Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय
[15] जड़ता मिटती है। सुख-दुःख को सहन करने की क्षमता समुत्पन्न होती है। उसमें अनित्य, अशरण आदि द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन होता है। मन की चंचलता नष्ट होकर शुभ ध्यान का अभ्यास निरन्तर बढ़ता है। नियुक्तिकार ने शुभ ध्यान पर चिन्तन करते हुए कहा है कि अन्तर्मुहूर्त तक जो चित्त की एकाग्रता है, वही ध्यान है। उस ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल ये चार प्रकार के भेद बताये गये हैं। प्रथम दो ध्यान संसार-अभिवृद्धि के हेतु होने से उन्हें अपध्यान कहा है और अन्तिम दो ध्यान मोक्ष के कारण होने से प्रशस्त हैं। ध्यान और कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की जानकारी दी गई है जो ज्ञानवर्द्धक है। कायोत्सर्ग के घोटक आदि 19 दोष भी बताए हैं। जो देहबुद्धि से परे है, वही व्यक्ति कायोत्सर्ग का सच्चा अधिकारी है।
__ षष्ठ अध्ययन प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान, प्रत्याख्याता, प्रत्याख्येय, पर्षद, कथनविधि और फल इन छह दृष्टियों से प्रत्याख्यान का विवेचन किया गया है। प्रत्याख्यान के नाम, स्थापना, द्रव्य, अदित्सा, प्रतिषेध और भाव, ये छह प्रकार हैं। प्रत्याख्यान में अशन, पान, खादिम, स्वादिम का त्याग किया जाता है। इनके स्वरूप का वर्णन किया गया है। श्रद्धा, ज्ञान, विनय, अनुभाषणा, अनुपालन और भाव इन छह प्रकार से प्रत्याख्यान की विशुद्धि होती है। प्रत्याख्यान के आस्रव का निरुन्धन होता है। समता की सरिता में अवगाहन किया जाता है। चारित्र की आराधना करने से कर्मों की निर्जरा होती है। अपूर्वकरण कर क्षपकश्रेणी पर आरुढ़ होकर केवलज्ञान प्राप्त होता है और अन्त में मोक्ष का अव्याबाध सुख मिलता है। प्रत्याख्याता का स्वरूप बताते हुए, प्रत्याख्याता गुरु को माना गया है जो विधि सहित प्रत्याख्यान कराता है। प्रत्याख्यातव्य के द्रव्य और भाव दो प्रकार होते हैं। अशनादि का त्याग द्रव्य और अज्ञानादि का त्याग भाव प्रत्याख्यातव्य है। प्रत्याख्यान का अधिकारी वही साधक है जो विक्षिप्त और अविनीत न हो। आवश्यक नियुक्ति में श्रमण जीवन को तेजस्वीवर्चस्वी बनाने वाले जितने भी नियम-उपनियम हैं, उन सबकी चर्चा विस्तार से की गई है। प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिपादन भी इस नियुक्ति में हुआ है।
आवश्यक नियुक्ति के इस विस्तृत परिचय से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जैन नियुक्तिग्रंथों में आवश्यकनियुक्ति का कितना महत्त्व है। श्रमण जीवन की सफल साधना के लिए अनिवार्य सभी प्रकार के विधि-विधानों का संक्षिप्त एवं सुव्यवस्थित निरूपण आवश्यकनियुक्ति की एक बहुत बड़ी विशेषता है। जैन परम्परा से सम्बन्ध रखने वाले अनेक प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिपादन भी सर्वप्रथम इसी नियुक्ति में किया गया है। ये सब बातें आवश्यकनियुक्ति के अध्ययन से स्पष्ट मालूम होती है।
अन्य नियुक्तियों में भी आवश्यक के समान आचार्य ने प्रारंभ में उन-उन मूलग्रंथों के प्रादुर्भाव की कथा का वर्णन किया है, किन्तु यह वर्णन उसी ग्रंथ में है जिसकी उत्पत्ति की कथा आवश्यक से भिन्न है। अन्यत्र अध्ययनों के नाम और विषयों का निर्देश कर, उनकी निष्पत्ति का मूल-स्थान या ग्रंथ बताकर और प्रायः प्रत्येक अध्ययन के नाम का निक्षेप कर व्याख्या की गई है। अध्ययन के अन्तर्गत किसी महत्त्वपूर्ण शब्द अथवा उसमें विद्यमान मौलिक भाव को लेकर आचार्य ने उसका अपने ढंग से विवेचन करके ही संतोष माना है। अन्यग्रंथों में आवश्यक के समान सूत्र-स्पर्शी नियुक्ति अत्यन्त अल्प दिखाई देती है। यही कारण है कि अन्य ग्रंथों की नियुक्ति का परिमाण मूल-ग्रंथ की अपेक्षा बहुत कम है। आवश्यक की स्थिति इससे विपरीत है।
55. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग 3, पृष्ठ 88