Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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तीर्थकर महावीर का प्रतिमा निरूपण के साथ ही दो संक्षिप्त खड़ी जिन आकृतियों को भी मूर्तिगत किया गया है। सिंहासन के दोनों छोरों पर द्विभुज यक्ष-यक्षिणी ललित-मुद्रा में उत्कीर्ण हैं। यक्ष की दोनों भुजाओं में फल प्रदर्शित है । यक्षिणी की बाँयीं भुजा में फल और दाहिनी से अभयमुद्रा व्यक्त है। खजुराहों के मन्दिर नं० २ में स्थित महावीरप्रतिमा संवत् ११४९ (१०९२ ईसवी) में तिथ्यंकित है। इस चित्रण की विशिष्टता तीर्थंकर के आसन के नीचे सरस्वती (या शांतिदेवी) का उत्कीर्णन है। सरस्वती (या शांतिदेवी) ने ऊपरी दाहिनी व वाम भुजाओं में क्रमश: पद्म और पुस्तक धारण किया है, जबकि निचली अनुरूप भुजाओं में वरदमुद्रा और कमंडलु प्रदर्शित है। सिंहासन के दोनों कोनों पर चतुर्भुज यक्ष यक्षिणी की ललितासन आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। यक्ष की ऊपरी व निचली दाहिनी भुजाओं में क्रमशः शल और धन का थैला प्रदर्शित है; तथा समक्ष की भुजाओं में कमल और दण्ड । नीचे उत्कीर्ण वाहन गज से ज्यादा सिंह प्रतीत होता है। यक्षिणी के ऊपरी दाहिनी एवं वाम भुजाओं में क्रमश: चक्र और कमल प्रदशित है, जव कि निचली दाहिनी एवं बाँयी में फल और शंख । देवी के चरणों के नीचे वाहन सिंह उत्कीर्ण है । एक अन्य चित्रण (११वीं शती) मन्दिर नं० २१ की पिछली दीवार की रथिका में अवस्थित है। (नं० के २८।१)। इस मूर्ति में सिंहासन के दाहिने छोर पर चतुर्भुज यक्षिणी को सिंह पर आरूढ़ चित्रित किया गया है। देवी की ऊपरी दाहिनी व वाम भुजाओं में खड्ग और चक्र स्थित है, जब कि निचली दाहिनी व बाँयी में वरद-मुद्रा और फल । यक्षी की भुजा में चक्र का प्रदर्शन सिद्धायिका के निरूपण में चक्रेश्वरी का प्रभाव दरशाता है। चतुर्भुज यक्षी की मान्यता ही दिगम्बरा-परम्परा के विरुद्ध है। वाम भुजा में शक्ति से युक्त द्विभुज यक्ष मातंग को वाहन अज के साथ उत्कीर्ण किया गया है, जो ग्रन्थों में प्राप्त निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है । यक्ष की दाहिनी भुजा अज के शङ्ग को छू रही है। खजुराहों में महावीर के यक्ष का निश्चित लाक्षणिक स्वरूप निर्धारित नहीं हो पाया था, पर यक्षी के स्वरूप का निर्धारण हो गया था, यद्यपि वह पारम्परिक न था। यक्षी के स्वरूप निर्धारण में सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षी चक्रेश्वरी की लाक्षणिक विशेषताओं (चक्र, शंख) को अवश्य स्वीकार किया गया, पर वाहन (सिंह) के सन्दर्भ में परम्परा का ही निर्वाह किया गया था।
यह मात्र संयोग ही है कि लेखक को उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले में स्थित देवगढ़ से भी महावीर की १० वीं से १२ वीं शती के मध्य की ९ स्वतन्त्र मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिन सभी में मात्र यक्ष-यक्षिणी के हाथों में प्रशित प्रायुधों के अतिरिक्त अन्य सभी विशेषताएँ खजुराहो से प्राप्त महावीर प्रतिमाओं के ही समान हैं। ९ मूर्तियों में से केवल ४ में हो महावीर को कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा चित्रित किया गया है, शेष में उनको पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ दरशाया गया है। मन्दिर नं० २ में स्थित मूर्ति में द्विभुज यक्ष-यक्षिणी दोनों को ही दाहिनी से अभयमुद्रा और बाँयी में कलश धारण किये मूर्तिगत किया गया है। मन्दिर नं० ३ में स्थित मूर्ति में यक्ष-यक्षिणी दोनों ही ने दाहिनी व वाम भुजाओं
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