Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 22
________________ विषय मङ्गलाचरण विषयानुक्रमणिका चतुर्थ आश्वास पृष्ठ १ 'अरुचि' क्षुल्लक द्वारा मारिदत्त राजा को अपना वृत्तान्त सुनाते हुए कहा जाना - 'जब ऐसा संध्याकालीन लालिमा का तेज प्रकट हो रहा था और जब स्थल-फल-समूह की ऐसी पत्र- श्रेणी संकुचित हो रह थी, तब हे मारिदत • महाराज ! में ( यशोधर ) रात्रि की वेला में अमृतमति महादेवी के महलद्वार पर पहुँचा." २ इसके बाद है मारिदत्त महाराज ! मुझसे सरस वार्ता करने वाली ऐसी द्वारपालिका द्वारा कुछ काल कराये जा रहे मेरे द्वारा ऐसे राजमहल में वर्तमान ऐसे पल को अलंकृत किया जाना १२ तदनन्तर मेरे द्वारा मेरे पल पर बैठी हुई ऐसी श्रमृतमति महादेवी देखी जाना, जिरासे मेरा हृदय प्रमुदित होना १६ पश्चात् मेरे द्वारा अमृत मति महादेवी के दक्षिण पार्श्व भाग से शरीर के संघटन सहित बैठा जाना और रसिकता को प्राप्त हुए आनिनों द्वारा मेरे हृदय रूपी राजहंस का उस सुख (रतिविलास ) प्रवाह में विस्तृत हुआ जाना पुनः रति विलास के बाद मेरे द्वारा नाद-सी ली जाना... १५ हे मारिदत्त महाराज ! मेरी ( यशोधर महाराज की ) पट्टरानी अमृतमति महादेवी द्वारा मुझे स्वभाव से शयन करता हुआ-सा देखकर और राजमहल का मध्यभाग नृत्य जानकर भाभूषणों को उतारकर सेंटर ढोरने वाली का येप धारण करके किवाड़ खुले छोड़कर शीघ्र प्रस्थान किया जाना, पुन: मेरे द्वारा भी कालक्षेप न करके उत् से अङ्गरक्षक का वेष धारण करके और प्रस्थान करके उस महादेवी के भागं को नाम वाले नीच महावत से प्रार्थना करती हुई अमृतमति महादेवी देखी जाना । हए ऐसे नष्ट २२ पश्चात् मेरे द्वारा अष्टवद्ध व अमृतमति का ऐसा कुकृत्य देखकर विशेष कुपित होकर उन दोनों का बच करने के लिए म्मान में से आधी निकली हुई तलवार खींची जाना, परन्तु कर्मयोग में तलवार खींचने के अवसर पर ही नैतिक विचार-धारा के कारण मेरा क्रोध, दीपक के जलाने से अन्धकार को तरह नष्ट हो जाना और मेरे द्वारा अमृतमति के प्रति तं निश्चित किया जाना २५ इसके बाद अमृतमति का अपना कुकृत्य पूर्ण करके हटतापूर्वक मेरे समीप आना, जो कि उसका दुर्विलास न जानने वाले-सा होकर अमृतगति देवी की शय्या पर पूर्व की तरह शयन कर रहा था, और उसके द्वारा मेरी बाहुरूपी पिंजरे का आश्रय करके अत्यन्त गाव निद्वापूर्वक शयन किया जाना २८ उक्त घटना के घटने से मेरा मन प्रसन्न न रहना व हृदय शून्य होना एवं अमृतमति के विषय में मेरी आश्चर्य जनक विचारधारा का होना २८ तदनन्तर मेरे द्वारा स्त्रियों के विषय में नीतिकारों के वचनों का स्मरण किया जाना.. तलावात् ३० शीधर महाराज द्वारा यह सोचा जाना कि 'भाषचर्य है, विषय-सुखों में तृष्णा करना निरर्थक

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