Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

View full book text
Previous | Next

Page 274
________________ हिन्दू तथा जैन साधु-आचार 265 अप्रतिहत गति, आकाश की तरह निरवलम्ब ( आश्रयरहित), वायु की तरह क्षेत्रादि से अप्रतिवद्ध, शरत् कालीन मेघ की तरह निर्मलहृदय, कमल की तरह निरुपलेप, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय, पक्षी की तरह मुक्तपरिकर, भारुण्ड की तरह अप्रमत्त, हस्ति की तरह कर्मशत्रु के लिये विजयशील, वृषभ की तरह महाव्रतों के भारवहन करने में सक्षम, मेरुपर्वत की तरह निष्कम्प ( प्रचलचित्त), समुद्र की तरह गम्भीर, चन्द्र की तरह सौम्य, सूर्य की तरह दीप्ततेज, अग्निपरीक्षित सुवर्ण की तरह निर्मलरूप, पृथ्वी की तरह शीत, उष्ण आदि सभी प्रकार के स्पर्शो के सहन करने में समर्थ एवं घी से सिक्त अग्नि की तरह ज्ञान एवं तपस्या से जाज्वल्यमान होना चाहिये | साधु का समताभाव वर्षा के चतुर्मास को छोड़कर शेष मासों में मुनि के लिये ग्रामान्तर्गत एक रात्रिक तथा नगरों में पंचरात्रिक वास करना उचित है । साधु को चन्दन की तरह छेदक और पूजक दोनों के प्रति समभाव रखना चाहिये । उसकी दृष्टि में तृण और रत्न, पाषाण और सुवर्ण एवं सुख प्रौर दुःख सवों का महत्त्व समान है । साधु इस लोक और परलोक में प्रतिबन्धरहित, जीवन-मरण में वांछारहित, संसार सागर का पारगामी तथा कर्मशत्रु को नष्ट करने के लिये कृतोद्यम होकर इस पृथ्वी पर विचरण करे' । साधु आचारों में साम्य उपर्युक्त दोनों ही सम्प्रदायों के साधु-आचारों के सूक्ष्म विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अन्तः तथा बाह्य दोनों ही दृष्टियों से एक दूसरे के अत्यन्त निकट एवं परस्पर प्रभावित भी हैं । वस्तुतः सदाचरण और स्वानुभूति ही साधु जीवन के आधार स्तम्भ एवं मानदण्ड हैं । तार्किक बुद्धि के द्वारा शास्त्रज्ञ किसी तथ्य का केवल ऊहापोह करता है, किन्तु उस ज्ञान को अपने जीवन में उतारना वह नहीं जानता । साधु उस ज्ञान को अपने जीवन का प्रदर्श बनाता है और अपना समग्र आचरण उसी भित्ति पर खड़ा करता है । यही कारण है कि इन साधुओं में वर्गभिन्नता रहने पर भी आचरणभिन्नता केवल नाममात्र और ऊपरी ही होती है, वास्तविक नहीं । वस्तुतः एक भूमि पर एक ही मूल स्रोत से प्रवाहित होनेवाली भिन्न-भिन्न धाराओं में मौलिक भेद होना संभव नहीं, भले ही वाह्य व्यवहार में थोड़ा अन्तर दिखलाई पड़े । साधु आचार की प्रान्तरिक एकरूपता जैसा हम देख चुके हैं कि दोनों ही सम्प्रदायों में साधुव्रत स्वीकार करने वाले व्यक्ति के लिए सांसारिक बन्धनों का त्याग, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि का पूर्ण पालन तथा मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि से पूर्ण मुक्ति की आवश्यकता १. श्री वीरचरित, महावीरस्थानगारता, गाथा ११८, ११९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342