________________
४
अथ सूत्रावतार:
-
रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
वंदितु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं ॥ १ ॥ वंदित्वा सर्वसिद्धान् ध्रुवामचलामनौपम्यां गतिं प्राप्तान् । वक्ष्यामि समयप्राभृतमिदं अहो श्रुतकेवलिभणितम् ॥ १ ॥
भूदत्थो' इत्यादिसूत्रद्वयं । एवं चतुर्दशगाथाभिः स्थलपंचकेन समयसारपीठिका व्याख्याने समुदायपातनिका । तद्यथा । अथ प्रथमतस्तावद्गाथायाः पूर्वार्धेन मंगलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमुत्तरार्धेन तु समयसारव्याख्यानं करोमीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति ; — “वंदित्तु" मित्यादि पदखंडनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । वंदित्तु निश्चयनयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभावरूपेण
1
1
रूप है सो यह भी उसीकी मूर्ति है क्योंकि वचनों द्वारा अनेक धर्मवाले आत्माको यह बतलाती है । इसतरह सब पदार्थोंके तत्त्वको जतानेवाली ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी सरस्वतीकी मूर्ति है । इसीकारण सरस्वतीके नाम 'वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी' इत्यादि बहुत से कहे जाते हैं । यह अनंत धर्मोंको स्यात्पदसे एक धर्म में अविरोधरूप साधती है इसलिये सत्यार्थ है । अन्यवादी कितने ही सरस्वतीकी मूर्ति अन्यथा स्थापन करते हैं वह पदार्थको सत्यार्थ कहनेवाली नहीं है । यदि कोई यहां पूछे कि आत्माका जो अनंतधर्मा विशेषण दिया है उसमें अनंत धर्म कोन कोन है ? उसका उत्तर कहते हैं - जो वस्तु सत्पना, वस्तुपना, प्रमेयपना, प्रदेशपना, चेतनपना, अचेतनपना, मूर्तीकपना, अमूर्तकपना इत्यादि धर्म तो गुण हैं और उन गुणोंका तीनों कालों में समय समयवर्ती परिणमन होना पर्याय हैं, वे अनंत हैं । तथा एकपना, अनेकपना, नित्यपना, अनित्यपना, भेदपना, अभेदपना, शुद्धपना, अशुद्धपना, आदि अनेक धर्म हैं वे सामान्यरूप तो वचनगोचर हैं और विशेषरूप वचनके अविषय हैं, ऐसे वे अनंत हैं सो ज्ञानगम्य हैं । ऐसा होनेपर आत्मा भी वस्तु है उसमें भी अपने धर्म अनंत हैं । उनमें से चेतनपना असाधारण है, दूसरी अचेतनद्रव्य में नहीं है । और सजातीय जीवद्रव्य अनंत हैं उनमें भी चेतनपना है तौभी निजस्वरूपसे जुदा जुदा कहा है । क्योंकि हर एक द्रव्यके प्रदेश भेद है इसलिये किसीका किसीमें नहीं मिलता । यह चेतनपना अपने अनंतधर्मों में व्यापक है इसकारण इसीको आत्माका तत्त्व कहा है उसको यह सरस्वतीकी मूर्ति देखती है और दिखाती है । इसलिये इस सरस्वतीको आशीर्वादरूप वचन कहा है- जो सदा प्रकाशरूप रहो । इसीसे सब प्राणियोंका कल्याण होता है ऐसा जानना ॥ २ ॥ आगे टीकाकार इस ग्रंथके व्याख्यान करनेके फलको चाहते हुए प्रतिज्ञा करते हैं'पर' इत्यादि । अर्थ - श्रीमान् अमृतचंद्र आचार्य कहते हैं कि जो इस समयसार ( शुद्धात्मा तथा ग्रंथ ) की व्याख्या ( कथनी - टीका) से ही मेरी अनुभूति —— अनुभवनरूप
1