Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 272
________________ हिन्दू तथा जैन साधु-प्राचार 263 "मेरे पहुँचने से इन लोगों के आहार में वाधा होगी" धीरे-धीरे चुपके से वे दूसरे स्थान पर निकल जाते और अहिंसा पूर्वक भिक्षा की खोज करते । यदि आहार न मिलता तब भी भगवान् शान्तभाव से ही रहते । नीरोग रहने पर भी वे भर पेट भोजन नहीं करते । शारीरिक संस्कार से विरक्ति शरीर की शुद्धि के लिए की जानेवाली स्नान, दन्त-प्रक्षालन आदि क्रियाओं से भी वे अलग रहते। इसी प्रकार काम-सुखों से सर्वथाविरत होकर ये वहुवादी (मोनी) ब्राह्मण विचरा करते थे'। उत्तराध्ययन अनगार की अवधानता यहाँ सूत्रकार ने प्रथम ही अनगारों को सावधान करते हुए स्पष्ट कह दिया है, कि जो साधु एक वार इस जन्म मरण को दुःखरूप मानकर गृहस्थवास को छोड़ संयम मार्ग स्वीकार कर चुका है, उसे उन श्रासक्तियों के स्वरूप को सदा के लिए समझ लेना चाहिए, जिनमें सांसारिक जन निबद्ध हैं । अनगार धर्म यति का यह प्रथम धर्म है कि वह हिंसा, सत्य, चौर्य्य, अब्रह्मचर्य, अप्राप्य वस्तुओं की इच्छा एवं प्राप्त का परिग्रह अन्तिम रूप से त्याग दे । पुनः सूत्रकार ने अनगार धर्म की सार्थकता की चर्चा करते हुए आगार अर्थात् सुसज्जित, सुन्दर कपाटयुक्त एवं मनोहर भवन में रहने की बात तो अलग रहे, उसका चिन्तन भी साधु के लिए वर्ज्य माना है । उसके लिए केवल श्मशान, शून्यगृह, स्त्रियों के आवागमन से रहित एकान्त स्थान तथा वृक्ष के मूल ये ही आवास उपयुक्त हो सकते हैं। यही उनका विधान है । सूत्रकार का आदेश है कि भिक्षु न स्वयं घर बनावे और न दूसरों के द्वारा ही बनवाये, क्योंकि घर वनवाने की क्रिया में अनेक जीवों की हिंसा होती है । अनगार का आहार एवं अग्नि-परित्याग इसी प्रकार वे साधु के श्राहार के सम्बन्ध में भी सावधान हैं और उन्हें कदापि साधु के द्वारा अन्न पकाने अथवा पकवाने की बात स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि इसमें भी अनिवार्य जीव-हिंसा" है । जैनेतर परम्परा के साधुओं की तरह जैन साधु भी धुनि रमावें, यह बात भी सूत्रकार की दृष्टि में शास्त्रसंगत नहीं, क्योंकि सब दिशाओं में शस्त्र की धारा की तरह फैली हुई एवं असंख्य जीवों का १. ( आचारांग ) अध्ययन ९ १. उत्तराध्ययन ३५।२ ३५/३ २. Jain Education International " ३. उत्तराध्ययन ३५।६ ४. ३५१८ ५. ३५।१० "" " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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