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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO 2
का लास्सन ने भी समर्थन किया। १९०२ ई० में पिशल द्वारा लिखित 'माटेरियालिसनत्सुर डेस अपभ्रश' पुस्तक बलिन से प्रकाशित हुई, जिसमें स्वतन्त्र रूप से अपभ्रश का विवेचन किया गया।
जिस प्रकार प्राकृत भाषा के अध्ययन का सूत्रपात करनेवाले रिचर्ड पिशल थे, उसी प्रकार अपभ्रश के ग्रंथों को सर्वप्रथम प्रकाश में लानेवाले विद्वान डा० हर्मन् जैकोबी थे। १९१४ ई० में जकोबी को भारत के जैन-ग्रन्थभण्डारों में खोज करते हुए अहमदाबाद में अपभ्रंश का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भविसयत्तकहा' प्राप्त हुआ तथा राजकोट में 'नेमिनाथ चरित' की पाण्डुलिपि मिली। जैकोबी ने इन दोनों ग्रन्थों का सम्पादन कर अपनी भूमिका के साथ इन्हें प्रकाशित किया तभी से अपभ्रश भाषा के अध्ययन में गतिशीलता आयी । अपभ्रश का सम्बन्ध आधुनिक भाषाओं के साथ स्पष्ट होने लगा।
अपभ्रंश भाषा के तीसरे विदेशी अन्वेषक मनीषी डा० एल० पी० टेस्सिटरी हैं, जिन्होंने राजस्थानी और गुजराती भाषा का अध्ययन अपभ्रश के सन्दर्भ में किया है। सन् १९१४ से १९१६ ई. तक आपके विद्वतापूर्ण लेखों ने' अपभ्रश के स्वरूप एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं के साथ उसके सम्बन्धों को पूर्णतया स्पष्ट कर दिया। टेस्सिटरी के इन लेखों के अनुवादक डा० नामवर सिंह एवं सुनीतिकुमार चाटुा इन लेखों को अाधुनिक भारतीय भाषाओं और अपभ्रश को जोड़नेवाली कड़ी के रूप में स्वीकार करते हैं। इस बात की पुष्टि डा० ग्रियर्सन द्वारा अपभ्रश के क्षेत्र में किये गये कार्यों से हुई है।
___ डा. ग्रियर्सन ने 'लिग्विस्टिक सर्वे ग्राफ इण्डिया' के प्रथम भाग में अपभ्रश पर विशेष प्रकार किया है। १९१३ ई० में ग्रियर्सन ने मार्कण्डेय के अनुसार अपभ्रन्श भाषा के स्वरूप पर विचार प्रस्तुत करते हुए एक लेख प्रकाशित किया। १६२२ ई० में 'द अपभ्रंश स्तवकाज आफ रामशर्मन' नामक एक और लेख आपका प्रकाश में आया । इसी वर्ष अपभ्रश पर आप स्वतन्त्र रूप से भी लिखते रहे।
बीसवीं शताब्दी के तृतीय एवं चतुर्थ दशक में अपभ्रश पर और भी निवन्ध प्रकाश में आए। हर्मन जेकोबी का 'जूर फाग नाक डेम उरस्प्रंग स अपभ्रंश'3 एस स्मिथ का 'देजीमांस दु तोय अपभ्रश आ पाली, तथा लुगविग आल्सडोर्फ का 'अपभ्रश मटेरेलियन जर केंटनिस, डेस, बेमर कुनजन ज पिशेल'५ आदि अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। १९३७ ई० में डा० आल्सडोर्फ ने 9. 'Notes on the Grammar of the Old Western Rajasthani with
special reference to Apabhramsa and Gujrati and Marvari'-Indian
Antiquary, 1914-16. २. Indian Antiquary, Jan. 1922. ३. फेस्टगिश्रिष्ट जे० वाकरनल, पृ० १२४-१३१, गाटिंगन, १९२३. ४. Bulleten of the School of London, 33, p. 169-72. ५. M. Winternitz Memorial Vol. p. 29-36, 1933.
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