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समयसारः । परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः। मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते
र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ॥ ३॥ द्वयम् । अथ तृतीयस्थले निश्चयव्यवहारश्रुतकेवलिव्याख्यानमुख्यत्वेन 'जो हि सुदेण' इत्यादि सूत्रद्वयं । अतःपरं चतुर्थस्थले भेदाभेदरत्नत्रयभावनार्थं तथैव भावनाफलप्रतिपादनार्थं च 'णाणम्हि भावणा' इत्यादि सूत्रद्वयं । तदनंतरं पंचमस्थले निश्चयव्यवहारनयद्वयव्याख्यानरूपेण 'ववहारो स्कार किया है । यदि कोई ऐसा प्रश्न करे कि इष्टदेवका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? उसका समाधान इसप्रकार है-यह अध्यात्मग्रंथ है, इसलिये इष्टदेवका सामान्य स्वरूप सर्व कर्मरहित सर्वज्ञ वीतराग शुद्ध आत्मा ही है, इसलिये समयसार कहनेसे इष्टदेव आगया । एक ही नाम लेने में अन्यमतवादी मतपक्षका विवाद करते हैं उन सबका निराकरण इन कहेहुए विशेषणोंसे बतलाया गया है । अन्यवादी अपने इष्टदेवका नाम लेते हैं उसमें इष्ट शब्दका अर्थ नहीं घटता बाधायें आती हैं, और स्याद्वादी जैनियोंके सर्वज्ञ वीतराग शुद्ध आत्मा इष्ट है उसके नाम कथंचित् सभी सत्यार्थ संभवते हैं। इष्टदेवको परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर, शिव, निरंजन, निष्कलंक, अक्षय, अव्यय, शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी, अनुपम, अच्छेद्य, अभेद्य, परमपुरुष, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हत् , जिन, आप्त, भगवान , समयसार-इत्यादि हजारों नामोंसे कहो कुछ विरोध नहीं । परंतु सर्वथा एकांत वादियोंके यहां भिन्न नाममें विरोध है । इसलिये अर्थ यथार्थ समझना चाहिये । “प्रगटै निज अनुभव करै, सत्ता चेतनरूप । सब ग्याता लखिकें नमौं समयसार सब भूप ॥" ॥ १॥ आगे सरस्वतीको नमस्कार करते हैं-"अनंत" इत्यादि । अर्थ-जिसमें अनेक अंत-धर्म हैं ऐसा जो ज्ञान तथा वचन उसमई मूर्ति नित्य सदा ही प्रकाशतां अर्थात् प्रकाशरूप हो । वह मूर्ति ऐसी है कि जिसमें अनंत धर्म हैं ऐसा और प्रत्यक्-परद्रव्योंसे, परद्रव्यके गुणपर्यायोंसे भिन्न तथा परद्रव्यके निमित्तसे हुए अपने विकारोंसे कथंचित् भिन्न एकाकार ऐसा जो आत्मा उसके तत्त्वको अर्थात् असाधारण सजातीय विजातीय द्रव्योंसे विलक्षण निजस्वरूपको पश्यंती-अवलोकन करती ( देखती ) है । भावार्थ--यहां सरस्वतीकी मूर्तिको आशीवचनरूप नमस्कार किया है । जो लौकिकमें सरस्वतीकी मूर्ति प्रसिद्ध है वह यथार्थ नहीं है इसलिये उसका यथार्थ वर्णन किया है । जो सम्यग्ज्ञान है वह सरस्वतीकी सत्यार्थ मूर्ति है । उसमें भी संपूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है कि जिसमें सब पदार्थ प्रत्यक्ष भासते हैं वही अनंत धर्मोंसहित आत्मतत्त्वको प्रत्यक्ष देखता है । और उसीके अनुसार श्रुतज्ञान है वह परोक्ष देखता है इसलिये यह भी उसीकी मूर्ति है । तथा द्रव्यश्रुत वचन•