति-वाणरो मक्कडो, सो तहा उढे चालेत्ता अणुप्पेहेति १८ अहवा वारुणी | Sो . सुरा जहा बुडबुडेति अणुप्पेहितो १९ एवमादी दोसे परिहोजा। णाभी करतल कोप्पर उस्मगे पारियमि धुती॥णाभित्ति ॥२६९ प्रणामीओ इट्ठा चोलपट्टो कातनो, करतलत्ति हेढा बंतकरतलहिं ठतितव्यो कोप्परेहिं धारेतब्बो, उस्सग्गे पारिते णमोद्वादीन्यअरहताणन्ति धुती कातव्याच । दाहरणानि कीसत्ति कस्स पुण काउस्सग्गो विराधितो न भवति?, वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समदरसी । देहे अप्पडिबद्धो काउस्सग्गो हवति सुद्धो ।।। तत्थ पुण इमाओ आलंबणगाथाओ-स्थि भयं मरणसमं जम्मेण समं न विज्जती दुक्खं । जमणमरणायाहं छिंद ममति सरीरंमि ॥ १॥ अण्णं इमं सरीरं अण्णो जीवोत्ति एवकतबुद्धी। दुक्खपरिकेसरि छिंद ममत्तिं सरीरातो ॥ १६४९ ॥ जावइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूता । एत्तो दुविसहतरा णरएम अणोवमा दुस्वा ॥ १६५० ।। तम्हा तु णिम्ममेण मुणिणा उवलद्धदेहसारेणं। काउस्सग्गो कम्मक्खयहाए उ कातव्यो ।।१६५१।। इदाणिं फलं, एवंगुणसंपणं काउस्सग्गं करेमाणस्स एहियं फलं पारत्तियं च, एहिते उदाहरणं सुभद्दा, कह?, चपाए जिणदत्तस्स धूता, सा सुभद्दा रूविणी तच्चनियगसड्डेण दिट्ठा, अझोवषण्णो मग्गति, अभिग्गहित| मिच्छादिवित्ति ण लभति, सासमा गतो, धम्म पुच्छति, कहिते कवडसावगधर्म पगहितो, उवगता से सम्भावो, आलोएति- ॥२६९॥ मए दारियानिमित्तं कवडं आरद्धं, अण्णाणि अणुब्धताणि देह, दिण्णाणि, लोगप्पगासो सावगो जातो, कालंतरणं परगा पट्ठविता, सम्मदिवित्ति दिण्णा, कतविवाहा विसज्जिता, जुतकं से घर कतं, तच्चणिएसु भनी ण करतित्ति सासुणणंदाओ पदुहाओ, भत्ता-18 दीप अनुक्रम [३७-६२] (275) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सत्राक [स] ||गाथा|| कायोत्सगो रस्स से कहेंति-एसा खमणेहि समं, सो न सरहति, खमगस्स मिवखट्ठामतिगतस्स कणुयं लग्ग सुभदाए जीहाए फेडितं, तिलगो से कात्सिग ध्ययनं खमगनिलार्ड पासिण संकतो. उवासियाहिं साबगो सित्ति भनारस्त से सासूर्य दरिसियं, पत्तियं ण, तहावि मन्दमणुयत्तति, सुभदा ट्रा है फलं सुभ मद्रादीन्यू ॥२७ ॥ चितेति-फि चि जदि अई गिहत्था छोमग लहामि', जे सासणउडाहो एतं कहूँ, काउस्सगं ठिता, देवो आगतो, संदिसाहि दाहरणानि अयस संपमज्जाहित्ति, देवो भणति एवं, अहं चत्तारिवि णगरदाराणि ठपहामि, भणीहामि य-जा पतिवता सा उग्पाडेहित्ति, तुम चेव उग्घाहिसि, सयणपचयनिमित्तं चालणिगतमदगं दरिसेज्जाहि अणिग्गलंत, आसासेऊण गओ, ठतियाणि, अण्णो। जणो, आगासे पाया- मा किलिस्सह, जा सती सयणेण चालणीगतमुदगमगलंतं चत्तूणऽन्छोडेति (सा उग्घाडात) कुलबाहुबग्गा किलिस्संतो ण सकेति, सुभदा सयणमापुच्छति, अविसज्जताण चालणीगतेण उदगेण पाडिहरे दरिसिते विसज्जिता, ओवासि-1 ताओ पर्वधिति-एसा किल उग्घाडेहिति, चालणिगतं से उदगं ण गलतित्ति विसण्णाओ, ततो महाजणेण समुस्मुतेण दीसती ट। |गता, अरहंताणं णमोक्कार काऊणं चालणीओ उदगेण अच्छोडिता दारा, महता कोंचारवं करेमाणा तिमि दारा उग्धारिता, | उत्तरं न उग्घाडित, भणितं-जा मए सरिसा सा एतं उग्घाडेज्जा, तं अज्जवि अच्छति, णगरे जण साधुक्कारो कतो, सक्कारिता है य । एवं इहलोइयं काउस्सग्गफलं, अण्णे भणति-वाणारसीए सुभदाए काउस्सग्गो कओ। एलकच्छुप्पत्ती माणितव्वा । राया दिओदएत्ति, उदितोदयस्स रणो भज्जालोमा पज्जोयणिवरोहितस्स उवस्सग्गुक्समणं जातं, कहाणगं जथा णमोकारे । ॥२७॥ सहिमजा यात चपाए सुदंसणो सेट्टिपुत्तो, सो सावमो अडमिचाउद्दसीसु चच्चरेमु उवासगपटिम पडिवज्जति, सो महा-15 देवीए पत्थिज्जमाणो णेच्छति, अण्णदा बोसढकायो देवपडिमात्ति तत्थ वेडिओ, चडीहिं अंतउरं नीओ, देवीए णिबंधे कसे णेच्छति, testSA% दीप अनुक्रम [३७-६२] S (276) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत सुत्राक [सू.] ||गाथा|| प्रत्या- पवाए कोलाहलो कतो, रण्या वज्झो आणतो, णिज्जमाणो भज्जाए से मित्तवतीए सावियाए सुतं, सुन्वाणजक्खस्साराहणाकाउ-1 प्रत्याख्या सम्गं ठिता, सुवंसगास्सवि अट्ठ खंडाणि कीरतुति संधे असी वाहिओ, सव्वाणजक्खेण तुफदामं कतो, मुको रण्णा पूजितो, ताहेनस्य भेदाः चूर्णि ४ मिचवतीए पारिता तथा सोदासत्ति सोदासो राया जथा णमोक्कारे खग्गत्थं, भण्णति-कोइ विराधितसामण्णो खग्यो समुप्पण्णो ॥२७॥ है वट्टाए मारेति, साधू पधाविता, तेण दिहा, आगतो, इतरेबि काउस्सग्गेण ठिता, ण पहवति, पच्छा दट्टण उपसंतो । एतदैहिक फलं, णिज्जरा देवलोगो माणुसतं गेब्बाणगमणं, कहं १, तत्थ गाथाओ-जह करकयो णिकिंतति दाऊं पत्तो पुणोवि| बच्चतो० ॥ २७ ॥ भा०॥ काउस्सग्गे जह सुट्टितस्स० ॥ १६४ ।। इमा काउस्सग्गे परंपरसुहवेल्ली जथा संवरेण भषे गुत्तो, गुत्तीए संजमुत्तरो । संजमेण तवो होति, तवातो होति णिज्जरा ॥१॥ णिज्जराएऽसुहं कंम, स्वीयते कमसो सदा । आवासगेसु जुत्तम्स, काउस्सग्गे बिसेसओ ॥२॥ णया इच्छितष्वा, तत्थ गाथाओ २ पूर्ववत् ।। काउस्सग्गणिज्जुत्तीचुण्णी सम्मत्ता ।। अथ प्रस्याख्यानाध्ययनं-मणितं पंचमझयणं, इदाणि छटुं पच्चक्खाणायणं मण्णति, अस्य चायममिसंबंधा-आक- २०१॥ कस्सगं पत्थुतं, तत्थ य जथा सावज्जजोगा विरतिमादीणि पत्तकालमवस्सं काय वाणि, एवं पच्चक्खाणमात्र पत्तकालमवस | है कासच्यामिति एवं वमिज्जति । पामातियआवस्सये य अंतिम काउन्समग कातुं पच्चक्खातन्वं हिदए ठवेत्ता उस्सारतुं चउवीतत्वय %25ARIOR दीप अनुक्रम [३७-६२] RECSI.C- *. अत्र अध्ययनं -५- 'कायोत्सर्ग' परिसमाप्तं * अत्र अध्ययनं -६- 'प्रत्याख्यानं' आरभ्यते (277) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत चाणः HEIG 6 दीप अनुक्रम [६३-९२] प्रत्या- बंदणगाणि विधीए कातुं पच्चखाणस्स उवट्ठाइज्जति, नं कतिविहं करिस वा पच्चक्खाणंति, भण्णति, अण्णे भणति--जो पुवि/पत्याख्याख्यान ४वणदिटुंतो कतो सो इहपि कातव्यो, जो परिमद्दणादाहिं ण मुज्झति सो उववासादीहिं अपत्थपरिवज्जणादीहिं सोधिज्जति, एवं ट्रानस्य भदाः | इहपि जो अतियारो आलोयणपडिकमणकाउस्सग्गेहिं ण सुज्झति सो तवेण पच्चक्खाणण य विसोधिज्जति, एतेणामिसंबंधेणाग॥२७२॥ मानस्स चत्तारि उ णियोगद्दाराणि उवकमादी जहा हेवा वण्णतब्वाणि, तस्थाधिगारो गुणधारणाए, गुणा णाम मूलगुणे, उचरगुणा ला उवरि भपिणहितित्ति । णामणिप्फणे पच्चक्खाणंति, तत्थ इमाणि दाराणि पच्चक्खाणं पच्चक्रवाओ०॥ १६५२ ।। पच्चक्खाणं पच्चक्खाओ पचखेयं परिसा कहणविधी फलंति एते छब्भेदा, 12 अहवा पच्चक्खाणंति आदिपदस्स इमे छम्भेदा-णामपञ्चक्खाणं ठवणापच्च० दलप०अदिच्छप०पडिसेहप०भावपच्चक्खाणन्ति, राणामठवणाओ गताओ, दब्बपच्चक्खाणं दव्वणिमित्तं दब्बे वा, दव्येण वा जथा रयहरणेणं, दब्बेहि वा दबस्स वा दब्वाण वा दव्वरूपो वा जं पच्चक्खाति एवमादि दवपच्चक्खाणं । तत्थ रायसुता उदाहरणं एनस्स रण्णो धूता अण्णस्स रण्णो दिण्णा, सो य मतो, ताहे पितुणा आणीता, धम्मं करहित्ति भणिता पासंडीणं दाणं देति, | अण्णदा कत्तिको धम्ममासोत्ति मंसें ण खामित्ति पच्चक्खातं, पारणए दंडिएहिं अणेगाणि सत्तसहस्साणि मंसत्थाए उवणीताणि, ताहे भत्तं दिज्जति, सा मुंजति, णाणाविहाणि मंसाणि दिज्जति, तत्थ साधू अरेण वोलेन्ता णिमंतिता, भत्तं गहितं, मंस ण इच्छंति, सा भणति--कि तुम कत्तिओ ण पूरितो?, तेण भण्णंति जावज्जीवं अम्हं कत्तिओ, किंवा कई बा, ताहे वेहि धम्मोला | कहिओ मंसदोसा य, पच्छा संयुद्धा पम्वइया । एवं तए पुव्वं दन्यपच्चक्खाणं, पच्छा भावपच्चक्खाणं जातंति । (278) Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्या प्रत प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥२७३॥ मेदार सत्राका k &ा अतिस्थापचक्खाणं जहा अतित्थ बंभणाण एवमादि । पडिसेहपचक्खाणं णत्थि मे जे तुम मन्गसि । भावपच्चक्खाणा दुबिह-सुतपच्चक्खाणं णोमुतपच्चक्खाणं च, ज त सुतपच्चक्खाणं तं दुबिह-पुन्यसुतः णोपुन्बसुतपच्चक्खाणं, पुथ्वसुतपणाम 21 'नस्य पुच्वं णवमं जे तं, णोपुव्वसुतपच्चक्खाणं तं अणेगविहं, तं० आतुरपञ्चक्खाणं महापच्चक्खाणं, इमं पच्चक्खाणज्झयणं तं मोसुतपच्चक्खाणं,तं दुविह-मूलगुणपच्चक्खाणं उत्तरगुणपच्चक्खाणं च, जे तं मूलगुणपच्चक्खाणं तं दुविहं-सध्वमूलगुणपच्चक्खाणं का देसमूलगुणपच्चक्खाणं च,सब्वमूल०पंच महव्यता देसगुणमूलपच्चक्खाणं च पंचं अणुब्बता,उत्तरगुणपच्चक्खाणं दुविह सब्बुत्तरगुण पच्चक्खाणं देसुत्तरगुणपच्चक्खाणं च, सव्वुत्तरगुणपन्दसावह अणागतमतिक्कतं०॥१६६शाएतं दसविह,देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणं सत्तविहं तिनि गुणब्बताणि चत्तारि सिक्खावताणि, एवं सत्तविहं, अहवा उत्तरगुणपच्चक्खाणं दुविहं- इत्तिरिय आवकाहियं, जथा णियंटितं, तं दुक्खिमादिसुवि जं पडिसेवति, सावगाणं च तिमि गुणवतानि आवकहिताणि, साधूणं केति अभिग्गहविसेसा साव गाणं च तिनि गुणब्बतानि आवकहिताणि,साधुणं केति अभिग्गहबिसेसा सावगाणं चत्तारि सिक्खापताणि इत्तिरियाणित्ति,तत्थ Pा तं सम्बमूलगुणपच्चक्खाणं तथिमा माथा पाणवह मुसावाए०॥२४३||भागासमणाणं जे मूलगुणा ते सव्वमूलगुणपच्चक्खा ति भण्णति, तंजथा सथ्याओ पाणातिवाताओ वेरमणं, तिविहं तिविहेणंति जोगत्तियं करणत्तियं च गहितं, रथ तिविति न करेमि न कारवमि करतंपि अण्ण ण समणुजाणामि, तिविहंति मणसा वयसा कायसा । एवं पंचसु महन्वतेसु भणितन्वं। २७३॥ जा इदाणिं देसमूलगुणा एते चव देसओ पच्चक्खाति, तं सावयाणं पंचविहं इम-थूलाओ पाणातिवायाओ वेरमणं जाव इच्छा परिमाणं । तत्थ ताव सावगधम्मस्स विधि वोच्छामि ते पुण सावगा दुविहा-साभिग्गहा य णिरभिग्गहा प०॥ १६५४ ॥ दीप अनुक्रम [६३-९२] RSHRESTHA ... अत्र श्रावक-व्रतस्य भेदा: वर्णयते (279) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत HEIG अत्या ओहेणंति समासतो । तत्थ साभिग्गहा मूलगुणेसु वा उत्तरगुणेसु वा एगम्मि वा अणेगसु वा उभयाभिग्गहा था मवंति, णिरकि- आवकख्यान भेदाः यूर्णिः हा ग्गहा णाम केवलदसणमेतेण सावगा जया कण्हसच्चतिसेणियादी । एते चेव दोषि विभज्जमाणा अदुविधा भवंति। कई दुविहं तत्थ जे ते एग या अणेगा या अभिग्गहे अभिगेण्हंति ते दुविहं तिविहेणं दुविहं वा एक्कविहेणं एक्कविहं का १२७४ातिविदेणं एकविह दुविहेण एकविहं वा एक्कविहेण, एते छप्पगारा, उत्तरगुणसायगो सत्तमो, अविरयसम्मदिही अट्ठमो । एते हाव अकृविहा विभज्जमाणा बत्तीसतिविहा भवंति, कह?-जे ते आदिल्ला छप्पगारा ते ताव तीसविहा, कह', पणगचतुक्क. 2॥१६५०॥ पंचाणुवतिए अभिग्गहे ६ भेदा चतुअणुव्यतिए अभिग्गहि ६ जाव एगीम६ फ, एते तीस मूलगुणेसु, खिप्पण्ये द एक्कतीसमो उत्तरगुणसावओ अविरतसम्मदिही बत्तीसतिमो । भणिता बनीसतिविधा। * णिस्संकित॥१६५८ ॥ जे ते साभिग्गहा य मिरभिग्गहा य ओहेण विभागेण भणिता, एतेर्सि णिस्संकितणिक्कंखितअणिबितिगिच्छताअमृढदिहीहि होतब्ब, एतेसिं तिणि आदिल्ला सम्मत्तइयारसु वधिज्जिहिति, अमूढदिही सामाइए सुलसा पुग्ववनितमदाहरणं एतेत्ति जे मणिता एवे चेच पत्नीसतिविहा विगप्पिज्जमाणा करणतिगजोगतिगकालतिएण विसासज्जमाणा अणेगविगप्पसहा भवंतीति वण्योंति । एतेसिं पुण मूलगुणाणं उत्तरगुणाण य आधारपरधु सम्मत्तं, जथा चित्रस्य मूलाधारा कुख्यादिः, कुख्यायभावे चित्रकर्माभायः, एवं सम्यवाभावे मूलगुणउत्तरगुणानामभाव इतिकत्वेदमुच्यते-समणोवासओMITR७॥ पुब्बामेव मिच्छत्तातो पडिक्कमति, संमत्तं उपसंपज्जति ।। सूत्र इत्यादि। । तत्थ पाहुडिया-जारिसओ जतिभेदोजह जायति सह व एत्य दोसगुणा । जयणा जह अतियारा मंगो। दीप अनुक्रम [६३-९२] (280) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत HEIG सि . तह भाषणा गेयाशा भयो वा अतियारोवा एतेसु भवति । रागहोसकसाया परीसहा वयणा पमाया या एत अवराहपदा यारशाचासूत्र जत्थ विसीदति दुम्मेहे॥१॥तत्थ समणोवासओ पुष्यामेष मिच्छतातो पडिक्कमतीति,से य मिच्छत्तं दव्यओ भावओ,तत्थ दब्बओमेदाः आगमणोआगमादी व अणेगयिह,भावतो पुण मिच्छत्तमोहणीयकम्मोदयसमुत्थे तच्चभावासदहणासग्गहादिलिंगे असुभे आयपरिणामेट्र ॥२७५॥ पिण्णत्ते, तं तिविह-संसइयं अभिग्गहितं अर्णाभग्गहितं च,णिमित्तं पुण एतस्स अधोधो असदभिनिवेसो संसओ वा, पडिक्कमणं पुण मिच्छत्तातो संमत्तगमणं, अत एवाह-संभत्तं उपसंपज्जतिति,से य सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणीयकम्माणुवेयणोवसमख-17 | यसमुत्थे पसमसंवेगादिलिंगे सुभे आयपरिणामे पण्णते,तस्सोवसंपत्ती सहसंमुहयाए परवागरणणं अण्णसि वा सोच्चा, |तस्थ सहसंमुतियाए जातीसरणादिणा, तत्थापरो तित्थगरो तस्स वागरणणं, अण्ोणं अण्णे तित्थगरवतिरिना साधुमादी | तेसिं भत्तियारमाणविणयपज्जुवासणा, सुस्सूसधम्मरागादिणा सोऊण सबुद्धीए सत्थवेयणेण, परस्स देसणमोहविसुद्धीए एवं भवति । मिच्छत्तातो अपडिक्कतस्स दोसा-मिच्छत्तपरिणतो जीवो कम्मघणमहाजालं अणुसमयं बंधति, तच्चिवागेण जातिजरामरणादिवसणसतसंसारं परियट्टइ, पडिकंतस्स पुण गुणा सुदेवत्तसुमाणुसत्तादि मोक्खपज्जवसाणत्ति । तत्पुनः सम्पत्वं यथा कुब्यादिभूमौ मुष्टु परिकर्मितायां यदि चित्रं क्रियते तदा शोभनं राजते, एवं यदि सम्यक्त्वं सुष्टु मिथ्यात्वा सुपरिसुदं कृत्वाबतान्यारोप्यन्ते ततस्तानि व्रतानि विशुद्धिफलानि भवंति अतः सम्यक्त्वं सुपरिसुद्धं कर्तव्यं इत्युपदेशः। IR२७५॥ तस्स मिच्छत्तातो पटिकतस्स सम्मत्तरसायणं ओगाढस्स इमा जतणा, जपणा नाम ससत्तीए अगप्पपरिहारी, णा से कप्पति-12 अज्जप्पमिति अण्णओस्थिए या अण्णओस्थितदेवताणि वा अण्णोत्थितपरिग्गहिताणि वा बेहयाणि बंदित्तए पा णमंसिचए XX दीप अनुक्रम [६३-१२] BCCIENCE (281) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र / ६३-९२ ] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ १६५२ - १७१९ / १५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥२७६॥ गाद्याः वा पुचि अणालित्तणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियन्ति पज्जुवासितए वा तेसिं असणं वा पाणं वा४ राजामियोदातुं वा अणुप्पदातुं वा णष्णत्थ रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं बलाभियोगेणं देवयाभियोगेणं गुरुणिग्गणं वित्तीकंतारेणं वा इति । आह-रागद्वेषभावं?, उच्यते, सद्भूतार्थतया यो नैव ब्रह्मचारी नाप्यहिंसकः लुब्धः मिध्यादृष्टिः अणार्जवः तस्य प्रणामः कृतोऽफलःकम्मबंधो य, असम्भावुब्भावणाए अध्यपरणासणं चतं दठ्ठे अण्णतित्थियाणं इमं सोहणंति मती भवति बला बंभलत गमणं, अहूणोगाढाणं च बला मलतं भवति, अण्णउत्थिते य वंदमाणस्स बहू दोसा भवति, संदसणाओ पेम्मं वहति, पच्छा अभियोगादीहिं मिच्छतं णेज्जा, मिच्छद्दिङ्कीर्ण सिद्धत्तं सावगोवि अम्हचए वंदति, पुव्वावलणेपि एते दोसा, तेसिं च जदि असगादि देति तो लोग बुग्गाहेति- अम्हं दायच्यं चैव, जेण सावगावि देति, एवमादी बहु दोसा अयगोलसमति य कातूण तेण वायणएण सावगस्स सयणपरियणो संबंधं गच्छेज्जा, ततो तेसिं विणासो होजा, तं वा दद्द्द्वणं अण्णे तंमि अण्णउट्टिए बहुमाणं करेज्जा, सो वा तं जणं बुग्गाहेज्जा, आलायो एक्कसिं, बहुसो संलावो, असणादीणि पसिद्धाणि, दाणेवि पक्कअंतसो से पार्व कम्मं बज्झति तेण न देति, कोलुणियाए पुण देतिवि, जतणाए, ण वा धम्मोति, अण्णत्थ रायाभिओगणत्ति रायाभियोगे मोसूण णो कप्पति, रायाभिओगेण पुण दवाविज्जतिवि, जथा सो कत्तियसेट्ठी तत्थ हरिथणापुरं यरं जियसन्तू राया कतिओ नगरसेट्ठी बेगम सहस्सपढमासणिओ, एवं बच्चति कालो, तत्थ परिब्बाओ मासमासेण खमति, सो सब्बो आढाति, सो से पदोस भावण्णो, छिद्दाणि मग्गति, अण्णदा णिमंतेति राया पारणए, सो बेच्छति, राया आउट्टो भणति, जति णवरि कत्तिओ परिवेसेति तो जिमेमि, राया भणति एवं करेमि, समणूसो राया कलियघरं गतो, (282) ॥२७६॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत HEIG दीप अनुक्रम [६३-९२] प्रत्या- मणति कत्तिओ-संदिसह, राया भणति-परिवेसेहि, कत्तिओ भणति-ग ववति अम्हं, तुज्झविसयवासी कि काहामि , जदि पव-राजार गाचा ख्यान इओऽहं हॉतो तो ण एवं होतं, पच्छा परिएसिओ, सो परिवाओ अंगुलिं चालेति-किह ते, पच्छा सो तेण णिवेगेण पन्च-18 चूर्णिः तिओ णेगमहऽहसहस्सपरिवारो मुणिमुथ्वयसामिसगासे, वारस अंगाणि अधीतो वारस वासाणि परियाओ, मासिएर्ण मत्तणं सो सोधम्मकप्पे सक्को जातो। सो परिवायतो तेणाभियोगेण आभिउग्गो एरावणो जातो,पासति सक्कं, पलायितो, गहितो, सक्को ॥२७७॥ विलग्गो, दो सीसाणि कताणि, सक्कोवि दो जातो, एवं जावतियाणि विउव्वति तावतियाणि सक्को विउन्यति,ताहे णासितुमारो, सक्केणाहतो पच्छा ठिओ, एवं रायाभियोगेणं देंतोवि णातिक्कमति, केत्तिया एरिसया होहिं तित्ति जे उ पब्बइस्संति वा, तम्हा ॥ण दातव्यं । गणाभियोगणं जथा वरुणसारथी, गणथेरातीहिं अम्भत्थेऊण मुसले संगामे णिउत्तो, एवं कोवि सावओ गणाभिॐ योगेणं भत्तं दवावेज्जति,गणो णाम समुदयो । एवं बलाभियोगेण विवसीयंतओ दवाविज्जते भत्तादि । देवताभियोगेणं जथा| &ाएगो गिहत्थो सावओ जातो, तेण वाणमंतराणि उज्झिताणि, एगा वाणर्मतरी पदोसमावण्णा, तीए तस्स गाविरक्खओ जुचो || गावीहिं अवहितो, जाहे विउलाणि जाताणि ताहे आधिवा महिला, साहति, तज्जेति-किह ममं उज्झति पावेत्ति, सो सावओ चिंतेति-णवरं ममं धम्मातो विराधणा मा भवतु, ताहे सा भणति-ममं अच्चधि,सो भणति-पडिमाणं अवसाणे ठाहि, आम, ठविता, ताहे गावीओ दारो य आणीतो, एरिसा केत्तिया होहिति' तम्हा ण देजा । एवं दयाविनंतोऽवि णातिचरति । गुरुनिग्गहेणं ॥२७॥ गुरुणिग्गहो अरहंतचेतियपवयणसरीरमादणि तेण, तत्थ उदाहरणं उवासगपुत्तो सावगाधूतं मग्गति, सावओण देति, सो सङ्कत्तणेणं साधु सेवेति, तस्स भावतो उवगतं, पच्छा साधति, एतेण कारणणं पुब्वं दुको मि इदाणि सम्भावतो, सावओ पुच्छति, %A5 4 % 5- (283) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक म. दीप अनुक्रम [६३-९२] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र / ६३-९२ ] / [ गाथा - ], निर्युक्ति: [ १६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [ २३८-२५३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रस्थाख्यान चूर्णिः ॥२७८॥ - साधुतेहिं भणितं पच्छा तेण दिण्णा धूदा, सो सावओ जुतयं घरं करेति, अण्णदा तस्स अम्मापितरो भवं करेंति भिच्छुगाणं, ताई भांति अज्ज एकस्सि वच्चाहित्ति, सो गओ, भिच्छुएहिं विज्जाए अभिमंत्रण फलं दिष्णं, तेण वाणमंतरीए अविडिओ हिं गतो, तो सावगीतं भणति भिच्छुगाणं भत्तं देमित्ति, सा च्छति दासरूवाणि सयणा य आढत्ता सज्जेतुं, साविया आयरियाणं गंतु कहेति, तेहिं जोगो पडिदिष्णो, सा वाणमंतरी णट्टा, सो सावओ जाओ, पुच्छति किड व किं वति १, कहिते पडिसेहेति । अण्णे भणंति- तीए वलम्मि जेमावितो, पच्छा सुत्यो साभाविओ जाओ भणति अम्मा पिउच्छलेन हूं मणा वंचितोति तं किर फासुगं साधूणं दिण्णं, एरिसिया आयरिया कहिं मग्गितच्या १, तम्हा परिहरेज्जा । वित्तीकतारेणं देज्जा जथा- सोरट्ठओ सड्डो उज्जेणिं वच्चति, दुक्कालो, रत्तपडेहिं समं वच्चंतस्स पत्थयणं खीणं, तच्चष्णिएहिं भण्णति अम्ह एवं बहाहि तो तुज्झवि दिज्जिहिति, तस्स पोट्टसरणिया जाता, सो तेहिं अणुकंपाए चीवरेहिं वेडिओ, सो णमोक्कारं करतो कालगतो, देवो वेमाणिओ जाओ, जा ओहिणा तुच्चणियरूयं पेच्छति, ताहे सभूसणेणं हत्थेणं परिवेसेति, सङ्काणं ओभावणा, आयरियाणं कहणं च, तेहिं भणितं जाह अग्गइत्थं चेत्तूण मणह- बुज्झ गुज्झगति, तहिं जाइतु अग्गइत्थं घेत्तृण भणियं णमोअ रिहंताणं तु बुज्झ गुज्झया, सबुद्धो, वंदिता लोगस्स य कहेति जथा ण एत्थ धम्मो, तम्दा परिहरेज्जा | पुण संमतं मूलं गुणसवाणं तं पंचअइयारविसुद्धं अणुपालेतन्त्रं, जथा संका० ५, तत्थ संका ण कातव्या किं एतं एवं विति, गुरुसगासे पुच्छितच्वं सा संका दुविहा-देसे सच्चे म, देसे कि जीवो अस्थि णत्थि एवमादि, अण्णतरे देसे, सब्बे किं. जिणसासणं अस्थि परिथचि?, एवं तित्थगरा, देसे सब्वे वा संका ण कायच्या, किं कारणं १, वीतरागा हि सर्वज्ञातमेव सच्च (284) राजाभियोगायाः ॥२७८॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रत्याख्यान चूर्णिः HEIG [सु.] ॥२७९॥ हैणीसंक०, ५ देसे जथा थोवेर्ण पाणियमग्गेण तलायं भिज्जति एवं जो संकं करेति सो विणस्सति, जथा वा सो वेज्जापायो, | वेज्जाए मासा, तेहिं परिभज्जिता, अंधकारे लेहसालीगता दो पुत्ता पियन्ति, एगो चिंतेति-एताओ मच्छिगाओ, तस्स संकाए अतिचाराः | वग्गुली वाधी जातो, मतो य, वितीओ चिंतेति-ण मे माया मच्छिया देइत्ति, सो जीवितो, एते दोसा, अहवा अंडगणातं तदाहरणं माणितव्वं । कंवा ण कातण्या, जथा इमोवि सरक्खधम्मो तच्चन्नियधम्मो अस्थि एवं साधुधम्मो, तोवि सो चुकति, जथा सो मंडि-181 सुणओ । अहवा राजा आसेणं कुमारामच्चो य अवहितो, अडविं पविट्ठो छुहापविद्धा वणफलाणि खायंति, पडिणियत्ताणं राया चिंतेति-कोंडगपूर्वगमादीणि सवाणिवि खामि, आगता दोषि जणा, रायाए सूता भणिता-जं लोके पसरति तं रंधेहत्ति, तेहिं रखें, | उवट्ठविर्य च रनो, सो राया पेच्छणायदिट्ठतं करेति, कप्पडिया बलिएहिं धाडिअंति, एवं मिट्ठस्समागासो होहितित्ति कणकुंडमंडगादीणि खइताणि, तेहिं सूलेण मतो । अमच्चेण चमणविरेयणाणि कताणि, सो आभागी भोगाणं जातो, इतरो विणडो ॥ वितिगिच्छाए सावओ गंदीसरदीवगमणं मित्तआपुच्छण, विज्जाए दाणं, साहणं, मसाणे तिपायसि कयंसि कजं, हेट्ठा इंगाला, खाइरो य मूलो, असतं वारे परिजवेत्ता पादो छिज्जति, एवं बितिओ, वतिये पच्छिण्णे आगासे बच्चति । केहि भणंति-कट्ठसतं सिककपादाण कातूणं एकेक पादं एकस्मि वारा परिजवेउं छिज्जति, एवं अट्ठसतेणं वाराहि अट्ठसत पादाणं छिदितवं, तेण साला | विज्जा गहिता, कालचाउद्दसि रति मसाणे साथेति, चोरो य णगरारक्खिएहि परमंतो मसाणमतिगओ, वेढेतूण ठिता पभाते | प्पिहितित्ति, सो य भमंतो तं विज्जासाधगं पेच्छति, तं पुच्छति सो चोरो, सो भणति-विज्ज साहेमि, केण ते दिण्णा, सा दीप अनुक्रम [६३-९२] BRECIPROPERA ॥२७९ (285) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः प्रत HEIG ॥२८॥ सू.) BI वएण, चोरेण मण्णति---एतं दब गेण्हाहि, एतं विज देहि, सो सडो वितिगिच्छिति सिज्झज्जा णवात्ति तेण दिण्णा, सो चोरो सम्पच्याचिन्तेति- समणोबासओ कीडियाएवि पावं णेच्छति, सच्चमेतति, सो साहेतुमारो, सिद्धा, इतरो सगेवेज्जो गहिओ, तेणं लोगो तिचाराः | मेसितो, ताहे मुको, सावओ जातो, एवं णिन्वितिकिच्छेग होतव्वं । विदुगुच्छचिवि भण्णति, ण किर पवयणे दुगुंछा कातब्वा, तत्थ उदाहरणं सड्डो पंथे पच्चंते वसति, तस्स धूताविवाहे किहवि साधुणो आगता, सा पितुणा भणिता-तुमं पुत्ता ! पडिलामे-2 हिति, सा मंडिया पसाधिता पडिलाभेति, साहूर्ण जल्लगंधो तीए अग्घातो, सा हिदए चिन्तेति-अहो अणवज्जो भट्टारएहिं धम्मो | मणितो, जदि पुण फासुएणं ण्हाएज्जा तो को दोसो होतो, सा तस्स ठाणस्स अणालोतियपडिकता कालं किच्चा मगधाए |PI राहगिहे गणियाए पोट्टे आयाता, अण्णे भणंति-वाणिगिणीए गभगता, तेणं चेत्र अरति जणेति, गम्भपाडणहिं पाडेतुं मग्गति, जाया समाणी उज्झिता, सा गंधण तं देसं वासेति, सेणिते य तेणतेण गच्छति भट्टारगं बंदतो, सो खंधावारो तं गंधं ण सइति रना पुच्छित-किं एतं , तेहि कहित-दारियाए गंधो, तेण गंधण दिट्ठा. भणति-एसेव मम पुच्छत्ति, गतो, बंदित्ता पुग्छति, भट्टा रतो पुथ्वभवं कहेति, भणेति-कहिं एसा पच्चणुभविहिति सुहं वा दुक्खं चा?, भट्टारतो भणति-एतेणं कालेणं वेदितं, इदाणिं । तबच्चेव भज्जा भविस्सति, अग्गमहिसी य पारस संवच्छराणि, अणे भणंति-अट्ठमे, जा य तुझं रममाणस्स पट्ठी हिंसोलीणं . काहिति तं जाणेज्जासि, गतो वंदिता। सा य अवगतगंधा एगाए आहीरीए गहिया, जोवणत्था जाता, कोमदिवासरे माताए ॥२८॥ | समं आगता, अमओ सेणिओ य पच्छंण कोमुदिचार पेच्छंति, तीसे दारियाए गायसंफासो जातो, सेणिएणं अझोववण्णेणं | णाममुद्दा दसिताए तीसे बद्धा, अभयस्स कद्देति-णाममुद्दा गड्ढा, मग्गाहि, तेण मणूसा बारीए बद्धाए एकेक पीणिज्जति, सा दीप अनुक्रम [६३-१२] A (286) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्या ख्यान- चूर्णिा ॥२८शा +- % दारिया दिडा, चोरिति गहिता परिणीता य । अण्णदा वाहिंगइयाहिं रमति, रायणियाए पोत बाहेति, इतरी पोत्तं दिती य सम्यच्चाविलग्गा, रण्या सारियं, मुका पव्वतिया । एवंविहं दुगुंछाफलं ॥ तिचाराः परपासंडपससाए-पाटलिपुत्ते चाणको, चंदोत्तेण भिच्छुयाण वित्ती हरिता, ते तस्स धम्म कहेंति, राया तूसदि, | चाणकं पलोएति, ण पसंसतित्ति ण देति. तेहिं चाणकमज्जा ओलग्गति, तीए सो करण कारितो, तेहिं कहिते भणति-सुभासितंति, रण्णा तंच अण्णं च दिण्णं, वितियदिवस चाणको रायाणं भणति-कीस दिणं , भणति-तुम्भीहं पसंसित, सो भणति-मए पसंसितं अहो सब्यारंभपवना किह लोगवत्तियावणगाणि करतित्ति, पच्छा ठितो, कतो एरिसगा?, तम्हा ण कातव्वा।। संथवे सो चेव सोरटुओ सड्डो। एवं पंचातियारविसुद्धं संमतं मूलं गुणसताण, मज्जादातिकम पुण पकरेंतो अतिसंकिलिट्ठपरिणामेण सम्पत्थ परिचयति धम्ममिति । दारं मूलं परिहाणं, आहारो भायण णिही । तुछ यस्सस्स धम्मस्स, सम्मत्तं परिकत्तियं ॥१॥ एवमिदाणि सुद्ध संगने बतावि गेण्हेतव्या, तत्थ विसयसुहपिवासाए अहवा बंधचजणाणुराएण अचर्यतो चावीस परिसहे दुस्सहे सहिउँ जदिन करेति विसुद्धं सम्म अतिदुकरं तबच्चरण तो कुज्जा गिहिधम्म, ण य चंझो होति धम्मस्स ।। तस्थ पढमं धूलगपाणातिवातं समणोपासओ पच्चक्खाति (सू०) इत्यादि, धूलगपाणा-बेदियादी, तेसि मज्जा- २८॥ यातिक्कमेण पातो धूलगपाणातिवातो, से य पाणतिवाते दुबिहे-संकप्पओ य आरंभओ य, संकप्पओ पच्चक्खाति, णो आर-2 भतो , अभिसंचिन्त णिवराही ण मारेतीत्यर्थः, सबराहिपि जहसत्तिसारंमतात्तिकात, सारमे वावती णियमा तेण ण पच्चक्खा दीप अनुक्रम [६३-१२] सूत्र (287) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रत्याख्यान चूर्णि : ર૮રા पात HEIG सू. मित्ति, सुहुमा-एगिदिया तेसि बहो अह्राए य अणडाए य, अट्टाए नाम जेण विणा धम्मववहारं लोगववहार वा ण णित्थरति. स्थूलसेसगमणट्ठाए, एत्थवि सम्वत्थ जयति । बयपडिवत्तीए पुण वियप्पं एवमाइ-पुद्धि ताव अहं भंते । दंसणविसोहिं पति- प्राणावि बज्जामि, णो खलु मे कप्पति अज्जप्पभिति जावज्जीवाए अण्णउत्थितं वा सेसं जथा पुचि जाब विचीकतारणं लाविरमर्ण | वा इति, तदणंतरं च णं थूलगं पाणातिवातं संकप्पओ पच्चक्खामि जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं मणेणं वापाए४ | कारणं ण करेमिण कारवमिः तस्स भते । पडिकमामि जिंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि । अत्यनि-14 | वरणा सामाइयाणुसारेण णेया, केई पति- थूलगप्पाणातिवायं पच्चक्खामि जावजीचाए दुविहं तिविहेणं ण करेमि ण कारवेमि मणसा वयसा कायसा, सेसं तह चेब, एवमादि विभासेज्जा, एवं धूलगमसावातादिसुवि सेसवतेसु भावेतवं , जे पुण तिविई तिविहेण भणितं एवं पडिमापडिवण्णस्सत्ति कम्मि विसंए। एत्थ पाणातिवाते के दोसा १ वेरमणे च के गुणा ?, दोसे णातुं णिवित्ती काहिति, गुणा गातुं वेरमणणिच्चलो भविस्सति, एतेषालवणेण तं पयं सुई घरेहित्ति । तत्थ दोसे उदाहरणं-एक्को कोंकणओ, तस्स भज्जा मता, पुत्तो से खुाओ, अण्णं दारिकं मग्गति, दारिक दायिकभएणं कओचि ण लमति, कोंकणमेणं गातं-दारका दायिकमएणं ण कोईवि देति, ताहे मारेतु २८२१ क्वसितो, अद्दलक्खेणं रमितुमारद्धो, कंडं बाहेतूणं पुत्र पेसेति-जाहि कंडं आणेहिचि, अणं कंडं वाहेतूणं बप्पो बप्पोति बाहरेतो मारितो ॥ वितियं उदाहरणं-कोंकणओ अवरण्हे छत्ताणं पच्चुवेक्खणडाए पहिओ, पुत्तो से खुलओ पिङ्को पधाषिो, भब्जा दीप अनुक्रम [६३-१२] (288) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक म. दीप अनुक्रम [६३-९२] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र / ६३-९२ ] / [ गाथा - ], निर्युक्ति: [ १६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [ २३८-२५३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णि ॥२८३॥ - 1 भणिया-णियचेहि दारकं, ताए पमादेणं ण नियतितो, कोंकणओ छेचादि गओ, पितरं अमण्णेमाणो बप्पो बच्योति बाहरति, कोंकणओ पिसाओत्तिकाउं कंडं वाहरति, तेण सो विद्धो मतो, सो सायगिहे आगतो, कहिं १, भगति णत्थि, सोगेण मतो, रगगमणं । एवमादि । इहलोए परलोए० एवमादि, जथा कालसोयरियादीणं, एवमादि पाणातिवाते अपञ्चकखाते दोसा । इदाणिं गुणे सत्तपदितो उदाहरणं पुब्वं वण्णितं । वितियं उज्जेणीदारआ मालवेहिं हरिता, सावगदारओ सूतेण कीतो, सो तेण मणिओ-लावए ऊसासेहिति, तेण मुका, पुणो भणिओ-मारेहित्ति, सो गच्छति, पच्छा पिट्टेतुमारद्धो, सो कुवति, रण्णा सुतं, तो सदावेऊण पुच्छिओ-किं एतन्ति?, सो साइति, रायायवि भणिओ बेच्छति, पच्छा हरिथणा भेसावितो, तहवि णेच्छति, पच्छा रना सीसारक्खो ठविओ, ते दारणा मोषिता, थेरा समोसढा, तेसिं अंतिकं पच्वतितो । ततियं पाडलिपुत्तं णगर, जितससू राया, खमो से अमच्चो, चडब्बिहाए बुद्धीए संपत्र सावगो वष्णओ, सो पुण रण्णो हितगोति अण्णसिं दंडभडभोइयाणं अप्पितो, ते तस्त संतिए पुरिसा दाणमाणसंगहिता कातुं रण्णो य अभिमरप्पयोगे णियुंजंति, महिता य भणति इम्ममाणा अम्हे खेमसंतगा तेण चैव णिउत्ता, खेमो गहिओ, भणति अहं सव्वसत्ताणं खमंकरो, किमंग पुण रम्रो सरीरगस्सत्ति, तहवि वो आणतो, रण्णो य असेोगवणियाए अगाधा पुक्खरिणी संछण्णपत्तमिसमुंणाला, साय मगरगाधेहिं दूरोगाहा, ण य ताणि उप्पलादीणि कोइ ओचिणिउं समत्थो, जो य बज्यो आदिस्सदि सो भण्णति- एतो पउमाणि आणेहित्ति, उत्तिष्णमत्तो य मगरादीहिं खज्जति, आदिट्ठो य खेमो तत्थ, वाहे उट्ठेतुं णमोत्थूण अरहंताणंति भणितुं जदिऽहं णिरवराधी तो मे देवता साण्णज्वं देज्जा, सागारं पच्चक्खाणं कातुं ओगाढो, देवतासाणिज्शेणं मगरपविडिओ बहूणि पडमार्ति गण्डं उत्तिष्णो, रण्णा हरिसितेण खामिओ (289) स्थूलप्राणाति• पात बिरमणं ॥२८३॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 स्वल ख्यान प्रत सत्राका प्रत्या- 18 उवगूढो य, पडिवक्खनिग्गहं कातुं भणिओ-कि ते बरं देमि, तेण णिरुज्झमाणेणापि पबज्जा चरिता, पव्वहतो, एवमादि । दिइहलोगे, परलोगे सुदैवत्तसुमाणुसत्तदीहाउयादिणो उदाहरणं उत्ररि भणिहिति । जयणाए य वट्टितब्ब-परिसुद्धजलग्गहणं प्राणातिचूर्णिः दास(गोम)गधण्णादियाण य तहेव । गहिताणवि परिभोगो विधीए तसरक्खणढाए॥शा एवं सो सावगो थूलगपाणा-1 विरमणं Re18| तिवातातो णियत्ति कातुं पंचतियारसुद्धमणुवालेति, गुणवेयालो नाम परिमाण, पच्छा ण समायरियया ॥ के अतियारा ?, पंच-बंधो बहो छविच्छेदो अतिभारो भतपाणवोच्छेदो | बंधो दुविहो-दुपदाण चतुष्पदाणं च, अडाए अणहाए य, अणढाए ण वट्टति, अट्ठाए सावेक्खो णिरवेक्खे य, जिरवेक्खो णिच्चलं धणितं बज्झति, साविक्खो ज संचरपासएण आली-18 Xो वणगादिसु य ज सकेति मुंचितुं वा दामगठिणा, एवं चतुष्पदाणं, दुपदाणं दासी वा चोरो वा पुनो वाण पतओ तेण सविकमाण || तं बंधेतव्वाणि रक्खितब्वाणि य जथा अग्गिमयादिसु ण विणस्संति, तारिसयाणि किर दुप्पयनउप्पयाणि सावएण गेण्हितवाणि जाणि अबद्धाणि चेव अच्छंतीति । बहोवि तहेब, अणडाए हिरवेक्खो णियचेणं, साविक्खो पुछ भीतपरिसेण होतब्ब, जदि ण करेज्जा ताहे मम मोत्तूण गलिताए(लताए)दोरेग वा, एवं दो तिमि बारे तालेज्जा एवमादि विभासणं । छविच्छेदो अणडाए तहेव | #णिरवेक्खो हत्थपायकपणणक्खाणं णियत्ताए, साविक्खो गंड वा अरतिं वा छिदज्जा दहेज्ज वा, चतुप्पदो कण्णे लंछिज्जति | एवमादि विभासा । अतिभारो ण आरोवेतब्बो, पुर्व ताव एवं जा बहणाए जीविता सा मोत्तवा, अहण होज्जा 'अण्णा. जीविता दुपए जथा सतं उक्खिवेति अयारेति एवं वाहिज्जति, बइल्लादीणं जथा सामावियाओवि भराओ ऊपओ कीरति, हल- २८४॥ सगडेसुचि पेलाए मुयति, आसहत्थी सुवि एस विधी। भत्तपाणयोच्छेदोण कातब्बो, तिक्खछुहाए वा मरेज्जा, ताहे अण दीप अनुक्रम [६३-१२] Xks ... श्रावक-व्रतानां अतिचाराणां वर्णनं क्रियते (290) Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [ ६ ]. मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १६५२-१७१९ / १५५५-१६२३], भाष्यं [ २३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥२८५॥ सूत्र डाए दोसे परिहरेज्जा, सावेक्खो वा रोगणिमिस, वायाए वा मणेज्जा अज्ज ते ण देमि, संतिणिमित्तं वा उपवासे कारावेज्जा, सम्वत्थषि जयणा, जथा थूलगस्स पाणातिवातवेरमणस्स अतियारो ण भवति तथा पयतितव्वं, एवं करेंतेण भोगतरियादि कर्तण भवति । नवि अतिदारुणडंडो हवेज्ज अणुकंपको सदा य भवे । तह होज्ज अप्पमत्तो जथा तु णातिक्कमे पाणे ॥ १ ॥ एवं तु भावेज्जा- सब्बैसि साघूणं णमामि जेर्सिं तु णत्थि सं कज्जं । जत्थ भवे परपीडा एवं च मणेण चिंतेज्जा ॥ २ ॥ ग पढमं दाणिं वितियं थूलातो मुसावायातो वेरमणं । तत्थ थूलगमुसावायस्स समणोवासओ यच्चक्खाति, धूलबत्युविसओ धूलो, जेण भासिएण अप्पणो परस्स वा अतीवोवघातो अतिसंकिलेसे वा जायते तं ण वएज्जा, अड्डाए अण्डाए वा, सुमो उवहासखेडादी, एत्थवि जतितव्वं, भेदा पुण पंच, तंजथा- कण्णालिए० इत्यादि, तत्थ कण्णालियं जथा अकष्णं कृष्ण भणति विवरीय वा इत्यादि, एवं भणेतेण भोगंतराइयं कर्त भवति, पदुट्टो वा घातं करेज्जा कार वेज्जा मारेज्ज वा १। भोमालिये अणूसरं ऊसरं भणेज्जा वा, ऊसरं वा अणुसरं एवं अप्पसानं बहुसास बहुसास अप्पसासं, अणाभवंतंपि रागद्दोसेण आभवंतं भणेज्जा, | एस्थवि ते चैव अंतराइयपदोसा विभासितव्या २। एवं गवालिए अप्पक्खीरं पसंसेज्जा बहुखीरं वा जिंदेज्जा गुणदोसविवज्जओ वा, एत्थवि ते चैव दोसा २। कूडं सक्खेज्जं करेज्ज, रागेण दोसेण वा लंचेण वा करेज्जा, एत्थवि ते चैव दोसा ४ | निक्खेवं अवहरति मुसावादेणं, थोवं वा ठेवितं भणति एवमादि, एत्थवि ते चैत्र दोसा ५ । तत्थ मुसावादे पुरोहितो उदाहरणं जथा णमो क्कारे, ण भणेज्जा, परलोए दुग्गंधमुहादी विभासेज्जा । गुणे उदाहरणं जथा कोंकणओ सावओ, मणूसणं भणितं घोडए णासन्ते (291) द्वितीयमधुम ॥२८५ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत मत्राक प्रत्या-15आहणाहित्ति, तेण आहजओ, मओ, गहितो, धाराणं पीओ, पुच्छिओ-को ते सक्षी, पोडासामिएण भणितं-तस्स चेच पुचो | 31 द्वितीयख्यान सक्खी, तण दारएम भणित-सच्चमेतंति तुट्ठा दंडो य से मुको । परलोए सच्चबयणेण जथा सच्चमासा सुरा, तथा जयणं करेज्ज्जा, चूर्णिः जदिवि गिही अणियत्तो, पिच्चं भयकोहलोहहस्सैसु । णातिपमत्तो तेमुवि ण होज्ज अंकिीचभणिओ य ||१| राकिंतु बुद्धीए णिउणं भासेज्जा उभयलोगसुविसुद्धं । सपरोभयाण जं खलु ण सम्वहा पीडजणगं तु ॥२॥ लातं च सच्चं पंचतियारविसुद्धं अणुपालेतलं, त० सहसा अन्भक्खाणे इत्यादि, सहसा मणति-सुमं चोरो पारदारिओ रायावगा-16 रित्ति, तं च अण्णेण सुतं खलपुरिसेणं, सो वा इतरो वा मारेज्ज वा दंडेज्ज बा एवंगुणोसिति, भएणं अप्पाणं वा तं वा सयण | वा विहावेज्जचि, तम्हा पुव्वं बुद्धीए पेहेत्ता ततो वकमुवाहरेशा रहस्तम्भक्खाणं, रहस्स मन्तेंताण भणति-एते इमं वा २ रायावगारित्तणं वा मतेतीति इत्येवमादि, तनिमित्तं जा विराहणा २। मोसोवदेसो नाम मोस उवादिसति, जहा पवंचमोसभासणे 18 पगार दंसेतित्ति, मोसोवदेसे उदाहरण-एगेण चोरेण खत् खणिय पंदियावत्तेहि, वितियदिवसे तत्व लोगो मिलितो, चोरकम्म पसंसति, सोवि तत्थेव अच्छा, तरथ एगो परिब्बायगो भणति-किं चोरस्स मुक्खत्तण पसंसह, वाहे चोरेण विरहे सो परिवाओ पुच्छिओ कई मुक्खो, ताहे भणति-एवं करेंतो वझज्ज मारेज्ज वा, उपाएणं तं कज्जति जेण जीविज्जत्ति, को उबाउति , अहं | कहेमि, केरार्ड दाणमग्गणवाउल अच्छिन मग्गेज्जाहि, ताहे सो बाउलसणेणं पडिवयर्ण तव ण देहिति ताहे कालुद्देसे दाणग्गहण ॥२८६॥ जबाउल चेष प्रतिदिषसं भणेग्जासि-देहितं ममं देहि त मर्मति बहुजणेणं बहुसुर्य, जाहे भणति-ण किचि घरेमि ताहे मए सक्खिला उवदिसिज्जाहि, एवं करणे ओसारिओ दवावितो य । सवारमंतभेओ जो अपणो भज्जाए सहजाणि रहस्सिपमोल्लियाणि ताणि KESARSASEAL दीप अनुक्रम [६३-९२] N (292) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 कर प्रत्या- अण्णोसि पगासेति, ताहे सा लज्जिता अप्पगं वा परं वा मारेज्जा, तत्थ मधुरावाणियओ उदाहरणं, दिसाज गतो, मज्जा से आ ख्यान INउम्भामएण सम संसत्ता, अण्णदा सो वाणियओ पडियागतो, कप्पडियवसेणं अप्पणो घरं आगतो, मज्जाए भण्णति-कप्पडिया मणुव्रत चूर्णिः मम वयणं करेहि मोयणं ते सुंदरं दाहामि, जे आणवेसि तं करेमि, सा ओगाहिमगाणि वियर्ड च पिडियाए काऊणं कप्पडियस्स | खंधे दातुं उन्मामगपरं गंतु भणति-कप्पडिया! तहिं चव घरे जाहि रक्खज्जाहि य, उन्भामएण समं मिलतीए जं किंचि बोलिय* ॥२८७|| कपि पेण उम्माहियं, सा उम्भाभएण समं सोतुं पड़ियागया, कप्पडिओ णिग्गंतुं वितियदिवसे घरमागतो, तद्दिवस रत्ति पतिणा समं मुवंती तं पुच्छति- कहं घुलिओसि एच्चिरं १, सो भणति-अस्थनिमित्त, इमं च मे दिलु, ताहे सर्व परववंदसेणं कहेति, सा चिंतेति--अहं चैव पडिभिना, तीए अप्पओ मारिओ । कूडलेहकरणे अनृतदोसेण बज्झज्ज मारेज्ज वा भैरवीसु जातो, अण्णे य एवमादि उदाहरणा । एतं च भावए-कुंदुज्जलभावाणं णमामि णिच्चं च सम्बसंघाणं । सम्वेसिं साहुणं चिंतेयवं चहिदएणं ।। १॥ गतं वितिय ।। दार्णि ततियं थूलगादचादाणातो वेरमण, तस्थ धूलगादत्तादाण सेत्यादि, चूलगादत्तादाणं नाम जेण चोरसदो होइ का त परिहरितव्यं, चोरखुद्धीए अप्पपि जणवयसामर्थ पच्चक्खाति खत्ते वा खले वा पंथे वा ण गेण्हियवं, जे पुण लड्डुगादि अणणु अवेत्ता गण्हेति तं सुहुमं, तं पुण अदत्तादाणं दुबिह-सच्चित्तेत्यादि, एत्थवि अट्ठाणट्ठा जहसंभवं योज्ज, दोसगुणे एक चेव ॥२७॥ DI उदाहरणं-एगा गाडी, तत्थ एगो सावओ, ते गोहिया एवं बबसिया-एकस्स बाणियगस्स राति पर मोसामोत्ति, सावआ गच्छति, IN | इयरे यवसित एक्कं घेरि पेच्छंति, आयुधं ओग्गिरिउं भणवि-मा वल्ली, मारेस्सामोति, तीसे थेरीए आहाभाषेणं मोरपिच्छ मूले, IXI दीप अनुक्रम [६३-९२] सूत्र FROBER (293) Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रत्याख्यान चूर्णि INSTERSNEHRU HEIG सू.) 1॥२८८॥ दीप अनुक्रम [६३-१२] । साध्वेक्कमेक्कस्स पाए पडति, मा भट्टारया ! मारेह, तेण विहाणण सम्वे पाएसु मोरपिच्छेण अंकिता, मुसित्ता गता, पमाते रनो तृतीयकहियं, थेरी भणति-संजाणामि जदि पेच्छामि, किह ', भणति-अंकियनि, तम्मि णगरे जे मणूसा ते सहाविता, थेरीए गाया, ताहे मशुषत | गहिता, असुगाए गोडीए मुसरसिय)ति, सो सावओ गहिओ, थेरी भणति ण पविडो एस, अण्णो य लोगो भणति-एस एरिसके न करेतित्ति, अण्णे मणंति-ते बत्तीसं गोट्ठिगा, तेहिं कहिअ--ण एस चोरो, मुक्को पूजितो य, इयरे सासिया, सावगस्स गुणो| इयरेसिं दोसो इत्यादि । अविय-सावगेण गोट्ठीए चेव ववसिय जदि परिमविज्जति हारति वा एवमातीहि कारणेहिं ताहे जा कुलपुत्ता तत्थ परिवसति तत्ववि ओहारगं हिंसादिएमु न देति णवि वा ताणं आयोट्ठासु ठातित्ति, सम्बत्थ जयति,उचितं मोतृण कलं दब्बादिकमागतं च उक्करिस । णिवडियमवि जाणतो परस्स संतं ण गेण्हिज्जा ॥१॥तं च पंचातिचारवि सुद्धं वेरमणं, ते च तेनाहड इत्यादि, तत्थ तेनाहडं जे चोरा आणेत्ता पच्छण्णं चोराहतं विक्किणंति तं न गेण्हियवं, तत्थ चोरपडिच्छगादयो दोसा शतकरपयोगो तदेव तस्य कर्म तस्करः तेसिं भत्तं देति पत्थयणं वा अप्पेति वा एवमाइसु पयोगेसुण पहियवं २। विरुद्ध ण विदिणं गमणागमणं गामाईहिं तं जो अतिकमति अदिण्णादाणातियारे बद्दति ३कूडतुलाए महल्लीए घेणे शुद्धीलयाए पडिदेति, माणेवि पत्थगादिणा खुङलएण देति महल्लएण गेण्हति, पडिमाणेवि विभासा । तप्पडिरूवं कूडरूवे करेइ ॥२८॥ सुबनवितए दीणारे करेति,तेल्लस्स रुक्खतेल्लादि घते वसादि सुवनस्स जुत्तिसुवनादि एवमाति विभासा । एते परिहरतेण अदिग्णादाणवेरमणमणुपालियं भवति । इणमवि चिंतेपब्वं अदिण्णदाणदिणिव्व (दाणाउ णिच्च) विरयाण। समतिणमतिमुत्ताणंद्र णमो शमो सव्यसाहणं ॥१॥ततियं गयं । ऊ न (294) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत S मत्राक प्रत्यासूत्र इदार्णि चउत्थं, तत्थ समणोवासओ परदारगमणं पच्चक्खाति सदारसंतोसं वा उवसंपज्जति, स्वदार-स्वकलत्रं परदारं-परकलत्रं लातुर्य स्थूलख्यान- चसे य परदारे दुविहे-ओरालिए बेउब्बिए य,ओरालिए दुविन्तेरिको माणुसे य,विउम्विए देवाण वा माणुसाण वा,एतप्पसंगो पुण-संदचूर्णि सणेण पीती पीतीओ रईईओ वीसंभो । वीसंभातो पेम्मं पंचविहं वड्डए पेम्मं ॥१॥ ति । सदारणिरतेण य होया। ॥२८॥ | अविरयस्स दोसा-मातरं वा धूर्त वा भगिणिं वा गच्छेज्जा, तत्थ उदाहरणं-गिरिणगरे तिष्णि पावासियादो, तातो उज्जेतगतिया-MI तो वाणिगिणीओ चोरेहिं गीताओ, पारसकूले विक्कीताओ, तासि पुत्ता डहरका उज्झितका घरे, तहेव मित्ता जाता, वाणिज्जाए गया पारसकूलं, तातो य गणिताओ कयातो, सदेसकाओति तासिं भाडि देति, तेवि संपत्तीए सयाहि सिज्जाहिं गता, एक्को य | सावओ, तेहिं ताओ अणिच्छितो गच्छंति महिला अणिछि णातुं तुहिक्का अच्छति, सो भणति-कओ तुम्भ आणीयाओ?, ताए | कहियं, पाते परिहरिया, तेण सावएण तसिं कहियं-दुरात्मा! तुम्भे सयाहि मायाहि समं वोच्छा, मोइतातो, अद्धितीए अप्पाणं |मारेतुमारद्धा, धम्मो कहिओ, पम्वतिया य१॥ रितिय-धूयाए समं वसेज्जा, जहा गुश्विणीए भज्जाए वाणियतो दिसाजत्तं गतो, | धूया य जाया, सा य दिण्णा अन्नत्थ णगरे, सो पडिएन्ता तमि पगरे वासारते ठिओ, धृयाए समं घडिओ, यत्ते वासारते गतो ४ा सभवणं, धृयाकहण, दारियाए पिता आगतोनि दारिया आणिज्जतु जाच पितरं पेच्छतित्ति आणीया, तं दळू विकता णिवत्ता, दतीए अप्पा मारितो, इयरो पव्वतितो २॥ ततियं-एगा गोट्ठी, एत्थ एगस्स गोहिल्लयस्स माया उन्मामति, तो सा रति उष्मा-॥२८९।। 2मतिलस्स पास जाति, याताए गोडीए दिहा, तहिं रत्रिंण संम पाता, तहिं प्राप्ता अणियश्छिल्लयं पुत्तस्स परिवाडी जाया,पाविओ विस्तामणतेणं तस्स च्चयाणि पोवाणि, विभाए भज्जाए से पोत्ता दिडा, पुट्ठो कतो एते', कातु तो किरिया ?, विलक्खो जातो, दीप अनुक्रम [६३-९२] (295) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 A प्रत प्रत्याख्यान चूर्णिः सत्राका ॥२९ ॥ |णिव्वेगणं पचतिओ ३॥ चउत्थं एगा गणिया, सा पढम चेव गुम्विणी,पस्या जाहे ताहे मा थोर्व भाडि मिस्सामित्ति [सा य|8| | तुर्ये स्थूलजमलपस्या दारकं दारियं च, गणिया य जा अप्पमतिया सा बहुतरकं मोल्लं लभति, चिंतेति-मा अतिथोयं लभीहामि,] तो एतेल | मैथुनडिकरुका उज्झामि, पूब्वे नगरहारे दारिया अवरे दारतो परिदृवियाणि, परिडवेचा ताव पडियरिया जाव तम्मि गरे दो वाणि-12 विरतिः 4 यगा मिचा, तेसिं भवियब्बताते एक्केण दारतो दिवो एक्केण दारिया, पडियरिया दासी गता, जाहे ताणि महंतीभूयाणि वाहे तेहिं वाणियएहिं परप्परं वरण कय, मम दारयस्स दारियं देहि, दिण्णा सा भगिणीभूता, ताहे सो दारतो गोट्ठीए मिलितो, तल | दारियं नाढायति,अण्णया सो दारतो ताए गणियाए जा से माता ताए समं पसतो, तेण तस्स दारतो जातो, सावि गणियादारिया छवियामित्ति पव्वतिता,ओहिणाणं से समुप्पण्णं । अन्नया भिक्खं हिंडेती गणियाघरं गता,जा आभोगेति ताहे सम्बोहेमित्ति तं दारयं | गहाय परियति-भाया पुत्तो दियरो मज्म तुमं जो तुमं पिया होति । सो मे पिता य भाया पति जणणी सासु ॐ सवित्ती मे॥१॥संयुद्धो पव्वतितो।। अहवा हत्था वा से छज्जेज्ज अन्नाओ वा कारणओ करिज्जज्ज वा,जह मो सोमिलिओ वाणियदारतो, दोण्ह वाणियगाणं घराणि समोसियकाणि, सो सामिलितो पासादाणं दुक्याणं कटुं दातुं ओयरति, तस्स सुहाए समं वसति, एवं बच्चति कालो, अण्णया तेणं बाणियएणं नायं, अरे धट्टयं कट्ठ, पूर्ण कद्वेणं कोइ चडति, संसरंतो पडियरिओ, गहिओ वच्चकूबे छुढो, स तत्थत्थो मीट खाति मुत्तं च पीवति, अण्णया वच्चघरयं वासारते सोधिज्जति पाणियाणुसारेणं णिद्धमणेणं अप्पणिज्ज घरं गतो , दिट्ठो पास णामेति दुन्भिगंधतो, तेण संवादितो, ताहे बेज्जेहि पोराणरूबो कतो समाणो पुणो पुणो तं चैव अविरहयं पत्थेति, एवं तिमि वारा, चउन्धियवारा बच्चघरए संकलबद्धो कालेण मतो । एते दोसा दीप अनुक्रम [६३-१२] CRICARRASS RC564555 (296) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत CLICARE HEIG प्रत्या- से इहलोइए, परलोइए य णपुंसादि भवंति । णियत्तस्स गुणा, इहलोए- कच्छे आभीराणि सढाणि, आणंदपुरतो चिज्जातिओतुर्ये स्थूलख्यान दरिदो भूलिस्सरे उपवासे ठितो, वरं मग्गति चाउब्बेज्जस्स भत्त मुलं देहि , वाणमंतरेण भण्णति- कच्छे सावगाणिमैथुनचूर्णिः मज्जपतियाणि ताणं भसं करेहि, अक्खयं ते फलं होहिति, दो तिनि वारा भणितो गतो कच्छ, दिनं ताण भत्तं दक्खिणं च, * विरतिः मणति-साहह किं तवच्चरणं ? जे तुब्भे देवस्स पुज्जाणि , तेहिं भणियं एतरं मेहुणस्स णिवत्ती कता, अण्णया कहवि अम्हं ॥२९ ॥ संजोगो कतो, तं च विचरीयं समाचरितं, जंदिवसं एगस्स तंदिवसं चितियस्स पोसहो, अम्हे घरं गयाणि कुमारगाणि चेव,81 धिज्जातितो संयुद्धो । अहवा मुरंडयंतःपुरमहत्तरं, जथा मुरंडेणंतपुरबालो अपुमंसो दूतो पेसितो, कयकज्जो णियत्तो, पूजितो, भणितो- अंतेपुरं पविस, भणति-णवि किचि अहं पुमं जातो, भणति-कई आइक्वति ?, वथिल्लावट्टितदेवताए वरो दिण्णो एव-1 मादि । इहलोइए पहाणपुरिसत्तणं देवत्ते पहाणातो अच्छरातो मण्यत्ते पहाणाउ मणुस्सितो विउला य पंचलक्खणा भोगा पियसंपयोगा य आसण्णसिद्धिगमणं चेति । जयणा पुणो- वज्जेज्जा मोहकरं परजुवतीदंसणादि सथियारं । एतेसु सपण्णजणो चरित्तपाणे विणासेति ॥१॥ तं च पंचातियारसुद्धं अणुपालेयच्वं, सदारसंतुदुस्स अंतिल्ला तिष्णि, परदारविवज्जगस्स पंचवि सयपरिग्गहियअपरिग्गहियातो, अण्णे भणति-सदारसंतुट्ठस्स अंतिल्ला तिमि सदारणियत्तस्स पंचवि, तत्थ सोदामि वा गच्छतो जच्चिरं कालं अण्णेण परिग्गहिता जाय तं पूरति ताव परदारतणं, तेणं च ण कप्पति । अपरिग्गाहिता णाम ॥२९ जा मातादीहिं ण परिग्गहिता, अच्चि कुलटा य सा, अण्णे गुण भणंति-देवपुत्तिया घडदासी बा, एवमादि । सा पुण भाडीए वा द्रिाअभाडीए वा गच्छति, जो भाडिए गच्छति तस्स जदि अण्णेणं पढम भाडी दिना सा ण यति परनियत्तस्स गंतुं, जा पुण दीप अनुक्रम [६३-९२] (297) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यानघृणिः प्रत मत्राक ॥२९॥ अमाडीए गच्छति सा जति अण्णणं भणति-अज्ज अहं तुमए समं सुविस्तामि, ताए य पडिच्छितं, तस्स ण वद्दति अंतराइयंका पञ्चमे काउं। अंगं मुक्त्वा सेसमनंग, क्रीडा उपभोगः, आसकतोसकाओ पडिसेवणं ण वमृति काउं । परवीवाहकरणं नाम कोवि परिग्रहअभिग्गहं गेहति- धूया णवि मम वसो तं अणुपालेति, कोति पुण एवं अभिग्गहं अभिगेहति-धूयाणवि मम बद्दति, सो तं अणु प्रमाण पालेति, कोति पुण एवं अभिग्गहं गेहति-णियल्लगाणं मोत्तुं अण्णोसि न कप्पति, ण वट्टति सावगस्स भणिउं- महंती दारिया दिज्जउ, गोधणे वा वसभो लुम्भउ एवमादि । कामभोगतिव्वाभिणिवेसो णाम अच्चततिबज्झवसायी तच्चित्ते तम्मणेत्ति, ण वट्टति सावगस्स तिब्वेणं अज्झवसाणेणं पडिसेविउ, दिया बंभचारी रातो परिमाणकडेण होतव्यं, दिवसओपि परिमाणं एवमादि | विभासा, एवं विभासेज्जा, चिन्ततेवं च णमो तेर्सि जेहिं तिविहमच्चतं । चत्तं अहम्ममूलं मूलं भवगन्भवासा-18 णं ॥१॥ चउत्थं गतं । इयार्णि पंचम, तत्थ अपरिमियपरिग्गरं इत्यादि, से य परिग्गहे दुविहे-सचित्ते अचित्ते य, विभागतो पुण णेग-1 | विहो- घणधनखेत्तवत्थुरुप्पसुवण्णकुषितदुपदादिभेदेण, तत्थ धणं-मंडं, तं चउविहं-गणिमं धरिम मेज परिच्छेज्ज, तत्थ गणिमं पूगफलादि धरिमं मंजिष्ठादि मेज्जं लक्खायततेल्लादि पारिच्छेज्ज परीक्ष्य मूलतः परिच्छिज्जते तच्च मणिपाहीरकादि,घण्णं सालिको| हवादि,खेचं सेतु केतुं उभयं च सेतु जत्थ सेकजं भवति,केतुं इतर उभयं सेकजमितरंच,वत्थु खातं ऊसितं उभयं च, खातं भृमिघरादि, ऊसितं जे उच्छएम कयं,उभयं जै खातं ऊसितं च,रुप्पं सुवचं प्रतीतं.उपलक्षणं चेदं एवंजातियाण,कुवियं-घसेवक्खरकणगपारसलो- २९ ॥ है हीदीहकडाहगादिणाणाविहं, दुपदं दासीदाससुगसारिंगादि, अपदं वाहणरुक्खादि, चतुष्पदं आसहत्थिगजादि एवमादि, अड्डा दीप अनुक्रम [६३-९२] सूत्र 4560 (298) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 परिग्रह पत प्रत्या- गट्ठयालणेण जहासत्तीए वयं गेहति, जावइयस्स परिग्गहस्स आगारो कतो ततोऽचिरतो सेसाओ अणतातो परिग्गहातो विरतो पञ्चमे ख्यान-1 तेण सो विरयाविरतोचि भवति । एवं पाणवहादिसुवि विरताविरयविमासा । परिग्गहे असंतुस्स दोसा संतुहस्स गुणा, तत्व- पारत्र चूर्णिः ठा ४ उदाहरणं-लुद्धणंदो, कुसीतो उद्दीहिं विक्कियातो, णिमंतणए गमणं, पुत्तेहिं च्छियातो, अरक्षिती भग्गा, लोएण दिवा प्रमा १२९३पारणो कहित, लुखणंदणं, पाया भग्गा, सावतो पूजितो, एवं जथा णमोक्कारे । लोहुदाहरणो बितियं- वाणिगिणी पराबिया,। रयणाणि विक्किणति, सड्डेण भणिया-एच्चितो पडिकतो नत्थि, अचस्स णीयाणि, तीए भणिय-जं जोग्गं तं देहि, सो तुच्छं |देति, दइओ आगतो पुच्छति, तीए भणिय अमुगत्थ चहयाणि, सो रसो मूलं गतो, एरिसे अग्घे वतगाण एतेसि मणिरयणाणं एएण एत्तियं दिण्णं, सो विणासितो, सावगेण णेच्छितंति पूइतो एवमादि । जयणा पुण इमा-भावेज्जा संतोसं गहियमा दीणि अयाणमाणेण । एवं ( च जाणमाणा) गेण्डिस्लामो ण चिंतेज्जा ॥१॥ तं च पंचातियारविसुद्धं । ते य खेते &ापत्थुपमाणादिसु जे पमाणं गहितं तं ण वतिक्कमियव्यं, अहवा जं पणं गहितं ततो अहितं धारणिओ अपेज्जा पडिमुल्ले दा | देज्जा, असमत्थो तं धणादि काउं ताहे खेत्तं वा वत्थु वा देज्जा । एवं पविरलवित्थरो विभासियम्बो, सो य सावगो चिंतेन्जा४जहा मए दव्बप्पमाण जे गहितं तं अज्जापि न पूरेति, एसो य धारणितो तस्स ठाणे इमं देति, तेन सोपि किल दब्बलेक्खगे त चेव इमं देति, तं ममापि किल दवलेक्खगे चेव इम, एवं खेतवत्थुप्पमाणातिक्कमणं कुणंतो आतियरति, एवमादिविभासा, 8 ॥२९३॥ का सम्वत्थ एसो विभागो उ० स च पुणो सयसहस्से वा कोडीए वा सव्वं गणिज्जमाणं तस्स, एस च एक्को अतियारो, विभागे | पदे पदे अतियारो विभासियम्बो, एयाणं मूलप्पमाणे गहिते संबवहारं पिवासयाणं कयविक्कयस्स दिवे दिवे परिमाणं करोति ॥ दीप अनुक्रम [६३-१२] (299) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक म. दीप अनुक्रम [६३-९२] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र / ६३-९२ ] / [ गाथा - ], निर्युक्ति: [ १६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [ २३८-२५३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥२९| सूत्र .. च रतिं न करेति तस्स परचक्खाति, आरंभपरिग्गददमणवाहणा दिएस परसु विभासियन्नं, अथाविधि एत्थ भावणा-जह जह अप्पो लोभो जय जय अप्पो परिग्गहारंभो । तह तह सुहं पवद्रुति धम्मस्स व होति संसिद्धी ॥ १ ॥ धन्ना परिग्गहं उज्झिऊण मूलमिह सव्वपावाणं । धम्मचरणं पवन्ना मणेण एवं विचिंतेज्ज || || अणुब्बता समत्ता ॥ अहुणा गुणव्वयाणि, एषामणुव्रतानां भावनाभूतानि त्रीणि दिशिवतं उपभोगवतं अणत्थदंडवतं तत्थ दिसासु वतं दिसिव्यतं, तत्थ दिसिं पाणादिवायचेरमणगुणनिमित्तं, सेसाण व विभासा, तं उङ्कं एवार्णय ( रेवतिय) नागपव्यादिसु अहे इंदपदवातिसु तिरियं चउद्दिसिं जोयणपरिमाणेणं जेत्तियं अणुपालेति तं गेण्हति, ततो परं जे तसथावरा तेर्सि दंडोति मवतीति जता-तत्तायगोलकप्पो पमत्तजीयो णिवारियप्पसरो। सव्वत्थ किं न कुज्जा पापं तक्कारणाणुगतो ! ॥ १ ॥ एते गुणदासे णाऊण जतियव्वं । एवं जत्थेत्थि सत्तवीला दिसासु अह पेलवं तर्हि कज्जं । कुज्जा णातिपलंग, सेसासुबि सतिओ मतिमं ॥ १ ॥ तस् य पंचइयारा, उड्डुं जं पमाणं गद्दितं तत्थ जदा विलग्गो भवति, जन तस्स उबरि मक्कडे पक्खी वा वत्थं आभरणं वा घेत्तुं वच्चेज्जा एत्थ मे ण कप्पति पयते, जाहे पडियं अष्णेण वा आणीयं ताई कप्पति एवं पुन अट्ठावते हेमकूडर्समेतसुपतिठ्ठओज्जितचित कूड अंजणगमंदरादिसु पव्वएसु भवेज्जा, एवं अहिवि कूलादिसु विभासा तिरियंपि जं परिमाणं तं णातिचरियं तिविहेणवि करणे बुद्धी ण कायव्वा, का पुण सा खेतबुद्धी, तेण पृथ्वेण अप्पतरं जोयणपरिमाणं कयं अवरेण बहुतरं, सो पुब्वेण गतो जाव तं परिमाणं जाव तत्थ एवं मंडं ण अग्घति परेण अग्घतित्ति ताहे पुम्वादिसिच्चएहिंतो जाणि अग्भहियाणि ताणि अवरदिसाए औसारेचा पुन्वेर्ण नेतुं गच्छति, एस खेचबुद्धी, " (300) षष्ठं दिग्वतं ॥२९४॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ख्यान सत्राक सूत्र दीप अनुक्रम [६३-१२] प्रत्या | सियत्ति बोलीणो होज्जा णियत्तियव्यं । सतिअंतरद्धा गाम सरणं स्मृतिः अन्तर्धान जा त विस्सरितं पमाण होति, जति वीसा-18 सप्तमं रितं न गंतव्वं, जाए दिसाए सम्बातो वा, अहवा सती णाम लाभतो. ताए दिसाए अंते करेऊण अण्णस्स हस्थे विसज्जेति, सत-2 भोगोपचर्णिः पत्थितस्स लाभ, पण्णन्ति ण वदति, अहीलाणाए गतो जे परेण लई तं ण लएति उरेणं ते लएतित्ति । किंच-चिंतेयधाला भोगमानं च णमो साहणं जे सदा णिरारंभा । विहरति विप्पमुक्का गामागरमंडितं वसुहं ।। १॥ उवभोगपरिभोगव्वयं णाम भुज पालनाभ्यवहारयोः'सति उपभोगो पुणो पुणो परिमोगो, वस्थाभरणादणं पुष्पतंबोलाईणी य,एवं विभासा, सो दुविहो-भोयणतो कम्मतो य,भोयणतो सावगेण उस्सग्गेणं सावज्जभोयणं वज्जेयव्वं, असति सचित्तं परिहरितव्वं, असति बहुसावज मज्जमंसपंचुंबरमादि, गुणदोसा विभासितम्बा, सम्वत्थ जयणाए बट्टितव्यं, भोगुवभोगे मोत्तुं जेणऽसमत्थो बुधोऽधुणा तेहिं । अवसेसे वज्जेज्जा बहुसावज्जे य सविसेसं ।। १।। पुष्फफलेहिं रसेहि य बहुतसपाणेहिं अज-13 तण्हाणेहिं । मज्जेहि य मंसहि य विरमज्जा अत्तहियकामो ॥ २ ॥ जत्थथि सत्तवीला उपभोगो पेलवो तु तहियं तु कुज्जा णादिपसंग सेसेसुवि सत्तितो णिउणं॥३॥ एयस्स अतियारा सचित्ताहारे सचित्तपडिबद्धाहारे अपोलियम | दुबोलिय० तुच्छोसहि, तत्थ उस्सग्गेण सावतो जत्थ सचिचासंका भवति तं सचिन, ते ण सं जति, इयरी मूलकंदबहुचीयाणि अल्लगपुढविकायमादीणि, ण चयंतो परिमियाण अभिग्गहविससं पगरेति १-२ तथा अयोलितं ण चट्टति, इसित्ति अबोलित३, दुप-है॥२९॥ उलितं सचित्तपडिबद्धं जथा खठरो विहेलओ पक्काणि फलाणि, अचि कडाई सचित्तातो मिजातो एवमादि ४ तुच्छोसहीण विकृति जेण बहुणावि आहारो ण भवति, एस दोसो । अहवा जदा किर अचित्तो ण होज्जा तो भत्त्रं पच्चक्खातितब्ब, ण चरति 5 (301) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 समय मागाप **SCASARE दीप अनुक्रम [६३-९२] प्रत्या- ताहे तुच्छाओ ओसहीतो परिहरति, जहा मुग्गसिंगातो पणगादिसिंगातो इच्चादि,तत्थ दोसे सिंगरखातो उदाहरणं, खेत्तरक्ख- ख्यान: तो मुग्गसिंगाओ खाति, राया णिग्गतो, खायंत पेच्छति, ततो पडिनियत्तो तहवि खायति, वलयाणं कूडं कर्य, रमा पो→ फला-11 चूर्णिः वियं कत्तियातो खत्तियातो होज्जा,णवरि फेणो,किंचिविणत्थि,अहवा केसिंचि केति अतियारा जहासंभवं जोज्जा, अभिग्गहबिससेण मोगमानं. ॥२९६॥18|वा होज्जा । इमं च अन-भोयणतो असणे अणंतकायं अल्गादि मंसादि,पाणमि रसगवसमज्जादि,खादिमे उदुम्बरवडापिप्परिपिलक्सु-15 द मादामु महुमादिसु सादिमे सत्तितो चर्य,जो पुण अभिग्गहबिसेसेणं उवभोगपरिभोगविहिपारमाणं करेति सो उम्बलणियावणविहि परिमाणं करेति,एवं दंतवणविहे य फलविहे य अभंगणतल्लविहे य,उबलणविहे य एसि मज्जणजलवत्थवि० विलेवणविही आभरण-12 विहे पुप्फबिहे धूवविहे,भोयणविहिपरिमाणं करेमाणो भिज्जाविहि परिहीखज्जगविही सूयविही चोप्पडविही माहुरगविही परिजेमणग-1 सूत्र |विही पाणियविही सागविही एवमादिविहि महुमांसविहीपरिमाणं करंति, अबसेसे पच्चक्खामित्ति । कम्मे अकम्मो ण तरवि | राजीविउं ताहे सावज्जाणि परिहरउ बहुसावज्जाणि वा, तत्थ पन्नरस कम्मा ण सगातरियव्या, इंगाले दाहिऊण विक्किणति, तत्प|2 | छक्कायाण वधो, तत्र वद्दति, अहवा लोहकारादि १ वणकम्मं जो वर्ण किणति, पच्छा रुक्खे छिदिऊण जीवति तेण मुल्लेणं, एवं प(ख)डिगादीवि पडिसिद्धा भवंति २ सागडिगुनेणं जीवति तत्थ एवं वहादी दोसा ३ भाडगकर्म एस णं मंडीबक्सरेण भाडएणं बहति परायं, अमाण वा भाडएणं सगडबलरवमादि ४ फोडितो उक्खणणं, हलेणवि भूमी फोडिज्जति ५ दंतवाणिज्जे पुलिदाणं मोल्लं देति पुत्वं चेव दन्ते देहित्ति,पच्छा ते मारेंति अचिरत्ति सो वाणियतो एहितित्ति, एवं मग्गे रण्णे संखाणं जीवति,एवं १५॥ चमरादीण,ण बद्दति,पुष्याणीतं किणंतिविलक्खावाणिज्जेवि एस चेव गमगो,तत्थ किर किमिगा हाँति,किमिया किरणोरुधिरस्स वा । (302) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [ सूत्र / ६३-९२ ] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [१६५२-१७१९ / १५५५-१६२३], भाष्यं [ २३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥२९७॥ ७ विसवाणिज्जं तेण बहुगाणं विराहणा८रसवाणिज्जं कलागत्तणं, तत्थ सुरादीहिं बहु दोसा मारणअकोसणं एवमादी९ केसवाणिज्जं दासादी घेतुं विकिणति १० जन्तपीलणकंमं तेलियजंतं उच्छुआदीणं चकादी, ण वट्टति ११ जिल्लंछणं वडितकरणं १२ वणव देति, तत्थ रक्खडा, उत्तरापहे दडे पच्छा तरुणगत्तणं उट्ठेतिति वा, तत्थ सयसहस्साण बधो १३ सरसोसेति तलागादी पच्छा वा* विज्जति १४ असतीतो पोसेंता भार्डि लऐति १५ । एवमादी ण यट्टति । तथा सव्येसिं साधूणं णमामि जेणाहियंति णातृण । तिविहेण कामभोगा चत्ता एवं विचिंतेज्जा ॥ १ ॥ अनर्थाय आत्मानं येन दंडयति सो अणत्थादंडो, सो य सव्वत्थ जोएतब्बो, जो निरत्थएणं दंडिज्जति कम्मबंधे ण तं वकृति, सो चडब्बो अवज्झाणं, जहा तस्स कोंकणगस्स, वाये वार्यते चिंतति-किह बल्लराणि उज्ज्जा १, पमादायरितं कसाएहिं णत्थि काति बुद्धी अप्पणो परस्स वा, तेण अणत्थाए ण वट्टति एवं इत्थिकंदादिविभासा, इंदियनिमित्तं च विमासा एवमादिष्पमादा, हिंसपदाणं आयुधं अग्गी विसमफलमादीणि, ण वहति सत्तघायगाणि दातुं पावकम्मं ण बद्धति उवदिसिउं जहा (किस ) छित्तानि एवं जहा कसिज्जति गोणा एवं दमिज्जति तहा 'अलं पासायथंभाण' इत्यादि, एसो उ अणुवउचाणं भवति, तम्हा सव्वत्थ उवउसेणं भवितव्यं । सव्ववएस जहासंभवं योज्जोयमिति दोसगुणविभासा कायव्या, जतो अद्वेण तं ण बंधति जमणद्वेणेति घोषबहु भावा । अट्ठे कालादीया नियामगा ण तु अण्डाए ॥ १ ॥ तम्हा जदिब्धं, कज्जं अहिगिच्च सूत्र मिही कामं कम्मं सुभासुर्भ कुणति । परिहरियव्यं पावं णिरत्थमियरं च सत्तीए ॥ १ ॥ खेत्ताई कसह गोणे 'नमह एमादि सावगजणस्स । उपदिसिउं णो कप्पति जाणियजिणवयणसारस्स ॥ २ ॥ तस्स पंचइयारा कंदष्पेति सूत्र (303) अनर्थदण्डविरतिः ॥२९७॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः प्रत अनर्थदण्डविरतिः HEIG ॥२९८॥ अट्टहासे वा ण वडति, जदि णाम हसियध्वं तो इसित्ति विहसितं कीरति१ कुक्कुतियं ण तारिसाणि भासति जहा लोगस्स हासन- | पज्जति, एवं गतीए ठाणेणं वा एवमादि विभासा २ मोहरिओ मुहेण अरियणो जहा कुमारामच्चेणं, रनो तुरियं किंपि कज्जं जा- | यं को सिग्घओ होज्जत्ति', कुमारामच्चा भणंति-अमुगो चारुमडो, पत्थविओ, कुमारामच्चस्स पदोसमाश्मो, एएण एवं कयंति, तेण रुडेण कुमारामच्चो मारिओ । अहवा एगो राया, देवी से अतिप्पिया कालगया, सो य मुद्दो, सो सीए वियोगदुक्खितो ण सरीरहितिं करेति, एवं जहा णमोकारे अमच्चकहाणगे, तेण धुत्तेण बायालेण मुहेण अरी आणितो, एवमादि ३ संजुत्तधिगरणगं सगडाणि जुत्ताणि चेव सह उवगरणेहि अच्छंति पच्छा अहिगरणं सत्ताण, पुष्वं चेव कए कज्जे विसंजोइज्जति, पच्छा न दुरुस्संति, अग्गीवि जाहे गिहत्थेहि उद्दीवति ताहे उद्दीवउ, गावीओ धणे ण पसरावेइ पढम, हलेण वा ण वाहेइ पढम, एवं वावीहलपरशुमादि विभासा एवमाई५ एसा विही,उबमोगातिरित्तयं नाम जदि तेल्लामलए बहुगे गेण्हइ तो पहुगा ण्हाणया वच्चति तस्स लोलियाए, अण्णेवि अण्हाचयगा पहायति पच्छा पूयरगाउबहो, एवं पुष्फतंबोलमाइविभासा । एवं बद्दति विधी सावगस्स उपभोगे-हाणे घरे व्हाइतव्वं, नस्थि तेल्लामलए घसेत्ता सव्वे माडेऊण ताहे तलागादीणं तडे निविट्ठो अंजलीए हाति, एवं जेसु य पुप्फेसु कंधुमादीणि ताणि परिहरति, एवमादि विभासा, चिन्तेयब्वं च नमो असत्धगा (ग्गिसत्था)ई जेहिं पायाति। साहहिं वज्जिताई णिरत्यगाई च सव्वाई॥१॥ एते तिमि गुणवया । इयाणि सिक्खावताणि, शिक्षा नाम यथा शैक्षकः पुनः पुनर्विद्यामम्यसति एवाममाणि चत्तारि सिक्खापयाणि पुणो प्रणो अन्भसिज्जति, अणुब्बयगुणब्वयाणि एकसि गहियाणि चेब, एताण सिक्खावयाणि सामातिय देसावगासियं पोसहोचवासो अहा AAS दीप अनुक्रम [६३-१२] REA4% ॥२९८॥ (304) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रत्या- ख्यान चूर्णिः मत्राक ॥२९९॥ सूत्र संविभागो, तत्थ सामातिय नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं णिरवज्जोगपरिसेवणं च, तं सावएण कह कायम्बं १, सो दुविहो- शिक्षाव्रतेषु इडिंपत्तो अवधि पत्तो य, जो सो अणिाविपत्तो सो चेत्यपरे वा साधुसमीवे वा घरे वा पोसहसालाए वा जत्थ वा बीसमतितामा सामायिक अच्छति वा णिव्यावारो सम्बत्थ करोति सव्वं, चउसु ठाणेसु णियमा कायचं, तंजहा-चतियघरे साहुमूले पोसहसालाए वा घरेलू वा आवासं करेंतोत्ति, तत्य जदि साहुसगासे करेति तत्थ का विही?, जदि पारंपरभयं पत्थि जइवि य केणइ समं विवादो णथि जदि कस्सति ण धरेति मा तेण अंछवियंछियं कटिज्जति, जदि धारणगं दट्टण ण गिण्हति मा पडिभज्जिहि, जति य वाचारं ण वावारेति ताहे घरे चेत्र सामातियं काऊण उवाहणातो मोतूर्ण सचित्तदबविरहितो बच्चति, पंचसमिओ तिगुत्तो इरियाए उपउत्तो जहा साहू भासाए सावजं परिहरंतो एसणाए कहूँ लेडु वा पडिलेहित्तु पमज्जित्तु एवं आदाणणिक्वेवणे खेलसिंघाणे ण विगिचति, विगिचिन्तो वा पडिले हिय पमज्जिय चंडिले, जत्थ चिट्ठति तत्थ गुत्तिणिरोध करेति,एताए विहीए गंता तिषि| हेण णमिऊण साधुणो पच्छा साधुसक्खियं सामातिय करेति- करेमि भंते ! सामाइयं दुविहं तिविहेणं जाब साहू पज्जुवासामित्ति | काऊणे, जइ चतियाई अस्थि तो पढमं वंदति, साहूर्ण सगासातो रयहरणं निसज्ज वा मग्गति, अह परे तो से ओग्गाहितं स्यहरणं ४ अस्थि, तस्स असति पोत्तस्स अंतणं, पच्छा इरियावाहियाए पडिक्कमइ, पच्छा आलोइत्ता बंदइ आयरियादी जहारायणियाए, ला पुणोवि गुरुं वंदित्ता पडिलेहेता णिविट्ठो पुच्छइ पढइ वा, एवं चेइएसुवि, असइ साहूचेइयाणं पोसहसालाए सगिहे वा, एवं ॥२९९।। सामाइयं वा आवस्सयं वा करेइ, तत्थ नवरि गमणं नस्थि, भणइ-जाव णियम समाणेमि । जो हड्डिपत्तो सो किर एंतो सच्चिडीए एइ तो जणस्स अत्था होति, आढिता य साहुणो सप्पुरिसपरिग्गहेणं, जति सो कयसामातितो एति ताए आसहत्यिमादि दीप अनुक्रम [६३-१२] (305) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत HEIG दीप अनुक्रम [६३-१२] 13 जणेण य अहिंगरणं पबद्दति ताहे ण करेति, कयसामातिएण य पाएहिं आगंतच तेण ण करेति, आगतो साहुसमीचे करेति, शिक्षावतेषु ख्यान जदि सो सावतो ण कोति उडेति, अह अहाभदउत्ति पूया कया होहित्ति भणति ताहे पुब्बरतियं आसणं कीरति, आयरिया उट्टिता | सामायिक चूर्णिः | अच्छति, तत्थ उद्रुतमणुटुंते दोसा भासियब्बा, पच्छा सो इड्विपत्तो सामातियं काऊण पडिकतो बंदित्ता पुच्छति, सो य किर सामातियं करेंतो मउडं ण अवणेति, कुंडलाणि णाममुदं पुष्फतवोलपावारगमादि वोसिरति, अण्णे भणंति-मउर्दपि अवणेइ, एसा | विधी सामातियरस । णणु जदि सो पंचसमितो तिगुत्तो जहा साहू तहा वणितो तो किं तिविहं तिविहेण ण कीरति इत्तिरिय सामातिय, उच्यते, ण करेति, कीस, तस्स पंचसमियत्तणपित्तिरियं ण आवकहियं, साहुस्स पूण आवकहितं,तस्स य पुब्वपवत्ता 18 आरंभा गिहे पबटुंति, तो सो ण वोसिरति सातिज्जवि य, हिरण्णसुवण्णादिसु ममत्तं अत्थि चेव तेण तिविहं तिविहेण ण पठति।।४ दाइमं च गाथासुत्तं पडुच्च साहुस्स य तस्स य विसम-सिक्खा दुविहा (१९४) गाहा, सिक्खा दुविहा-आसवणसिक्खा य१९ गहणसिक्खा यर,साहू आसेवर्ण सिक्खं दसविहचकवालसामायारि सव्वं सब्बकालं अणुपालेइ, सावतो देस इत्तिरिय अणुपालेति, | गहणसिक्खं साहू जहण्णेणं अट्ठपवयणमायातो सुत्तओवि अत्थतोषि उकोसेण दुवालसंगाणि, सावगस्स जहष्णेणं तं चेव उकोसणं छज्जीवणिकार्य सुत्ततोवि अस्थओवि, पिंडेसणज्झयणं ण सुत्ततो, अस्थतो पुण उल्लावेण सुणदि १, अपिच गाथासूत्रप्रमाणात का वैषम्यमेव सामातियंमि तु कए (२०) गाथा, श्रावकः सामाइके कते समणो इव, यदेतद्वचनं श्रवण इव श्रावको भवति, एसा हि एकदेसोपमा, यथा चंद्रमुखी स्त्री इत्युक्ते यत् परिमांडल्यं चंद्रमसः सौम्यता कांतिश्च तदेकदेशो गृह्यते, न तु सर्वात्मना चंद्रतुल्यं ॥३०॥ मुखं यस्याः सेयं चंद्रमुखी, एवं साधुगुणानो एकदेशेन श्रावकस्योपमा क्रियतेऽनेनेति, यतः एकदेशः साधुगुणानां श्रावकस्य है (306) Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र / ६३-९२ ] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ १६५२ - १७१९ / १५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥३०१ ॥ भवति, तेन पुनः सामायिके क्रियमाणे श्रावकस्य बहवो गुणा भवतीति दर्शितमिति, एतेण गाधासुतोवदेशेणचि तिविहं तिविहेणं ण करेइ २ उयवार्थपि पड़च्च चिसमं, जहण्णेणं सोधम्मे उकोसेणं सावगस्स अच्चुते, साहुस्स जहण्णेणं सोहम्मे उकोसेणं सन्बङ्कसिद्धी ३ |ठिती सावगस्स जहणेणं पलिओवमे उकोसेण बावीसई सागराणि, साहुस्स जहणेण पलितपुहुतं उफोसेणं तेत्तीस सागरा ४ | गर्तिपि पहुच्च साधू पंचमंपि गतिं गच्छति सावया चत्तारि, अण्णे भणति -सावगस्स गतीतो चत्तारि, साधुस्स दोन्नि, अविरतस्स |एगा देवगती ५ क्साएस साहुस्स बारसविधे कसाए स्वबिते (११२) ६ बंधंति साधुण सत्तविहं वा अडविहं वा छव्यिहं वा एगविहं वा अर्द्धतो वा उपासतो सत्त वा ७ वेदन्ति साहयो सन्त वा अड्ड वा चचारि वा सावतो अड वेदेति ८ पडिवत्तीय साहू नियमा राती भोयणवेरमणछट्टाणि पंच महन्वयाणि, सावओ एगं वा २-३-४-५ अहवा साधू सामातियं एकसि पवित्र, सावतो पुणो पुणो पडिवज्जति ९ साहुस्स एगंमि ते भग्गे सव्वाणि भज्जंति, सावगस्त एवं चैव भज्जति १० किं चान्यत्-इदं च कारणं, जेण सावतो तिविधं तिविषेण ण करेति सामातियं, सम्यंति भाणिऊण० ॥ ( २१* ) ण सो सव्वतो विरतो तिविहेण करणजोएण तेण सो तिविहं तिविद्देणं सामातियं न करेतिति एवं सामातियं कातव्वं । एत्थ जयणा-धम्मज्झाणोवगतो उबसंता सुसाहुभूतोय। सम्बिदिय संवुडओ तह संजमतो य साहूणं ॥ १ ॥ इरिएसण भासामु य निक्लेवंनिय तहा विउवसग्गे । तंकालमप्पमत्तो जह साहुजणो तहा होज्जा ॥ २ ॥ तस्स पंच अतियारा मणदुप्पणिहाणं, पणिधी नाम निरोधो मणसः तं मणं ण सुट्ट निरोधेति, चिंतेति पोसहिते- इमं च सुकर्य धारे इमं दुकडयंति, वायादुप्पणिहाणं ण सुछु वार्थ सावज्जेण संभति इमं वा करेह इमं वा ममत्ति सावज्जं उवदिसति, कायदुष्पणिहाणं ण पडिलेद्देति ण पमज्जति ण वा ठाणणि (307) सामायिकं ॥३०१ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः CASS प्रत शिक HEIG ॥३०॥ सूत्र सायणादिसु, उल्लंघणमाति वा करेज्जा, ण वट्टति सामातियस्स, सतिअकरणया नाम अब करेति, अहवाण जाणति-किं सामा-18/ देशावकातियं कयं ण कयं यत्ति, एवं विभासा, सामातियस्स अणपट्टियस्स करणया णाम सामातियं काऊणं पुणो तक्षणं चेव पारंतोल चेव चच्चति, ण पट्टति एवं, जदि चिरं अच्छति तो करति, अहया सव्यं वावार काऊण जाधे खणितो ताहे करेति तो से ण भज्जति, एवं विभासा । धन्ना जीवेसु दयं करेंति धन्ना मुदिट्टपरमत्था । जावज्जीव व दयं करेंति एवं च चिंतेज्जा ॥१॥ कतिया णु अहं दिक्खं जावज्जीवं जहडिओ समणो । णिस्संगो विहरिस्सं एवं च मणेण चिंतेज्जा ॥२॥ देसावगासियं नाम देशे अवकाशं ददातीति, पूर्व दिक्खु तं बहूणि जोयणाणि आसि, दाणि दिवसे दिवसे ओसारेति गाजत्तियं जाहिहिति, राति तंपि उबारेति दिसं उबक्कमति, एत्थ दिट्ठीविससप्पदिट्ठतो, पुष्यं तस्स बारस जोयणाणि दिडीए 8 विसतो आसि, पच्छा तेण विज्जावातिएणं ओसारितो जोयणे उवितो, एवं सावओ दिसिब्बए बहुयं अवरझियातितो पच्छा देसावगासिएणं तंपि ओसारेति, अहवा बिसदिहूँतो, अगदेणं एगाए अंगुलीए ठवियं विभासा । एवं सापोऽवि आवकहियातो दिसिव्वयातो दिणे दिणे ओसारेति जाव अज्ज घरातो ण णामि गामणगरउज्जाणातो, अह जातितुकामो होति सो भणति-14 अज्ज पुरत्थिमेणं जोयणं दो तिथि जत्तिए वा जोयणे गंतुकामो, अण्णतरएणं दिबसेण तस्स आकारं करेति, किंचिमित्तविराह ओचि सेसाणं अविराहो, अण्णे भणति-एवं वएसु जे पमाणा ठविता ते पुणो दिवसे ओसारेति, एवं-गगमुहुनं दिवसं राति ॥३०॥ हापंचाहमव पक्ष था । वतमिह धारेउ दर्द जावतियं तुच्छहे कालं ॥१॥ पुढविदगअगाणमारुयषणस्सती तहा। मातसेसु पाणसु। आरंभमेगसो सब्यसोय सत्ती बज्जेज्जा ।। २॥ण भणेज्ज रागदीसेहिं दूसितं णवि गिह दीप अनुक्रम [६३-९२] RESCkCOMCHECREAM (308) Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान CERICA चर्णिः ॥३०॥ | स्थसंबंध ।'भासेज्ज धम्मसहियं मोणं च करेज्ज सत्तीए ॥३॥ण य गिहिज्ज अदिन्नं किंचिति असमिक्खियं देशावकाच दिलंपि। भोयणमहवा विसं तु एगसो सव्वसो बावि ॥४॥ होज्ज य परिमाणकडो सावि दारंमि बंभ-12 शिकं यारी य। दढधितिम पंडियतो दुगुंछतो कामभोगाणं ॥ ५॥ संसुवि अत्थेसु तु तक्कालं तेसु णातितिण्हातो। पच्छाए एगदेस अहवा सव्वपि जो इत्थं ॥६॥णाऊण जाव भोगे भोगे य अणुव्ययं तहिं कुज्जा । सत्तीए एणसो सव्वसो य गिहिसुब्बतो मतिमं ॥७॥ दंडं समयविवुधो चएज्ज तो दिमित्तरं कालं । देसं उद्दिसितं तो पच्छारंभ परिहरेज्जा॥८॥ देसावकासियं खलु णायव्वं अप्पकालियं एत्तो । एकमवि वयं कुज्जा पडिमं च तहाल |ससत्तीए ॥ ९॥ एयस्स पंच अयियारा-सतंपि अवच्चतो जदिमं कारेवि तो विराहेति देसावगासिय, आणावेति अनं संतितं प|स्थितं जथा असुगातो ठाणातो असुगं आणेज्जा । संदेसं दिसति सयणं वा मज्झ अज्ज देसावगासियं जाव अमुगं खेत्तं गाम वा तत्थ परिभाएति अमुगो एतत्ति, एवमादि विभासा । अण्णे भणंति-अमणुण्णपयोगे अमणुण्णा सद्दादी जाया तो सदेसस्स चेष मज्झे अच्चत्थं बच्चति जत्थ तेसिं संपातो ण भवति, चिंतेइ बा-काहे पोसहो पूरिहिति तो अन्नत्थ वच्चीहामो इत्यादि, पेसवणं संतिपत्थियं भणति-एयं तत्थ नेह, खेचं वा गाम वा, सदाणुवातो गंधव्वं वकृति, सो तत्थ ठितो ण सुणेति, ताहे तत्थ अत्तणा गंतूणं णिसामेति, अतियरति, अहवा तस्थ ठितो जत्थ सो आगच्छेति, रूवाणुवातो तत्थ संतो णटुं लोमंथियं वा पेच्छति ॥३०३।। देसावगासियस्संतो, एवं आसहत्थिरायादि जथा वा सो पेच्छति, तया गंडमंडाणि छिदति ताहे सो एति, पहिया पोग्गलक्खेवोक गाम खेत्ते परोहडे घा तोतिण्णं पहाणेणं कद्वेण वा वावारेति,तत्थ ण बच्चति, मा किर देसावगासियं भज्जिाहीत्ति, एवंण कायव्यं । अनुक्रम [६३-९२] *SHRISHRASEX (309) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 पोषधोपवासः HEIG दीप अनुक्रम [६३-१२] प्रत्या- एवं देसावगासिते कए परेण पाणादिवायमुसावायअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहा य ते पच्चक्खाया भवंति । एत्थ भावणा-सव्वे य च्यान सव्यसंगेहिं वज्जिता साहुणो णमंसज्जा । सब्बेहिं जेहिं सव्वं सावज्जं सवओ चत्तं ॥१॥ चूषि सूत्र | पोसहोपवासो पोसह उववासः, पोसहो चउबिहो-सरीरे पोसहोर देसे अमुग पहाणादि न करेति, सव्वे पहाणमद्दपावनग. ॥३०४ागविलेवणपुष्पगंधाणं तथा आभरणाण य परिच्चातो, अव्वावारपोसहो णाम देसे य सथ्वे य, देसे अमुगं बा बावारं ण करेमि, सब्बे ववहारसेवाहलसगडघरपरिकम्ममातितो ण करेति, बंभचेरं २ देसे दिवा रानि वा एकसि दो वा, सव्वे अहोरत्तं चंभयारी, हारे २दसे अमुगा विगती आयंबिलं वा एकसिं बा, सब चउच्विही आहारो अहोरतं, जो देसे पोसह करेइ सो सामातिय करति वा ण वा. जो सच्चपीसह करेति सो नियमा करेति, जदि ण करेति वंचिज्जति । तं कहि?, चेतियघरे साधमले घरे वा पोसहसालाए |वा, तोम्मुकमणिसुवण्णो पहुँतो पोथगं वा वायंतो धम्मज्झाणं झियायति, जथा एते साहुगुणा अहं मंदभग्गो असमत्थोत्ति शविभासा, तं सत्तितो करेज्जा तयो उ जो वनिओ समणधम्मे। देसावगासिएण व जुत्तो सामातिएणं वा ।। १ ।। सम्वेसु कालपब्वेसु पसत्थे जिणमए तहा जोगो । अट्ठमि पन्नरसीसु य णियमेण हवेज्ज पोसहितो ॥२॥ तस्सवि | * अतियारा दुप्पडिलहियं चक्मुना सज्ज दूरुहति करेति वा, दुप्पमज्जितं करेति सेज पोसहसालं वा, आदने निक्खिपति वा, | सुद्धे वा वत्थं भूमीए कातियभूमीए, कातियभूमीओ वा आगता पुणरवि ण पडिलेहति, एवं अप्पडिलेहणाए बहुतरा दोसा, एते चव उच्चारपासवणेवि विभासियथ्या, पोसहस्स सम्मं अपाणुपालणया शरीरं उबदेहति दाढीयातो वा केसा वा रोमरातिं या सिंगाराभिप्पाएणं संठवेति, बाहे वा सिंचति, अव्वाबारे बाबारेति, कयमकयं वा विचिंतति, वंभचेरे इहलोतिया पारलोइए या ॥३०४॥ (310) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 यथासंविभागः प्रत HEIG [सू.] प्रत्या भोगे पत्थेति संवाधेति वा, अहवा सद्दफरिसरसरूवगंधे वा अभिलसत्ति, संभचेरेण पोसहो कया पुज्जिहिति चइयामो भचेरेणंति, ख्यान आहारे एग सव्वं वा पत्थेति, बीयदिवसपारणगस्स चा आढत्तियं करेति इमं वा तिमं वत्ति, ण बद्दति । उग्गं तप्पंति तवं ज चणि दाते तेसिं णमो सुसाहणं । णिस्संगा य सरीरेवि सावओ चिंतए मतिमं ॥१॥ सूत्र अहासंविभागों णाम जदि अहाकम्मं देति ते साधूर्ण महव्यए भंति, हेडिल्लेहि संजमठ्ठाणेहिं उत्तारोति, तेण आहा-| कमेणं सो अहासंविभागो न भवति, जो अहापबत्ताणं अण्णपाणवत्थओसहभेसज्जपीढफलगसज्जासंथारगादीण संविभागो | सो अहासविमागो भवति, फासुएसणिज्जसंविभागाचि भणियं होति, तेणं पोसहं पारणं साहूणं अदातुं ण वहति पारेत, पुचि साहूणं दातुं पच्छा पारितव्वं, काए विहीए दायव्यं ?, जाहे देसकालो ताहे अप्पणो सवसरीरस्स विभूसं अविभूसं| | वा काऊणं साहुपडिस्सयं गतो णिमंतेति-भिक्खं गेहहति, साहूणं का पडिवत्ती, ताहे अमो पडलं अनो भायणं पडिलेदेति, मा | अंतरातियदोसा ठवियदोसा य भविस्सन्ति, सो जदि पढमाए पोरुसीए निमंतेति अस्थि य नमोकारसित्ता ताहे घेप्पति, जदि णस्थि ताहेण घेप्पति, तं धरियच्वं होहित्ति, सो घणं लग्गेज्जा ताहे घेप्पति संचिक्खाविज्जति, जो वा उग्पाडपोरिसीए पारेति पारणगइत्तो अन्नो वा तस्स विसज्जिज्जति, तेण सावएण सह गम्मति, संघाडतो वच्चति, एगो ण वकृति, साहू पुरतो. साबमो पच्छा, तो घरं जाऊण आसणेणं निमंतेति, जदि णिबिट्ठो लहूं, जदि ण णिविट्ठो विणतो पउत्सो, ताहे भचपाणं सयं देति अहवा भाजणं धरेति, अहवा ठितो अच्छति जाव दिन, सायससं च गेण्हियवं पच्छेकम्मादिपरिहरपाडा, दाऊणं बंदित्ता त्रिसज्जेति, अणुगच्छति, पच्छा सयं भुजति, जे च किर साहणं ण दिणं तं सावरण ण भोत्त, जहिं पुण साहू णत्थि तेण, देसकालवेलाए । दीप अनुक्रम [६३-९२] SACARDARA ॥३०५॥ (311) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक . दीप अनुक्रम [६३-९२] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [६] मूलं [सूत्र / ६३-९२] / [ गाथा-], निर्बुक्तिः [१६५२-१७१९ / १५५५-१६२३] भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥३०६| - दिसालोगो कायच्चो विसुद्वेणं भावेणं, जदि साहूणो होन्ता तो णित्थारिओ होन्तो, एसा विही। णाणीसु बंभचारीसु भत्तीए गिट्टी अणुरगहं कृज्जा । पाविउकामो पवरं इह परलोगे य दाणफलं ॥ १ ॥ तं च पंचतियारविसुद्ध दायचं, म पाणं वा कंदादीणं ( मायणे निक्खिपति) चाद्रा (१) एवं पिहितुंपि ण वट्टति तं साहू ण गिति, कालातिकमो पर हिंडतित्ति ण उस्सारेयब्वं, उस्सूरेति वाण उस्सकावेयब्वं, जा वेला सच्चे अहवा जाहे ते डिंडिडं नियत्ता ताहे निमंतेति, ताहे किं तेण १, उक्तं च-अणागतं तु गोविंदा, वर्तमानं तु पांडवाः । अतिक्रान्तं धार्तराष्ट्रास्तेन ते प्रलयं गताः ॥ १ ॥ काले दिन्नस्स पहेणयस्स अग्घो न तीरए कातुं । तस्सेवाकालपणामियस गेण्हंतया नत्थि ॥ २ ॥ परववदेसो नाम विज्जमाणेवि अनं ववदिसति अनुगस्स अत्थिति मग्गितो समणं, अहवा परेण दवावेति, अबज्जाए परं वा उद्दिस्सावेति अनुगस्स पुत्रं होउ मयस्स जीवंतस्स वा मच्छरियता नाम मग्गिते रूसति, संत वा मग्गितो न देति, अएण वा दिनं अहं किं ता ऊतरोः अपि देमि, तम्हा साहुं उवरि पसन्नचिचेण दायध्वं । वरसाधुगुणसमिद्धं साधुजणं साधुवच्छलं पूए । तस्स उ भत्तीए होति धम्मो ( एसो) जिणपसत्थो || १ | ते जं करेंति धीरा मुसाहूणो साधुवच्छलं धम्मं । तेसिं भत्तीए गिद्दीवि होति धम्मेण संजुत्तो ॥ २ ॥ कालमि वट्टमाणे अतीयकाले अणागते चेव । अणुजाणदि जीवदयं समणे भावेण वंदतो ॥ ३ ॥ तो सकारेयब्वा धुवेण वरधम्मचारिणो नियतं । कायव्वा जीवदया होति निस्सेसकामेण ॥ ४ ॥ धनो अणुग्गहीतो संपत्ती जं मए इमा पत्ता । चित्तं पत्तं मतिसुद्धता य एवंति कलाणं ॥ ५ ॥ (312) यथासंविभागः ॥३०६ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रत्याख्यान चूर्णिः HEIG ॥३०॥ [सं.] एमेवेसो दुवालसविहो गिहत्थधम्मो । एत्थ पंच अणुध्वया तिण्णि गुणवया, एएसि दोहवि थिरीकरणानि चचारि सिक्खा- उपसंहारः वयाणि इतिरियाणि, सेसाणि अद्दपि आवकहियाणि णायपाणि । एयरस मलं सम्मन, उक्तं च-द्वारं मूलं प्रतिष्ठानमा संलेखना आधारी भाजन निधिः । द्विपदकरपास्य धर्मस्य, सम्यग्दर्शनामध्यते ॥ १॥ तं दुविह-निसग्गेण वा अभिगमेण वा, णिसम्गो जहा सावगपुत्तनतुयाणं, अभिगमेणं जे सोऊणं पढिऊण य जायति, तस्स अतियारा पुष्यभणिया । एस दुवालसविहो, एक्कारस पडिमाओ अभिग्गहा य अणेगे, एवं मए दाय, भावणातो आणिच्चयातीतो, पच्छा किर पञ्बतियन्वं, सो सावग| धम्मे उज्जमितो भवति ॥ ताहे भत्तपच्चक्खाणं संथारसमणेण भवियव्वं, अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाजूसणाराहणा, अपच्छिमग्गहणं मंगलार्थ, 12 मरणांते-तज्जीवितपर्यते भया मारणांतिकी, संहेलणा दुविहा दब्बे भावे य, दब्बे फलगादि मंस सोणियं वा, मावे कोधादि, जुपी: प्रीतिसेवनयोः' आराहणा अतियारविसुद्धया । तस्स पंच अतियारा इहलोतियं रिद्धिं पत्थेति रायसिट्टिमादीणं, पारलोइया देवो | होमित्ति पत्थेति, जीवितासंसप्पओगी जीवितुं देवादीहिं पूजितो इच्छति. अणिटेहिं फासातीदि पुट्ठो मरिउमिच्छति, काम-12 भोगासंसा जहा वंभदत्तेग कयं ॥ एसो सावगधम्मो, अह इयाणि सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणं,आह-कि सावगधम्मो मज्झे कतो, एसो सावगाणं, ते सव्युत्तरगुण पच्चक्खाणं एत्थ किंचि सावगाणं सामन्नति । तत्थ-पच्चक्खाणं उत्तरगुणेमु०॥१६६०॥8॥३०७॥ उत्तरगुणपच्चक्षाणं जंत खमणादीयं अणेगविह, आदिग्गहणणं अभिग्गहणजोगा अणेगविहा, तं पुण इमं दसविह, तंजडा-121 अणागयमतिक्कंसं० ॥ २०-२३ ।। १६६१ ॥ संकेतं०।।२०-२४ ॥१६६२।। तत्थ अणागयं पच्चक्खाणं, जहा अणागयं तवं SEX दीप अनुक्रम [६३-१२] REC) (313) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) Mara प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [ सूत्र / ६३-९२ ] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [१६५२-१७१९ / १५५५-१६२३], भाष्यं [ २३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 ४करेज्जा, पज्जोसमणगहणं एत्थ विकटुं कीरति सव्वजदृष्णो अङ्कुमं, जहा पज्जोसमणाए तथा चाउम्मासिए छठ्ठे पक्खिते अमस अण्णेसु य ण्हाणाणुजाणा तितेसु, तहिं अंतराइयं होज्जा, गुरु-आयरिया एर्सि मत्तपाणादिवैयावच्चं कायव्वं, किं. १, वे उवासं ण करेंति, असहू वा होज्जा, जहा सिरितो, अहवा अन्ना आणत्तिया होज्जा कायव्विता गामंतरादिसु सेहस्स आणेयव्वं, ||३०८|| ६ सरीरवेतावडिगा वा, ताहे सो उपवास च करेति गुरुत्रेयावच्चं च ण सक्केति, जो अष्णो दोपहवि समत्थो सो करेउ, जो वा अण्णो असमत्थो उपवासस्स सो करेउ, णत्थि न वा लभेज्जा ण याणेज्जा वा विधि ताहे सो चैव पु उववास काऊन पच्छा तदिवस भुजेज्जा, तबस्सी णाम समतो तस्स कायव्यं होज्जा, किं तदा ण करेति, सां तीरं पत्तो पज्जोसवणा य उस्सरिया, असहुत्ति वा सयं पारावितो ताहे सयं हिंडेडं असमत्थो, जाणि अवभासे तत्थ वच्चंतु, णत्थि ण वा लम्भति सेसं जहा गुरुम्मि विभासा, गेलन्नं-- जाणति जथा तर्हि दिवसे असहू होहामि, वेज्जेण वा भणिय अमुगं दिवस कीरहित्ति, अहवा सतं चैव जागति सगंडरोगातिएहिं तेहिं दिवसेहि असहू भविस्सामि, सेसविभासा, जहा गुरुम्मि करणं कुलमणसंघादि आयरियगच्छे वा तहेव विभासा । पच्छा सो अणागए काले करतृणं पच्छा जेमेज्जा पज्जोसवणादीहिं तदेव सा अणागते काले भवति । अतिक्कन्तं णाम पज्जोसवणाए तवं तेहि कारणेहिं ण कीरति गुरुतवस्सिगिलाण कारणेहिं सो अतिक्कंते करेति, तहेब विभासा । कोडिसहितं णाम जत्थ कोणी कोणो य मिलति, गोसे आवासे पकए अभत्तट्टो गहिती, अहोरत्तं अच्छिऊणं पच्छा पुणरवि अभत्तङ्कं करोति, चीयदुवणा पढमस्स य निडवणा, एए दोणि कोणा एगत्थ मिलिता एवं अट्ठममादि दुहओ कोडीसहियं, जो चरिमदिवसों तस्सवि एगा कोडी, एवं आयंत्रिलं णिब्जिए य, एगासणएगठाणाणवि, अहवा इमो अण्णो विही-श्रमत्तट्टो कतो, आयंबिलेण पारियं, प्रत्याख्यान चूर्णिः ... अथ प्रत्याखान-विषये दृष्टान्ता: (314) उत्तरगुणप्रत्याख्यानं ॥३०८॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [ ६ ]. मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १६५२-१७१९ / १५५५-१६२३], भाष्यं [ २३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्या ख्यान चूर्णिः ॥३०९ ॥ पुणरवि अभलको कीरति आयंबिलेणं पारेह, एत्थ संजोगा कायव्या णिन्त्रितीकादिसु सब्बैसु सरिसेसु बिसरिसेसु य नियंटियं नाम नियमितं, जहा एत्थ कायमचं अहवा छिन्नं पुवं, एत्थ अवस्स कायव्यति मासे अमुको अमुको दिवसे चतुत्यादि अट्टममाति ५ एवतिओ छद्वेण वा हट्टो तात्र करेतिच्चिय जदावि गिलाणो होति तयावि करेति च्चेव, णवरं ऊसासो घरउ । एयं पच्चक्खाणं णियंटियं धीरपुरिसपन्नन्तं । जं गिव्हंतिऽणगारा पदमसंघगणी अणीसाणा ॥ १ ॥ इह परत्थ य । अह्नवा न ममं असमत्थस्स अण्णो काहिति सरीर एव अपडिबद्धा, एयं पुण चोदसपुच्धीसु पढमसंययषेण य जिणकष्येण य समं बोच्छिनं, थेरावि तदा करन्ति । सह आगारेहिं सागारं ते आगारा उबरिं भन्निर्हिति तं पुण अभचट्टो पच्चक्खातो, ताहे आयरिएि भणति अगं गामं जातियव्वं, तेण निवेदेतव्यं मम अज्ज अभट्ठो जदि य समत्थो करेउ जातु य ण तरति तो अन्नो बच्चउ, गत्थि असमन्थो ण वा तस्स कज्जस्त समत्यो ताहे से गुरू विसज्जैति, एवं किर तस्स तं जेमंतस्सवि अणभिलासस्स अमट्टि - यस्स णिज्जरा जा सच्चेव पत्ता भवति गुरुणिओएणं, एवं उपरलंभवि विणस्सति अच्छत्तविभासा, जदि थोवं ताहे जे णमोक्कारपोरुसिया तेसिं विरज्जिज्जति, जे वा असहू विभासा, एवं गिलाणकज्जेसु अण्णतरेसु वा कारणेसु कुलगणसंघकज्जादिविभासा, एवं जो भत्तपरिच्चार्य करेति सागारकडमेतं । अणागारं नाम निम्मज्जायं, जथा एत्थ आगारा न कायच्या, एवं परिणिट्ठियंतस्स जहा नत्थि एत्थ किंचिवित्ति महत्तरगादि आकारा ण करेति, अणाभोगसहसकारे करेज्जा, किं निमित्तं ?, कडे या मुहे पक्खिवेज्जा अणाभोगेण सहसा वा तेण से आगारा कज्जेति । तं कहं होज्जा ?, कंतारे जहा सिणवलीमाइए बत्ती न लब्भति, पडिणीएण या पडिसिद्धं होज्जा, दुभिक्खं वा वट्टति हिंडतस्सवि न लब्भति, अहवा णं जाणति अहं ण जीवामिति, ताहे (315) दश प्रत्याख्यानानि ॥३०९॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः RUSBE दश प्रत्याख्यानानि प्रत सत्राक ॥३१॥ सू. णिरागारं पच्चस्खाति । परिमाणकडं नाम दत्ती, अज्ज मम एक्का वा २, ३, ४, ५, ६, ७,८,९,१०, किं च दत्तीए तापमाणं', छप्पकपि जदि एक्कर्सि छन्भति एक्का दत्ती, डोविलयपि जदि वारे पफफोडेति तावपियातो दत्तीतो, एवं कब लेणं एक्केण दोहि जाव बत्तीसा, दोहि ऊणगा कवलेहिं परेहिं एममादिएहिं २, ३, ४, ५, ६, ७, मिक्खातो एगादियातो, दवं अगं ओदणो खज्जगविही वा जहा अज्ज आयंबिलं कायव्वं अमुग वा कूसण सीहकेसरगा या एवमादिविभासा, एवं परिमापकडं । जो असणस्स सत्तविहस्सपि योसिरति, पाणगाण पुण विविहाणं खंडपाणगादोणं, खातिम णेगविहं फलमादि, सातिम गविहं मधुमादि, तं सव्यं योसिरति । एवं निरवसेसं पच्चक्खाणं । साकेयं णाम केयमिति गृहण्याख्या, गृहवासिना प्रत्याख्यानमित्युक्तं भवति, द्वितीयोऽर्थः- केयं णाम चिण्डं पच्चक्खाणे जाच एयं ताव ण जेमिमिति । तत्थ गाथा अंगुह । २०-३७ M॥१६७४ ।। सावतो पोरिसिं पच्चक्खाइत्ता खत्तं गतो, घरे वा ठियस्स ण ताव सिज्झति, ताहे किर न वट्टति ता अपञ्चक्खा णिस्स अच्छिउं ताहे अंगुट्ठगमुटुं करेति जाव ण मुयामि ताव न जेमिमित्त जाव वा मुद्धि मुयामि जाब वा गठिं न सुयामि एवं जाव घरंण पविसामि जाव सेदो ण णस्सति जाव एवतियातो उसासा जाव एवतियाता नीसासा थिभागो पाणे मंचियाए वा जाव देवता जलंति ताव न मुंजामित्ति, ण केवलं भत्ते, अण्णसुवि अभिग्गहबिसेसेसु । अणे भगंति-सम्बंपि संकेतपच्चक्खाणं ४ा साहुणावि कायध्वंति,पुण्णे काले किं अपच्चकूवाणिणा अच्छियबंति॥ अद्धा नाम काला, कालो यस्स परिमाणं तं कालेण अवरइंति कालपरुचक्खाण, णमोक्कारपोरिस०॥ २०-३८ ॥१६९३।। णमोक्कारपोरिसि पुरिम पच्छिमडादि अद्धमास मासा,चसद्देण दो दिवसा तिनि दिवसा मासे वा जाव छम्मासोति पच्चक्खाति। रएर दीप अनुक्रम [६३-९२] CAR (316) Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत ध्यानानि प्रत्याहयान चूर्णिः सत्राक ||३१शा सू.) एवं अद्धापच्चक्खाणं, भणियं वसविहं पच्चक्रवाणं । एत्थ सीसो आह-जहा साहू पाणातिवायं ण करति ण कारवेति करतंपि है अदाप्रत्याअण्णं ण समशुजाणति एवं किं अभत्तट्रे पच्चक्खाए सपण जति अण्णेणविण मुंजावति', उच्यते, एयं सयं चेच पालनीयं, दाणपि साहूर्ण दवावेज्जा वा उवदिसेज्ज वा दार्ण, सयं पा भुजति, अण्णेसि आणेत्ता देति, संतं विरियं न निगृहेतव्वं, अण्णेण आणावेति जहा अगस्स आणेहित्ति, उबदेसो-तेणं पाणगस्स गएणं संखडी दिवा, सर्व वा गएणं सुया व होज्जा, ततो भष्ण ति ब-अमुगस्स संखडित्ति उपदिशति, परिजिते गंतुंपि दवावेज्जा वा, उपाधि सेज्जा वा, जहा जहा साहूर्ण समाही अप्पणो य तहा तहा जइयत्वं ।। एयस्स दसविहस्स पच्चक्खाणस्य वा सत्तावीसतिविहस्स वा तं पंच महब्बया दुवालसविहो साधगधम्मो दसविधं उत्तरगुणपच्चक्खाणं, एते सत्तावीस,एयस्स छबिहा विसोही-सहहणा जाणणा विणय अणुभास अणुपाल भावविसोही हपति छठा,तरथ सपहणासोही सवण्णूहि देसियं सत्ताबीसाए अषतरं जहि जिणकप्पो वा अहवा चाउज्जामो वा जहा दिवसतो या रत्तीए वा सुभिक्खे वा दुभिक्खे वा पुग्धण्दे या अवरोहे या चरिमकाले वातं जो अवितहमेय(ति सहति तं)सद्दद्दणासुदं १ जाणणासुद्धं णाम जाणाति जिणकप्पियाणं एवं चाउज्जामियाणं वा एवं सावगाण मुलगुणाण उत्तरगुणाण यसं जाणणासुद्धशविणयसुद्धं णाम जो कितिकम्मरस जे गुणा ते अहीणमतिरित्ता पउंजित्ता ओणयकातो दोहिचि हत्यहिं स्यहरणं गहाय पंजलिउडो उवट्ठाति पच्चक्खावेतित्ति एवं ॥३१॥ विणयविसुद्धं ३। अणुभासणासुद्धं णाम जे गुरू उच्चारैति तं इमोवि सणियागं उच्चारेति अक्षरेहि पएहिं वंजणांणि अणुच्चारो पंजलिकडो अभिमुहो तं जाणऽणुभासणासुद्ध, आयरिया भणंति-बोसिरति, सो भणति गोसिरामि ४ अणुपालणासुद्धं णाम दीप अनुक्रम [६३-१२] PEECReci (317) Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र / ६३-९२ ] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ १६५२ - १७१९ / १५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥३१२॥ ४ बायालीसं दोसा पडिसिद्धा णिच्च ते जो आवतएवि ण य पडिसेवति तं अणुपालणासुद्ध, का पुण आवति ?, कंतारे दुम्भिक्खे आतंके वा जो ण मंजति तं अणुपालणासुद्धं । आह-णणु जं पालितं तदेव अभग्गमेव यदेव णो भग्गं तदेव पालेति, उच्यते, पालितग्रहणे कृते यदभग्नग्रहणं क्रियते तत् ज्ञाप्यते अववादतो यतनया प्रतिसेवा तत्पालितमेव भवति, जम्हा अपायच्छिती भवतित्ति५ । ४ भावावसुद्धं णाम रागेणं एसो लोए पूएज्जइत्ति एवं अपि करोमि तो पुज्जीहामित्ति रागेणं करोति, दोसेणं तह करेमि जहा लोगो मम संमुहो होति, एवं दोसेणं दूसियं परिणामेणं, जो इहलोगट्टयाए कित्तिजसहेउं अष्णपाणवत्थलेणसयणहेडं वा ण करेति एवं भावसुद्ध ६। एते गुणा, पडिवक्खतो असुद्धं, असद्दहणाए असुद्धं अजाणणाए अविणएणं अणणुभासणाए अणणुपालणाए भावतो असुद्धं, अहवा इमेहिं कारणेहिं भावतो असुद्ध थंभा माणिज्जिहीहामि एसो माणिज्जति अपि करोमि, कोहेणं अभत्तङ्कं करेति अंबाडितो णेच्छति जेमेउं, अणा भोगेणत्ति किंचि पच्चक्खायंति तहवि समुद्दिसति जिमिएणं संभरियं भत्तपच्चक्खाणंति, अणापुच्छा जेमेति ण आयरिए आपुच्छति, अहवा अणापुच्छा सयमेव पच्चक्खाया, अहवा वारिज्जीहामि जथा तुमे अम्मतट्टो पच्चक्खातोरी, अहवा जेमेति तो भणीहामि विस्तरितंति, असंतती नाम णत्थि एत्थ किंचिविता वरं पच्चक्खावंति पच्चक्खाति, परिणामो पुव्वभणितो इहलोगादी, अहवा एसेव परिणामो थंभादी, विद्नाम परिन्नायान्, सो य जाणतो करणजुत्तो य, सो पमाणं, एवमादि जाणिऊण वा विधिकरणपवत्तो एत्थ पमाणं भणियं होति, अमुद्धो वादोति अपि करेमि मा णिच्छुभीहाभित्ति एएण अवाएणं पञ्चकखावेति ण चट्टति, तम्हा जाणतो एते दोसे परिहरति तेण सो पमाणं । णामणिप्फनो गतो । सुत्तालावगनिप्फनो सुत्ताणुममो य सुत्तफासियनिज्जुती य एगंतओ णिज्जंति, तत्थ सुत्ताणुगमे संधिया य० सिलागो । संघिता सुतं (318) विशुद्धिषट्कं | ३१२ । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत चूर्णिः HEIG * प्रत्या णमोक्कारं पच्चकग्वाति सूरे उग्गए चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं सातिमं । एमेव पदच्छेदो, "अस प्रत्याख्याख्यान- मोजने" एवं लोगे, उत्तरे उ आसुं खुधां शमयतीत्यशनं पा पाने लोगे, उत्तरे उ प्राणानामुवग्रहं करेति तेन पानमिति भवति, नानि खाह भक्षणे खाज्जत इति खातिम लोके, उत्तरे खमित्याकाशं नच्च मुखाकाशं तस्मिन्मायत इति खातिमं, 'स्वद आस्वादने' ॥३१३॥ लोके, उत्तरे गुणान् सावयति सातिम, तस्य द्रव्यस्य परमाण्वादयो गुणानास्वादयमानाः सादयंती विनाशयतीत्यर्थः संयमगुणान् | वा स्वादी स्वादिम, एगपदत्वामास्ति विग्रहः. आक्षेपयती-आसु खुधं समेतिनि असणं; तेण पाणपि असणं क्षीरघयादि, फलाणि || खातिमानि खुहं समेति, साइमंपि महुगुडादी खुधं समेति, एवं चउसुवि विभासा, असणंपि पाणाणुग्गहकर, एवं सम्बंपि खादि-13 |मादि, सव्वेसिपि गुणा सातिति, आचार्य आह-बाद, सध्योऽधिय आहारी असणं०॥ २०-५६ ॥ १६८६ ।।।। किंतु असणं पाणं खातिम सातिमं एवं परूविए मुह सद्दहिउं आयरियपच्चक्खावतयाणं सुई दाउं पच्चक्खाणं तेसिं आयरियस्स, दिदि पुण असणंति करेज्जा तो जया असणंति पच्चक्खाइज्जति तो पाणयं अपरिचत्तयं, अपरिचतस्स ण बद्दति पाणगं काउं, | रसविगइओवि अपरिचयंतस्स न वट्टर आहारेउँ, अहबा जदि सव्वं असणंति करेज्जा तो पाणगं अपरिच्चयंतो तिविहमाहारं ण शपरिच्चइहितित्ति दसविगतीतो वा ण परिच्चइहितित्ति एवं विभासा, जम्हा एए दोसा तम्हा चउब्यिहो असणादिविभागो कओ।४ ल इमं असणन्ति व्यवहर्तव्यं इमं पाणकमिति इत्यादि । तत्थ सीसो भन्निहिति-अथणस्थ णिधित्ती ( वडिए१६८९॥ ॥३१३!! सीसो अायदेउं उपहितो भए पोरिसी पच्चक्खायबत्ति, तो कहमवि सहसा भणियं-पुरिमई पच्चक्खाइ, ताहे पच्चक्खायब, तस्थ कयरं पाणं किं ताव वंजणाणि पमाणं अह संकप्पियं?, भणति-संकप्पियं, जं अणुवउत्तरस पंजणुरुचारणं व आयरियस्स %% दीप अनुक्रम [६३-१२] ER-EN-२-२ (319) Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक म. दीप अनुक्रम [६३-९२] "आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र / ६३-९२ ] / [ गाथा - ], निर्युक्ति: [ १६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [ २३८-२५३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥३१४॥ .. तं प्रमाणं, ते अस्स तणगा आगारा छलणा सा अणुवउत्तस्स, एवं अनेसुबि पच्चक्खाणेसु णायच्वं । तं पञ्चक्खाणं कयमवि इमेहिं कारणेहिं सुद्धं भवति, तं० फासिय० ।। १६९० ॥ तत्थ फासियं च फासियं नाम जदि सो कालो अभग्गपरिणामेण अन्तं णीयो भवति, फासिय नाम जं अंतरा न खंडेति असुद्धपरिणामो वा अन्तं नेति १ पालियं पुणो पुणो पढिजागरमाणेणं जदा तेणं महुरावाणियतेणं निसह पुस्तोक्खेवतो संमं अणुपालितो पच्छा निरंतरेणं पीती जाया उपसंहारो, चितिएणं ण पालितो एवं जो पुणो २ पडिजागरति तेण तं पालियं २ सोभितं नाम जो मत्तपाणं आणेता पृथ्वं दाऊणं सेसं भुजति दायव्वपरिणामेण वा जदि पुण एक्कतो मुंजति वाहेण सोहियं भवति ३ पारियं च तीरियं च पारियं नाम जदि पुत्रमेत्तए पच्चक्खाणे जेमेति, ताहे पारं नीतं णो वीरिगं, तीरियं पुण जं पुणेऽवि मुहुत्तमेतं अच्छति असणं निरुंमति ४ किट्टियं जदि जमणवेलाए उकिचेति, जहा भए अनुगं पच्चक्खायन्ति, तुण्डिक्करणं भुजंतेणं ण कडियं भवति, एवं सम्बेहिं आराहियं अणुपालियं भवति ५ अनुपालियं नाम अनुस्मृत्यानुस्मृत्य तीर्थकरवचनं प्रत्याख्यानं पालियर ६ ।। खाण के गुणा, ( १६९१) आसवदाराणि पिडियाणि विमाणि ठतियाणित्ति भणितं होति, जीवस्स कम्मर्वधत्तार परिणममाणाण पोग्गलाण आगमो आसवो तस्स दाराणि आसवदाराणिति, आसवदारेहिं पिहितेहिं जा अज्झवसायतन्हा सा वोच्छिण्णा भवति, तण्हाए वोच्छिष्णाए प्रशमो भवति, अतुल मावे णरिथात्त भणियं होति एवं यदासी प्रशान्तो भवति । तदा तस्स पसमवसेणं अतुलं सुद्धं भवति, तेण ण दिट्ठीमोहो घुत्रो भवति, तेण पच्चक्खाणं सुद्धं भवति चशब्दाच्च सुद्धे (320) शुद्धिकारणानि प्रत्याख्यानगुणाः ॥३१४॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्या- प्रत चूर्णिः HEIG । ॥३१५॥ पच्चक्खाणे अतुला चारित्तधम्मपस्ती, अतुलचरित्तधम्मपसतीए अतुला कम्मनिज्जरा, अतुला. एवढमाणस्स अपुष्वकरणादी, 18 आकार ततो कम्मक्खतो, ततो केवलणाणुप्पत्ति, ततो कमेण य सेसकम्मक्खतो, ततो संसारविप्पमोक्खो, ततो सिद्धत्त, सिद्धस्स य अतुल व्याख्या | सोक्खं अव्वाबाहं भवतीति, एवं पच्चक्खाणे मोक्खोऽधिकाणितो गुणोत्ति, तच्च पञ्चक्खाणं दसविध णमोकार पोरिसी पुरिमळे जासणेगट्ठाणे य । • ॥१६९४ ।। एएसि आगारा दो छच्च सत्त० ॥ १५९५ ॥ तत्थ णमोकारस्स दुवे आगारा, तत्थ मच्छंतु ताव आगारा, णमोकारपचक्खाणं व ताव ण जाणामो, णमोकारं काऊणं जेमेउं वट्टति तम्हा जेमणवेलाए माणियध्वं-नगो अरहंताणं मत्थएण वंदामो खमासमणा ! णमोकारं पारेमित्ति । ते पूण एवं पचक्याण नमोक्कारं पच्चक्खाति सूरे उग्गते चउन्विहमाहारं असणं ४ अन्नत्थणाभोगेणं सहसाकारणं वोसिरति । अणाभोगो णाम एकान्तविस्मृतिः, निस्सरिएणं णमोकारं अकाऊणं मृहे टूढ़ होज्जा, संभरिते समाणे मुदतणगं खेलमाल्लए प्रोजे हत्थे सं पत्ते पच्छा भुजे, णमोकार काऊणं जेमेति तान मग्ग, सहसाकारे णाम सहसा मुद्दे पक्खितं, छहति, जाणतेवि तहेव ट्र * विगिचित्ता पमोकार काऊण अंजति पच्छा, एचपि किर जीवो आहारामिमुहो णियत्तिओ भवति, तेण तण्हाच्छेदणे णिज्जरा १॥ ॥१५॥ पोरिसीआगारा, पोरुसिं ताव न जाणामो, पुरुषनिष्पमा पोरुषी, जदा किर चउम्भागो दिवसस्स गतो भवति तदा सरीरप्पमा-18 गच्छाया भवति, तीसे छ आगारा । दीप अनुक्रम [६३-९२] ASKREKAR (321) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत HEIG [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] प्रत्या- सूत्र पोरुसि पच्चस्वाति चउब्धिपि आहारं असणं ४ अन्नस्थणाभोगणं सहसाकारणं पहनेणं कालेण आकारख्यान- मादिसामोहेण साहुवयणेणं सव्यसमाहिवत्तियागारणं वोसिरति । व्याख्या चूर्णिः अणाभोगसहसकारा तहेव, पच्छण्णातो दिसातो मेहेहिं रएहिं रेणुणा पब्बएण चा पुण्णेत्ति कए पजिमितो होज्जा, जाहेश ॥३१॥हाणायं ताहे ठाति, जे मुद्दे २ खेल्लमल्लए, जं लंचणे तं पत्ते, पुणो संदिसावेति मिच्छादुकडन्ति करेति, जेमेति, अह एवं न कति तदेव जेमेति तो भग्गं । दिसामूढो ण जाणहिति हेमंते जहा पोरिसी, जाणति अवरहे बट्टहनि, साहुबयणेणं अने साइट। भणति उग्घाडा पोरुसी, सो जेमत्ता मिणति अद्धजिमिते वा अण्णे मिणति तेण से कहियं जहा ण परितित्ति, तहेब ठातितन्वं ।। | समाधी णाम तेण य पोरुसी पच्चक्खाया, आसुकारियं दुक्खं उप्पनं तस्स अन्नस्स बा, तेग किंचि कायध्वं तस्स, ताहे परो | विज्जे(हवे)ज्जा तस्स चा पसमणणिमित्रं पाराविज्जति ओसह वा दिज्जति एत्थंतरा गाए नहेव विवेगो।। पुरिमडो णाम पुरिम दिवसस्स अद्धं तस्स सत्त आगारा,ते चेव छ,महत्तरागारो सत्तमतो, सो जथा पुच्वं मणिओशाएगामणगं नाम पुता भूमीतो ण | सूत्र चालिज्जति, सेसाणि हत्थे पायाणि चालेज्जावि, तस्स अट्ठ आगारा-अणाभोगणं सहसकारणं सागारिणं आउंटणपसारणण गुरुअन्भुट्ठाणणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरयागारेण सव्यसमाधि०। अणाभोगसहसकारे तहेब, सागारियं । अद्धसमुद्दिवस्स आगतं जदि बोलेति पडिच्छति, अह थिरं ताहे समायबाघातोत्ति उद्वेत्ता अपत्थ गंतूर्ण सम्रदिसति,हत्थं वा पायं| वा सांसं वा आउंटेज्जा वा पसारज्ज वा ण भज्जति, अन्भुट्ठाणारिहो आयरितो वा आगतो अम्भुद्वेयन्वं तस्स, एवं समुरिद्वयस्सल३१ | पारिट्ठावणिया जदि होज्जा करेति, महत्तरसमाहीतो तहेच ४॥ एकट्ठाणे जं जथा अंगुवंग ठवियं तहेव समुद्दिसितवं, आगारे से मू.(८५) एगासणं० मू.(८६) एगट्ठाणं० मू.(८७) आयंबिलं० मू.(८८) सूरे उग्गए अमत्तटुं० मू.(८९) दिवसचरिमं पञ्चक्खाई चउब्विहंपि असणं पाणं खाईमं साइमं० मू.(९०) भवचरिमं पञ्चक्खाई० मू.(९१) अभिग्गहं पञ्चक्खाई० मू,(९२) निव्विगइयं पञ्चक्खाई० (322) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः मन प्रत HEIG ॥३१७|| आउंटणपसारणं णत्थि,सेसा सत्त तहेब ५।। इयाणिं आयंथिलं, ताव न जाणामो कि आयविलं कि अणायचिलं च भवति?,आय-3 आकार बिलमिति तस्स गोष्णं नाम, अह समयकतं आयामेणं आंबिलेण य आहारो कीरति तम्हा आयंबिलति गोणं नाम, तं तिविह-मायाल्या ओदणं कुम्मासा सत्तुगा, तत्य आयंबिल आयंबिलपायोग्गं च, तत्थ तोदणो आयचिलं च आयंबिलपाउग्गं च, आयंबिलं | सत्त कूरा, जाणि वा कूरविकरणाणि, पायोग्गं तंदुलकणियातो कुंडतो पिटुं बहुगा भरोलगा उंडेरगा मंडगा कलमादी, कुम्मासा जहा पुव्वं पाणितो आकडिज्जति पच्छा उक्खलीते चुणिज्जति ताहे णवविहा कया सहा मझिगा धुल्ला, एते आयंबिल, आयविलपायोग्गा पुण जे तस्स तुसमीसा कणियातो कंकडगा य एवमादी, सनुया जवाण या गोधूमाण वा वीहीण या एए आयविलं, पायोग्गं पुण गोहमे भुजिता बाहुगा लाया जब जिया जे य जंतएणं ण तीरति पीडिउं रोहो, नस्स चेव कणिकाणाभी वा,एयाणि आयंबिलपओग्गाणि, तं तिविहंपि आयंबिलं उकोसं मज्झिमं जहणं, दबतो कलमसालिको उक्कोसो, वा जस्स पत्थं, उच्चए वा रालको या सामको वा जहण्णो, सेसा मज्झिमा । जो सो कठिमसालिकूरो सो रसं पडुच्च तिविहो-उकोसे मज्झिमो जहण्णो, |तं चेव तिविपि आयंबिलं णिज्जरागुणं पडुच्च विविह, उक्कोसो णिज्जरागुणो मझो जहण्णात्ति, कई... कलमसालिकूरी दव्य ओ उकोसं चेव फरिसेण समुद्दिसति, रसतोवि उकोस. तस्सच्चएण आयामेणवि उकोसं रसतो, जहणं थोषा णिज्जराति भणिय ल होति, सो चेच कलमोदणो जदा अण्णेहिं दब्बतो उक्कोसो रसतो मझिमगुणतो मज्झिमं चेव, जेण दय्वतो उक्कोसो, इयाणि जो हा॥३१७॥ मज्झिमा तोदणाते दब्बतो मज्झिमा अघिलेण रसओ उकासा गुणतो मज्झं, ते चेव आयामेणं दब्बतो जहणं रसो मा गुणओ मनं उपदोदएण दबजहण्णं रसजहणं गुणुकोसं, बहुनिज्जरति भणियं होति, अहबा उकोमए तिमि विभागा-उकोमुकोसे उको- 181 दीप अनुक्रम [६३-९२] (323) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत HEIGA प्रत्या-13 समझिम उकोसजहनं, कंजियाआयामउण्होदयादिहि जहण्णा मज्झा उकोसा णिज्जरावि, एवं मज्झिमउकोसं ३, जहन्नमुफोर्स ३, आकारख्यान एवं तिमपि भासियव्यं । छलणा णाम एगण आयंधिलं पचक्खार्य, हिंडतेण सुकोदणोणेण गहितो,अण्णण णवखीरेण णिमंतितोल व्याख्या चूर्णिः IVघचूण आगतो आलोतिय पजिमिती, गुरूहि भणिय-तुज्झ अज्ज आयंबिल पच्चक्खायं, सो भणति-सच्चर्ग, तो किं जेमेसि, anixभणति-जेण मे पच्चक्खायं, जहा पाणातिवाए पच्चक्खाते ण मारिज्जति एवं आयंबिले पचक्याते ण तं कीरति, एसा छलणा। लणाम णायच्या। पंच कुडंगा लोगो बेदा समतो अनाणं गिलाणं, कुंडगत्ति एगेण आयचिलस्स पञ्चक्खायं, हिंडतेण संखडीसंभो-ल ||तिया, सो पडिग्गहभरिततो आगतो. अण्णतो आलोतितो भाणितो-तुझ आयंबिलं पच्चक्खाय, सञ्चय खमासमणो', एयं आय-12 ट्रानिल लोगसत्थाणि परिमिलियाणि अम्हे हिं, तत्थ ताव ण दिढ आयंबिलंच, तहा चउमुवि संगोवंगेमु वेदेम समयाचारपरिवाय सकादीण, ण कहिंवि दिष्ट, तुभं कतो आगतोत्ति, अण्णाणेण भणति-ण याणामि खमासमणो ! केरिसं तं आयंबिल', अहं| जाणामि कुसणाहिवि जिम्मिविति, तेण मए गहितं, मिच्छामि दुक्कड, पुणो पेच्छामि, गिलाणकुडंगो भणति-मम अकारयं आय-12 ४ बिलं सुलो का उद्देति अग्नं वा किंचि उद्दिसति ताहे ण तीरति करतुं । तस्स अट्ट आगारा* अणाभोग सहसक्कार लेवालेवेणं उक्वित्तविषेगेणं निहत्थसंसट्टेणं पारिहापणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्यसमाहिवत्तियागारणं वोसिरति ॥ 8 अणाभोगसहसकारा तहेब, लेवालेवे जदि भायणेण पुब्बं लेबार्ड गहियं जा समुट्ठि सलिहियं, जति तेणं आणति ण ॥३१८॥ | भञ्जति, उक्वित्तविवेगो जं आयंबिले पडति विगतिमादि तं उक्सिविता परिठ्ठाविज्जति य, पगरि गलिओ अण्णं वा आय दीप अनुक्रम [६३-१२] (324) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रत्याख्यान HEIGA चूर्णिः ॥३१९॥ दीप अनुक्रम [६३-९२] SPEMAGA%E & बिलअप्पाउर्ग जदि उद्धरितुं तीरति, उद्धरिएणं ण हम्मति । गिहस्थसंसट्टे णाम जदि गिहत्थडोयलियभायणं या लेखाचा आकार कुसणादीहिं तेण जदि इसित्ति लेवादीहिं देति ण भजति , जदि बहुरसो आलिीखज्जति बहुतो ताहे ण कप्पति, परिहावणिय- याला महत्तरगसमाहीतो तहेब ६ ॥ इयाणि अभचट्ठी। तस्स पंच आगारा- अणाभोग सहसक्कारा पारिठ्ठावणिया मध्यराला समाहित्ति, जति तिविहस्स पच्चयखाति बिगिचणिय कप्पति,जदि चउन्विहस्स पाणगं च नस्थि न पट्टति,जदि पुण पाणगंपि। उडरियं ताहे से कप्पति ।। जदि तिविहस्स पश्चक्वाति ताहे से पाणगरस छ आगारा-लेवाडेण वा अलेवाडेन बा अमोणका वा पहलेण वा ससित्धेण वा असिस्थण वा बासिरति । खुत्तत्था एते पदा छप्पिणाचरिमं दुविहं-भवचरिम दिवसचरिमाला च, तत्थ भवचरिमं णाम जावजीचं गतं,तस्स चत्तारि आगारा,दिवसचरिमस्स अणाभोगो सहस्सकारो महत्तरागारो सबसमाहीती, जावजीवकस्सचि एमेव चत्वारि ८। अभिग्गहे अवाउडियस्स पच्चक्खाति, अणाभोगे सहसक्कारो चोलपट्टएणं महरंग | सामधित्ति एते पंच, सेसाणं अभिग्गहाणं एते चेव चोलपट्टयजं चत्तारि आगारा ९ निम्बितीए णव आगारा, अहवा तत्थ विमतिला | चव न जाणामो,का य विगतित्तिा,तस्थ नव विगतीतो तं खीरं दधि नवनीतं सपि तेल्लं महुँ मजं गुलो पुग्गलचि, तत्थ पंच खीरापणि-गावणिं महिसीण उट्टीणं अजाणं एलियाणं,उट्ठीणं दधि नत्थि नवनीतं धर्य च, णवणीतघयवजा, चत्तारि खीरा, अससितुव सरिसवतेल्लाणि, एयातो विगतीतो लेवाडातिं पुण होंति। दो विगहा कट्टनिष्पणं उच्छुमादि पिट्ठनिष्फष्णं फाणिया दोभि-दवगुडी यी ॥३१९॥ कापिंडगुडोय, मधूणि तिष्णि-मच्छियं कुत्तियं भामरं,पोग्गलाण जलचरं थलचरं खहचरं अहवा चम्म मैस सोणितं । एयातो नव विगतीती, द्र ओगादिमं च दसमं तं जाहे कबल्ली अद्दहिया वाहे एग ओगाहिमगं चलंतं पच्चति,सफ्फेणं तेणेव धारणं चितियं ततियंति,सेसाणि अ जोग (325) Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 पारिष्टा प्रत प्रत्याख्यान चूर्णिः HEIG SABSE २२०॥ वाहिणिवीताणं कप्पंति यदि णअंति,अह एग चेव जाहे तवर्ग सम्बं पूरेति ततो वितियं च कप्पति,लेवाडाणि य।। विगतीए दुविहा आगारा 8 अट्ठ नव यादवेसु अट्ठ अणाभोगो सहसक्कारो लेवालेबो गिहत्थसंसट्टेण पडुचमक्खिएणं पारिठ्ठावणियाए महत्तरगा-दा समाहिआकारेहि बोसिरति । पटुच्चमक्वियं णाम जदि अंगुलीहिं गहाय मक्खेति तेल्हण वा घएण वा थोबएणं ताहे निव्वीतकस्स कप्पति, धाराए स वीगई भवति, सेसाणि पुश्वभणियाणी, ताणि ओगाहिमगगुलागं, जं वा अघग्परितं णवणीयं धर्य वा तेसिं नव आगारा, उक्खिनविवेगेणं गतो, तत्थ जंगिहत्थसंसट्ठ तस्स केरिसयं, तस्सेमा विधी- खारेण जदि कुसाणियतो करे | लम्मति तस्स जदि कुंडगस्स ओदणातो चत्तारि अंगुलाई पुष्वं ताहे निवितगयस्स कप्पति,पंचमं चारद्धं विगती य,एवं दहिस्सवि, 2 एवं विगडस्सवि, केसुचि देसेसु विगडेणं मोसिज्जति ओद्रणो ओगाहिमओ वा,फाणियगुलस्त णवणीयस्स अद्दामलगमेत्तं संसहूं। जदि बहुगाणिवि एयप्पमाणाणि तो कप्पति,एक्कंपि बईन कप्पति । इदाणिं पारिट्ठावणियाआगारो तेसु तेसु ठाणेसु भाषितो | तो सो कस्स दायब्यो ण वा दायमो केरिस वा पारिट्ठावाणिय दायध्वं ण दायव्यंति', ते सव्येवि दुबिहा आयंबिलगो य अणायं| बिलगो य,आयंबिलिओ आयविलितो चेब,अणायंविलितो निव्वीयं एगासणगं एगट्ठाणगं चउत्थं छ8 अट्ठमं, दसमादियाणं ण वकृति दातुं, तस्स पेज्जे उण्हं वा देति,अविय सो सदेवयतो होति । एक्को आयंबिलिओ एगी चउत्थभत्तितो कस्स दाय?,चउत्थभत्तियस्स दायब, दोवि ते आयंबिलिगा अभत्तदिगा वा, एगो चुड्डो एगो बालो, बालस्स दायब, दोवि चाला दोवि चुड्डा एगो सह एगो असह, असहुस्स य दायध्वं, दोवि असहा एगो हिंडतो एगो अहिंडगो, अहिंडयस्स दायध्वं, दोवि हिंडया दापि वा अहि-ला॥२० डया, एगो पाहुणगो एगो बत्थचतो,पाहुणगस्स दायव्वं । एवं आयंबिलिओनि, छट्ठभत्तितो आयंविलितो य अट्ठमभनितो आर्य-IPI दीप अनुक्रम [६३-९२] (326) Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्या प्रत मत्राक बिलितो य एगढाणागइतो य आयंबिलितो य निव्वीतो य आयंविलियो य, एवं चउत्थभत्तिएणवि भंगा, एवं छट्ठभत्तिएणवि & पारिष्ट्रा ख्यान भंगा, एवं एगहाणगतित्तणवि एवं एगासणगत्तणवि एवं णिवीएणवि णायब्बा, एवं आयंबिला भासियचा जथाविधि, अण्णे चूर्णिः भणंति एक्कासणगादिसु जेसु पारिद्वावणियाकारो भण्णति सो केसिंचि दायव्यो,केरिस वा पारिठ्ठावाणिवं दायचं तदर्थमिदमुच्यते॥३२॥ ल आयंबिलणायंबिल०॥ १७०६ । एक्को आयंविलितो एको य अणायंविलिओ एतेसिं कस्स दायव्वं पारिठावणियं, आयंविलियस्स दायब्वं, दोवि आयंबिलिया होज्जा, तेसिं एको बालो एगो बूढो कस्स दायच्वं ?, वालस्सदायव्वं, दोवि बाला ट्राएगो सहू एगो असहू, असहस्स दायचं, दोचि असह एगो हिंडतो एगो अहिंडतो, अहिंडयस्स दायव्य, दोबि हिंडया एगो दोवि वा अहिंडया, एगो पाहुणओ एगो बत्थव्वओ, पाहुणगस्स दायव्वं । एसा एगा आवलिया । अहवा दोवि बूढा होज्जा, ठा एत्थवि सधुयादीहि जाव पाहुणतो, एवं चउत्थभचीएणवि बालादी णेयच्या, सच्चस्थवि असहमादी यम्यं । तहेब छट्ठभसी-131 एवि । अट्ठमभत्तियस्स पारिट्ठावणिया ण दिज्जति, किं कारणं, तस्स तं सीओणादि यच्छंतस्स पढमं पेज्जाति उण्यं दिज्जति, तं पुण वियहूं, केति आयरिया अदुमा पभगंति केति दसमादि,जेमि अहमं अवियढे तेसि अट्ठमण य णायव्यं, एवं एकासणतोवि, एगठाणेवि, णिब्वियएवि । इयाणि संजोगो आयंबिलिएणं चउत्थभत्तिएणवि, बालादी तहेव जाव पाहुणए, एवं आयविलिएण 18 छट्ठभत्तिएण य, एवं एक्कासण एगठाणणिवीया जाय तहेव छट्ठभत्तीएणं णेयर्व जाच णिवीय, ताहे अट्ठमेण जाव' णिध्वीतं । ॥३२१॥ IPI ताहे एक्कासणएणचि एकठाणेणवि । तं पुण पारिद्वावणियं जदि एवं भवेज्जा तो भुज्जति-विहिगहित विहिभुत्तसेस सत्थ। विधिगहितं मिक्ख हिंडतेहि अलुद्धेहिं संजोयणादोसविप्पजढेहिं उग्गमियं, पच्छा मंडलीए पतरकडगच्छेदसीहखदिएण पा|| दीप अनुक्रम [६३-९२] (327) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत मत्राक प्रत्या- 18 समुट्ठि, एवंविधं गुरुहि अणुण्णायं संदिसावेतु आवलियाए कप्पति भोत्तु, बीयभंगे तदेव विधिगहितं, भुत्तं पुण काकसी-13ापपेनेदार ख्यान दायालादिदोसदईएरिसं ण कप्पति तातिए अविहिगहितं वीसं २ उक्कोसगाणि गहियाणि, एवं से फायति, अहवा कारणे असं- चूर्णिः धरणादिसु गहिये, पच्छा मंडली रातिणिएण विधीए भुतं,एत्थवि आवलिया ण कप्पति,चउत्थेण कप्पतित्ति | भावपञ्चक्खार्ण गर्त, । ॥३२२॥ पञ्चक्खाणंति पदं समतं । पच्चक्रवाणेण ॥ १७०९ ॥ तेण पच्चक्खाणेण परचक्खातो पच्चक्खाषितती परतिया भवति.. तस्थ पच्चखातओ आयरितो पच्चक्खातिओ सीसो, तत्थ भंगा-जाणतो जाणयस्स पच्चक्खानि सुद्ध पच्चक्खाणं, जाणतो अजाणयस्स जाणावतुं पच्चक्खाति सुद्ध, अजाणता जाणयस्स पच्चक्खाति ण सुद्ध, पभुसंदिहादिसु विभासा, अयाणगा अयाण-17 | गस्स पच्चक्खाति असुद्धमेव । एत्थ गावीतो सीवीणियवीसमणत्थाणेसु ओलोएन्तो जाणति गोवालो सामी घरे,ताता महराक्ष| ज्जति, वितिय गोवालो ण याणति कह रक्खतु, ततिए सामी पहितणट्ठातोचि जाणति, चउत्थे सामीण जाणति जा गोवालोचि | पण जाणतित्ति उपसंहारो कायथ्यो,जाणतो जाणएणं पच्चक्खादिति सुद्ध१ जाणतो अजाणएणं पचक्खायेति, केणति कारणेण पञ्च-12 ४ खावंततो तो सुद्ध, अणिमित्तं ण सुज्झति २ अयाणतो जाणएणं पच्चक्खावेति सुद्धं ३ अयाणन्ते अयाणएणं ण सुद्धति ४॥ पच्चक्खायव्वयं पुण दुविह-दब्बंमि असणादी भावम्मि अण्णाणादिति । इयाणि परिसा, सा पुच्वं भाणिया जहा हेट्ठा। |सामातियणिज्जुत्तीए सेलघणकुडगचालणि ।। १३९ ॥ पुव्वभाणिया गाथा, इह पुण सेसो भण्णति, सा परिसा दुबिहा-उव-.. ठविया अणुबठविया य, उवडिताए कद्देयम्ब, इयराए पवि, उवाहिता दुविहा-संमोवहिता मिच्छोवाहिता य, मिच्छोवाडिया जहा ॥३२२॥ गोविंदा, संमोवडियाणं कहेयन्वं, णेतराणं, संमोवाडिया दुविहा- विणतोवहिता अविणतोवाहिता य, अविणतोवाहियाए ण SACSCA5 दीप अनुक्रम [६३-१२] % % % (328) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत विधि: मत्राका ख्यानचूर्णि स्)ि ॥३२३॥ दीप अनुक्रम [६३-९२] ति, विणतोवहिता दुविहा- पक्खिता य अवविखना य, वक्खिचा जा सणेति सिष्यति वा एवमादिया, अबक्खित्ता ण कंचिति: अर्म करेति केवल सुणेति, अवक्खित्ताए कहेयभ्यं, जा सा अबक्वित्ता सा दुविहा-उवउत्ता अणुवउत्ता य, अणुवउत्ता जा मुणेति | अण्णण्णाणि प चिन्तेति, उपउत्ता जा निचिन्ता सुणति, उपउत्ताए कहेयध्वं, पच्चक्खाणं एरिसियाए परिसाए कईयच्वं, ण केवल पच्चक्खाणं, सब्वं आवासयं सव्वं सुयणाणं कद्देयव्यं, काए विहीए कहेयब्बी, पूर्व भाणिय-सुत्तत्थो खलु पदमो॥२४॥ तत्थ विसे सो जो आणाए गज्झो अत्थो भवति सो आणाए कहेतब्बो,जदि आणाए दिहतो भवति तो दिहतेण कहेययो भवति, अण्णहा कहणविधि विणासिया भवति, एत्थ वाणियदारतो उदाहरणं, वाणिएण पुत्ती रयणपरिच्छित सिक्वाचितो,तस्स य बहुया रपणा, भरतो मणति-एते रयणा, इमस्स माणिकस्स एत्तियं मुलं, एयरस य इमंति, तं स सदति, णवि तातो अलिक्कयं भणिहिति । एवं उवणतो वीयरागा हि सर्वज्ञा०सिलोगो,यो दृष्टान्तसाध्योऽर्थो तत्थ दिईतो भाणितब्बो, तत्थ मातंगो उदाहरणं,एगेण हरितेण: भोतिए सागारियठाणं पासिऊण भन्मति-अहो ते सुंदरं, तीए भणियं-जदि मम खन्तीए पासज्जासि तो ते विम्हतो होन्तो, आवत्तो तो गार्म गती जत्थ से खंती, तेणं सा णिवातिया, सा कपड्डी?, भणति-अकल्ला, तो जामो, एवं होउत्ति पट्टियाणी, तेण य ततो पत्तएणं अमत्थ मंस अमत्थ सुरा एवमादीणि वाढिताणि, एनो ण भवति, एस सउणो बाहरति, भणति-मंस लेहि, महा गया, लद्धं, एवं पुणो परियावीया, ताहे ताए णायं महानेमिची एस, ताहे पुणोवि सउणेण वाहरितं, ताहे कण्णा ठएति, पुच्छति-कि काठएसि', भणति-सउणो बाहरति जंतं असोतव्यं, णिबंध करेति, भणति- अक्खामि, सउणो भणति-जदि ते पडिसेवामि तो दतीए कप्पडीए अस्थि जीवितं, अहणवि तो मरति, पडिस्सुयं पडिसविया, एवं उवणयविभासा । इयाणि फलं, तं दुविहं-इहलोए ॥३२३॥ (329) Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र /६३-९२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६५२-१७१९/१५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत प्रत्याख्यान चूर्णिः HEIG ॥३२४॥ दीप अनुक्रम [६३-९२] AARI धम्मिलोदाहरणं, जहा वसुदेवहिंडीए, आतिसद्दा आमोसहिमादिया घेप्पंति, परलोए दामणगादी, तत्थोदाहरणं-रायपुरे णगरे दामनकएगो कुलपुनजातितो, तस्स जिणदासो मिचो, तेण सो साहुसगासं नीतो, तेण मच्छयमंसस्स पच्चक्खाणं गहितं, दुम्भिक्खे कथा मंससमाहारो लोगो जातो, इयरो सालेहिं महिलाए य खिसिज्जमाणो गतो, उइण्णो दई, मच्छं दटुं पुणरावती जाया, एवं तिमी । का दिवसे तिभी वारा गहिता मुक्का य, अणसणं काउं रायगिहे णगरे मणियारसडिपुत्तो दामनगो नाम जातो, अदुवरिसस्स कुल मारीतो च्छिण्णं, तत्थेव सागरपोतसत्थवाहस्स गिहे चिदुई, तत्थ य एगेण भिक्खुणा संघाडइलस्स कहियं- एयस्स गिहस्स एस दारगो आहवति भविस्सति, सुर्य सत्यवाहेण, पच्छमं चंडालाण अप्पितो, तेहिं दूरे णेतुं अंगुले च्छेतुं मेसिउणिवीसओ कतो, नासन्तो तस्सेय गोसपिएण गहितो पुत्तोत्ति, जोव्वणत्थो जातो, अण्णया सागरपोतो तत्थेव गतो, तं दटुं उवाएणं परियणं पुच्छत्ति-IKH & कस्स एस, काहियं-अणाहोत्ति इहागतो, इमो सोति भीतो, लेहं दाउं घरं पावहित्ति विसज्जितो, गतो रायगिहवाहिरपरिसरे| देवउले सुवति, सागरपोतधूया विसा णामं कण्णा, तीए अचणियवावडाए दिडो, पितामुमुदिय दटुं वाएति, एतस्स दारगस्स असोहियामक्खियपादस्स विसं दायव्वं, अणुस्सारफुसणं, कण्णमदाणं, पुणोवि मुद्दति, नगरं पविट्ठो, विसाणेण विवाहिया, आगतो सागरपोतो, माइघरअच्चणियविसज्जणं, सागरपुत्तमरणं सोउं सागरपोतो हिदपुष्फालेण मतो, रण्णा दामण्णगो घरसामी कतो, भोगसमिद्धी, अभया पच्चावरण्हे मंगलिएहिं पुरतो से उग्गीतं-अणुपुंखमाषयंतावि अणस्था तस्स बहुगुणा होति । सुहुदु: क्वकच्छपुडतो जस्स कयंतो वहति पक्वं ॥१॥ सोउं सयसहस्सं मंगलियाण देति, एवं तिनि कारा तिमि सयसहस्सााण, करण्णा सुयं,पुच्छएणं रभो सिट्ठ,तुद्वेण रम्ना सेट्ठी ठावितो। बोधिलाभो पुणो धम्माणुट्ठाणं देवलोगगमणं,एवमादि परलोए । अणुगमो. ३२४॥ (330) Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३-९२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [सूत्र / ६३-९२ ] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ १६५२ - १७१९ / १५५५-१६२३], भाष्यं [२३८-२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2 प्रत्याख्यान चूर्णिः ॥३२५॥ सम्मतो || इगाणिं नया । ते य जहा पुव्यं तत्थ दुवे नया अज्झयणणतोय करणणतो य । अज्झयणणतो णायम्मि गिहियव्वे० ।। १७१८ ।। करणणतो य सव्वेसिंपि नयाणं० ॥ १७१९ ॥ इइ पच्चक्खाणज्झयणचुण्णी सम्मत्ता ॥ शुभं भवतु कल्याणमस्तु श्रीरस्तु । ग्रं०१९सहस्राः । यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा, मम दोषो न दीयते ॥ १ ॥ यावलवणसमुद्रो यावनक्षत्रमंडितो मेरुः । यावच्चन्द्रादित्यौ, तावदिदं पुस्तकं जयतु ॥ २ ॥ जलाद्रक्षेत् तैलाद्रक्षेद्रक्षेच्छि थलबंधनात् । परहस्ते न दातव्या, एवं वदति पुस्तिका ॥ ३ ॥ सं० १७७४ वर्षे पं० दीपविजयगणिनावर्णिः | पं० श्रीन्यायसागरगणिभ्यः प्रदत्ता || ॥ इइ आवस्सगनिज्जुत्तिचुण्णी सम्मत्ता ॥ मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: ( आगमसूत्र ४०) “आवश्यक-चूर्णि: [भाग २]” परिसमाप्ताः (331) दामनक कथाः ॥ ३२५ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 40 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “आवश्यक मूलसूत्र” [नियुक्ति एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: (भाग-२)] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पन: संकलिता "आवश्यक” नियुक्ति एवं चूर्णि: नामेण परिसमाप्ता: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's! 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