Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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184 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETİN NO. 2 फलस्वरूप प्राप्त होता है।' ऋग्वेद के 'इह' का प्राचीन रूप 'इध' प्राकृत में ही मिलता है, जो अवस्था 'इद' का समकालिक रूप है। ध्वन्यात्मक विशेषताओं की दृष्टि से हम विशेषकर संस्कृत तथा मध्य क्षेत्र की परवर्ती प्राकृत में पदान्तअस् के स्थान पर 'ओ' के बजाय 'ए' के परिवर्तन का संकेत कर सकते हैं । पूर्वी भारतीय आर्यभाषा की यह भेदक विशेषता थी और इस तरह के उदाहरण सुदूर पूर्व में भी मिलते हैं। ऋग्वेद में 'सूरे दुहिता' में इस प्रकार का एक वैभाषिक रूप सुरक्षित है। इसी प्रकार से द्वित्वीकरण की प्रवृत्ति भी प्राकृत के प्रभाव को प्रदर्शित करती है। अथर्ववेद प्रातिशाख्य (३.२६) में सभी पदान्त व्यंजन द्वित्व मिलते हैं। डॉ० वर्मा ने इन द्वित्व व्यंजनों का कारण प्राकृत-बोलियों का मिश्रण बताया है। यद्यपि प्राकत में सभी व्यंजन पदान्त में द्वित्व नहीं मिलते, किन्तु कुछ बोलियों में ऐसे रूप अवश्य मिलते हैं । ३ प्राकृत के नद्द, सद्द, हथ्थ, छड्ड, घट्ट, घल्ल, आदि द्वित्व पदान्त व्यंजनों के रूप आज भी पंजाबी, राजस्थानी, लहंदी, सिन्धी, कच्छी आदि बोलियों में सुरक्षित हैं। ऋक्-अथर्वप्रातिशाख्य और चारायणीय शिक्षा में कहा गया है कि अभिनिधान में एक स्पर्श दूसरे स्पर्श रूप परिणत हो जाता है।४ भाषा के वास्तविक उच्चारण में ऐसा प्रायः देखा जाता है। भाषाविज्ञान में इसे समीकरण कहा जाता है। 'सप्त' का 'सत' और 'तप्त' का 'तत्त' इसी प्रकार के उदाहरण हैं। अभिनिधान अपूर्ण उच्चारण की स्थिति में घटित होता है। इसी प्रकार वैदिक भाषा में पाई जानेवाली स्वरभक्ति प्राकृत की बोलियों में एक सामान्य प्रवत्ति रही है। प्राकृत में प्रथम पुरुष सर्वनाम के लिए 'से' निपात का प्रयोग पाया जाता है, जो अवेस्ता 'हे, शे' तथा प्राचीन फारसी 'शइय्' से मिलता है और जो संस्कृत में उपलब्ध नहीं होता।" वैदिक भाषा में अनेक शब्द प्राकृत के मिलते हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं :
जुण्ण (सं० जूर्ण, जीर्ण), तूह-तट, घाट (सं० तुर्थ, तीर्थ, अप० तह, जि० च० १,१० म० पु० १७.१२.८), सिढिल ढीला (सं० शिथिर, शिथिल, अप७ सिढिल, भ० क० ५.२३.८), णिड्ड (सं० नीड), कट्ट (सं० कृत्), विकट्ट (सं० विकृत्), गल्ल (सं० गण्ड), दाढा (दंष्ट्रा) और उच्छेक (सं० उत्सेक) आदि। १. फ्रेंकलिन एडगर्टन : संस्कृत हिस्टारिकल फोनोलाजी, अमेरिकन ओ० सो०,
१९४६, पृ० १९. २. टी० बरो : द संस्कृत लैंग्वेज, वाराणसी, १९६५ (अनु०-डा० भोलाशंकर
___ व्यास), पृ० ५४. ३. सिद्धेश्वर वर्मा : क्रिटिकल स्टडीज इन द फोनेटिक ऑब्जर्वेशन्स ऑव इण्डियन
ग्रैमेरियन्स, भारतीय संस्करण, १९६१, पृ० १०९. ४. वहीं, पृ १३७. ५. टी० बरो : द संस्कृत लैंग्वेज, अनु० डॉ० भोलाशंकर व्यास, वाराणसी,
१९६५, पृ० ५५.
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