Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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146 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
उपनिषदोत्तर काल में उपनिषदों की धर्मभावना वेदान्त और वैष्णवइन दो भागों में विभक्त हो गई। शंकर और उनके वाद के वेदांतियों ने खुलकर पूर्वमीमांसा संप्रदाय का विरोध किया। वे वैदिक युग के यज्ञ प्रधान धर्म के कट्टर समर्थक थे। यहां तक कि वैष्णव धर्म के महान व्याख्याता रामानुज ने भी धर्म-जिज्ञासा और ब्रह्म-जिज्ञासा के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और बताया कि धर्मजिज्ञासा के पथ पर चलकर ही ब्रह्म-जिज्ञासा को प्राप्त किया जा सकता है। किंतु शंकराचार्य ने रामानुज के इस विचार का घोर विरोध किया और कहा कि धर्म-जिज्ञासा और ब्रह्म-जिज्ञासा दोनों दो भिन्न वस्तुएँ हैं। धर्म-जिज्ञासा का लक्ष्य जीवन-काल में अभ्युदय और मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की प्राप्ति है। पर ब्रह्म-जिज्ञासा का उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना है। धर्म-जिज्ञासा लोगों को याज्ञिक क्रियाकलाप और विधि-विधानों के पालन में प्रेरित करती है और ब्रह्म-जिज्ञासा उन्हें ब्रह्म को पहचानने और स्वयं ब्रह्मस्वरूप बनने की प्रेरणा देती है। ब्रह्म-जिज्ञासा के लिए किसी प्रकार के धार्मिक कर्तव्य का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः धर्म-जिज्ञासा
और ब्रह्म-जिज्ञासा में शाश्वत और क्षणभंगुर का अन्तर है जिसका ज्ञान नित्यानित्य वस्तुविवेक से हो सकता है। ब्रह्म-जिज्ञासा का साधक न केवल इस जीवन और इसके बाद के सुख-दुःख से विरक्त होता है वरन् वह आन्तरिक और बाह्य हर प्रकार से अपने ऊपर संयम करके जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
___ मीमांसकों का कहना है कि धर्म में विधि-विधान और कर्मकाण्ड की आवश्यकता है लेकिन वेदांतों का विचार है कि इसमें किसी प्रकार के विधिविधान और कर्मकाण्ड का स्थान नहीं है। इस प्रकार दोनों के विचार एक दूसरे के विपरीत हैं। वेदांतियों का सिद्धांत है कि प्रत्येक कर्म का कुछ न कुछ परिणाम होता है पर ब्रह्मज्ञान किसो भी कर्म का परिणाम नहीं हो सकता क्योंकि यह सदैव वर्तमान है और जो वर्तमान है वह परिणाम हो ही फैसे सकता है ? ब्रह्मज्ञान शाश्वत है। हाँ, वह संसाररूपी माया के आवरण से ढंका है। अस्तु, शास्त्र का एकमात्र उद्देश्य उस अवगुंठन को उठा देना है ताकि व्यवधान के हटते ही ब्रह्मज्ञान स्वतः और तुरत प्रकट हो जाय । वस्तुतः ब्रह्मज्ञान स्वतः प्रकाशित होता है । मानव अपनी शक्ति से उसे उत्पन्न नहीं कर सकता। साथ ही वह कोई मानसिक क्रिया भी नहीं है क्योंकि मानसिक क्रिया में कर्ता के करने या न करने की इच्छा निहित है। ब्रह्मज्ञान ऐसी किसी भी क्रिया से परे है। ब्रह्मज्ञान कर्म और क्रिया से रहित है। ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करनेवाला ब्रह्ममय हो जाता है।
वैष्णवों का दष्टिकोण वेदान्तियों से सर्वथा भिन्न है। वेदांती शुद्ध ज्ञान को ही सब कुछ समझते हैं पर वैष्णवों ने भक्ति और प्रेम पर वल दिया है। वैष्णव भक्त न तो स्वर्ग या स्वर्ग के सुखों का वर्णन करते हैं और न उसे श्रेयस्कर
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