Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत
मानते हैं। संसार से विरक्ति और मुक्ति को वे हेयदृष्टि से देखते हैं । ईश्वर के प्रति उद्दाम प्र ेम का वर्णन उन्होंने किया है और उस प्रेम पर अपने को निछावर कर देना वे अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझते हैं । वैष्णवों के अतिरिक्त शैव और शाक्त भी प्रेम को महत्त्वपूर्ण मानते हैं । किन्तु वेदांती, वैष्णव प्रौर शाक्त सभी कर्म के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं । कर्म के इसी सिद्धांत के कारण दैवी कृपा की भावना का विकास हुआ। आगे चलकर वैष्णवों की प्रेमसाधना में इस दैवी कृपा की भावना का पूर्ण परिपाक दीख पड़ता है । संहिता और ब्राह्मण में ईश्वर की कृपा की कोई गुंजाइश नहीं थी पर उपनिषद् में स्थानस्थान पर ईश्वर की कृपा को सब कुछ मान लिया गया है । “कठोपनिषद्” में कहा गया है कि आत्मा का ज्ञान वड़ी-बड़ी उक्तियों से, शास्त्रों के श्रवण या उनको रटने से नहीं हो सकता । यह तो उसे ही मिल सकता है जिसके सामने यह अपने आपको प्रकट करे ।' यहाँ दैवी इच्छा का वीज स्पष्ट रूप से दिखाई देता है । वाद में दैवी इच्छा की इस भावनां का इतना विकास हुआ कि भक्त साधकों ने ईश्वर के हाथों में आत्म-समर्पण करना अपना सबसे बड़ा कर्तव्य माना । आठवीं-नौवीं शताब्दी तक वैष्णवों की आत्मा समर्पण की इस भावना का आधिपत्य रहा । भोजन, वस्त्र, ध्यान, कर्मकाण्ड आदि का महत्त्व केवल इतना ही था कि वे साधक की मानसिक दशा को ग्रात्म-समर्पण के योग्य बना देते थे । " भागवत पुराण" में शुद्ध प्रेम को सर्वोत्तम और सबसे महान् बताया गया है क्योंकि इसके माध्यम से ईश्वर का सानिध्य बहुत शीघ्र और अवश्यमेव मिल सकता है । तभी तो श्री कृष्ण के प्रति उद्दाम प्रेम के कारण वृंदावन की गोपियों को सबसे अधिक धार्मिक प्राणी माना गया है । आगे चलकर भक्ति के दो रूपों - वैधी और रामानुगा भक्ति में वैधी भक्ति को प्रथम की तुलना में बड़ा ही निष्कृष्ट और हेय स्थान दिया गया है । यही कारण है कि प्रेम की तन्मयता और शुद्धता के कारण चांडाल को ब्राह्मण से कहीं श्रेष्ठ माना गया है ।
वैष्णवों ने जहाँ प्रेम को सब कुछ मान लिया वहाँ योग-संप्रदाय ने योग और यौगिक क्रिया को ही सिद्धि का एकमात्र साधन माना है । योगी धर्म के प्रांतरिक स्वरूप पर बल देता है और मानता है कि हठयोग का आश्रय लेकर साधक आवागमन के बंधन से मुक्त हो सकता है । मानसिक वृत्तियों का निरोध योगी का प्रधान लक्ष्य है इसीलिए साधकों में वह मनोवैज्ञानिक अनुशासन की भावना लाना चाहता है। इस योग संप्रदाय का भी अद्भुत विकास भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में हुआ । यहाँ तक कि वैष्णव भी योग की इस भावना सेन वच सके । आगे चलकर सिद्ध साहित्य में हम पाते हैं कि हठयोग प्र ेम और भक्ति के साथ एक मणिकांचन सूत्र में आबद्ध है । तभी तो सरह, लुइ, काल, कृष्णपाद आदि वज्रयानी साधक शवरी, डोम्बी और चांडाली आदि के प्रति
१. कठोपनिषद् १/२/२२
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