Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

Previous | Next

Page 260
________________ हिन्दू तथा जैन साधु आचार 251 करने से ही वह मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है । तपस्वी के सदा जन्ममरण, सुख-दुःख, जरा व्याधि३" आदि के कारणों पर विचार करते हुए, सभी प्राणियों में समदृष्टि के साथ ही स्वधर्माचरण में प्रवृत्त होना चाहिए । उसे चाहिए कि अपने शरीर को क्लेश पहुँचाकर भी चींटी आदि क्षुद्र जन्तुनों३६ की रक्षा के लिये दिन अथवा रात में भूमि को देखकर विचरण करे, पर, इसके बाद भी यदि उससे अज्ञानतावश हिंसा हो ही जाये तो वह उसके प्रायश्चित्तस्वरूप छः प्राणायाम ३० करे । यहाँ उस ब्रह्मलीन यति के लिए प्राणायाम के द्वारा रागादि दोषों का, ब्रह्मनिष्ठ मन की धारणा से पापों का, इन्द्रियों का निग्रह कर विषयसंसर्ग का एवं ध्यान के द्वारा क्रोधादि श्रनीश्वर गुणों का दहन करना ३८ आवश्यक बतलाया गया है । साधु के द्वारा सामान्य धर्म की अनुपेक्षा 1 8 पर, यहाँ यह नहीं भूलना चाहिये कि संन्यासी के उपर्युक्त विशेष धर्म का विधान करते हुए भी, मनु ने मनुष्य के साधारण धर्म की भी अपेक्षा बतलायी है । 'वेद' अर्थात् ब्रह्म जो यज्ञ के, देवताओं के, जीव के तथा वेदान्त के मध्य में स्थित हैं, उनके जप के साथ ही धृति, क्षमा, दम, अस्तेय आदि सामान्य धर्म ३० का पालन भी उन्होंने संन्यासी के लिये अनिवार्य माना है । यद्यपि मनु के विचार में उपर्युक्त सभी उपाय मुनि को सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने में सहायक होने के ही कारण ग्राह्य हैं, क्योंकि कर्मबन्धन से मुक्त होने का एकमात्र उपाय सम्यग्दर्शन" ही है । यदि सम्यग्दर्शन अर्थात् समत्वभाव की जागृति यति में नहीं हुई तो अन्य सभी वाह्य आचार आडम्बर मात्र ही रह जायेंगे । वे किसी भी स्थिति में यति को मोक्ष की प्राप्ति कराकर धर्म के कारण नहीं हो सकते। यही कारण है कि उपर्युक्त मुनि के सभी प्राचारों का स्पष्टीकरण करते हुए भी मनु ने समत्वप्राप्ति पर ही अधिक जोर दिया है और उसके बिना सभी परिश्रम व्यर्थ घोषित कर दिये हैं । इसी प्रकार मनु ने कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस संज्ञक सभी प्रकार के संन्यासियों के आचार एवं नित्यचर्या गिनाये हैं | पर, इन सबों के सामान्य धर्म एवं आचार में कोई अन्तर नहीं रखा है । गृहस्थाश्रम में भी संन्यास पर, इनमें से कुटीचक के सम्बन्ध में जो वेद में कथित अग्निहोत्र आदि कर्म के त्यागी हैं, कुछ विशेष बातें कही हैं । इस प्रकार का यति अपने पुत्र २ ३५. मनु० अध्याय ६ ।६१. ३६. ६।६८. - ३७. ६।६९. ३८. ६।७२. Jain Education International 37 11 " 23 37 ار ३९. मनु ० अध्याय ६४७५. ४०. ६।७४. ४१. ६।६६. ६।८६. ४२. 33 17 33 For Private & Personal Use Only 11 33 33 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342