Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 291
________________ 282 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 थे। यहाँ सम्पूर्ण शाक्य-प्रदेश पर राज्य करने वाले किसी आनुवंशिक राजा का उल्लेख नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि बुद्ध के जीवनकाल में मल्ल, लिच्छवि और विदेह राज्य गणतंत्र थे। उनके पड़ोसी मगध और कौशल के राजा उन्हें जीतने का बार-बार प्रयत्न करते थे, इस कारण अपनी रक्षा के लिए ये गणतंत्र अपना एक संयुक्त राज्य संघ बीच-बीच में बनाते थे। कभी लिच्छवि मल्लों से मिल जाते तो कभी विदेहों से । पर, ५०० ई० पू० में मगध ने मल्ल और विदेह राज्यों को जीत लिया। लिच्छवियों को भी मगध साम्राज्य के आगे नतमस्तक होना पड़ा। किन्तु, २०० ई० पूर्व तक वे पुनः स्वतन्त्र हो गये। ४ थी शताब्दी ई० में लिच्छवि राज्य अत्यन्त शक्तिशाली था और गुप्त साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त को उनसे वैवाहिक सम्बन्ध करने से अपने उत्थान में पर्याप्त सहयोग मिला। गण-शासन के सम्बन्ध में भी पर्याप्त सामग्री मिलती है। गण के निर्माण की इकाई कुल थी । प्रत्येक कुल का एक-एक व्यक्ति गणसभा का सदस्य होता था। उसे कुलवृद्ध या पाणिनि के अनुसार गोत्र भी कहते थे। उसी की संज्ञा वंश्य भी थी । प्रायः ये राजन्य या क्षत्रिय जाति के ही व्यक्ति होते थे। ऐसे कुलों की संख्या प्रत्येक गण में परम्परा-नियत थी, जैसे लिच्छविगण के संगठन में ७७०७ कुटम्व या कुल सम्मिलित थे। उनके प्रत्येक कुलवृद्ध की संघीय उपाधि राजा होती थी। सभापर्व में गणाधीन और राजाधीन शासन का विवेचन करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि साम्राज्य शासन में सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में रहती है। किन्तु, गणशासन में प्रत्येक परिवार में एक-एक राजा होता है। इसके साथ ही वहाँ दो बातें और कही गयी हैं। एक तो यह कि गणशासन में प्रजा का कल्याण दूर-दूर तक व्याप्त होता है और दूसरे यह भी कि युद्धकाल में गण की स्थिति क्षेमयुक्त नहीं होती। इस कारण गणों के लिए शान्ति की नीति ही उपादेय बतायी गयी है और सब को लेकर चलनेवाले को ही प्रशंसनीय कहा गया है। संभवतया यह आवश्यक माना जाता था कि गण के भीतर दल का संगठन हो । दल के सदस्यों को वर्दी, पक्ष्य, गृह्य आदि संज्ञाओं से अभिहित किया जाता था। दल का नेता परमवयं कहा जाता था। गणसभा में गण के समस्त प्रतिनिधियों को सम्मिलित होने का अधिकार था, किन्तु, सदस्यों की संख्या कई सहस्र तक होती थी । अतएव विशेष अवसरों को छोड़कर प्रायः उपस्थिति परिमत ही रहती थी। शासन के लिए अन्तरंग अधिकारी नियुक्त किए जाते थे, किन्तु, नियम-निर्माण का पूरा दायित्व गणसभा पर ही था। गणसभा में नियमानुसार प्रस्ताव रखे जाते थे, उनकी तीन वाचनाएँ होती थीं और शलाकारों द्वारा मतदान होते थे। इस समय में राजनीतिक प्रश्नों १. साम्राज्य शब्दो हि कृत्स्नभाक् । २. गृहे-गृहे-हि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियंकराः, सभापर्व, १४, २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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