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प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास
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अपने व्यापक अर्थ में अपभ्रंश किसी भी उस भाषा की द्योतक है जो किसी भी रूप में साधु भाषा से विपथगामी है । परिणामतः यह सभी भारतीय लोकबोलियों का सामान्य नाम है । वस्तुतः यह मध्यकालीन उस जनभाषा के लिए प्रयुक्त नाम है जो लगभग छठी शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक प्राकृतों की अन्तिम अवस्था में साहित्यिक भाषा के रूप प्रयुक्त होती थी और जो हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, सिन्धी, पंजावी और बंगला आदि की मूल
रही है ।
१.
आर० पिशेल : कम्पेरेटिव ग्रैमर ऑव द प्राकृत लैंग्वेज अनु० सुभद्र झा, द्वि० सं०, १९६५, पृ० ३१.
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