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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
आरम्भिक प्रतिमालाक्षणिक ग्रन्थों (५वीं - ६ठीं शती) में ध्याननिमग्न तीर्थंकरों के श्रीवत्सचिह्न सहित, निराभरण और निर्वस्त्र उत्कीर्ण किये जाने का विधान है :
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आजानुलम्बबाहुः श्रीवत्सांकः प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कायोऽर्हतां देवः ॥
निराभरणसर्वांग निर्वस्त्रां गमनोहरम् | सम ( ) वक्षःस्थले हेमवर्णं श्रीवत्सलांछनम् ।।
मानसार ५५.४६
विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने के उपरान्त मध्ययुगीन महावीर मूर्तियों की निम्नलिखित विशेषताएँ होती थीं । पूर्णतः निर्वस्त्र ( दिगंबर ) या श्वेत धोती से युक्त (श्वेतांबर) महावीर को ध्यानमुद्रा में आसीन ( पद्मासनस्थ ) या कार्योत्सर्ग मुद्रा में ( खड्गासन ) खड़ा निरूपित किया जाता था । वक्षस्थल
श्रीवत्स चिह्न से युक्त और युवक रूप में चित्रित महावीर को सामान्यतः अष्टप्रतिहार्यो (दिव्यतरु, सिंहासन, त्रिछत्र, भामण्डल, देव दुंदुभि, सुरपुष्पवृष्टि, चांवरयुग्म, दिव्यध्वनि), यक्ष-यक्षिणी श्राकृतियों और लांछन सिंह के साथ मूर्ति - गत किया जाता था ।
बृहत्संहिता ५८.४५
आधुनिक जैनधर्म के प्रवर्तत महावीर का जन्म वैशाली के समीप स्थित कुण्डग्राम में ई०पू० ५६६ में; और निर्वाण कुशीनगर के समीपस्थ पावा में ई० पू० ५२७ में हुआ था । महावीर का लांक्षन सिंह है, और जिस वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई- वह शाल वृक्ष है । उनसे सम्बद्ध शासनदेवता मातंग (यक्ष ) और सिद्धायिका या पद्मा ( यक्षिणी ) हैं । दिगम्वर-परम्परा में शीर्षभाग में धर्मचक्र से चिह्नित और गज पर आरूढ़ द्विभुज मातंग की भुजात्रों में वरदमुद्रा और फल ( मातुलिंग) प्रदर्शित करने का विधान है ।" सिंह पर आसन द्विभुज यक्षिणी की भुजाओं में पुस्तक और वरद मुद्रा प्रदर्शित किया जाना चाहिए । २ श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार गज पर आसीन द्विभुज मातंग को
( १ ) वर्धमानजिनेंद्रस्य यक्षो मातंग रांज्ञकः ।
द्विभुजो मुद्गवर्णोसौ वरदो मुगवाहनः ॥
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प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.७२
( वसुनंदिकृत लगभग १२वीं शती - हस्तलिखित प्रति एल० डी० इन्स्टीट्यूट अहमदाबाद, साथ ही आशावर कृतप्रतिष्टासारोद्धार ३. १५२-१३वीं शती) (२) सिद्धायनी तथा देवी द्विभुजा कनकप्रभा । वरदा पुस्तकं धत्ते सुभद्रासनमाश्रिता ॥
प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.७३
(साथ ही प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१७८ )
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