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जैन तार्किक साहित्य
१. प्रास्ताविक - पुरातन ग्रन्थों में जैन साहित्य का वर्गीकरण चार अनुयोगों में किया है? – प्रथमानुयोग ( पुराणकथाएं ), चरणानुयोग ( आचारधर्म ), करणानुयोग ( भूगोल - गणित ) तथा द्रव्यानुयोग ( जीवाजीवादि तत्त्ववर्णन ) । इन में द्रव्यानुयोग के विषय को साधारणतः दर्शन या दार्शनिक साहित्य कहा जाता है । इस के दो उपभेद होते हैं - अहेतुवाद तथा हेतुवाद' । जिस में सिर्फ आगमिक परम्परा के आधारपर तत्त्वों का वर्णन हो वह अहेतुवाद शास्त्र है । जिस में अनुमानयुक्ति अथवा तर्क का आश्रय ले कर तत्त्वों की चर्चा की हो वह हेतुवाद शास्त्र है । इसे ही हम तार्किक साहित्य कहते हैं । जैन प्रमाणशास्त्र में व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहा है- अनुमान का मूलाधार तर्क है अतः अनुमानाश्रित विवेचन को तार्किक कहा जाता है । जैन तार्किक साहित्य के विषय के बारे में- अन्तरंग के बारे में अब तक विद्वानों ने पर्याप्त लेखन किया है । किन्तु इस के बहिरंग के बारे मेंतर्कवादी आचार्य, उन का समय, कार्य और ग्रन्थरचना के विषय में - एकत्रित प्रमाणाधारित वृत्तान्त संकलित नही हुआ है । इसी कमी को दूर करने के उद्देश से प्रस्तुत निबन्ध की रचना की जा रही है ।
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जैन साहित्य में विशुद्ध रूप से तार्किक ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्र से पहले प्राप्त नही होते । अतः उन के पूर्ववर्ती समय का विवेचन प्रस्तुत विषय के पार्श्वभूमि के तौर पर समझना चाहिए ।
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१) रत्नकरण्ड-द्वितीय अधिकार. २) सन्मतिसूत्र ३-४३ - दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य । ३ ) इस विषय का संक्षिप्त दिग्दर्शन पं. दलसुख मालवणिय जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन' में मिल सकता है ( बनारस हिन्दु युनिवर्सिटी १९४९ ) । ४) पं. सुखलालजी आदि ने सिद्धसेन दिवाकर को आद्य जैन तार्किक माना है किन्तु आगे हम ने इस का विस्तृत विचार किया है ।
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