Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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290 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
इन दोनों ज्ञानों की अभेद रूप से उपलब्धि मान लेने पर भी प्रश्न होता है कि निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञान की अभेद रूप से उपलब्धि क्यों होती है ?' क्या दोनों में अभेद रूप से उपलब्धि होने का कारण सादृश्य है अथवा अभिभव ? (अ) सादृश्य के कारण अभेद रूप से प्रतीति नहीं होती है।
यदि दोनों ज्ञानों में भेद रूप से उपलब्धि न होने का कारण सादृश्य है तो पुनः प्रश्न होता है कि दोनों ज्ञानों में सादृश्य क्यों है ? क्या दोनों के विषय एक हैं अथवा ज्ञानरूपता एक है ? निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञान में सादश्य के कारण दोनों के विषय में अभिन्नता को नहीं माना जा सकता है क्योंकि, दोनों ज्ञानों का विषय एक न होकर भिन्न-भिन्न है। निर्विकल्पक ज्ञान का विषय 'स्वलक्षण और सविकल्पक ज्ञान का विषय सामान्य है। इसी प्रकार ज्ञानरूपता सादश्य के कारण इन दोनों ज्ञानों में अभेद मानना ठीक नहीं है, अन्यथा नोल पीत आदि ज्ञानों में भी अभेद मानना पड़ेगा जो असंगत एवं अव्यावहारिक है। अतः सदश्यता के कारण निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञान में अभेद की प्रतीति संभव नहीं है । (ब) अभिभव के कारण अभेद की प्रतीति संभव नहीं है ।
सादृश्य के कारण अभेद रूप से निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञान में भेद रूप से प्रतोति न होने के कारण अभिभव को भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि यहाँ भी प्रश्न होता है कि किसके द्वारा किसका अभिभव किया जाता है ? बौद्ध उत्तर देते हैं कि विकल्पज्ञान के द्वारा निर्विकल्पक का अभिभव किया जाता है, जैसे सूर्य के द्वारा ताराओं का अभिभव होता है। इस कथन पर प्रभाचन्द्र पुनः प्रश्न करते हैं कि निर्विकल्पक ज्ञान के द्वारा सविकल्पक ज्ञान का अभिभव क्यों नहीं होता है ? यदि वौद्ध दार्शनिक इसका उत्तर यह दें कि सविकल्पक ज्ञान वलवान् है इसलिये उसका अभिभव नहीं होता है तो प्रत्युतर में कहा जा सकता है कि सविकलाक बलवान क्यों है ? क्या उसका विषय अधिक है या वह निश्चयात्मक है ?
सविकल्पक ज्ञान का विषय अधिक मान कर उसे वलवान मानना तो ठीक नहीं है क्योंकि, आप बौद्ध तर्कों ने यह स्वीकार किया है कि निर्विकल्पक ज्ञान के विषय में ही उसकी प्रवृत्ति होती है। यदि सविकल्पक को अगृहीत अर्थ का ग्राही माना जायेगा तो वह दूसरा प्रमाण हो जायेगा जो वौद्धों को मान्य
१. प्र० क० म०, पृ० २८ । २. वही, पृ० २९ । ३. वही, पृ० २९ । ४. वही, पृ० २९ ।
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