Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
है । फिर उसे मोक्ष क्यों नहीं मिलेगा ? मछली तो जल में ही रहती है । उसे मोक्ष क्यों नहीं मिलता ? आर्यदेव का कहना है कि तीर्थ करने या गंगा आदि नदियों में स्नान करने से मोक्ष संभव नहीं है । ये सभी स्नान निष्फल होते हैं ।. अन्तर और बाह्य के दुर्गुणों को दूर भगाने और मन की पवित्रता से ही मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है । तीर्थ सेवा और स्नान से पाप का क्षय नहीं हो सकता । इसके लिए राग, द्वेष, मोह, ईर्ष्या आदि को, जो पाप की जड़ हैं, भगाना होगा । "
तो इस प्रकार हमने देखा कि स्थविरवादी बौद्ध धर्म की वह पवित्रता टिक न सकी और धीरे-धीरे उसमें अनेक प्रकार के विधि विधान, तंत्र-मंत्र आदि का समावेश हो गया । महायान में जिस प्रवृत्ति का प्रारंभ हुआ उसका चरम विकास सिद्ध साहित्य या वज्रयान में हुआ । वज्रयान में उपर्युक्त तत्त्वों, रीति-रिवाज और हठयोग आदि को इस प्रकार बाढ़ आ गई कि इनके आगे भारत के अन्य प्रायः सभी कट्टर धार्मिक सम्प्रदाय मात हो गए । यद्यपि वजयान
गुप्त यौगिक क्रियाओं को काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है तथापि सत्य के ज्ञान के लिए पूजा के नियम, मन्त्रोचार और अनेकानेक रीति-रिवाजों का आश्रय लेना आवश्यक हो गया । वज्रयान में ही कुछ साधकों ने उसके बाहरी रंग-रूप के प्रति विद्रोह किया तथा परम सत्य को जानने और सिद्धि प्राप्त करने के लिए कुछ खास यौगिक क्रियाओं को आवश्यक बताया । ये सहज जीवन पर बल देते थे । अतः इन्हें सहजिया साधक और इनके मार्ग को सहजयान कहा जाता है । इन वज्रयानी सिद्धान्तों ने व्यर्थ के अध्ययन मनन और ढोंग तथा बाह्याचार और बाह्याडम्बर के विरुद्ध आवाज उठाई । वस्तुतः उनके विचारों में तन्त्र और योग की भावना साथ-साथ काम कर रही है । सरह, काल, तिलोपा, आदि सहजिया सिद्धों ने स्व प्राप्ति या आत्म-ज्ञान को सबसे बड़ी सिद्धि माना है यही उनका परम लक्ष्य ( Summum donum ) है | सत्य को कहीं बाहर नहीं, अपने भीतर ढूंढ़ना चाहिए । उपनिषद् की यह ध्वनि सहजयान में सुनाई पड़ती है । वस्तुतः सहजयान में उपनिषद् की मूल भावना ही बौद्ध वेश में वर्तमान है । भिन्न स्रोतों और युगों से लिए गए विचार वौद्ध सिद्धों के उद्गारों में गु ंफित हैं । " सावयधम्म दोहा " और " पाहुड़ दोहा " जैसे जैन ग्रंथों के सम्बन्ध में भी यही बात कहीं जा सकती है । हाँ, देवसेन और मुनि रामसिंह के उद्गार जैनधर्म और दर्शन के आधार पर आधारित हैं । चाहे जो हो, पर सहजिया सिद्ध सन्त और साधक थे । अतः साधना की आँच में प्रेम का स्वरूप टिक न सका और यही कारण है सिद्ध साहित्य में जहाँ उपनिषद् के अन्यान्य भाव निहित हैं वहीं प्रेम के उस उद्दाम रूप का अभाव है । फिर भी
१. चित्तविशुद्धि प्रकरण - सं० - प्रभुभाई भीखाभाई पटेल -- ५९ - ६८, पृ० ५. २. औब्सक्योर रेलिजस कल्ट्स - डॉ० शशिभूषणदास गुप्त, पृ० --- ७७.
३. वही - पृ० – ७७.
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