Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 271
________________ 262 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 की रक्षा करते, ऐसी भीषण रात्रि में भी भगवान् अवधानपूर्वक बाहर निकल कर कुछ दूर चल पड़ते। वे चलते समय अपनो दृष्टि सदा सीमित एवं निर्दिष्ट पथ की ओर रखते एवं किसी के पुनः पुनः प्रश्न करने पर भी बहुत कम बोलते। आवास-स्थान भगवान् अधिकतर उजाड़ घर, सभास्थान, प्याऊ आदि में ही ठहरते, क्योंकि इन स्थानों में जनसमुह से उनकी भेंट नहीं हो पाती। वे सदा अनिद्र एवं अप्रमत्त होकर ध्यान करते। यदि कभी निद्रा सताती भी तो उसे प्रमादकारिणो समझ कर वे उठ कर बैठ जाते एवं कुछ देर भ्रमण करते रहते । परीषह-विजय एकान्त रात्रि में कुछ नीच मनुष्य भगवान को क्लेश भी देते, कुछ स्त्रीपुरुष विषय-वृत्ति के कारण उन्हें तंग भी करते, पर वे तो सदा ध्यानमग्न ही रहते थे। वे न तो कभी स्त्रियों की ओर दृष्टि डालते और न किसी पुरुष से भी सम्बन्ध ही रखते। यहाँ तक कि प्रणाम करनेवालों की ओर भी वे नहीं देखते। ऐसा करने पर मूढ मनुष्य उन्हें मारते और सताते भी थे। पर, वे सतत् समभाव से पराक्रम करते रहते एवं किसी की शरण नहीं हूँढ़ते । लाढ (राढ) प्रदेश में तो उनपर कुत्ते छोड़ दिये जाते, जो भगवान् को काटकर उनकी मांसपेशियाँ भी निकाल डालते । वहाँ के मनुष्य भी उनके शरीर से मांस काट लेते, उनपर धूल फेंकते, उन्हें आसन से ढकेल देते, किन्तु, इस पर भी भगवान् अपने अहिंसावत का पालन करते हुए, इस शरीर की ममता त्यागकर समभाव से इन संकटों का सामना करते रहते। दीक्षा लेने के दो वर्षों से भी अधिक पहले से ही भगवान ने ठंढा पानी लेना छोड़ दिया था। तत्पश्चात् भी यह समझकर कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसजीव ये सब सचित्त हैं, भगवान् उनको बचाकर विहार करते थे। पाप के वास्तविक स्वरूप को समझने वाले भगवान् न तो स्वयं ही पाप करते, न दूसरों से ही कराते और न पाप करने वाले को अनुमति ही प्रदान करते । आहार-ग्रहण भगवान् अपने लिए तैयार किया हुआ अन्न कभी भी ग्रहण नहीं करते और न दूसरों के द्वारा प्रदत्त पात्र में भोजन ही करते और न वस्त्र ही काम में लाते। मानापमान को त्यागकर भगवान् भिक्षा के लिए घूमा करते थे। अन्न और जल की मात्रा को जाननेवाले ज्ञातृ-पुत्र कभी रसों में ललचाते न थे। चावल, बैर का चूर्ण और खिचड़ी का रूखा भोजन करके ही भगवान् आठ महीने तक निर्वाह करते रहे। वे महीना, आधा-महीना पानी तक नहीं पीते थे। किसी समय ठंढा ही अन्न खा लेते, तो कभी छः, पाठ, दश या बारह भक्त के बाद भोजन करते । आहार लेने जाते समय मार्ग में किसी घर के आगे ब्राह्मण, श्रमण भिखारी, कुत्ते, कौए आदि किसी भी प्राणी को खड़ा देखकर यह समझते हुए कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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