Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यक भाष्य एवं बृहद्वृत्ति: एक परिचय
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अनुसार दशाश्रुतस्कंध, कल्प और व्यवहार, इन तीनों सूत्रों की पूर्वों से निर्यूहणपूर्वक रचना करने वाले महर्षि एवं अन्तिम श्रुतकेवली, प्राचीन आचार्य श्री भद्रबाहु को मैं वंदना करता हूँ । इस गाथा से सिद्ध होता कि चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु ने निर्युक्ति की रचना नहीं करके दशाश्रुतस्कंध, कल्प और व्यवहारसूत्र की रचना की है। अतः चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु होते तो इस प्रकार छेदसूत्रकार को नमस्कार नहीं करते । क्योंकि कोई भी समझदार कभी भी स्वयं को नमस्कार नहीं करेगा। अतः स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु निर्युक्तिकार न होकर दूसरे भद्रबाहु ही नियुक्तिकार हैं।
उत्तराध्ययननिर्युक्ति में स्वयं निर्युक्तिकार ने स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है कि वे चतुर्दशपूर्वधर नहीं हैं, उन्होंने मरण विभिक्ति से सम्बन्धित समस्त द्वारों का अनुक्रम से वर्णन किया है। वस्तुतः पदार्थों का सम्पूर्णरूपेण विशद वर्णन, तो केवलज्ञानी और चतुर्दशपूर्वधर ही करने में समर्थ हैं। 3
नियुक्ति में ऐसी घटनाएं व आचार्यों के प्रंसग वर्णित हैं, जो श्रुतकेवली भद्रबाहु के उत्तरवर्ती हैं। जैसे निर्युक्तियों में कालकाचार्य, पादलिप्ताचार्य, स्थविर भद्रगुप्त, वज्रस्वामी, आर्य रक्षित, फल्गुरक्षित आदि ऐसे आचार्यों के प्रसंग वर्णित हैं, जो प्रथम भद्रबाहु से बहुत अर्वाचीन हैं। अत: निश्चित ही निर्युक्तियों की रचना निमित्त ज्ञानी भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा ही की गई है। 4
दिगम्बर साहित्य में उल्लेख है कि बारह वर्ष के दुष्काल के समय 12000 श्रमणों के साथ आचार्य भद्रबाहु उज्जयिनी होते हुए दक्षिण की ओर गये । इस समय सम्राट् चन्द्रगुप्त को भद्रबाहु ने दीक्षा दी। मूलतः यह घटना द्वितीय भद्रबाहु से सम्बन्धित है । इतिहास के लम्बे अन्तराल में दो भद्रबाहु हुए हैं। उसमें से चतुर्दशपूर्वी तथा छेदसूत्र के रचनाकार भद्रबाहु वी. नि. की दूसरी शताब्दी में और निर्युक्तिकार द्वितीय भद्रबाहु वी. नि. की पांचवीं शताब्दी के बाद हुए हैं। राजा चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध प्रथम भद्रबाहु के साथ न होकर द्वितीय भद्रबाहु के साथ है 165
उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु निर्युक्तिकार नहीं होकर नैमित्तिक भद्रबाहु नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं, इसके सम्बन्ध में निम्न प्रमाण प्राप्त होते हैं
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गच्छाचार पइण्णा, प्रबन्ध चिंतामणि, प्रबन्धकोश में भद्रबाहु और वराहमिहिर का परिचय प्राप्त होता है, जो निम्न प्रकार से है – आचार्य भद्रबाहु प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के संसारी अवस्था के भ्राता थे। जैन परम्परा में वे नैमित्तिक और मन्त्रवेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं । वराहमिहिर ने पंचसिद्धान्तिका की प्रशस्ति में रचना - काल शक संवत् 427 अर्थात् विक्रम संवत् 562 बताया है। इस आधार पर पण्डित दलसुखभाई मालवणिया का मानना है कि आचार्य भद्रबाहु छठी शताब्दी में विद्यमान थे।
चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु को और वी. नि. 1032 (शक सं. 427) के लगभग विद्यमान वराहमिहिर के सहोदर भद्रबाहु को एक ही व्यक्ति मान ने का भ्रम विद्वानों में लम्बे समय से प्रचलित है, जो कि उचित नहीं है । इस कथन की सिद्धि में आचार्य श्री हस्तीमलजी म. ने साधक और बाधक प्रमाणों की समीक्षा करके निष्कर्ष रूप में कहा है कि वी. नि. 1032 के आस-पास होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु ही निर्युक्तियों के रचनाकार हैं ।" आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) 28वें युगप्रधानाचार्य हारिलसूरि (वी.नि 1001 - 1055) के समकालीन थे। 7 आचार्य देवेन्द्रमुनि आवश्यकनिर्युक्ति को द्वितीय भद्रबाहु की कृति मानते है 18 63. सव्वे एए दारा, मरणविभत्तीइ वण्णिया कमसो।
सगलणिउणे पयत्थे, जिण चउद्दसपुव्वि भाति ।
- निर्युक्तिपंचक खण्ड 3 ( उत्तराध्ययन निर्युक्ति) मरणविभक्ति गाथा 227
64. विशेषावश्यकभाष्य ( आचार्य सुभद्रमुनि) प्रस्तावना पृ. 48 65. जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, पृ. 74
67. जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग 3, पृ. 398
66. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग 2, पृ. 358-377 68. जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृ. 329