Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 18
________________ समयसारः। 'वंदित्तु'इत्यादि । अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूततया ध्रुवत्वमवलंबमानामनादिभावांतरपरपरिवृत्तिविश्रांतिवशेनाचलत्वमुपगतामखिलोपमानविलक्षणाद्भुतमाहात्म्यत्वेनाविद्यमानौपम्यामपवर्गसंज्ञिकां गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छंदस्थानीयान् भावद्रव्यस्तवाभ्यां स्वात्मनि परात्मनि च निधायानादिनिधनश्रुतप्रकाशितत्वेन निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारिश्रुतकेवलिप्रणीतत्वेन श्रुतकेवलिभिः स्वयमनुभवद्भिरनिर्विकल्पसमाधिलक्षणेन भावनमस्कारेण, व्यवहारेण तु वचनात्मकद्रव्यनमस्कारेण वंदित्वा । कान् । सव्वसिद्ध स्वात्मोपलब्धिसिद्धिलक्षणसर्वसिद्धान् । किंविशिष्टान् । पत्ते प्राप्तान् । कां । गदि सिद्धगति सिद्धपरिणतिं । कथंभूतां । धुवं टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेन ध्रुवामविनश्वरां । अमलं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्ममलरहितत्वेन शुद्धस्वभावसहितत्वेन च निर्मलां । अथवा अचलं इति पाठांतरे द्रव्यक्षेत्रादिपंचप्रकारसंसारभ्रमणरहितत्वेन स्वस्वरूपनिश्चलत्वेन च चलनरहितामचलां । अणोवमं निखिलोपमारहितत्वेन निरुपमा स्वभावसहितत्वेन अनुपमां । एवं पूर्वार्धन नमस्कारं कृत्वा परार्धेन संबंधाभिधेयप्रयोजनसूचनार्थं प्रतिज्ञां करोति । वोच्छामि वक्ष्यामि । किं । समयपाहुडं समयप्राभृतं सम्यक् अयः बोधो यस्य स भवति समय आत्मा, अथवा समं एकीभावेनायनं गमनं समयः । प्राभृतं सारं सारः शुद्धावस्था समयस्यात्मनः प्राभृतं समयप्राभृतं, अथवा समय एव प्राभृतं समयप्राभृतं । इणं इदं प्रत्यक्षीभूतं ओ अहो भव्याः । कथंभूतं । सुदकेवलीभणिदं प्राकृतलक्षणबलात्केवलीशब्ददीर्घत्वं । श्रुते परमागमे परिणति उसकी परमविशुद्धि-समस्त रागादि विभावपरिणति रहित उत्कृष्ट निर्मलता हो। यह मेरी परिणति ऐसी है कि परपरिणतिका कारण जो मोहनामा कर्म उसका अनुभाव-उदयरूप 'विपाक उससे जो अनुभाव्य-रागादिकपरिणामोंकी व्याप्ति है उसकर निरंतर कल्माषित-मैली है । और मैं ऐसा हूं कि द्रव्यदृष्टिकर शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूं। भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि शुद्धद्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिकर तो मैं शुद्धचैतन्यमात्र मूर्ति हूं। परंतु मेरी परिणति मोहकर्मके उदयका निमित्त पाकर मैली हैरागादिस्वरूप हो रही है । इसलिये इस शुद्ध आत्माकी कथनीरूप जो यह समयसार ग्रंथ है उसकी टीका करनेका फल यह चाहता हूं कि मेरी परिणति रागादिकसे रहित होकर शुद्ध हो, मेरे शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति हो, दूसरा कुछ भी ख्याति लाभ पूजादिक नहीं चाहता । इसप्रकार आचार्यने टीकाकरनेकी प्रतिज्ञागर्भित इसके फलकी प्रार्थना की है ॥ आगे मूलगाथासूत्रकार श्रीकुंदकुंदाचार्य ग्रंथकी आदिमें मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं;-आचार्य कहते हैं, मैं [ध्रुवां] ध्रुव [अचलां ] अचल और [अनौपम्यां] अनुपम इन तीन विशेषणोंकर युक्त [गतिं] गतीको [प्राप्तान् ] प्राप्त हुए ऐसे [सर्वसिद्धान् ] सब सिद्धोंको [वंदित्वा ] नमस्कार कर [अहो] हे भव्यो [श्रुतकेवलिभणितं ] श्रुतकेवलियोंकर कहे हुए [इदं ] इस [समयप्राभृतं]

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