Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत
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है और भक्ति के बादल चारों ओर घुमड़ रहे हैं; चारों ओर विजली चमक रही है और दास कबीर भीग रहे हैं तो लगता है मानो वे हठयोग की साघना के अभ्यासी हैं और उनके ये उद्गार सिद्धावस्था के हैं ।" संत कवीर ने 'सुन्न - मंडल' में अपना घर बनाया है जहाँ मधुर वाद्य-ध्वनि हो रही है। सिद्धावस्था में पहुँचकर कबीर पुकार उठते हैं--रस गगन गुफा में अजर करे (क. व. पू. - - १७९) । फिर तो उस स्थिति में पहुँचने पर युग-युग की प्यास बुझ जाती है और कर्म, भ्रम प्रादि व्याधियाँ टल जाती हैं । वे अपने पिया की उस ऊँची अटारी को देखने जाते हैं जिसमें चाँद-सूर्य के समान दिया जल रहा है और बीच में 'डगरिया' है। ३ स्पष्ट ही यहाँ इड़ा पिंगला और सुषुम्ना की ओर संकेत किया गया है। कवीर उस स्थान पर पहुँचते हैं जहाँ ऋतुराज बसंत खेलता है और 'अनहरु बाजा' बजता है । वहाँ चारों ओर ज्योंति की धारा बहती है जिसे बिरले ही लोग पार कर पाते हैं । कवींर उस 'झीनी-भीनी' चादर की बात करते हैं जिसे सुर, नर, मुनि आदि सभी ओढ़ते हैं । इस चादर को बुनने में इंगला और पिंगला ने तानाभरनी का काम किया और सुषुम्ना रूपी तार से यह बुनी गई । अष्टकमल, पाँच तत्त्व और तीन गुणों से यह चादर युक्त है । शरीर रूपी इस चादर को सवने प्रोढ़ा और गंदा किया। तारीफ है कवीर की जिन्होंने इस चादर को ज्यों का त्यों उतार कर रख दिया । यह चादर कुछ भी मैली न हुई ।'
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भक्तों ने भिन्न प्रकार से परमात्मा को प्राप्त करने की चेष्टा की है । साध्य एक ही है पर साधन अनेक हैं । भिन्न युगों में इस एक ही लक्ष्य तक पहुँचने के लिए तरह-तरह के साधनों का उपयोग किया गया है । जहाँ स्वामी तथा सखा के रूप में उस परमात्मा को साधकों ने देखा है वहाँ प्रेमी और प्रियतम के रूप में भी उसे देखा गया है । ऐसी स्थिति में आत्मा को प्रेयसी और परमात्मा को प्रेमी या नायक मानकर माधुर्य भाव को भक्ति प्रदर्शित की जाती है । प्रेमी और प्रेयसी का यह रूपक बड़ा प्यारा है और प्रारम्भ से ही इसकी धारा आती रही है । स्त्री और पुरुष का प्रेम चिरंतन है और इसी प्रेम की आत्मा और परमात्मा के बीच स्थापित किया गया है। इस क्षेत्र में भी मुनि रामसिंह पथ प्रदर्शन का कार्य कर रहे हैं । हम जानते है कि रामसिंह जैन धर्मोपासक हैं । जैन साधू स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम के रूपक को पसंद नही करते क्योंकि अपनी साधना में वेसी प्रकार की ढिलाई नहीं आने देना चाहते । चाहे वह स्त्री-पुरुष के प्रेम का ही रूपक क्यों न हो, पर जैन मुनियों को वह उतना ग्राह्य नहीं हो सकता क्योंकि उनकी साधना पाँच महाव्रतों पर निर्भर है । फिर भी जव भक्ति के रंग में वे रंग गए थे तो इस ओर से एक वारगी हो आँख मूँद लेना उनके लिए सरल
१. कबीरवचनावली - ६२, पृ० ९९.
२. वही - ६६, पृ० ९९.
३. वही १६८, पृ० २३२.
४.
कबीर -डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी - परिशिष्ट - १५, पृ० २४१. कबीरवचनावली - २२३, पृ० २५१.
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