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उद्देश्य का अपलाप आदि ।
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साथ ही, यह मालम हो जाता है कि वे कितने परिवतनशील हुश्रा करते है। ऐसी हालतमें विवाह जैसे लौकिक धर्मा और सांसारिक व्यवहारोक लिये किसी भागमका श्राश्रय लेना, अथात् यह दढ खोज लेगाना कि श्रागममे किस प्रकार विवाह करना लिखा हं बिलकुल व्यर्थ है । कहा भी है--
"संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्धे वृथागमः।" अर्थात् -संसार व्यवहारके स्वतः सिद्ध होनेसे उसके लिये आगम की जरूरत नहीं ।
वस्तुतः श्रागम ग्रन्या में इस प्रकारके लौकिक धर्मों और लोकाश्रित विधानोका कोई क्रम निद्धारित नहीं होता । वे सब लोकप्रवृत्ति पर अवलम्बित रहते है। हाँ, कछ त्रिवर्णाचारो जैसे अनार्ष ग्रन्थों में विवाह-विधानोंका वर्णन जरूर पाया जाता है। पर न्तु वे अागम ग्रन्थ नहीं है उन्हें श्रास भगवान्के वचन नहीं कह सकते और न वे श्राप्तवचनानुसार लिखेगय है-इतने पर भी कुछ ग्रन्थ तो उनमें से बिलकुल ही जाली और बनावटी है; जैसा कि "जिनसंनत्रिवर्णाचार' और 'भद्रबाहुसंहिताके' के परीक्षालेखों से प्रगट है - । वास्तव में ये सब प्रन्थ एक प्रकारके लौकिक ग्रन्थ हैं। इनमें प्रकृत विषयके वर्णनको तात्कालिक और तद्देशीय रीतिरिवाजोंका उल्लेख मात्र सामझना चाहिये, अथवा यो कहना चाहिये कि ग्रन्थकत्त.ओको उस प्रकारके रीतिरिवाजोंको प्रचलित करना इष्ट था । इससे अधिक उन्हें
यह श्रीसोमदेव श्राचार्य का वचन है।
४ ये सब लेख 'ग्रन्थपरीक्षा' नामसे पहिले जैनहितैषी पत्रमें प्रकाशित हुए थे और अब कुछ समयसे अलग पुस्तकाकार भी छप गये हैं। बम्बई और इटावा प्रादि स्थानोसे मिलते हैं।