Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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हिन्दू तथा जैन साधु-आचार
249 पर, साथ ही यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि वह भिक्षा भी किसी पात्र में नहीं अपितु पत्ते के दोने में, कपालखण्ड में अथवा हाथों में ही आठ ग्रास लेनी चाहिए। वानप्रस्थी का शरीर त्याग
इस प्रकार इन नियमों का तथा शास्त्रोक्त अन्य नियमों का भी पालन करते हए मुनि को विद्या, तप आदि की वृद्धि, शरीर की शुद्धि एवं ब्रह्मत्व की सिद्धि के लिए उपनिषदों में पढ़ी हुई विविधश्रुतियों ८ का अभ्यास करना चाहिए । असाध्य रोगों से आक्रान्त हो जाने की स्थिति में तपस्वी को शरीरनिपातपर्यन्त जल तथा पवन का आहार करते हुए योग-निष्ठ होकर ईशानदिशा की ओर आगे बढ़ते चला जाना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार शोक-भय रहित शरीरत्याग करनेवाला ही मोक्ष का अधिकारी१९ होता है। परिव्राजक साधु
उपर्युक्त प्रकार से वानप्रस्थी तपस्वी के आचार का वर्णन करने के पश्चात् मनु ने परिव्राजक साधुनों का आचार वतलाया है। वस्तुतः यह जीवन का अन्तिम पहल है, जिसके पश्चात् जीवन में और कुछ करने को नहीं रह जाता। यही स्थिति वेदान्तियों के शब्दों में “सोऽहमस्मि" की अवस्था मानी जाती है, जब कि वानप्रस्थी मुनि गह का पूर्ण परित्याग२° कर पवित्र दण्ड, कमण्डलू आदि के साथ पूर्णकाम एवं निरपेक्ष रूप से संन्यास धारण कर लेता है और अनग्नि एवं अनिकेत रहकर मात्र भिक्षा के लिये ही ग्राम की शरण लेता है, अन्यथा२१ नहीं। वह इस अवस्था में शरीर की उपेक्षा करता हुआ स्थिर बुद्धि होकर ब्रह्म चिन्तन में एकनिष्ठ भाव से अपने भिक्षापात्र के रूप में कपाल, निवास के लिये वृक्ष की छाया एवं शरीर आवेष्टन के लिये जीर्णवस्त्र धारण कर लेता है। साथ ही वह ब्रह्म-बुद्ध "समलोष्ठाश्मकांचनः" की भावना से युक्त होता हुआ पूर्ण जीवन्मुक्त लक्षित२२ होता है । वह न जीने की ही कामना करता है और न मरने को ही। वह मात्र एक आज्ञाकारी सेवक की तरह स्वामी-काल के आदेश की प्रतीक्षा में रहता है। वह सदा आँखों से देखकर पद-विक्षेप, वस्त्र से पवित्र कर जलग्रहण, सत्यमय वचनप्रयोग एवं निषिद्धसंकल्परहित मन के अनुसार आचरण२४ करता है। उस व्यक्ति में दूसरों के कटवाक्यों को सह लेने की अपूर्व क्षमता, सवों को सम्मान देने की प्रवृत्ति एवं विश्वमैत्री२५ की हार्दिक अभिलाषा पाई जाती है। वह क्रोधी के प्रति भी शान्ति एवं निंदक के प्रति भी स्तुति की भावना से व्यवहार करता है। वह सप्तद्वारावकीर्ण अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रिय एवं मन तथा बुद्धि विषयक अन्त बातों का
१८. मनु० अध्याय ६।२९,३० १९. , , ६।३१ २०. ,, ,, ६॥३२. २१. , , ६१४३.
२२. मनु० अध्याय ६४४१. २३. ॥ ६।४५. २४. , , ६।४६. २५. , , ६।४७.
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