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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
उत्पन्न हो जाने की संभावना रहेगी । सविकलक ज्ञान भो उनके एकत्वाध्यवसाय को नहीं जानता है क्योंकि निर्विकल्प ज्ञान को सविकल्प ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है । यह नियम है कि जो जिसको विषय नहीं करता है उसका उसके साथ एकत्वाध्यवसाय नहीं होता है । उदाहरणार्थ घट ज्ञान परमाणु को नहीं जानता है इसलिए घट ज्ञान परमाणु के साथ घट का एकत्वाध्यवसाय नहीं करता है ।" इसी प्रकार विकल्प ज्ञान का निर्विकल्प विषय नहीं है । दूसरी बात यह है कि निर्विकल्प ज्ञान को सविकल्पक का विषय मानने से स्वलक्षण भी उसका विषय हो जायेगा। तीसरा दोष यह आयेगा कि यह कथन आपके इस मत से विरोध रखता है कि विकल्प में अवस्तु का प्रतिभास होता है । अतः विकल्प ज्ञान भी उनके एकत्वाध्यवसाय को नहीं जान सकता है । इन दोनों ज्ञानों के अलावा कोई तीसरा ज्ञान भी इन दोनों के एकत्वाध्यवसाय को नहीं जान सकता है, क्योंकि अन्य ज्ञान भी सविकल्पक और निर्विकल्पक में से कोई एक होगा । अतः पूर्वोक्त दोष यहाँ भी प्राप्त होते हैं । इस प्रकार सिद्ध है कि निर्विकल्प और सविकल्पक के एकत्वाध्यवसाय का ज्ञान किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है । इसलिए इन दोनों का एकत्वाध्यवसाय संभव नहीं है । यदि वौद्ध दार्शनिक यह मानते हैं कि प्रतीति के अनुसार वस्तु की व्यवस्था होती है तो प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि अनुभव सिद्ध एवं 'स्व' और 'पर' का निश्चय करनेवाला एक ही प्रत्यक्ष ज्ञान मानना चाहिए । यही प्रत्यक्ष ज्ञानों का मूल है 19 इसी ज्ञान को यदि निर्विकल्पक कहना चाहते हैं तो जैन दार्शनिकों को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि नाम बदलने से अर्थभेद नहीं होता है । ६
निर्विकल्पक ज्ञान सविकल्पक का उत्पादक नहीं है ।
बौद्धों का एक यह भी मत है कि किसी भी वस्तु के विषय में पहले निर्विकल्पक ज्ञान होता है इसके बाद उसके द्वारा सविकल्पक ज्ञान की उत्पत्ति होती है । प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रभाचन्द्राचार्य आपत्ति उठाते हुए कहते हैं कि निर्विकल्पक ज्ञान स्वयं विकल्परहित है तो वह विकल्प को किस प्रकार उत्पन्न कर सकता है ? क्योंकि अविकल्पक और विकल्पक उत्पादकत्व में परस्पर विरोध प्रतीत होता है ।" यदि बौद्ध दार्शनिक इस दोष का परिहार यह कह कर करना चाहें कि विकल्पवासना की अपेक्षा लेकर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी विकल्प
२ . वही, पृ० ४९-५० ।
९. वही, पृ० ३१ ।
३.
४.
प्र० क० म० १।११३, पृ० ३१ ।
ज्ञानान्तरं तु – उभयत्राप्युभयदोषाणुषंगतस्तदुभय - प्र० क० मा०, १1३, पृ०३१।
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न्या० कु० च०, पृ० ५० ।
५.
सकल व्यवहाराणां विकल्पमूलत्वात् । वही १1३, पृ० ५० । प्र०क०मा०, पृ० ३७ । ७. न्या० कु० च०, पृ० ५० ।
६.
न चास्यविकल्पोत्पादकत्वं घटते -- परस्पर विरोधात् । प्र०क०मा०, ( प्रभाचन्द्र ), १।३, पृ० ३३ ।
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