Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन रामायण पउचरिउ में चरित्र चित्रण के मानदण्ड
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व्यवहार कर कृपा रहित, हिंसक एवं घोरपापी सिद्ध' होता है, वहाँ इस जैन परम्परा में वह अपने पूर्वजन्म से भी बढ़कर धार्मिक बर्तमान में वन जाता है, जब वह नारायण के द्वारा मारा जाता है । यहाँ इस प्रसंग में उपर्युक्त भेद के कारण को स्पष्ट कर देना अप्रासंगिक न होगा । वस्तुतः जैनपरम्परा में न कोई सर्वलोकमहेश्वर सनातन परमात्मा है और न अवतारवाद का सिद्धान्त ही, जिस कारण वासुदेवादि को ईश्वरावतार के रूप में स्वीकृति मिल सके और न अधार्मिकता - अनैतिकताजन्य परिस्थितियों को धार्मिकता एवं नैतिकता में परिवर्तित करना उन वासदेवादि पदों का उद्देश्य ही । यहाँ मात्र पुण्यात्मा जीव निदान के दोष से व सुदेवादि पदों को प्राप्त होते हैं और अपने प्रतिद्वन्दी का संहार कर उन पदों की सार्थकता सिद्ध करते हैं । यही कारण है कि यहाँ प्रतिद्वन्दी का मोह बस प्राण-व्यपरोपण हिंसा की श्रेणी में आ जाता है और इसी मूल हेतु से मर्माहत होने के कारण पउमचरिउ के रावणादि में न स्पष्टतः खलता का आरोप हो पाता है और न रामादि में पूर्ण सज्जनता का । वस्तुतः वाल्मीकि परम्परा में जो अन्यतम स्थान राम को मिला है, वह जैन परम्परा में तीर्थकरों को मिल सका है, वासुदेवादि को नहीं । यही कारण है कि पउमचरिउ का कवि तुलसी की तरह अपने राम के प्रति सेव्य सेवक भाव तथा श्रद्धा-भक्ति का निर्वाह नहीं कर सका है । उसकी यह भक्ति भावना तीर्थंकरों के चरण-कमलों तक ही सिमट कर रह गयी है । इसी कारण पउमचरिउ में पद्म ( पउम ) का चरित्र मानस के राम की तरह प्रकाशित नहीं हो सका है ।
पउमचरिउ परम्परा के चरित्र चित्रण की एक दूसरी विशेषता यह है कि इसमें वानर और राक्षस दोनों ही विद्याधर- वंश की दो शाखाओं के रूप में माने गये हैं, जो मनुष्य ही हैं, देव नहीं । इनकी स्वोकृति ऋषभ संतानों में हुई है । ये कामरूपधारी तथा आकाशगामी होने के साथ ही अद्भुत विद्याओं के धारक हैं और इसी कारण इन्हें विद्याधर कहा भी गया है । वाल्मीकि परम्परा इन्हें मानव अथवा विद्याधर तो नहीं कहती, किन्तु इनमें देवत्व का आरोप कर इनके दिव्य गुणों को स्वीकार करती है । हनूमान आदि वानरवीरों के चरित्र में अतिशय श्रृङ्गारिकता का आरोप पउमचरिउ परम्परा के अन्तर्गत इनके मानवी - करण के उपक्रम में किया गया है ।
उद्देश्य :
उद्देश्य के अन्तर्गत कवि का उद्देश्य और काव्य का दोनों ही समाविष्ट हैं । ये दोनों ही चरित्र चित्रण को प्रभावित करते हैं । पउमचरिउ के कवि का
१. राम० मा० बाल० दो० १७६, १७६१८, १८३.
२. पद्मचरित, पर्व २।१८९, १९०.
३. पउम० ८९।१०।४.
४. वही, ९०।७१८.
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