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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत
133 का वध करते हैं जो बेधे जाने पर नलिणीवन में प्रविष्ट होकर एक मन हो जाता है।' किन्तु पंचेन्द्रियों के संबंध में भी संभवतः ये सिद्ध जैनाचार्यों के उद्गारों से प्रेरित हो रहे थे। रामसिंह ने लोगों को इन्द्रियों के सम्बन्ध में कतई ढीला न होने की सलाह दी है ।२ वे साधक को सम्बोधित कर कहते हैं कि तू ने न तो पाँच बैलों को रखाया और न नन्दनवन में प्रवेश किया। न अपने को जाना और न पर को। यों ही परिव्राजक बन गया है। इतना ही नहीं, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हे सखि ! प्रियतम को वाहर पाँच का नेह लगा हुआ है । जो छल दूसरे से मिला हुआ है उसका प्रागमन भी नहीं दिखता। यही कारण है कि उन्होंने मन को निश्चित होने का परामर्श दिया है। निश्चित मन ही उपदेश को समझ सकता है। उनके ये उद्गार वज्रयानी सिद्धों के लिए पृष्ठभूमि और प्रेरणा का काम कर रहे हैं। भसुकपाद जिस 'पंचजणा' का वध करते हैं वह नलिणीवन में प्रवेश करता है और रामसिंह इस लिए दुःखी हैं कि साधक ने पाँच बैलों को वश में नहीं किया जिसका परिणाम यह हआ कि वह नन्दनवन में प्रवेश न कर सका । नलिणीवन और नन्दनवन के साम्य तथा दोनों के उद्गारों की एकरूपता को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। हाँ, यह सही है कि सिद्धों ने पंचेन्द्रियों का उल्लेख करते समय अपनी उक्तियों पर अपनी विशिष्ट साधना और दार्शनिक विचारों का रंग चढ़ा दिया है, पर इन्द्रियों के सम्बन्ध में वे भी उतने ही सचेष्ट हैं जितने जैनाचार्य मूनि रामसिंह ।
जैनाचार्यों ने पंचेन्द्रियों पर जो विचार व्यक्त किये हैं उनकी परम्परा सिद्ध साहित्य से होती हुई संतों तक पहुँची। यही कारण है कि कबीर आदि संतों ने भी यत्र-तत्र अपने उद्गारों में पाँच इन्द्रियों की चर्चा की है। कबीर अपने एक पद में भक्ति के उस बादल की चर्चा करते हैं जो चारों ओर से घिर आया है और साधक को अपनी मेंड़ सँभालना आवश्यक हो गया है । कुशल किसान वही है जो इस वरसात में फसल काटकर घर लाये। पाँच सखियों ने मिलकर भोजन बनाया जिसे मुनि और ज्ञानी खाते हैं। वे अपने पिया की उस 'ऊँची अटरिया' को देखने जाते हैं जो ‘पाँच-पचीस' से मिलकर बनी है और मन जिसमें चौधरी का काम करता है। गौना का दिन आने पर
१. चर्या गीतिकोष–२३--पृ० ७८. २. पाहुड़ दोहा-४३-पृ० १४. ३. पंच वलद्द ण रक्खियहं णंदणवणु ण गओसि ।
अप्पु ण जाणिउ ण वि परु विएमइ पव्वइओ सि ॥
-पाहुड दोहा-४४-पृ० १४. ४. वही-४५-पृ० १४. ५. वही-४६-पृ० १४. ६. कबीरवचनावली-१६५ पु० २३३. ७. वही-१६८, पृ० २३२.
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