Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
हिन्दू तथा जैन साधु- श्राचार
259
घर से बाहर हो, घर में नहीं । अनगारों के लिये ग्रामवास एवं नगरवास की सीमा आचार्य ने क्रमशः एक और पाँच रात्रि निर्धारित की है। मुनि की उपमा गन्धहस्त से देते हुए उनके लिये एकान्तवासी होकर ही मुक्तिसुख का अनुभव करना आवश्यक बताया गया है। एकान्त स्थानों में सामान्यतः गिरिगुफा, शून्यगृह पर्वतकगार, श्मशानादि' के नाम गिनाये गये हैं ।
मुनि का श्राहार-विहार
मुनि की चर्चा, विहार, भिक्षा आदि के सम्बन्ध में आचार्य के निम्नलिखित आदेश हैं
मुनि पर्वत की गुफाओं में वीरासनादि से अथवा एक पार्श्वशायी रहकर रात्रि व्यतीत करे । उसे साधु की तरह मुक्त, निरपेक्ष एवं स्वच्छन्द होकर ग्राम, नगर आदि से मंडित इस पृथ्वी पर परिभ्रमण करना चाहिए, पर विहार करते समय मुनि सतत् सचेष्ट रहें कि कहीं उनकी असावधानी से किसी जीव को क्लेश न पहुँचे। उन्हें अनुक्षण जीवों के प्रति सतर्क एवं दयार्द्र दृष्टि " .१० रखनी चाहिए। मुनि के लिये जीव के सभी पर्याय एवं प्रजीव अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, काल आदि के स्वरूप, सभेदपर्याय आदि का ज्ञान प्राप्त कर ही सावद्य वस्तुों का त्याग एवं अनवद्य का ग्रहण करना कर्तव्य" है । यति तण, वृक्ष, छाल, पत्र, कन्द, मूल फलादि के छेदन करने तथा कराने, दोनों ही से अलग १२ रहे । साधु को पृथ्वी का खनन, उत्कीर्णन, चूर्णन, सेवन, उत्कर्षण, बीजन, ज्वालन, मर्दन आदि कार्यों से दूर रहना चाहिए। इतना ही नहीं वह इन कार्यों को दूसरे से भी न करावे और न दूसरे के किये हुए का अनुमोदन १३ ही करे । साधु के लिये दण्ड-धारण का निषेध
श्रमण साधुओं के लिये दण्ड-धारण का सर्वथा निषेध किया गया है । वट्टकेर के मतानुसार साधु को शस्त्र, दण्ड, आदि का पूर्णतः त्याग १४ कर सभी प्राणियों में समभाव रखते हुये, आत्मचिन्तनशील होना चाहिये । उसे छठे, आठवें, दसवें बारहवें प्रादि भक्तों पर पारणा करनी चाहिए और वह भी दूसरों के घर भिक्षा के द्वारा प्राप्त अन्न से न कि अपने लिए बनाये, बनवाये या बनाने की सहमति से प्राप्त भोजनादि से । और वह परणा भी रसास्वादन के लिए नहीं, अपितु चरित्र साधना " के लिए विहित है ।
आहार की शुद्धि
आचार्य ने किसी के पात्र में अथवा अपने हाथ से लेकर अथवा किसी तरह के दोष से युक्त भोजन मुनि के लिए सर्वथा त्याज्य कहा है । वह भोजन यदि
६. मूलाचार, अनगारभावनाधिकार १९.
२०.
७.
८.
९.
१०.
17
11
"1
31
Jain Education International
"
31
"1
"}
"
11
"
११. मूलाचार, अनगारभावनाधिकार ३३.
१२.
२९. १३. ३१. १४. ३२. १५.
17
33
11
12
For Private & Personal Use Only
37
"1
11
31
33
""
31
१५
३५.
३६.
३७.
४४.
www.jainelibrary.org