Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास
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'देशी' को प्राकृत का प्राचीन रूप कहा है । उनके ही शब्दों में देशी प्राकृत का एक प्राचीन पूर्व रूप है, जो बहुत रोचक है । क्योंकि इससे उसे छोड़कर अज्ञात भाषाओं के अस्तित्व का पता चलता है । 'देशी' केवल शैली और आज भी पाये जानेवाली भाषाओं की शब्दावली में लिये गये अंशों को ओर संकेत करती है ।" प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक वीम्स के अनुसार देशी शब्द सदा से लोकबोलियों में प्रयुक्त रहे हैं । साहित्य की भाषा में प्रायः उनके प्रयोग नहीं मिलते ।
प्रथम अवस्था
भाषा - विकास की प्रथम अवस्था में ऋग्वेद की भाषा में मुख्यतः 'र' पाया जाता है, किन्तु प्राकृत - बोलियों में 'ल' भी मिलता है। साथ ही भाषा के इतिहास से हम यह भी भली-भाँति जानते हैं कि प्राचीन ईरानी भाषा में प्रत्येक भारोपीय 'ल' का परिवर्तन 'र' में हो गया था । २ वाकरनागल का यह कथन उचित ही प्रतीत होता है कि ऋग्वेद के प्रथम मण्डलों की अपेक्षा दशम मण्डल की भाषा में अत्यन्त परिवर्तन लक्षित होता है । अतएव इस मण्डल की भाषा में 'कृणु' के स्थान पर प्राकृतिक धातु 'कुरु' का प्रयोग मिलता है । इसी प्रकार ऋग्वेद का 'चर्' अथर्ववेद तक आते-जाते 'चल' हो जाता है । यहीं नहीं, ऋग्वेद का 'उदुम्बल' ( १०, १४, १२) तथा 'भद्रं भल' (ऋग्वेद, १०,८६,२३) 'मुद्गल' (ऋग्वेद १०,१०२, ९ ) और 'फाल' (ऋग्वेद, १०,११७,७ ) आदि शब्दों में 'लकार' परवर्ती रचना जान पड़ती है । ऋग्वेद में कई विभक्त-विह्न के प्राचीन और नवीन दोनों प्रकार के रूप मिलते हैं । अकारान्त तथा हलन्त शब्दों में प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में 'प्रा' और 'औ' दोनों विभक्ति-चिह्न मिलते हैं । ऋग्वेद में 'अ' वाले रूप 'ओ' वाले रूपों की अपेक्षा सात गुने अधिक हैं । अकारान्त शब्दों में प्रथमा बहुवचन में ‘अस्' और 'असस्' दोनों विभक्ति-चिह्न लगते हैं । किन्तु नपुंसकलिंग में प्रथमा बहुवचन के 'आ' और 'आनि' ये दो विभक्ति-चिह्न हैं । पुराना 'आ' 'आनि ' की अपेक्षा ऋग्वेद में तीन और दो के अनुपात में है । अथर्ववेद में स्थिति ठीक इसके विपरीत है । " एडगर्टन ने संस्कृत ध्वनि-प्रक्रिया का ऐतिहासिक विकास निरूपित करते हुए स्पष्ट रूप से बताया है कि यद्यपि ऋग्वेद में 'र' की प्रचुरता है और 'ल' विरल है, जिससे आर्य-ईरानी से उसका निकट का सम्बन्ध निश्चित होता है । भाषा के परवर्ती विकास में 'ल' स्वच्छन्दता से प्रयुक्त मिलता है । भारोपीय और संस्कृत के सम्बन्ध में 'र' और 'ल' को लेकर कोई नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता । क्योंकि संस्कृत में 'ल' बोली के मिश्रण के लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, १९६३,
१. ज्यूल ब्लॉख : भारतीय-आर्यभाषा, अनु० डॉ०
पृ० १५.
२. सं० आर० सी० मजूमदार : द वैदिक एज, जिल्द १, पृ० ३३५.
३. वहीं, पृ० ३३६.
४.
द्रष्टव्य है : परिषद्-पत्रिका, वर्ष ८, अंक ३-४, भाषा - सर्वेक्षणांक, पृ० ५७.
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