Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन तर्कशास्त्र में निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण की मीमांसा :
प्रो० लालचन्द जैन प्रमाण की व्युत्पत्ति से ज्ञात होता है कि जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ अच्छी तरह से जाने जाते हैं, वह प्रमाण कहलाता है। जैन दार्शनिक मान्यताओं का सर्वप्रथम विवेचन करनेवाले आचार्य उमास्वाति ने भी कहा है : जिससे पदार्थों का अच्छी तरह से ज्ञान होता है वह प्रमाण है। इसी व्युत्पत्ति को स्पष्ट करते हुए हेमचन्द्र तथा अनन्तवीर्य आदि आचार्यों ने कहा है कि सम्यक् प्रकार से संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित वस्तुतत्त्व का ज्ञान जिससे होता है वह प्रमाण कहलाता है। उपर्युक्त प्रमाण की व्युत्पत्ति के अनुसार जैन एवं बौद्ध दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण का स्वरूप बतलाकर अन्य भारतीय दार्शनिकों-न्यायवैशेषिक, सांख्य-योग और मीमांसादि, के प्रमाण स्वरूप सन्निकर्ष प्रमाणवाद, कारकसाकल्य प्रमाणवाद, इन्द्रियवृत्ति, ज्ञातृव्यापार आदि प्रमाणवाद को अप्रमाण बतलाकर उन्हें प्रमाणकोटि से बाहर रखा है, तथा उनका तार्किक रूप से खंडन किया है । अन्ततः जैन एवं वौद्ध दार्शनिकों के मध्य भी प्रमाण का स्वरूप विवाद का प्रश्न बन गया। बौद्ध दार्शनिकों ने निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण का स्वरूप माना और जैन तार्किकों ने सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण कहा है। यही कारण है कि भट्ट-अकलंकदेव, विद्यानन्दि तथा माणिक्यनन्दि जैसे प्रखर जैन तर्कशास्त्रियों ने निर्विकल्पक ज्ञान को अप्रमाण स्वरूप दिखाने के लिए संवर्धित प्रमाण की परिभाषा में 'व्यवसायात्मक' विशेषण दिया है। अपने सिद्धान्त के प्रतिष्ठापन में बौद्ध तार्किकों ने निम्नांकित तर्क दिये हैं
बौद्धों का कथन है कि हमारे मत में दो प्रकार के प्रमाण माने गये हैं प्रत्यक्ष और अनुमान । निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष और सविकल्पक ज्ञान को अनुमान कहते है। कहा भी है : 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्' इति ताथा
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१. प्रमिणोति प्रमियतेऽनेन प्रमिति मात्र वा प्रमाणम् ।
स० सि० (पूज्यपादाचार्य), १, १०, पृ०. ९८ । २. प्रमीयन्तेऽस्तैरिति प्रमाणानि । स० त० अ० सू०, (उमास्वाति), १, १२ । ३. प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत् प्रमाणं ।
प्र. २० मा, (अनन्तवीर्य), १, १ । प्र०मी०, (हेमचन्द्र), १, १, पृ० २ । ४.(क) व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् । लघी० १०, (अकलंकदेव), ६० । (ख) प्रमाणपरीक्षा, (विद्यानन्दि), ५३ । (ग) स्वपूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । परीक्षामुख, (माणिक्यनन्दि),१,१। ५. न्यायकुमुदचन्द्र, (प्रभाचन्द्र), भाग १, १ । ३, पृ० ४६ ।
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