Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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216 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 सा० ने ब्रह्मसूरि को १५ वीं सदी का विद्वान् माना है। ब्रह्मसूरि हस्तिमल्ल के पौत्र के पौत्र थे। पौत्र के पौत्र होने के कारण ब्रह्मसूरि, हस्तिमल्ल से १०० वर्ष वाद हुए होंगे इसलिए हस्तिमल्ल १४ वीं शताब्दी में हुए हैं।' कर्नाटककविचरित्र के कर्ता आर० नरसिंहाचार्य ने हस्तिमल्ल का समय १२९० निश्चित किया है । इसी मत को विंटरनिट्ज ने अपने इतिहास में उद्धृत किया है।२।।
अन्य विद्वानों ने भी १४वीं सदी को प्रामाणिक मानकर उल्लेख किया है।३ डा. ज्योतिप्रसाद ने हस्तिमल्ल का समय १२५० स्वीकार किया है।
समय को इस पूर्व सीमा नवीं सदी और उत्तरी सीमा १४वीं सदी को सन्निकट लाने के लिए विचार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हस्तिमल्ल का समय १२वीं सदी के उत्तरार्ध और १३वीं सदी के प्रारम्भ में लाया जा सकता है। उसके साक्ष्य निम्न प्रकार हैं :--
१. प्रभेन्दु मुनि का साक्ष्य : हस्तिमल्ल द्वारा रचित अंजना-पवनंजय नाटक की एक हस्तलिखित प्रति में नाटक की समाप्ति के पश्चात् प्रभेन्दुमुनि को नमस्कार किया गया है। इसी प्रकार सुभद्रानाटिका की दो पाण्डुलिपियों की प्रशस्ति में प्रभेन्दु मुनि का उल्लेख वर्तमान काल के लट् लकार में है। इस उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि उस समय प्रभेन्दु मुनि विद्यमान थे । प्रभेन्दु मुनि के प्रति प्रशंसात्मक विशेषण यह अभिव्यञ्जना कराते हैं कि उस समय उनकी विशेष ख्याति थी, ख्याति का कारण उस समय का उनका धर्म के प्रति महती सेवा और उनका प्रभाव था। मुनि प्रभेन्दु का एक विशेषण 'मारप्रमोदापह' है जिससे प्रतीत होता है कि वे आजन्म ब्रह्मचारी थे। संयमी व्यक्ति को आयु भी अधिक होती है । सौ वर्ष की आयु प्राप्त करना योगी के लिए कठिन नहीं है। प्रभाचन्द्र गुरु का नाम इतिहास में होयएल नरेश विष्णुवर्धन के समय में मिलता है। ये मेघचन्द्र विधदेव के शिष्य थे, विष्णुवर्धन राजा की पत्नी शान्तला जैनधर्म की बड़ी भक्त थी। शान्तला के पिता पेरग्गडेमारसिंग्यय कट्टर शैव थे और माता मचिकब्बे परम जैन थीं। रानी ने श्रवणवेलगोला में १. जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ २६५.
Hastimalla Pupil of Govind Bhatta wrote about 1290 A.D. in South India Several Dramas. A History of Indian
literature, Vol. II, Page. 546. ३. जैननन्ध और ग्रन्थकार, पृष्ठ ३६. ४. The Jain Sources of the History of Ancient India, Page 229. ५. समाप्तं चेदं अञ्जनापवनायनाटकम् । कृतिरियं हस्तिमल्लस्य, श्रीमत्प्रभेन्दु
मुनये नमः (अंजनापवनञ्जय, पृष्ठ ११९),
बाभाति प्रबलप्रभेन्द्रमुनियः श्रीजनयोगी भुवि (सुभद्रा, पृष्ठ ९१). ७. अनेकान्त पत्रिका फरवरी १९६५ में होयसल नरेश विष्णुवर्धन और जैनधर्म
विषय पर के० भुजबली शास्त्री का लेख ।
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