Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास
181 लक्षित होती हैं। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने "प्रशोककालीन भाषाओं का भाषाशास्त्रीय सर्वेक्षण" शीर्षक लेख में बताया है कि अशोक के समय की पश्चिमोत्तरीय (पैशाच-गान्धार), मध्यभारतीय (मागध), पश्चिमीय (महाराष्ट्र), और दाक्षिणात्य (आन्ध्रकर्णाटक) बोलियाँ उस समय की जनभाषाएँ हैं' । पश्चिमोत्तरीय वर्ग की बोली में शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा के अभिलेखः मव्यभारतीय बोली में वैराट, दिल्ली-टोपरा, सारनाथ और कलिंग-अभिलेखः पश्चिमी में गिरनार
और बम्बई में सोपारा के अभिलेख एवं दाक्षिणात्य में दक्षिणी अभिलेख सम्मिलित हैं। पश्चिमोत्तरीय में दीर्घ स्वरों का अभाव, ऊष्म व्यंजनों का प्रयोग, अन्तिम हलन्त व्यंजनों का अभाव, रेफ का प्रयोग एवं प्रथमा विभक्ति एक वचन में एकारान्त शब्दों का अस्तित्व पाया जाता है। मध्यभारती बोली में "र" के स्थान पर "ल", प्रथमा एक वचन में एकारान्त रूप का सद्भाव, स्वरभक्ति का अस्तित्व, “अहं' के स्थान पर "हक" का प्रयोग, 'तु' के स्थान पर तवै', 'तुम्हाण' अथवा 'तुज्माण' के स्थान पर 'तुफाक' एवं 'कृ' धातु के 'क्त' के स्थान पर 'ट' का प्रयोग पाया जाता है। पश्चिमीय बोली में 'र' का प्रयोग, अधोवर्ती रेफ का शीर्षवर्ती रेफ में प्रयोग, न्य और ञ्च के स्थान पर "न" तथा "ट" में परिवर्तन, प्रथमा एक वचन में ओकारान्त रूप, "" के स्थान पर "ढ" एवं सप्तमी विभक्ति के एक वचन में "स्मि" के स्थान पर "म्हि" का प्रयोग पाया जाता है । दाक्षिणात्य बोलो में मूर्द्धन्य “ण” का प्रयोग, तालव्य "ज" का प्रयोग, स्वरभक्ति की प्राप्ति, "त्म' के स्थान पर "त्प", ऊष्म वर्णों का दन्त्य वर्ण के रूप में प्रयोग एवं "तु" के स्थान पर "तवे" का प्रयोग मिलता है । अशोक के शिलालेखों के अतिरिक्त दो अन्य प्राकत अभिलेख भी उल्लेखनीय हैं। ये हैंकलिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख और यवन राजदूत हिलियोदोरस का बेसनगर अभिलेख । इन अभिलेखों में प्राचीन भारतीय आर्यभाषा से परिवर्तन की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट लक्षित होती हैं ।
ई० पू० १,००० से ६,०० वर्षों का काल भारतीय आर्यभाषा का संक्रान्तिकाल कहा जा सकता है। विभिन्न आर्य तथा आर्येतर प्रजाओं के सम्पर्क से इस दीर्घ काल की अवधि में एक ऐसा भाषा-प्रवाह लक्षित होने लगा था, जिसमें विभिन्न जातियों तथा भाषाओं के आगत शब्द आर्य बोलियों में समाहित हो गए थे और आर्यभाषा में एक नया परिवर्तन लक्षित होने लगा था। अतएव वैयाकरणों और दार्शनिकों ने प्रार्यभाषा की साधुता की ओर लक्ष्य दिया । भाषाविषयक परिवर्तन के वेग को अवरुद्ध करने के लिए वैयाकरणों ने दो महान कार्य किए। प्रथम प्रयत्न में उन्होंने गणों की व्यवस्था की। महर्षि पाणिनि ने "पृषोदरादि" गणों की सृष्टि कर शब्द-सिद्धि का एक नया मार्ग ही उन्मुक्त कर
१. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री : अशोक-कालीन भाषाओं का भाषाशास्त्रीय सर्वेक्षण,
___ परिषद्-पत्रिका, भाषा-सर्वेक्षणांक, वर्ष ८, अंक, ३-४, पृ० ७८. २. वहीं, पृ० ७८ से उद्धृत.
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