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148 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 प्रणय-निवेदन करते हए तथा भक्ति-भावना का प्रदर्शन करते हुए इड़ा-पिंगला तथा सुषुम्ना का भी उल्लेख करते हैं।
तंत्र-संप्रदाय के भी कुछ अपने क्रिया-कलाप हैं तथा वहाँ भी कुछ विधिविधान की आवश्यकता बताई गई है पर हिन्दू और बौद्ध दोनों ही तंत्र-संप्रदायों ने कट्टर-संप्रदायों तथा पूजा-पाठ, कर्मकांड आदि का विरोध किया है। हिन्दूतंत्र जहाँ ब्राह्मणों के जातिवाद और वर्णाश्रमधर्म पर कुठाराघात करता है वहाँ बौद्धतंत्र में हर प्रकार के दिखावे, ढोंग, कर्मकांड आदि की खवर ली गई है। वस्तुतः तांत्रिक धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर जोर देते हैं तथा दार्शनिक और धार्मिक-हर प्रकार के शास्त्र के पठन-पाठन, व्यर्थ के पांडित्य और ढोंग को निन्दा करते हैं। तंत्र में योग पर भी बल दिया गया है जहाँ किताबी ज्ञान का कुछ भी महत्त्व नहीं हैं। तांत्रिकों की कुछ अपनी मान्यताएं थीं और उन मान्यताओं का समर्थन करने के साथ-साथ उन्होंने ब्राह्मणों और बौद्धों के रीति-रिवाजों को खुलकर आलोचना की है। तांत्रिकों के सिद्धान्त शास्त्रविहित मान्यता और परम्परा से जरा भी मेल नहीं खाते थे। अतः उन्होंने अन्य मतावलम्वियों और और उनके मतवादों की कसकर खवर ली है । तन्त्र-सम्प्रदाय की आलोचनात्मक और विद्रोही प्रवृत्ति इानी प्रबल हुई कि वौद्ध सहजिया सिद्धों ने भी इस प्रवृत्ति को आगे बढ़कर अपनाया।
कट्टर ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की आलोचना पात्मवादी और अनात्मवादी दोनों ने की है । यद्यपि अधिकांश आलोचक आत्मवादी ही हैं तथापि सबसे बड़ी तीखो और झकझोर देनेवाली आलोचना अनात्मवादियों ने को। इन अनात्मवादियों में जैनों और बौद्धों की अपेक्षा चार्वाक का स्वर अधिक विद्रोही और परम्परामुक्त है। चार्वाक अनात्मवादी के साथ-साथ भौतिकवादी भी थे। वे भौतिक पदार्थ को ही सब कुछ मानते थे। उनका स्पष्ट विचार है कि इस शरीर के भस्म होने पर पुनः कोई लौटकर इस संसार में नहीं आ सकता । अतः खाना-पीना और आनन्द मनाना चाहिये । वे कहते हैं कि यदि ज्योतिष्तोम यज्ञ में बलि पानेवाला पशु स्वर्ग जाता है तो वलि देनेवाला अपने पिता की ही वलि क्यों नहीं दे देता ताकि विना किसी कष्ट के वह स्वर्ग चला जाय ? यदि मृतात्मा को भोजन, पानी, दान आदि देने से उसे संतुष्टि और तृप्ति मिलतो है तो बुझे हए दिए में तेल डालने से प्रकाश फैलना चाहिये । यदि दान देने से अन्न मृतात्मा के पास पहुँचता है तो घर में भोजन देने पर रास्ते में पथिक की भूख मिट सकती है। यदि पृथ्वी पर दान देने से स्वर्ग में गए प्राणी को संतोष और सुख मिल सकता है तो मकान के निचले तल्ले पर रखी वस्तुएं ऊपर के तल्ले पर रहनेवाले मनुष्य को आपसे आप मिल जानी चाहिये । चार्वाक दर्शन के इस विचार से "विष्णुपुराण" के कुछ अंशों को आश्चर्यजनक समानता मिलती है।
१. सर्वदर्शन संग्रह-भाग-१-पृ०-१४. २. वही-माग-१-पृ० १३-१४.
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