Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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भगवती आराधना और उसका समय
167 कि शिवार्य का संक्षिप्त रूप शिवं होगा और यह 'शिव' जिनसेन द्वारा उल्लिखित शिवकोटि होंगे
शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्य चतुष्टयम् ।
मोक्षमार्ग स पायान्नः शिवकोटि मुनीश्वरः ।।' श्रद्धेय स्व० डा० हीरालालजी ने भी प्रेमीजी के स्वर में स्वर मिलाकर कहा-"कल्पसूत्र की स्थविरावली में एक शिवभूति आचार्य का उल्लेख आया है, तथा आवश्यक मूल भाष्य में शिवभूति को वीर-निर्वाण से ६०६ वर्ष पश्चात बोडिक (दिगम्बर) संघ का संस्थापक कहा है । कुन्दकुन्दाचार्य ने भावपाहड में कहा है कि शिवभूति ने भवविशुद्धि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। जिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण में लोहार्य के पश्चाद्वर्ती आचार्यों में शिवगुप्त मुनि का उल्लेख किया है, जिन्होंने अपने गुणों से अर्हद्वलि पद को धारण किया था। आदिपुराण में शिवकोटि मुनीश्वर और उसकी चतुष्टय मोक्षमार्ग की आराधना रूप हितकारी वाणी का उल्लेख किया है। प्रभाचन्द्र के आराधना कथाकोश व देवचन्द्र-कृत 'राजावली कथे' में शिवकोटि को स्वामी समन्तभद्र का शिष्य कहा गया है। आश्चर्य नहीं जो इन सब उल्लेखों का अभिप्राय इसी भगवती आराधना के कर्त्ता से हो ।'
पर ये दोनों मत अधिक स्पष्ट और तर्कसंगत नहीं लगते। इसके निम्नलिखित कारण प्रस्तुत किये जा सकते हैं :
१. उक्त गाथाओं से यह लगता है कि 'आर्य' शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ। अन्यथा या तो मित्रनंदी के साथ आर्य नहीं लगा रहता या फिर सर्वगुप्तगणी के साथ भी 'आर्य' लगा रहता। इससे यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकर्ता का नाम शिवार्य रहा होगा। यह संभव है कि 'आर्य' पद किसी प्राचीन आचार्य के संक्षिप्त नाम का अनुकरण हो।
२. आदिपुराण के उक्त उल्लेख में न शिवार्य का और न उनके किसी ग्रन्थ का उल्लेख है जिसके आधार पर शिवार्य और शिवकोटि को अभिन्न माना गया है। डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्री ने शिवार्य और शिवकोटि को अभिन्न मानकर शिवार्य नाम को अपूर्ण बताया है पर इस सम्भावना में कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया।
३. "चतुष्ठयं मोक्षमार्गआराध्य" से यह कल्पना करना कि शिवार्य द्वारा निर्दिष्ट चारों आराधनाओं के सम्मिलित रूप को ही यहाँ मोक्षमार्ग कहा गया है, सही नहीं लगता। क्योंकि आराधना-सम्बन्धी विचार शिवार्य का अपना नहीं। उन्होंने उसे पूर्वाचार्यों के आधार पर ही लिखा है। कुन्दकुन्द
१. आदिपुराण, १, ४. २. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १०६.
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