Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास
- 175 वैदिक, अवेस्ता और प्राकृत
(१) वैदिक काल से ही स्पष्ट रूप से भाषागत दो धाराएँ परिलक्षित होती हैं। इनमें से प्रथम "छान्दस्" या साहित्य की भाषा थी और दूसरी जनवाणी
या लोकभाषा थी। इसके स्पष्ट प्रमाण हमें अवेस्ता, निय प्राकृत तथा सर्वप्राचीन शिलालेखों की भाषा में उपलब्ध होते हैं। पालि-साहित्य की भाषा के अध्ययन से भी यह निश्चित हो जाता है कि उस समय तक कुछ ही भाषाएँ तथा भाषागत रूप परिमार्जित हो सके थे। उस समय की विविध वोलियाँ अपरिष्कृत दशा में ही थीं। ऋग्वेद में विभिन्न प्राकृत बोलियों के लक्षण मिलते हैं। उदाहरण के लिए, प्राकृत बोलियों में प्रारम्भ से ही 'ऋ' वर्ण नहीं था। अतएव संस्कृतव्याकरण की रचना को देखकर जव प्राकृत-व्याकरण का विधान किया, तब यह कहा गया कि संस्कृत 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'अ', 'इ' या 'उ' आदेश हो जाता है। यह आदेश शब्द ही बताता है कि प्राकृत बोलियाँ किस प्रकार साहित्य में ढल रही थीं। व्याकरण बनने के पूर्व की भाषा और वोली में परवर्ती भाषा और बोली से अत्यन्त भिन्नता लक्षित होती है। वेदों की कई ऋचाओं में 'कृत' के लिए 'कड', 'वत' के लिए 'वुड' तथा 'मृत' के लिए 'मड' शब्द प्रयुक्त मिलते हैं। पाइअ-सद्दमहण्णवो' की भूमिका में ऐसे तेरह विशिष्ट लक्षणों का विवेचन किया गया है, जिनसे वैदिक और प्राकृत भाषा में साम्य परिलक्षित होता है। वैदिक और प्राकृत भाषा में कुछ ऐसी समान प्रवृत्तियाँ मिलती हैं, जो लौकिक संस्कृत में प्राप्त नहीं होतीं। श्री वी० जे० चोकसी ने इन दोनों में कई समान प्रवृत्तियों का निर्देश किया है।' वेदों की भाँति अवेस्ता की भाषा और प्राकृतों में कुछ सामान्य प्रवृत्तियाँ समान रूप से पाई जाती हैं। संस्कृत का अन्त्य 'अस्' अवेस्ता में 'ओ' देखा जाता है; यथा : अइयों, अउरुषो, इथ्ये जो, गॅरमो, हॅमो, यो, नो, हओ मो, दूरों षो, मश्यो, यिमो, पुथ्रो, आदि ।
(२) अवेस्ता, प्राकृत और अपभ्रश में स्वर के पश्चात् स्वर का प्रयोग प्रचलित रहा है। किन्तु वैदिक और संस्कृत में एक शब्द में एक साथ दो स्वरों का प्रयोग नहीं मिलता। अवेस्ता के कुछ शब्द हैं : अएइती, अउरुन, अएम्, आअत्, अइ, आदि। प्राकृत-अपभ्रंश में इस प्रकार के शब्द हैं : आइअ, ओइ, एउ, उइन्न, दइउ, संजोइउ, पलोइउ, पाइउ, अइरा, आइद्ध, पाउ, पाएस, आइच्च, इत्यादि ।
(३) अवेस्ता में एक ही शब्द कई रूपों में मिलता है; यथा : प्रायु, अयु; हमो, हामो; हुतश्तम्, हुताश्तम्; अद्वानम्, अद्वनम् ; य, यौ; इत्यादि । अपभ्रश में भी कुच्छर-कोच्छर, कुइड-कोइड, कुमर-कुम्वर, णिरक्क-णिरिक्क, णिरुक्क, तिगिंछ-तिगिछि-तिगिच्छ, णिडल-णिडाल, ढंक-ढंख, झिंदु-झेंदु, झिदुलिय-झेंदुलिय, झुबुक्क-झुमुक्क-झुवक, जोव-जो-जोय, झंप-झपा, आदि वैकल्पिक शब्द-रूप १. वी० जे० चोकसी : द विवागसुयम् एण्ड कम्पैरैटिव प्राकृत ग्रैमर, अहमदाबाद,
१९३३, पृ० ६--८.
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