Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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264 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 घात करनेवाली अग्नि के समान विघातक दूसरा कोई शस्त्र' ही नहीं। भगवान् अनगार के लिए भिक्षा के सिवा और दूसरा साधन आहार के उपयुक्त नहीं मानते और वह भी शास्त्रविहित' अनिदित गहों से प्राप्त। और वह भिक्षा भी सुस्वादु है अथवा कुस्वादु इस पर साधु को ध्यान नहीं देना है । वस्तुतः वह मुनि स्वादेन्द्रिय की तुष्टि के लिए तो कभी भी भोजन करे ही नहीं, अपितु अपने संयमी जीवन का निर्वाह मात्र ही उसके आहार-ग्रहण का मूल उद्देश्य होना चाहिए। अनगार का शरीर त्याग
इसी प्रकार भिक्षुकों को चन्दनादि का अर्चन, सुन्दर आसन, ऋद्धि, सत्कार, सम्मान, पूजनादि को इच्छा तक नहीं रखनी चाहिए। वह मरणपर्यन्त अपरिग्रही रहकर एवं इस शरीर का भी ममत्व त्याग कर, निदानरहित हो शुक्लध्यान में रत रहता हुमा विहार करे तथा कालधर्म (मृत्यु) का अवसर जब प्राप्त हआ देखे तब चारों प्रकार के प्राहारों का सर्वथा त्याग कर वह समर्थ भिक्षु इस अन्तिम शरीर को छोड़ने के साथ ही सब दुखों से भी मुक्त हो जाये। साधु-जीवन के लिए सूत्रकार का यह अंतिम आदेश है।
कल्पसूत्र इसमें मूलाचार की तरह साधु-आचार पर कोई स्वतन्त्र परिच्छेद नहीं मिलता। किन्तु, इसमें वर्णित भगवान् महावीर की अनगारता एवं उनकी तपश्चर्या से उस पर प्रकाश पड़ता है। साधु का विहार
अनगार व्रत स्वीकार कर लेते के बाद यति को गमनागमन, भाषण, पाहार-ग्रहण आदि में पूर्ण सावधान रहकर प्रवृत्त होना चाहिए। उपकरण, भांडादि के निरीक्षण तथा शरीरमल के शुद्धीकरण से अलग रहकर, तीनों गुप्तियों का प्राधार लेकर मन-वचन-काय की क्रियाओं को नियंत्रित रखना उसके लिये आवश्यक कर्तव्य है। ब्रह्मचर्यपूर्वक क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों का पूर्णत्याग, अन्तर्वाह्य दोनों प्रकार की वृत्तियों ये निर्मुक्त, सर्व सन्तापरहित, हिंसादि आश्रवों से दूर, ममता, मिथ्यात्व, द्रव्यादि से रहित होकर साधु को विहार करना चाहिए। साधु की वीतरागिता
जल से अभिद्य कांस्यपात्र की तरह साधु का भी सांसारिक ममत्व से सदा अभिध रहना ही उसकी परम साधना है। यति को जीवात्मा की तरह
६. उत्तराध्ययन ३५।१२ ९. उत्तराध्ययन ३५।१८ ७. ३५।१६
३५११९ ८. ३५।१७ ११.
३५।२०
१०.
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