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भ० महावीर का एक नया पूर्व-भव
( कुवलयमाला कथा के अनुसार ) डॉ० के० आर० चन्द्र
जैनधर्म कर्म - प्रधान धर्म है। पूर्व कर्मों की सत्ता के अनुसार जीव अनेक जन्म ग्रहण करता हुआ संसार में किस प्रकार संसरण करता है इस तथ्य को समझाने के लिए विपुल साहित्य का सृजन हुआ है । जैन कथा साहित्य इस सिद्धान्त से व्याप्त है । मोक्ष अकस्मात् प्राप्त नहीं होता । उसकी प्राप्ति के लिए जीव को अनेक भव-भवान्तरों तक प्रयत्न करना पड़ता है । इस को समझाने के लिए पूर्व-भव की कथाओं का विकास हुआ है । पूर्वभव तो अनन्त होते हैं परन्तु सवका विवरण देना असम्भव है । अत: जब से जीव मोक्ष के प्रति रुचि और संसार के प्रति अरुचि दिखाता है अर्थात् सम्यकत्व प्राप्त करता है उस समय से पूर्वभवों का वर्णन किया जाता है । दृष्टान्त रूप से अनेक चरितों की रचना की गयी है और उनमें भी तीर्थंकरों के चरितों की बहुत महत्ता है, क्योंकि वे ही सर्व प्रथम आदर्श रूप हैं; जिन्होंने तीर्थ की स्थापना की हैं । उनकी आत्माओं ने लगातार अनेक पूर्व-भवों में किस प्रकार विकास निया इसको समझाना जैन उपदेशकों को अभीष्ट रहा है । इसी सम्बन्ध में अन्तिम तीर्थंकर भ० महावीर के पूर्व भवों के वारे में थोड़ी-सी चर्चा की जा रही है । कर्मफल समझाते समय किसी महापुरुष अथवा तीर्थंकर के साथ भी पक्षपात नहीं किया जाता है | अपने शुभ, अशुभ मानसिक परिणामों और अपने ही कृत्यों के अनुसार जीव ऊँत्र और नीच गतियों में परिभ्रमण करता है । भ० महावीर भी इसी कर्म सिद्धान्त के अनुसार कभी पशु, कभी नारकी जीव, कभी देव, कभी मनुष्य गति प्राप्त करते दिखाये गये हैं ।
जैनों का प्राचीनतम साहित्य अंग साहित्य है । उसमें भी आचारांग सवसे प्राचीन है । उसमें भ० महावीर का जो संक्षिप्त चरित मिलता है वहाँ पर ( प्राचीनतम आगम ग्रन्थ आचारांग में ) उनके अन्तिम देव भव से च्युत होकर जन्म प्राप्त करने का उल्लेख है, अन्य पूर्व-भवों का कोई उल्लेख नहीं है । कल्पसूत्र में भी ऐसा ही उल्लेख है । समवायांग' सूत्र में कुछ नाम आते हैं परन्तु उनका महावीर के पूर्व भवों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बनाया गया है। पोट्टिल का छठें पूर्व-भव के रूप में उल्लेख है परन्तु अन्य ग्रन्थों में वह प्रियमित्र का दीक्षा - गुरु है । विमलसूरिके पउमचरियर में मरीचि का महावीर के पूर्व भव के रूप में उल्लेख नहीं मिलता है । चउप्पन्नमहापुरिसचरियर में मरीचि से पहले के दो पूर्व भवों का
१.
सूत्र १३४.
२.
११. ९५.
३. पृ०९७, ९८, १००, १०३, २७०.
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