Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 277
________________ 268 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 सामान्य धर्म-पालन इन साधुओं के लिए विहित विशेष धर्म के अतिरिक्त सत्य, सहिंसा आदि सामान्य धर्म का पालन भी अनिवार्य रखा गया है। ये साधु दंतधावन करना, स्नानादि के द्वारा शरीर शुद्धि करना तथा केश, नख आदि का काटना साधुधर्म के विरुद्ध मानते हैं, क्योंकि इन बाह्य शुद्धियों के द्वारा वासना की ओर आकृष्ट होने तथा परिग्रह-वृद्धि की निश्चित सम्भावना उत्पन्न हो जाती है। किन्तु, हिन्द-साधुओं के लिए उपर्युक्त कार्यों से विरत रहते हुए भी खुले जल में स्नान करने का विधान मिलता है। शरीर की ममता का त्याग ये सभी साधु शरीर-रक्षा की चिन्ता नहीं करते। यहाँ तक कि यदि कोई असाध्य रोग भी हो जाये, तब भी वे उसकी चिकित्सा कराने की बात नहीं सोचते। इन साधुओं के द्वारा मोक्ष-प्राप्ति का एक मात्र साधन शुद्ध आत्मस्वरूप ज्ञान को ही माना गया है। सम्यग्दर्शन की ओर भी दृष्टि दोनों की समान ही है। ये साधु ऊँच-नीच का विचार किये बिना सभी वर्गों के व्यक्तियों से भिक्षाग्रहण करते हैं। ये साधु अपने यम-नियमादि का पालन स्वतंत्रतापूर्वक स्वेच्छा से करते हैं, विधि (नियमादि विधान)-किंकर के रूप में नहीं१६ । उपर्युक्त प्रकार से दोनों सम्प्रदायों की साधु-परम्परा पर दृष्टि डालने से, इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँचा जा सकता है कि इन दोनों के बीच सम्प्रदाय अथवा संघभेद के कारण वाह्य क्रिया-कलापों में कुछ अन्तर दिख जाये, पर, वास्तविक रूप से उनमें कोई मौलिक भेद नहीं। ये सब के सब साधु आत्मतत्त्वज्ञानी, सत्य और अहिंसा के पुजारी एवं ब्रह्मचर्यपूर्वक वैराग्य में रत रहनेवाले ही पाये जाते हैं । इन गुणों को छोड़कर आखिर, उनका साधुत्व सुरक्षित ही कैसे रह सकता है ? श्रमण-परम्परा में साधु-आचार का विशेष संरक्षण पर, इन सभी समानताओं के बाद भी अन्ततः यह मानना पड़ेगा कि इस प्रकार परिग्रहबुद्धिरहित पूर्ण विरक्त साधु-परम्परा का पोषण विशेष रूप से श्रमणपरम्परा ही करती आयी है। धर्मशास्त्रों के देखने से यह स्पष्ट मालूम पड़ता है कि ब्राह्मण-परम्परा में एक तो सन्यासव्रत स्वीकार करने से पहले अन्य आश्रमों का भी यथाक्रम पालन करने का विधान किया गया है, साथ ही इन धर्माचायों की प्रवृत्ति भी गृहस्थाभिमुख ही अधिक मालूम पड़ती है, क्योंकि वे पुनः पुनः गृहस्थाश्रम की प्रशंसा करते हुए नहीं थकते। यहाँ तक कि १३. भागवत, स्कन्ध-११, अध्या० १८, श्लोक ३ १४. मनु०, अ० ६, ३१-३२ तथा मूला० अन० भाव० ७३ १५. मनु० अ० ६, श्लो० ७४ तथा तत्त्वार्थ सूत्र १, १ १६. भागवत, स्कन्ध ११, अ० १८, श्लोक ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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