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136 VAISHALİ INSTITUTE RÉSEARCH BULLETIN NO. 2 नहीं था। यही कारण है कि रामसिंह ने 'पाहड़ दोहा' में माधर्य भाव की भक्ति का संकेत किया है हालाँकि उनकी आवाज खुलकर नहीं निखरी है। देह और आत्मा का संयोग वे प्रेयसी और प्रेमी के रूप में करते हैं और आगे जाकर यही रूपक आत्मा-परमात्मा के बीच माधुर्यभाव को भक्ति के रूप में विकसित हुआ। उनके उद्गारों में भी आत्मा और परमात्मा के वीच प्रेयसी और प्रेमी के रूपक का आभास मिलता है। वे उस निर्लक्षण, स्त्री-बहिष्कृत और अकुलीन को अपने मन में बसाते हैं। उस प्रियतम के कारण जो माहुर उन्हें मिली उससे उनका इन्द्रियांग सुशोभित हो गया ।' पुनः वे कहते हैं-"में सगुण हूँ और प्रिय निर्गुण, निर्लक्षण और निःसंग है। एक ही अंग-रूपी अंग अर्थात् कोठे में बसने पर भी अंग से अंग नहीं मिल पाया"।२ रामसिंह के इन उद्गारों से पता चलता है कि आत्मा-परमात्मा के बीच दाम्पत्य प्रेम से भी वे अच्छी तरह परिचित थे। इस क्षेत्र में वे सिद्धों और संतों को राह दिखाते दीख पड़ते हैं। इसी वात को स्पष्ट करते हुए डा. हीरालाल जैन का विचार है कि ' ग्रन्थकार ने कुछ दोहों में देह और आत्मा के संयोग का प्रेयसी और प्रेमी के रूपक में वर्णन किया है। यह शैली पीछे हिन्दी कविता में बहुत लोकप्रिय हो गई और भक्त और आराध्य का प्रेयसी और प्रेमी के रूपक में बहुत वर्णन हुआ है।३
जैनाचार्य का प्रेमी-प्रेयसी का भाव ही वज्रयान में सहज साधना के रूप में फूटा। बौद्ध धर्म की कठोर और कष्टकर साधना वज्रयानी सिद्धों को सहज साधना में अपने चरम विकास को प्राप्त हुई। इस प्रकार अन्यान्य क्षेत्रों की भाँति माधुर्यभाव के क्षेत्र में भी सिद्ध जैनाचार्य से प्रभावित और अनुप्राणित दीख पड़ते हैं। रामसिंह ने देह और आत्मा का संयोग प्रेमी और प्रेयसी के रूप में किया और सिद्धों ने अपनी महामुद्रा के साथ प्रणय-संबंध स्थापित किया तथा खुलकर केलि की। यह सही है कि सिद्धों का प्रेम भी आध्यात्मिक ही है तथा महाप्रज्ञा ही उनके लिए डोंवी; चांडाली; 'नारामणी' आदि भिन्न प्रकार की नायिकाओं के रूप में उपस्थित हुई हैं। महाप्रज्ञा और उपाय का संयोग ही उन्होंने स्त्री और पुरुष के प्रणय-संबंध के रूप में व्यक्त किया है। यहां यह कह देना आवश्यक है कि यद्यपि सिद्धों ने अपनी सहज साधना का आध्यात्मिक स्वरूप बनाये रखना चाहा है तथापि उनमें स्थान-स्थान पर भौतिक प्रेम और शारीरिक संबंधों की गंध मिलती है। ऊँचे-ऊँचे पर्वत पर बैठी उस शबर वालिका के प्रति सरह प्रणय निवेदन करते हैं जिसके गले में गुंजों की माला पड़ी है। इस गीत में सरह उन्मत्त, पागल शवर के रूप में आते हैं जो शबरी के साथ
१. पाहुड़ दोहा--९९, पृ० ३० २. हउं सगुणी पिउ णिगुणउ णिल्लक्खणु णीसंगु ।
एकहिं अंगि वसंतयहं मिलिउ ण अंगहिं अंगु ।।
—वही-१००, पृ० ३० ३. वही-भूमिका, पृ० १६.
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