Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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266 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 पर विशेष बल दिया गया है। यद्यपि जैनधर्म में हिन्दू-धर्म की तरह मुनिव्रत स्वीकार करने की कोई निश्चित आयु-सीमा निर्धारित नहीं की गयी है फिर भी आन्तरिक योग्यता दोनों में समान अपेक्षित रही है। दोनों सम्प्रदायों के साधुओं के लिए प्रव्रज्या स्वीकार करने के पूर्व विरक्त होना अनिवार्य कहा गया है । और आयु सीमा-
निर्धारण की बात तो वैदिक परम्परा में भी शिथिल ही प्रतीत होती है, क्योंकि ब्राह्मणों में भी “यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्" वाले वाक्य द्वारा इस नियम के सम्बन्ध में ढिलाई ही बरती गयी है और इस पर विशेष बल नहीं दिया गया है ।
दोनों म निरम्बर तथा साम्बर साधु
दोनों ही वर्गों के साधुओं में परिग्रह-त्याग की ओर विशेष सावधानी रखी गयी है। इनमें दिगम्बर और साम्बर दोनों ही प्रकार के साधु रहे हैं । जिस प्रकार जैन सम्प्रदाय में दिगम्बर श्वेताम्बर के नाम से दो स्पष्ट विभाग किये गये हैं, उसी प्रकार भागवत पुराण के कर्ता व्यास की “विभयाद् यद्यसौ वासः" एवं आचार्य शंकर की "दिगम्बरो वापि च साम्वरो वा" वाली उक्ति स्पष्टतः साधुओं के साम्वर तथा निरम्वर सम्प्रदायों की ओर संकेत करती है। इस प्रकार वेश-भूषा में भी दोनों प्रायः समान ही हैं।
तपश्चर्या में समता
हम पाते हैं कि दोनों ही वर्गों के साधुओं में कठोर तपस्या एवं चान्द्रायणादि व्रतों के द्वारा शरीर को कृश करने का विधान है। विना शरीर को कृश किये आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्त होने की वात दोनों ही वर्गों में उपहास्य है। आचार्य शंकर ने तो शरीर-पोषण के साथ तत्त्व-चितन की वात वैसी हो निष्फल मानी है, जैसी ग्राह की पीठ पर चढ़कर नदी पार कर जाने की चेष्टा ।"
कृषिकार्य का त्याग
दोनों ही वर्गों के साधुओं में कृषि-कर्म करने, कराने अथवा उसके अनुमोदन का भी निषेध किया गया है, क्योंकि ये साधु अफालकृष्ट भूमि का ही अन्नग्रहण कर सकते हैं, फालकृष्ट का नहीं। इन्हें कृषि-कार्य में जीवहिंसा स्पष्ट
१. देखिये मनुस्मृति, अ० ६, श्लो० ६० तथा मूलाचार अनगारभावना० गाथा १३ २. , विवेकचूडामणि, श्लोक १६, १७ तथा मूला० अन० भाव० गाथा ७, ८ ३. , भागवतपुराण सप्तम स्कन्ध, अध्याय १३, श्लो० २ तथा मनु०
अ० ६, श्लो० १५ ४. देखिये वि० चू० श्लो० ५४१.
६.
, मनु० अ० ६, श्लो० १६ तथा मूलाचार, अन० भा० गाथा ३६.
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