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भगवती आराधना और उसका समय
__डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' प्राकृत जैन साहित्य में आचार-विषयक ग्रन्थों की एक लम्बी परम्परा है। उसमें आराधना-सम्बन्धी साहित्य का विशेष स्थान और उपयोगिता है। सोमसरि का आराधनापर्यन्त, आराधनापञ्चक, अभयदेवसूरि का आराधनाकुलक, वीरभद्रसूरि की आराधनापताका, आराधनामाला आदि अनेक ग्रन्थ आराधना का विवेचन करनेवाले हैं। पर भगवती आराधना (भगवई आराहणा) ने जिस आकर्षक और सुलझे हुए ढंग से अपना विषय प्रस्तुत किया है वह निश्चय ही अद्वितीय है। यही कारण है कि आज भी यह ग्रन्थ अपने क्षेत्र में अपना विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान बनाये हुए है।
प्रस्तुत ग्रन्थ दिगम्बर-श्वेताम्बर-परम्परा के बीच एक सेतु का काम करता रहा है। इसके रचयिता शिवार्य यापनीय सम्प्रदाय के मूलभूत आचार्यों में अग्रगण्य थे। यापनीय सम्प्रदाय में दिगम्बरत्व और श्वेताम्बरत्व का समन्वय था। पर उसका आचार दिगम्बरत्व की ओर अधिक झुका हुआ था। शायद इसीलिए श्वेताम्बर-परम्परा से वह सम्प्रदाय दूर होता गया। यद्यपि उसकी गाथायें आदि श्वेताम्बरीय आगम-ग्रन्थों में प्रभूत मात्रा में उपलब्ध होती है। विषय :
इस ग्रन्थ में कवि ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, और सम्यक्तप इन चार आराधनाओं का सांगोपाङ्ग वर्णन चालीस अधिकारों में किया है। इन्हीं चार आराधनाओं को संक्षेपतः दो विभागों में विभक्त किया गया है :-सम्यक्त्व प्राराधना और चारित्र आराधना । दर्शन आराधना का आराधक ज्ञानाराधना करेगा ही, पर ज्ञानाराधना का आराधक दर्शनाराधना का पाराधक रहे, यह कोई निश्चित नहीं। इसी प्रकार चारित्राराधना का आराधक तपाराधना करेगा ही, पर तपाराधना करनेवाला चारित्राराधना करेगा ही, यह आवश्यक नहीं है।' ग्रन्थ-नाम
शिवार्य ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में 'आराहणा' (आराधना) लिखकर ग्रन्थ को 'पाराहणा' शीर्षक देने का संकल्प किया है :
सिद्धे जयप्पसिद्धे चउन्विहाराहणाफलं पत्ते ।
वंदित्ता अरहंते, वुच्छं आराहणा कमसो ॥१॥ १. भगवती आराधना, २-६
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