Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 280
________________ जैनदर्शन और तर्क को आधार भूमि : प्रमाण 271 उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि दर्शन के प्राणभूत प्रमाण की उत्पत्ति के लिए तर्क का साहाय्य आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । इसलिए, यदि हम कहें कि दर्शन की अगाध उदधि में सन्तरण के लिए तर्क ही जलयान का काम करता है, तो कोई अत्युक्ति नहीं । निश्चय ही, विना तर्क के दर्शन में प्रवेश दुर्लभ है, साथ ही बिना प्रमाण-सिद्धि के दर्शन की कोई सार्थकता भी नहीं है । इसीलिए, तर्क दर्शन का अभिन्न अंग होते हुए भी उसका अलग वैशिष्ट्य है और यही कारण है कि दर्शनशास्त्र की तरह तर्कशास्त्र की भी स्वतन्त्र प्रतिष्ठा है । प्रस्तुत भूमिका के सन्दर्भ में यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं कि प्रमाण ही दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य है, जिसके लिए तर्क की अनिवार्य अपेक्षा है । जैनदर्शन तर्कमूलक होने के कारण वैज्ञानिक है; क्योंकि तर्क को सभी विज्ञानों IT भी विज्ञान कहा गया है । हालांकि, वंदिक दार्शनिक परम्परात्रों में कतिपय आचार्य ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने तर्कने राश्य का भी प्रचार किया है । " प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्र ने भी तर्क की असमर्थता बड़ी स्पष्टता से व्यक्त की है"यदि हेतुवाद (तर्क) के द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का निश्चय करना सम्भव होता, तो आज तक जो बड़े-बड़े तर्कमनीषी हुए, वे इन पदार्थों का निर्णय अभी तक कर चुके होते । आचार्य हरिभद्र के इस आक्षेप का समाधान करते हुए 'जैनदर्शन' के प्रतिष्ठित लेखक महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने कहा है कि "अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूप की पहेली पूर्वापेक्षा आज और अधिक उलझी हुई है । परन्तु, उस विज्ञान की जय मनानी चाहिए, जिसने भौतिक पदार्थों की अतीन्द्रियता वहुत हद तक समाप्त कर दी है और उसका फैसला अपनी प्रयोगशाला में कर डा है । निष्कर्षतः, यह कहा जाना चाहिए कि जैनदर्शन तर्कातीत विषय नहीं हो सकता । यदि वैसा मान लिया जायगा, तो जैनदर्शन की वैज्ञानिकता ही खण्डित हो जायगी । विशेषकर प्रमाण-विनिश्चय के लिए तो तर्क ही आधारभूमि वनता है । अपनी इस प्रतिज्ञा के लिए हम यहाँ प्रमाण की नाति दीर्घ चर्चा करेंगे । 'प्रमाण' की परिभाषा का विकास क्रम जैनदर्शन में प्रमाण-तत्त्व की जो परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं, उनका विकास-क्रम तार्किक दृष्टि से अध्येतव्य है । अर्थ, वस्तु और सत् ये तीनों तत्त्व के पर्याय हैं । तत्त्व के मूलतः दो भेद हैं-उपाय और उपेय । इनमें उपायतत्त्व, ज्ञापक और कारक रूप से दो प्रकार का माना गया है । प्रमाण और प्रमाणाभास १. २. ३. 'तर्कोऽप्रतिष्ठ: । ' - महाभारत, वनपर्व, ३१३।११० ; 'तर्काप्रतिष्ठानात् ।'ब्रह्मसूत्, २।१।११; 'नैषा तर्केण मतिरपनेया । - कठोपनिषद् २।९ । 'ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनैतावता तेषां कृतः स्यादर्थनिर्णयः ॥ – योगदृष्टिसमुच्चय, का० १४५ ॥ द्र० जैनदर्शन, प्र० श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, काशी, प्रथमा वृत्ति, २०१२ विक्रमाब्द, पृ० १३४ । Jain Education International ין For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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