Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन न्याय पर अहिंसा का प्रभाव
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अर्थात जैसे बीज के अंकुरों की रक्षा के लिए कटीली झाड़ियों की वाड़ लगाई जाती हैं वैसे ही तत्त्वज्ञान के निश्चय की रक्षा करने के लिए जल्प तथा वितण्डा कथा होती है।
जल्प में ही छल जाति और निग्रहस्थानों का प्रयोग होता है। अर्थात् शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने के लिये छल का भी उपयोग किया जाता था। वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ का उपपादन करके वक्ता की बात को काट देना छल है। जैसे 'नवकम्बल देवदत्त' ऐसा कहने पर नव के संख्यावाची नौ और नया ये दो अर्थ होने से वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ को लेकर उसकी बात काटना छल है और असत्य उत्तर को जाति कहते हैं। इस तरह के शास्त्रों का प्रयोग भी शास्त्रार्थों में होता था । अहिंसा के अनुयायी जैन नैयायिकों से न्याय में यह अन्याय नहीं देखा गया। बौद्ध नैयायिक धर्मकीति और जैन नैयायिक अकलंक ने एक स्वर से इसका विरोध किया। न्याय सूत्रकार के मत से वितराग कथा को वाद और विजिगीषु कथा को जल्प और वितण्डा कहते हैं। किन्तु अकलंकदेव ने जल्प और वाद में अन्तर न मानकर वाद को भो विजिगीषु कथा में ही मान्य किया, क्योंकि गुरु-शिष्य की वीतराग कथा को कोई वाद नहीं कहता। दो वादियों के मध्य में जब किसी विवाद को लेकर पक्ष प्रतिपक्ष परिग्रहपूर्वक चर्चा छिड़ती है तभी वाद शब्द का प्रयोग किया जाता है।
जल्प और वाद को एक मान लेने से एक वितण्डा शेष रहता है। वितण्डा में वादी-प्रतिवादी अपने-अपने पक्ष का समर्थन न करके केवल प्रतिवादी का खण्डन करने में ही व्यस्त रहते हैं । अतः अकलंक ने इसे वादाभास कहा, क्योंकि वाद वही है जिसमें स्वपक्ष-स्थापनपूर्वक परपक्ष का निराकरण किया जाता है।
वाद में सबसे मुख्य प्रश्न जय-पराजय-व्यवस्था का रहना है। प्रतिपक्षी को निगृहीत करने के लिये न्यायदर्शन में वाईस निग्रहस्थान माने गये हैं। धर्मकीति ने वादी और प्रतिवादी के लिये एक-एक निग्रहस्थान माना है। यदि वादी अपने पक्ष की सिद्धि करते हुए किसी ऐसे अंग का प्रयोग कर जाये जो असाधनाङ्ग माना गया है या साधनाङ्ग को न कहे तो वह निगृहीत हो जाता है। इसी प्रकार वादी के अनुमान में दूषण देते हुए यदि प्रतिवादो किसी दोष का उद्भावन न करे या अदोष का उद्भावन करे तो वह निगृहीत कर दिया जाता है। अकलंक ने धर्मकोति के इस निग्रह को अनुचित बतलाया । वे कहते हैं-वाद का उद्देश्य तत्त्वनिर्णय है । यदि वादी अपने पक्ष का साधन करते हुए कुछ अधिक कह जाता है या प्रतिवादी अपने पक्ष की सिद्धि करके वादी के किसी दोष का उद्भावन नहीं करता तो वे दोनों इतने मात्र से निगृहीत नहीं किये जा सकते। कहावत प्रसिद्ध है-'स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोषाभावात् ।' अपना कार्य करके नाचे भी तो कोई दोष नहीं है। प्रमाण के बल से प्रतिपक्षी के अभिप्राय को निवत्त
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