Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास
प्राकृत और उसका इतिहास
तीर्थंकर महावीर के युग में ई० पू० ६,०० के लगभग १८ महाभाषाएँ और ७०० लघु भाषाएँ (बोलियाँ) प्रचलित थीं। उनमें से जैन साहित्य में प्रादेशिक भेदों के आधार पर आवश्यक, औपपातिक, विपाक, ज्ञातृधर्मकथांग, राजप्रश्नीय आदि आगमग्रन्थों तथा “कुवलयमाला कहा " एवं अन्य काव्यग्रन्थों में अठारह प्रकार की प्राकृत बोलियों का उल्लेख मिलता है । निशीथर्चाणि में अठारह देशी भाषात्रों से नियत भाषा को अर्द्धमागधी कहा गया है । उद्योतनसूरि ने " कुवलयमाला कहा " में विस्तार के साथ गोल्ल, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, सिन्धु, मरु, गुर्जर, लाट, मालवा, कर्णाटक, ताजिक, कोशल और महाराष्ट्र प्रभृति प्रठारह देशी भाषाओं का विवरण दिया है, जो कई दृष्टियों से प्रत्यन्त महत्वपूर्ण है । वेदों, स्मृतियों एवं पौराणिक साहित्य में अनेक स्थानों पर कहा गया है कि लोक में कई बोलियाँ बोली जाती हैं । २ शिष्य के अनुरूप ही गुरु को संस्कृत, प्राकृत तथा देशी भाषा आदि का शिक्षण देना चाहिए। 3 'स्वभावसिद्ध' के अर्थ में 'प्राकृत' शब्द का उल्लेख श्रीमद्भागवत तथा लिंगपुराण आदि पुराणों में लक्षित होता है । भरतकृत 'गीतालङ्कार' में सबसे अधिक ४२ भाषाओं का उल्लेख मिलता है । उनके नाम हैं : महारष्ट्री, किराती, म्लेच्छी, सोमकी, कांची, मालवी, काशिसंभवा, देविका, कुशावर्त्ता, सूरसेनिका, बांधी, गूर्जरी, रोमकी, कानमूसी, देवकी, पंचपत्तना, सैन्धवी, कौशिकी, भद्रा, भद्रभोजिका, कुन्तला, कोशला, पारा, यावनी, कुर्कुरी, मध्यदेशी तथा काम्बोजी, प्रभृति । ये बयालीस प्रसिद्ध बोलियाँ थीं, जिनमें गीत लिखे जाते थे । किसी युग में गीतों का विशेष प्रचलन था । आचार्य भरत मुनि के समय में प्राकृत के गीत प्रशस्त माने जाते थे । उन्होंने ध्रुवा तथा गीतियों एवं लोकनाट्य के प्रसंग में विविध विभाषाओं (बोलियों) का वर्णन किया है, जिसमें मागधी गीतियों को प्रथम स्थान दिया गया है । " इन गीतियों के विधान को देखकर और महाकवि कालिदास आदि की रचनाओं में प्रयुक्त गीतियों की बहुलता से यह निश्चय हुए
भारतीय समाज, वाराणसी,
डॉ० जगदीशजन्द्र जैन जैन आगम साहित्य १९६५, पृ० ३०४.
२. " जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथोकसम् ।" - अथर्ववेद,
का० १२, अ० १ सू० १-४५.
३. संस्कृतैः प्राकृतैः वाक्यैः शिष्यमनुरूपतः ।
देशभाषाद्युपायैश्च बोधयेत् स गुरु स्मृतः ॥
४. वाल्मीकिरामायण, सु-दरकाण्ड, ३०, १७, १९.
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"प्राकृतः कथितस्त्वैष पुरुषाधिष्ठितो मया । " - लिंगपुराण, ३, ३९.
"विधिः साधारणों यत्र सर्गाः प्राकृतवैकृताः ।" -श्रीमद्भागवत, अ० १०, श्लो० ४६.
नाट्य शास्त्र, ३२, ४३१.
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