Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 304
________________ जैन तर्कशास्त्र में निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण की मीमांसा 295 विकल्पवासना से विकल्प की उत्पत्ति होती है और वह शब्दार्थविकल्प पूर्व वासना से उत्पन्न होता है । इस प्रकार विकल्प और वासना की संतान अनादि है और निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से भिन्न है । अतः विजातीय निर्विकल्पक दर्शन से विजातीय विकल्प की उत्पत्ति होना हम वौद्धों को भी मान्य नहीं है । उपर्युक्त कथन का खंडन करते हुए आचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि यदि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष विकल्प को उत्पन्न नहीं करता है तो बौद्ध मत में क्यों कहा गया है कि जिस विषय में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक बुद्धि को उत्पन्न करता है उसी विषय में वह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण है । अतः आपके उपर्युक्त कथन में वदतोव्याघात है । ' इस प्रकार सिद्ध है कि सविकल्पक बुद्धि को उत्पन्न करने पर ही निर्विकल्पक को प्रामाण्य रूप माना जाता है तो सविकल्पक को भी प्रमाण मान लेना चाहिए, अदृष्ट परिकल्पना से क्या लाभ ? सविकल्पक ज्ञान प्रामाण्य नहीं है । वौद्ध तर्कशास्त्रियों का मंतव्य है कि सविकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है । जैन तर्कशास्त्री उनसे प्रश्न करते हैं कि आप सविकल्पक को प्रमाण नहीं मानते हैं तो बतलाइये कि इसमें कौन सा दोष है जो इस सविकल्पक ज्ञान को अप्रमाण वना देता है ? निम्नांकित दोषों में से यदि कोई दोष उसमें होता तो उसे अप्रमाण सिद्ध करते तो हम स्याद्वादियों को आपका सिद्धान्त स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होती । अतः आपको बतलाना होगा कि क्यों सविकल्पक ज्ञान अप्रमाण है '—— ( १ ) स्पष्टाकार विकल्प होने से ? (२) गृहीतग्राही होने से ? ( ३ ) असत् में प्रवृत्ति करने से ? ( ४ ) हिताहित - प्राप्ति - परिहार में असमर्थ होने से ? ( ५ ) कदाचित् विसंवादी होने से ? (६) समारोप का निषेधक न होने से ? ( 9 ) व्यवहार में अनुपयोगी होने से ? ( ८ ) स्वलक्षण को विषय न करने से ? ( ६ ) शब्दसंसगं योग्य प्रतिभास होने से ? (१०) शब्द से उत्पन्न होने से ? (११) ग्राह्य श्रर्थ के बिना केवल शब्द मात्र से उत्पन्न होने से ? १. वही, पृ० ३५ । २ Jain Education International प्र० क० मा० ( प्रभाचन्द्र ), १1३, पृ० ३६ । , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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