Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैनरामायण पउमचरिउ में चरित्र चित्रण के मानदण्ड
डा० देवनारायण शर्मा
वस्तुतः किसी भी कथात्मक साहित्य का अन्यतम तत्त्व उसके चरित्र ही होते हैं । इन्हीं के क्रियाकलापों द्वारा कथानक तथा कथावस्तु का निर्माण होता है एवं सत्य - शिव सुन्दर की भावना साकार होती है । कथा की कल्पना में ही चरित्रों की अनिवार्यता भी सन्निहित रहती है । किन्तु कथा के अन्तर्गत इन चरित्रों की स्थापना का मानदण्ड क्या हो ? यह निर्णय काव्य की परम्परा, उसके स्वरूप, कवि की रुचि तथा योग्यता और उसके काव्य- उद्देश्य पर निर्भर करता है । पर प्रस्तुत सन्दर्भ में जहाँ तक पउमचरिउ की चरित्र स्थापना के वैशिष्ट्य का सम्बन्ध है, मुख्यतः इसकी विशिष्ट परम्परा का सर्वेक्षण कर लेना ही समीचीन होगा । इस काव्य के अन्तर्गत चरित्रभेद मूलतः ब्राह्मण-भिन्न श्रमणपरम्परा से इसके पोषित होने के कारण ही हुआ है, अन्यथा इसके कवि का व्यक्तिगत झुकाव अथवा उस पर कालप्रभाव इसमें यत्र-तत्र शृंगारिक वर्णन की अतिशयता में ही दिखलायी पड़ता है, अन्यत्र नहीं । यों हम इस प्रसंग में प्रस्तुत काव्य के उद्देश्य को भी उक्त चरित्रभेद का एक कारण मान सकते हैं । इस प्रकार यहाँ पउमचरिउ रामायण- काव्य की परम्परा एवं उद्देश्य दोनों ही यथाक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं, जिन्हें हम काव्य के अन्तर्गत चरित्र-चित्रण के मानदण्ड रूप में स्वीकार कर सकते हैं ।
परम्परा :
पउमचरिउ की परम्परा के अनुसार राम, लक्ष्मण और रावण न केवल जैन धर्मावलम्बी हैं, अपितु, वे त्रिषष्टिशलाकापुरुषों के वोच भी आते हैं । ये तीनों ही सदैव समकालीन माने गये हैं । राम, लक्ष्मण और रावण की मान्यता क्रमशः आठवें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव के रूप में हैं । वासुदेव अपने बड़े भाई वलदेव के साथ प्रतिवासुदेव का वध करते हैं और तदोपरान्त दिग्विजय करके भारत के तीन खण्डों पर अधिकार प्राप्त कर अर्ध चक्रवर्ती वन जाते हैं । मरने पर वासुदेव को प्रतिवासुदेव वध के कारण नरक जाना पड़ता है । में प्रतिवासुदेव की स्थिति ही कुछ भिन्न है । जहाँ वाल्मीकि - परम्परा का रावण अपने पूर्वजन्म में धार्मिक होते हुए भी वर्तमान में उसके प्रतिकूल
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इस परम्परा
१. पउम० ३८।७।६-८.
२.
पउम० ३४।९।४-६, ९०१७१८, ८९।१०।४.
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