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252 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 के आश्रय 3 में ही रहकर भोजन, वस्त्र आदि जीविका की चिन्ता से मुक्त हुना मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करता है।
मनु द्वारा वणित इस अंतिम कुटीचक साधु के आचार-वर्णन प्रसंग से यह स्पष्ट लक्षित होता है कि इनकी दष्टि अन्य तीनों आश्रमों की अपेक्षा गृहस्थाश्रम की ओर अधिक मुग्ध४४ है और सामान्यतः वे जनक विदेह की तरह परिवार के साथ रहकर ही संन्यास धर्म का पालन श्रेयस्कर मानते हैं । इस कुटीचक-साधु-प्रसंग को अन्त में रखने में भी राजर्षि का शायद यही अभिप्राय है।
याज्ञवल्क्य-स्मृति वानप्रस्थ के लिए उपयुक्त समय एवं तपश्चर्या
यहाँ भी साध-प्राचार का वर्णन मनु के अनुसार ही वैदिक एवं वर्णाश्रम परम्परानुसार किया गया है। याज्ञवल्क्य के मत में गृहस्थ को जव वानप्रस्थ वन जाने की उत्कट इच्छा हो, तब वह अपनी स्त्री को पुत्र की सुरक्षा में रख कर अथवा अपने संग ही लेकर औपासन एवं वैतानाग्नि के साथ पूर्ण ब्रह्मचारी रूप में वन की राह ले । वह तपस्वी अफालकृष्ट भूमि में उत्पन्न अन्न से ही अग्नि, पितर, देवता, अतिथि, भृत्य आदि को सन्तुष्ट रखते हुए सदा वद्धित जटा, श्मश्रु, लोम, नख आदि के साथ आत्मोपासना में तत्पर रहे। यति के लिए धन-संचय-सीमा का निर्धारण करते हुए ब्रह्मर्षि ने स्पष्ट कह दिया है कि साधु उतना ही धन-संग्रह करे जितने में एक दिन, एक महीना, छः महीना अथवा अधिक-से-अधिक वर्ष दिन की भोजन, यज्ञ आदि दृष्ट-अदृष्ट क्रियाओं का सम्पादन हो सके । पर, इसके बाद भी अन्न अधिक हो जायें तो उन्हें आश्विन मास में साधु त्याग दे। वानप्रस्थी को सदा अभिमानरहित, प्रातः, मध्याह्न और संध्याकालीन स्नानों से युक्त, प्रतिग्रह-पराङ्मुख, स्वाध्यायी, वेदाभ्यासी, दानशील एवं सम्पूर्ण प्राणियों के हित में तत्पर रहना चाहिए। जिसके दाँत ही ओखलरूप हैं, जो समय पर पके हुए अथवा पत्थर से कुचले हुए द्रव्यों को ग्रहण करनेवाला है, उस साधु को सदा फलों के स्नेह से श्रोत-स्मार्त कर्म एवं भोजन
आदि क्रियाएँ करनी चाहिए। वानप्रस्थी की भोजन-प्रणाली पर विचार करते हए याज्ञवल्क्य ने भोजन का व्यवधान एक दिन, एक पक्ष अथवा एम मास निर्धारित करते हुए कालक्षेपण का माध्यम चान्द्रायण अथवा कृच्छ प्राजापत्य व्रत आदि कहा है। साधु के लिए दिवा-शयन का निषेध करते हुए ऋषि ने स्पष्ट
४३. मनु० अध्याय ६।९५. ४४. , , ६८७,८९,९०. १. याज्ञ० वानप्रस्थ प्रकरण, श्लो० ४५ २. , , , , ४६
३. याज्ञ० वानप्रस्थ प्रकरण, श्लो० ४७ ४. , , ,, ५. , , , , ४९ ६. , , , , ५०
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