Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
में जलस्थिति के ज्ञान की प्रमाणता की ज्ञप्ति पनिहारिनों का पानी भर कर लाना, मेढकों का टर्राना आदि जल के अविनाभावि स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानान्तर से, अर्थात् परतः हुआ करती है । किन्तु, मूलतः प्रामाण्य और अप्रामाण्य - दोनों की उत्पत्ति अभ्यास तथा अनभ्यास- दशानों में गुण-दोष आदि की दृष्टि से परतः ही होती है ।
प्रामाण्य और अप्रामाण्य के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न तर्क प्रस्तुत किये हैं । न्याय-वैशेषिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य, दोनों को परतः उत्पन्न मानते हैं । सांख्य कहता है कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः उत्पन्न होते हैं। मीमांसकों की मान्यता है कि प्रामाण्य स्वतः और अप्रामाण्य परत: उत्पन्न होते हैं । बौद्ध, ठीक इसके विपरीत, प्रामाण्य की परतः और अप्रामाण्य को स्वतः उद्भूत होने वाला प्रमाण-धर्म स्वीकार करते हैं । इस प्रकार, प्रामाण्य और अप्रामाण्य का दार्शनिक तर्क- वाङ्मय में पर्याप्त व्यालोचन किया गया है ।
प्रमाण के तार्किक भेद
एकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, ऐसा चार्वाक का तर्क है। बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान ये ही दो प्रमाण-भेद मानते हैं । सांख्यमत से प्रमाण तीन हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम या शब्द । परन्तु, नैयायिक आचार्य सांख्य के तीन भेदों में उपमान जोड़कर प्रमाण के चार भेद स्वीकार करते हैं । मीमांसकों में प्रभाकर मत के अनुयायियों ने चार भेदों में प्रर्थापत्ति जोड़कर प्रमाण के पाँच भेद किये हैं, किन्तु कुमारिलभट्ट के अनुयायी प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि या प्रभाव ये छह मत अंगीकार करते हैं । वेदान्ती मनीषियों ने भी छह ही प्रमाण माने हैं । पौराणिक लोग 'सम्भव' और 'ऐतिह्य' को मिलाकर ग्राठ प्रमाण मानते हैं । तान्त्रिक 'चेष्टा' को भी प्रमाण मानते हैं, इसलिए इनके मत में नौ प्रमाण हैं ।
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जैनदर्शन में प्रत्यक्ष' और परोक्ष इन्हीं दो भेदों में उपर्युक्त समग्र दार्शनिकों के समस्त प्रमाणभेदों को आत्मसात् कर लिया गया है। पूर्वोक्त पाँच ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण माना गया है एवं अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है । आगमिक परिभाषा के अनुसार, केवल आत्मापेक्षी ज्ञान ही प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु जो इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि इतर साधनों की अपेक्षा रखता है, वह परोक्ष ज्ञान है । प्रत्यक्ष और परोक्ष की यह परिभाषा जैन परम्परा की अपनी है ।
१. 'आद्ये परोक्षम् ।' 'प्रत्यक्षमन्यत् । - तत्त्वार्थसूत्र १।११-१२ ।
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२.
'जं परदो विष्णाणं तं तु परोक्खत्ति भणिदमत्थेसु !
जं केवलेण णादं हवदि हु जीवेण पच्चक्खं ॥ '
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- प्रवचनसार : कुन्दकुन्दाचार्य गाथा ५८ ।
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