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आगम
(४०)
"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [११११८-१२२९/११०३-१२३०], भाष्यं [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2
इच्छादयः
वन्दनाध्ययन चूर्णी ॥५०॥
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दीप अनुक्रम [१०]
| पुण णए संति एताए दिसाए विभासितब्वाणि । तत्थ दब्बखमा जो असमत्थयाए सहति, भावखमा संसारभया परस्स पीडा ग | कत्तव्यत्ति सहति, दनसमणा णिण्हगादी, भावसमणा जे सम्भाविएसु अहिंसादिसु जतंति, भावखमाए भावसमणेण य अधिकारो। बंदणगं कातुं वंदितुं, बंदणगं पुच्चं भणित, जापनिज्जाए निसीहियाए, दव्वजावणिया जं दर्व केणति पयोगेण जाविज्जति बाहिज्जति, जथा उग्गमणमादीहिं मंडिमादीणि वाहिज्जंति, भावजावाणिज्जा भावो जाविज्जति, दुधिहाए अधिगारो । दग्बनिसीहिया | सरीरं, भावनिसीहिया निसहकिरिया, दुविहाएवि अधिकारो। अणुण्णा छबिहा विभासितम्या, सेवाणुण्णाए अधिगारो । एवं अव्वाचाधादीणिवि सवित्थर विभासेज्जा । इदाणि चालणापसिद्धीओ भण्णंति, तत्थ आह--णणु किमिति पढम पवेसे वंदित खामेतुं पुणोवि य पयेसण वंदति', उच्यते-लोगे जथारायादीणं दूतादयो बहुमाणाणुरागेण पुर्व पणमितूण कुसलबट्टमाणि आपुच्छिय खामेचा पुणो पूणो पणमति पुच्छति खाति, ततो पणमित्ता बच्चंति, एवं लोगुत्तरेवि बहुमाणो, भत्तीए पुचि बंदणपुर| स्सरं विण्यं पयुंजिचा पच्छा खाति आवस्सिगमादि, पुणरवि पणमति। तहेव पुणो आह-जदि तुम्भ वाइग काइगं च जोग | एकत्थ करदता दाकिरियपसंगो होति, निवारियाा सुते दो किरियाओ एकदा बहुसो, तो एवं करतु सच्च पकाडतूण तुहिका आवत्तादी करेतु, एवं सेय, आयरिओ भणति-तुम सिद्भुतं न याणसि, जदा भिण्णविसया भोगा हॉति तदा एकदा णिसिद्धा, जथा अणुप्पेहाति य वकमतीया, णो पुण एगलक्खधा भोगे, दिविवादे एगमि काले बायाए उच्चारेति काएण य भंगे करेति | | मणण य तदुबउत्ते, एवं अम्ह एगमि वेणइए पयोगे दोकिरियादोसा न होंतित्ति | अण्णे पुण एवं परिहरात, जथा किर एगीमा * समए दोसु किरियासु उपयोगो निसिज्मति, न पुण किरियामेनं, जतो तिण्हवि जोगाणं जुगवसंपातो दिट्ठो भंगियसुतादिसुचि।
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॥५०॥
रुक
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